(यह फोटो प्रख्यात कथाकार, कवि उदय प्रकाश के कैमरे से है.) |
महत्वपूर्ण आलोचक विचारक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह संस्मरण जे.एन.यू. और नामवर सिंह पर है. इसे एक सम्मोहक पर विचारोत्तेजक लिटरेरी पीस की तरह भी पढ़ा जा सकता है, जहाँ विश्वविद्यालय की अपनी ख़ास रंगत और जायका है वही गुरु नामवर सिंह का साथ और सीख भी. नामवर सिंह की अनप्रिडक्टिबिलिटी के कुछ गजब उदाहरण है तो स्वयं की वैचारिक यात्रा और उसके कील कांटे भी.
गरज़ की पहली फुर्सत में पढ़ने और गुनने योग्य संस्मरण.
जे.एन. यू और नामवर सिंह
पुरुषोत्तम अग्रवाल
सफेद हाथी
1987 में जब नामवर जी साठ साल के हुए, ज्ञानरंजन ने ‘पहल’ का अंक उन पर केन्द्रित किया था. मुझे भी उस अंक में लिखने का सौभाग्य मिला, मैंने लिखा, ‘वे सिर्फ पढ़ाते नहीं, सिखाते हैं.’ यही लेख सुधीश पचौरी ने ‘नामवर के विमर्श’ (1995) में पुनः प्रकाशित किया. फिर नामवर जी के पचहत्तर वर्ष पूरे करने पर, 2002 में अमृत महोत्सव कार्यक्रम में प्रभाष जी और केदार जी के आदेश पर भाषण दिया, जिसे ओम थानवी ने ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित किया. यह भाषण नामवर जी के व्यक्तित्व के बारे में नहीं, ‘दूसरी परम्परा की खोज’ के बारे में था, कुल मिलाकर आलोचनात्मक. नामवर जी के व्यक्तित्व के बारे में तो पूरे बाइस साल बाद ही लिख रहा हूँ. आशा है कि जब वे एक सौ एक वर्ष के होंगे, तब भी उनके बारे में कुछ लिखने के लिए मैं उपलब्ध रहूँगा.
यह लेख जे.एन.यू. के नामवर जी के बारे में है. भारतीय भाषा केन्द्र की विशेषताओं, कोर्सेज, अध्यापकों के बारे में नहीं, यह लेख जे.एन.यू. के जे.एन.यू.पन और नामवर जी के नामवरपन के बारे में है. ऐसे व्यक्ति का हलफनामा है यह लेख-जिसे अपने जे.एन.यू.आइट होने पर आज तक बेधड़क अभिमान है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नामवर जी के निकट है, लेकिन खुद जिसे ऐसा कोई मुगालता नहीं.
नामवर जी सन् चौहत्तर में जे.एन.यू. आए; भारतीय भाषा केन्द्र को नामवर जी ने बनाया. सोचना यह चाहिए कि जे.एन.यू. ने नामवर जी को, और अनेक अध्यापकों, छात्रों, कर्मचारियों, नागरिकों को बनाने में कोई विशेष भूमिका निभाई या नहीं? यों तो जे.एन.यू. भी एक और यूनिवर्सिटी ही थी और है, लेकिन क्या सचमुच जे.एन.यू. के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता? कुछ संस्थाएँ किसी समाज में मानक का दर्जा क्या यों ही हासिल कर लेती हैं?
शान्तिनिकेतन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बी.एच.यू., ए.एम.यू., सागर, जामिया, जे.एन.यू. ये सब क्या सिर्फ इमारतें हैं? या ये सपने हैं-जागती आँखों सपने देखने के आदी, ‘विचित्र’ लोगों द्वारा देखे गए सपने. ऐसे सपने जिन्हें देखना और जिनकी ताबीर करना जितना मुश्किल है, चौपट कर देना उतना ही आसान. जे.एन.यू. ने इतने दिनों तक खुद को बचाए रखा, यह क्या भावुक हो जाने लायक बात नहीं? खासकर इन दिनों जबकि जे.एन.यू. गोया खुद ही अपनी निजी पहचान से पिंड छुड़ाकर भीड़ में शामिल होने को व्याकुल दिख रही है.
शान्तिनिकेतन, आई.आई.एस., बी.एच.यू., सागर, जामिया-ये सब सपने इतिहास के एक खास मोड़ पर देखे गए सपने थे. राजनैतिक के साथ-साथ बौद्धिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता भी हासिल करने की हौंस रखनेवाले समाज में कुछ शानदार शख्सियतों द्वारा देखे गए सपने. जे.एन.यू. भी एक सपना था. ऐसे समय में देखा गया सपना जो अब ‘रेस्टलेस सिक्सटीज’ के नाम से इतिहास में दर्ज हो चुका है. साठ के उस दशक की वह विश्वव्यापी बेचैनी सत्तर के दशक तक भी सच ही लगती थी. यह प्रति संस्कृति (काउंटर कल्चर) का दौर था. जे.एन.यू. में जो बोहेमियनपन था, वह इस काउंटर-कल्चर ही की उपज था. काउंटर कल्चर का ही एक पक्ष है-दूसरी परम्परा (अदर टैडीशन) की खोज. संयोग नहीं कि इस नाम की पुस्तक ‘जे.एन.यू. के नामवर जी’ ने ही लिखी. इस पुस्तक में भी, और उन दिनों के जे.एन.यू. में भी, वर्चस्व की संस्कृति का केवल विरोध नहीं था, विकल्प खोजने और रचने की छटपटाहट भी थी. इस अर्थ में नामवर जी की पुस्तक ‘दूसरी परम्परा की खोज’ भी खाँटी जे.एन.यू.-आइट है.
बहरहाल, प्रतिवाद, प्रतिरोध और विकल्प-रचना की इस विश्वव्यापी संस्कृति के प्रति अलग-अलग लोगों के अलग-अलग रवैये थे. विश्व-व्यवस्था का अपना तरीका था, विश्वव्यापी बेचैनी से निपटने का. जैसा कि नामवर जी ने ही एक बार क्लास में कहा था, ‘पूँजीवाद में क्रान्ति भी बिकती है. चे ग्वेवरा की तस्वीरों वाली कमीजों से लेकर उनकी डायरियाँ तक अमेरिकी बाजार में बहुत लोकप्रिय हैं.’ लेकिन इसी व्यवस्था में गुंजाइश निकलती है प्रतिरोध की. प्रतिरोध के लिए पहले चाहिए बोध. संसद में जे.एन.यू. का प्रस्ताव पेश करते समय सरकार के मन में जो भी रहा हो, जी. पार्थसारथि और मूनिस रज़ा जैसे लोगों ने जे.एन.यू. का सपना एक ऐसी यूनिवर्सिटी के रूप में ही देखा जहाँ बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक में व्याप्त बेचैनी को व्यवस्था और विरासत दोनों के बेहतर बोध में बदला जा सके.
जिन विशेषताओं ने जे.एन.यू. को जे.एन.यू. बनाया, वे आकाश से नहीं टपक पड़ी थीं. बल्कि शायद कल्पना के आकाश में तो वे थीं, उन्हें अरावली की पहाड़ियों पर उतार लाना बड़ा काम था. मुझे तो मूनिस रज़ा से ठीक से बात करने का भी मौका कभी नहीं मिला, लेकिन उनके विट के किस्से कई सुने हैं. ऐसा ही एक किस्सा यह है कि शुरुआती दिनों में प्रोफेसरों की किसी गप-गोष्ठी में मूनिस साहब नया कैम्पस विकसित करने की समस्याओं पर बात कर रहे थे. बोले, ‘‘भई सब कुछ सिरे से ही शुरू करना होगा. अभी तो आलम यह है कि पहाड़ियों पर उल्लू बोलते हैं.’’ किन्ही प्रोफेसर साहब ने जुमला जड़ा, ‘‘अच्छा है, अभी तो बस बोलते हैं, कुछ दिनों बाद पढ़ाएँगे.’’
‘‘लेकिन आपको तो हम एपॉइंट ही नहीं कर रहे, पढ़ाएँगे कैसे?’’-मूनिस साहब की तरफ से नहले पर दहला आया.
आत्म-साक्षात्कार का वह पल उन प्रोफेसर साहब पर कैसा गुजरा होगा, यह कल्पना आप कर लीजिए.
अभी पिछले ही दिनों एक मित्र ने कहा कि जे.एन.यू. में मुझे अब तक परायापन लगता है. जिस यूनिवर्सिटी में मैंने एम.ए. किया, वहाँ बिलकुल अपने गाँव जैसा लगता था. बात ठीक ही है. हाँ, उनके हिसाब से जो कमजोरी है, मुझे वही जे.एन.यू. की सबसे बड़ी ताकत लगती है. अंग्रेजी में यूनिवर्सिटी और हिन्दी में विश्वविद्यालय जिस जगह का नाम हो, वहाँ पहुँचकर भी आपको लगे कि आप अपने गाँव या मोहल्ले से बाहर निकल ही नहीं पाए, तो यह चिन्ता की बात है. आपके लिए भी. यूनिवर्सिटी के लिए भी. जे.एन.यू. का नयापन शुरू में जरूर अटपटा लगता था, कुछ लोगों को शायद ‘पराया’ भी लगता हो, लेकिन जे.एन.यू. की खूबी यह थी कि यह किसी को पराया नहीं समझती थी.
शैक्षणिक संस्थाओं में नए छात्रों से परिचय करने के लिए ‘रैगिंग’ की विधि से हम सब वाकिफ हैं. अब तो यह बाकायदा अपराध की श्रेणी में है. लेकिन जे.एन.यू. में नए छात्रों के ‘पराएपन’ और अपरिचय को दूर करने के लिए रैगिंग कभी मान्य विधि नहीं रही. नए छात्र जे.एन.यू. में आतंकग्रस्त तुच्छ जनों जैसा नहीं, शब्दशः ‘वी.आई.पी.’ जैसा महसूस करते थे. किसी हद तक अभी भी करते हैं. इस बात का क्या महत्त्व है, यह मेरे जैसे छोटे शहरों से आए विद्यार्थी भली-भाँति समझते हैं. इस बात का क्या मानवीय मोल है, यह उन लड़के- लड़कियों के माँ-बाप से पूछिए जिन्होंने रैगिंग के आतंक और यातना के दबाव में आत्महत्याएँ की हैं.
शैक्षणिक संस्थाओं में नए छात्रों से परिचय करने के लिए ‘रैगिंग’ की विधि से हम सब वाकिफ हैं. अब तो यह बाकायदा अपराध की श्रेणी में है. लेकिन जे.एन.यू. में नए छात्रों के ‘पराएपन’ और अपरिचय को दूर करने के लिए रैगिंग कभी मान्य विधि नहीं रही. नए छात्र जे.एन.यू. में आतंकग्रस्त तुच्छ जनों जैसा नहीं, शब्दशः ‘वी.आई.पी.’ जैसा महसूस करते थे. किसी हद तक अभी भी करते हैं. इस बात का क्या महत्त्व है, यह मेरे जैसे छोटे शहरों से आए विद्यार्थी भली-भाँति समझते हैं. इस बात का क्या मानवीय मोल है, यह उन लड़के- लड़कियों के माँ-बाप से पूछिए जिन्होंने रैगिंग के आतंक और यातना के दबाव में आत्महत्याएँ की हैं.
जे.एन.यू. का ‘अपराध’ यह अवश्य था कि यह अपने गाँव की याद दिलाती नहीं, आत्मसजग रूप से ‘कॉस्मोपॉलिटन’ होने का प्रयत्न करती संस्था थी, अपने सदस्यों को भी वैसा ही बनाने का प्रयत्न करती संस्था थी. केवल अंग्रेजी को खुले मन का अकेला प्रतीक उन दिनों के जे.एन.यू. में कभी नहीं माना गया, अंग्रेजियत की बातें करनेवाले कितनी भी करते रहें. हाँ, यह सही है कि अंग्रेजी के खिलाफ जिहाद को ही लोकतान्त्रिक होने का पर्याप्त प्रमाण भी नहीं माना जाता था. लोकतान्त्रिक मिजाज इसमें झलकता था कि जो अंग्रेजी नहीं जानते थे, उनके नाम जे.एन.यू. में नोटिस बोर्ड पर नहीं लगा दिए जाते थे, जैसे कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ में आजकल लगा दिए जाते हैं.
अंग्रेजी की हो, या किसी और तरह की, असुविधाएँ दूर करने का प्रयत्न लोगों के आत्म-सम्मान की चिन्ता करते हुए ही किया जाता था. कॉस्मोपॉलिटन होने की परख फैन्सी अंग्रेजी बोलने के आधार पर नहीं, कुछ अन्य आधारों पर हुआ करती थी-इस बात का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण तो वह सम्मान ही है, जो नामवर जी को जे.एन.यू. समुदाय के हर हिस्से से प्राप्त था और है.
अंग्रेजी की हो, या किसी और तरह की, असुविधाएँ दूर करने का प्रयत्न लोगों के आत्म-सम्मान की चिन्ता करते हुए ही किया जाता था. कॉस्मोपॉलिटन होने की परख फैन्सी अंग्रेजी बोलने के आधार पर नहीं, कुछ अन्य आधारों पर हुआ करती थी-इस बात का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण तो वह सम्मान ही है, जो नामवर जी को जे.एन.यू. समुदाय के हर हिस्से से प्राप्त था और है.
बढ़िया अंग्रेजी न जानने के कारण, कम-से-कम उन दिनों के जे.एन.यू. में एहसासे कमतरी की सम्भावना न के बराबर थी, कोई गाँव से ही ग्रन्थियों की गठरी लेकर चला आया हो, तो बात अलग है. मुझे खुद अपने अंग्रेजी ‘ज्ञान’ के तो कई चुटकुले आज तक याद हैं, लेकिन उनके कारण कभी मेरी खिंचाई की गई हो, ऐसा कोई प्रसंग याद नहीं, बल्कि हर लड़की दोस्त को ‘गर्लफ्रेंड’ नहीं कहा जाता, यह मुझे बड़े प्यार से मेरे अंग्रेजीदाँ दोस्तों ने ही बताया था. हाँ, जब मैं अच्छी-खासी अंग्रेजी बोलने-लिखने लगा था, अध्यापक हो चुका था, तब जरूर छात्रों के एक कार्यक्रम में मेरे अंग्रेजी ज्ञान और लहजे की खिल्ली, मेरे सामने ही उड़ाई गई थी. मेरे छात्र रामचन्द्र की व्याख्या के अनुसार, यह शब्द और कर्म दोनों में मेरे बहुत मुखर रूप से दलित समर्थक होने का ‘दंड’ था. खैर, यह दंड देनेवाले वे छात्र निश्चय ही ‘क्वींस इंग्लिश’ बोलते रहे होंगे, वह भी ठेठ ‘ऑक्सोनियन’ लहजे में. वे नहीं, तो उनके संरक्षक अध्यापक तो बोलते ही रहे होंगे- ‘नॉन’ को ‘नन’ और ‘बॉडी’ को ‘बडी’ में बदलते हुए. यह घटना नामवर जी के रिटायरमेंट के बाद की है. 1993 की.
नामवर जी के सम्बन्ध अपने सभी अध्यापक साथियों के साथ अच्छे ही नहीं थे. सभी का दिल से सम्मान भी वे नहीं करते थे. लेकिन मजाल है कि औपचारिक कार्यक्रम तो दूर की बात, अनौपचारिक रूप से भी कोई नामवर जी के सामने किसी अध्यापक साथी की शान में गुस्ताखी कर सके. यही बात उस वक्त के कई वरिष्ठ प्रोफेसरों के बारे में कही जा सकती है. अपनी उपस्थिति मात्र से नामवर जी और उन दिनों के जे.एन.यू. के अन्य प्रोफेसर ‘सिर्फ पढ़ाते नहीं सिखाते’ थे, सिखाते हैं. मुझे याद है, प्रो. शेषाद्रि डीन ऑफ स्टूडेंट्स वेल्फेयर होते थे. एक बार छात्र नेता के धर्म का निर्वाह करते हुए मैंने उनसे कुछ बातें ऊँची आवाज में कह दी थीं. शाम को ही नामवर जी ने तलब कर लिया. इतने सख्त ढंग से वे आम तौर से बोलते नहीं, जितने से उस दिन बोले. हालाँकि जब मैंने अपना पक्ष रखा तो थोड़े शान्त हुए. बहरहाल, महत्त्वपूर्ण तो वह गुरुमंत्र था, जो अन्ततः प्राप्त हुआ-‘‘पुरुषोत्तम जी, विनम्रता और दृढ़ता में कोई विरोध नहीं हुआ करता, यह याद रखिए.’’
बात चल रही थी, अंग्रेजियत की. अंग्रेजी माध्यम थी जे.एन.यू. में अध्यापन- अध्ययन, राजनैतिक-सांस्कृतिक जीवन की. धीरे-धीरे जब जे.एन.यू. की ही प्रवेश- नीति के कारण हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्रों की संख्या बढ़ती गई, तो स्थिति भी बदलती गई. लेकिन, किसी को आँकने का, किसी की खिल्ली उड़ाने का जरिया बनने का सौभाग्य अंग्रेजी ज़बान को नामवर जी की पीढ़ी के रिटायरमेंट और जे.एन.यू. के धीरे-धीरे रूपान्तरण के बाद ही मिला. उन दिनों तो कामरेड पशुपतिनाथ सिंह अपनी अत्यन्त ‘लोकतान्त्रिक’ अंग्रेजी के साथ ही ए.आई.एस.एफ. के सम्मानित नेता हुआ करते थे. स्पोर्ट्स ऑफिसर टोकस साहब की अंग्र्रेजी तो किसी भी अंग्रेज को हत्या या आत्महत्या पर उतारू कर देने के लिए काफी थी-‘‘प्ले, डू नॉट प्ले. वाट माई फादर्स गोज़, वाट एवर गोज़, योर फादर्स गोज़. यू नो, योर वर्क नोज़.’’
उन दिनों के माहौल को समझे बिना ही कुछ लोग जे.एन.यू. की ‘अंग्रेजियत’ के विरुद्ध जिहाद मुद्रा में रहते थे. ऐसे ही एक सज्जन हम लोगों के किसी जूनियर बैच में पटने से पधारे थे. बात-बात में अंग्रेजी और जे.एन.यू. की अंग्रेजियत को कोसते ये महानुभाव नामवर जी की ही तरह धोती-कुर्ता पहनते थे. इस आधार पर वे स्वयं को नामवर सिंह द्वितीय मनवाने के फेर में भी रहते थे. हालाँकि हमारे लिए वे ‘जायका’ ही थे. हम लोग अपने सीनियर पंडित घनश्याम मिश्र का धोती-कुर्ता मंडित और चौधरी रामवीर सिंह तथा मौलाना अनीस का अचकन-चूड़ीदार सज्जित व्यक्तित्व देखे हुए थे. इसलिए इन सज्जन द्वारा बजरिए पोशाक दिए जा रहे सांस्कृतिक वक्तव्य की मौलिकता पर हमारा कोई ध्यान नहीं था. गोरख पांडे, आनन्द कुशवाहा, शन्ने मियाँ और रमाशंकर विद्रोही पर ध्यान था तब के जे.एन.यू. का, तो उनकी पोशाक के कारण नहीं, शख्सियत के कारण था. ध्यान देने या न देने का यह चुनाव ही जे.एन.यू. की ओर से वक्तव्य था. वैसा ही जैसा अष्टावक्र ने जनक की राजसभा में दिया था-‘हम कपड़े से या चमड़े से नहीं, सामर्थ्य से परखते हैं, इनसान को.’
नामवर जी को भी जे.एन.यू. ने उनके धोती-कुर्ता से नहीं, सामर्थ्य से ही परखा था. नियुक्ति की नहीं, मैं बात परख की कर रहा हूँ. नियुक्तियाँ तो और भी हुईं, और कुछ ‘जायकों’ की भी हुईं. बात नियुक्ति की नहीं, जो सम्मान नामवर सिंह, रोमिला थापर, विपिन चन्द्र, योगेन्द्र सिंह आदि को मिला-उसकी है.
लेकिन बड़े-बड़े विद्वान तो और विश्वविद्यालयों में भी रहे हैं, अभी भी हैं. इसमें ऐसी बड़ी बात क्या है?
जे.एन.यू. केवल शीर्षस्थ विद्वानों को नियुक्त करके ही तो निश्चय ही जे.एन.यू. नहीं बन गई. जे.एन.यू. जे.एन.यू. बनी क्योंकि नामवर जी जैसे लोग सचेत भाव से जे.एन.यू. वाले बने, जे.एन.यू. को बनानेवाले बने.
जिन दिनों जे.एन.यू. बन रही थी, उन दिनों की जे.एन.यू. की सबसे बड़ी तारीफ उस हिकारत में ही छिपी थी, जिसके साथ जे.एन.यू. को ‘सफेद हाथी’ या (दीन-दुनिया से बेखबर) ‘टापू’ कहा जाता था. जे.एन.यू. को सफेद हाथी कहनेवाले नहीं जानते थे कि भारतीय परम्परा में सफेद हाथी एक ही माना गया है-ऐरावत. करोड़ों काले हाथियों के बरक्स एक अकेला सफेद हाथी-ऐरावत.
जे.एन.यू. सचमुच सफेद हाथी था. पचीसों नई-पुरानी, महान-सामान्य यूनिवर्सिटीज के बीच एक अकेला, अनोखा जे.एन.यू..
कहनेवाले नहीं जानते थे कि व्यंग्य करके भी वे जे.एन.यू. का माहात्म्य-वर्णन ही कर रहे हैं. वे बेचारे तो यूरोप के अवज्ञापूर्ण मुहावरे का देशी अनुवाद भर कर रहे थे. ऐरावत को जानते होते या उन हाथियों के रंग के बारे में सुना होता जो सिद्धार्थ को गर्भ में धारण किए जननी के सपनों में दिखते थे, तो शायद कोई और शब्द गढ़ते. लेकिन उससे भी क्या फर्क पड़ना था. किसी की निन्दा को विश्वसनीय बनाने के लिए भी तो उसकी विलक्षणता पर ध्यान देना ही पड़ता है. सो, कहनेवाले जो भी कहते, इतना तो जरूर ही कहते कि जे.एन.यू. विलक्षण था. ‘ह्नाइट एलीफैंट’ कह लो, ‘आइलैंड’ कह लो, बता तो यही रहे हो कि ‘है बात कुछ ऐसी…’
क्या थी वह बात?
और क्या था नामवर जी का, उनकी पीढ़ी का योगदान उस बात में?
व्हाट इज़ टु बी डन?
क्यों लिखना पड़ा पिछला वाक्य भूतकाल में? क्यों दर्द-सा होता है, इस वाक्य को ‘है’ की बजाय ‘थी’ के साथ खत्म करने में? आज जे.एन.यू. उस बात के कितना करीब है और कितना दूर? और जो भी है, हुआ करे, जे.एन.यू. के बाहर के लोगों को क्या फर्क पड़ना चाहिए? जे.एन.यू. वाले रोते रहें सुनहरे दिनों को, घमते रहें अपने ‘नास्टेल्जिया’ में-बाकी लोगों को क्या?
हमारे एक मित्र थे, नहीं मित्र नहीं, बस परिचित. यार लोग उन्हें सर्जनात्मक दुष्ट भाव से ‘धारा तीन सौ सतहत्तर’ कहा करते थे. कसम से, मैंने कभी नहीं कहा. मैं तो उन दिनों भी धारा तीन सौ सतहत्तर को समाप्त करने का, समलैंगिकों- विषमलैंगिकों-उभयलैंगिकों सबों के समानाधिकारों का समर्थक था, आज भी हूँ. खैर, ये जो ‘तीन सौ सतहत्तर’ के नाम से विख्यात सज्जन थे, ये थे तो जे.एन.यू. में ही, लेकिन इन्हें अपना पुराना विश्वविद्यालय ही सर्वोत्तम लगता था. कहते थे, ‘जे.एन.यू. में ऐसे क्या लाल लटके हैं? लोग बेमतलब में सेंटी होते रहते हैं-जे.एन.यू., जे.एन.यू.’.
प्रसंगवश, इन सज्जन को धारा तीन सौ सतहत्तर का अभिधान देने में ही नहीं, जे.एन.यू. की भाषिक सर्जनात्मकता अन्य रूपों में भी अभिव्यक्ति पाती थी. ऊपर जिनका जिक्र आ चुका है, उन कामरेड पशुपति को एक अन्य कामरेड अश्विनी गौड़ यत्नसाधित उच्चारण दोष के साथ, ‘पशुपक्षी’ कहा करते थे.
चुनाव के दौरान नारे गढ़ने के लिए तो ऐसी सर्जनात्मकता बहुत आवश्यक थी. इस मामले में सब पर भारी पड़ते थे-एस.एफ.आई. के दादा अबरोल. एस.एफ.आई. की ओर से अध्यक्ष पद के लिए खड़े होनेवाले उम्मीदवारों के नामों पर नारे गढ़ने में वे उस्तादों के उस्ताद थे. ‘बड़ी लड़ाई, ऊँचा काम-सीताराम सीताराम’; ‘तोड़ेगा सब बाधा बन्धन-डी रघुनन्दन डी रघुनन्दन’ जैसे अमर नारे दादा अबरोल ने ही गढ़े थे. लेकिन सबसे जोरदार चुनौती दादा अबरोल की प्रतिभा के सामने तब आई, जब एस.एफ.आई. ने रमेश दधीच को उम्मीदवार बना दिया. आप ही बताइए, ‘दधीच’ को सुर में लानेवाला नारा क्या हो सकता है? लेकिन दादा तो दादा थे-नारा गढ़ा- ‘हमारे बीच, तुम्हारे बीच-रमेश दधीच, रमेश दधीच.’
दादा अबरोल की नारा-प्रतिभा जितनी असंदिग्ध थी, राजनैतिक और बौद्धिक समझ, कुछ लोगों के हिसाब से उतनी ही संदिग्ध. ऐसे सन्देहवादी दादा के अपने संगठन एस.एफ.आई. में भी कम न थे. इनमें से ही एक थे, स्व. दिलीप उपाध्याय. दादा की समझ के प्रति अपने तथा बहुत से अन्य लोगों के सन्देह को दिलीप उपाध्याय ने दादा की नारा-प्रतिभा को टक्कर देते हुए एक नारे में ही ढाला-‘लाइन लम्बी फंडे गोल-दादा अबरोल, दादा अबरोल.’
खैर, यह तो विषयान्तर हो गया, प्रकृत प्रसंग यह कि धारा तीन सौ सतहत्तर के नाम से मशहूर साहब आज बहुत याद आ रहे हैं. जहाँ भी हों, सुखी हों, और सोचे कि खुद उनमें कुछ लाल लटकाने में जे.एन.यू. को कामयाबी मिली या नहीं. मैं तो पिछले कई बरसों से यह सोचता रहा हूँ कि क्या दिया जे.एन.यू. ने हमारी पीढ़ी को-क्या थी वह बात जो आज भी नाज करने को प्रेरित करती है? क्या था नामवर जी का खुद का, और उनके जैसे दूसरे अध्यापकों का, और विद्यार्थियों का, कर्मचारियों का योगदान जे.एन.यू. को ऐसा बनाने में कि उसकी महिमा याद करते भावुक होने में संकोच नहीं होता.
यों तो इस प्रसंग में जे.एन.यू. का इतिहास भी लिखा जा सकता है, और समाजशास्त्र भी. लेकिन फिलहाल कुछ मजेदार घटनाएँ याद करके ही इस सवाल का जवाब तलाश करें. कोई ‘आउटसाइडर’ कमल कॉम्प्लेक्स पर कुछ बदमाशी करता पकड़ा गया. मेरे जैसे नए-नए आए लोगों को अपने संस्कारों से ही पता था कि ‘स्टूडेंट कम्युनिटी’ ऐसे तत्त्वों का उपचार किस विधि से करती है. वह सर्वमान्य विधि न भी अपनाई जाए तो इस बदमाश को पुलिस के हवाले तो तुरन्त किया ही जाना चाहिए. लेकिन अद्भुत था यह ‘टापू’, यह ‘सफेद हाथी’.
हम नवागतों के अज्ञान पर काबू करने के लिए सभी संगठनों के कोई-न-कोई प्रतिनिधि एकाएक प्रकट हो गए. वहीं अनौपचारिक ‘ऑल ऑर्गनाइजेशन मीटिंग’, बल्कि छोटी-सी जी.बी.एम. (छात्र संघ की साधारण सभा) शुरू हो गई. विमर्श का विषय वही था जिससे कॉमरेड लेनिन ने अपनी उस पुस्तक का शीर्षक लिया है-क्या करें? व्हाट इज़ टु बी डन? पिटाई का तो खैर सवाल ही नहीं. हिंसा अपने आप में तो क्रान्तिकारियों के बीच क्या विवादास्पद होती, लेकिन एक वामपंथी, क्रान्तिकारी समुदाय गम्भीर राजनैतिक उद्देश्य के लिए की जानेवाली उचित हिंसा और भीड़ की तुच्छ हिंसा में फर्क करेगा या नहीं? खासकर तब जबकि इस सर्वहारा (जी, हाँ, इस तथा ऐसे अन्य शब्दों का व्यवहार उन दिनों के जे.एन.यू. के दैनन्दिन जीवन में वाकई होता था!) के अपराध का मूल कारण तो यह व्यवस्था ही है. उसी बूर्ज्वा/सेमी बूर्ज्वा, सेमी लैंडलॉर्ड/कम्प्रोडोर बूर्ज्वा व्यवस्था की दमनकारी बाहु (‘रिप्रेसिव आर्म’)-दिल्ली पुलिस को कैम्पस में आने का न्यौता देना क्या व्यवस्था को वैधता देना नहीं होगा?
उस ‘अपराधी’ के चेहरे का भौचक्कापन मैं कभी भूल नहीं सकता. उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसकी साधारण बदमाशी ऐसी गम्भीर बहस को जन्म दे देगी. वह तो मन-ही-मन शायद मना रहा होगा कि यार! जो थप्पड़-लप्पड़ जमाने हैं, जमा कर या पुलिस के हवाले कर मेरा पिंड छोड़ो. उसे नहीं पता था कि वह हर बात को व्यापक सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य में रखने की जे.एन.यू. संस्कृति की गिरफ्त में आ चुका है. बेचारा भौचक्का खड़ा देखता रहा. विद्यार्थियों के गोल घेरे के बीच और जब थक गया तो वहीं बैठ गया. इसी सांस्कृतिक आदत के चलते, एक बार जब हैल्थ सेन्टर खुलने में आधे घंटे से भी अधिक की देर हो गई, तो इन दिनों पेरिस में निवास कर रहे और उन दिनों जे.एन.यू. में त्रात्स्कीपंथी सिद्धान्तकार कुं. विजय सिंह इस निष्कर्ष पर पहुँच गए थे कि भारत में शासक वर्गों का आन्तरिक संकट असाध्य दशा तक पहुँच गया है. हैल्थ सेन्टर तक को जो व्यवस्था वक्त पर नहीं खोल सकती, वह कितने दिन चलेगी? इलाज न हो पाने पर भी, वे इस शुभ संवाद से बहुत देर तक प्रसन्न रहे.
लेकिन जे.एन.यू. कल्चर का अर्थ सिर्फ ऐसी रोचक घटनाओं में ही नहीं, इन बातों में भी खुलता था कि इसी के चलते जे.एन.यू. में छात्र-संघ के चुनाव मेस में खाने की विविधता जैसे ‘ठोस और वास्तविक’ मुद्दों पर नहीं, बल्कि इस तरह के ‘हवाई मुद्दों’ पर लड़े जाते थे कि भारतीय समाज और विश्वव्यवस्था के बारे में मार्क्स का विश्लेषण अधिक प्रामाणिक है या गांधी की अन्तर्दृष्टियाँ अधिक सार्थक हैं-और इन दोनों का ही कौन-सा ‘पाठ’ अधिक स्वीकार्य है. एक चुनाव में तो स्टालिन बनाम त्रात्सकी ही मुद्दा बना और डी.पी. त्रिपाठी और जयरस बानाजी की बौद्धिकता और वाग्मिता के जौहर के कारण यह चुनाव न भूतो न भविष्यति किस्म का हो गया था. महिलाओं का सम्मान करने के लिए उस सफेद हाथी को किसी औपचारिक तन्त्र की जरूरत नहीं पड़ती थी-अन्य जगहों से आनेवाले ‘मर्दानगी’ सम्पन्न महानुभावों को मर्दानगी दिखाने के तौर-तरीकों की बजाय औरतों के साथ तमीज से पेश होने का पाठ यूनिवर्सिटी की फिजा ही सिखा देती थी.
तीखे राजनैतिक विवाद, चतुर रणनीतियाँ यह सब था, उन दिनों जे.एन.यू. में, लेकिन इस सबके अन्तस में थी एक सरस्वती जिसे जे.एन.यू. कल्चर कहा जाता था. किसी के व्यक्तिगत जीवन पर चटखारे लेना जहाँ परले दर्जे की अशिष्टता मानी जाती थी. कितने भी गम्भीर मतभेद के प्रसंग में शारीरिक समीक्षा की जहाँ कोई गुंजाइश नहीं थी. एस.एफ.आई. को सबसे तगड़ा झटका तभी लगा था जब दो-चार उत्साही कॉमरेडों ने बेदी-दुर्रानी की मशहूर फ्री-थिंकर जोड़ी के साथ मार-पीट कर दी थी.
उन दिनों जे.एन.यू. बतौर एक समुदाय के जो घोषित करता था, उसे जीने की भी कोशिश करता था. भले ही कितनी भी असम्भव या हवाई या हमारे उन परिचित के हिसाब से ‘हास्यास्पद’ और ‘सेंटी’ क्यों न हो ऐसी कोशिश. कथनी-करनी के अवश्यम्भावी भेद को जितना हो सके, मिटाने की कोशिश करनेवाले समुदाय के किसी सदस्य का अभिमान क्या सचमुच खोखला ही है?
न यह अभिमान खोखला है, न वह जे.एन.यू. संस्कृति हवा में से टपक पड़ी थी. उसे रचा गया था, सचेत भाव से. उसका विस्तार किया जाता था, औपचारिक- अनौपचारिक दोनों ढंगों से. निश्चय ही ‘शासक वर्गों’ ने ही यह स्पेस दिया था कि ऐसा विश्वविद्यालय सम्भव हो, लेकिन इस स्पेस का उपयोग अरावली की पहाड़ियों पर जे.एन.यू. रचने में जिन्होंने किया, समस्या उनके प्रति भावुक होने में नहीं, बल्कि उनका ऋण भूल जाने में है.
इस संस्कृति ने नामवर जी को बनाया. हम सब लोगों को बनाया. और हमने, हमसे पहले और पीछेवालों ने इसे बनाया. कोई बात तो थी कि छात्र संघ के चुनावों में हिंसा तो क्या गाली-गलौज तक अकल्पनीय थी. कोई बात तो थी कि छपे हुए पोस्टर लगाना, ज्यादा पैसे खर्च करना चुनाव में हार जाने का अचूक नुस्खा माना जाता था. कोई बात तो थी कि बिना किसी आरक्षण की धूमधाम के
जे.एन.यू. में अद्भुत ‘डाइवर्सिटी’ थी. जाति, धर्म, भाषा और संस्कृति हर प्रकार की डाइवर्सिटी. पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने याद किया है, एक बार उन्हें सुनना पड़ा था, ‘यूनिवर्सिटी गरीबों के लिए नहीं है, जाओ जाकर ईंटा ढोवो.’ जे.एन.यू. में कमजोर आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि वालों को दाखिले में तरजीह दी जाती थी. एडमीशन इंडेक्स में ऐसी पृष्ठभूमि वालों को, लड़कियों को, और अंग्रेजी स्कूलों में जो नहीं जा सके, ऐसे लोगों को अतिरिक्त नम्बर मिला करते थे.
इसीलिए कहा कि उन दिनों जे.एन.यू. एक सपना था. समावेशी समाज की सम्भावनाओं का, बौद्धिक साहस की सम्भावनाओं का सपना. विभिन्न रुझानों के लोग अपने सारे मतभेदों के बावजूद जिस एक चीज को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध थे, उसी चीज को जे.एन.यू. कल्चर कहते थे. इस कल्चर में प्रेम का नहीं, हिंसा का व्यवहार लज्जाजनक माना जाता था. लड़के-लड़कियों के साथ-साथ घूमने, गपियाने और इश्कियाने से नहीं, हमारी संस्कृति किसी को गरियाने या जाति-धर्म के आधार पर आँकने या हाथापाई पर उतारू होने से खतरे में पड़ती थी.
वे दिन गए. गए दिन लौटा नहीं करते. सवाल यह है कि जो दिन आए वे बेहतर थे या बदतर? सवाल यह भी है कि जे.एन.यू. की विशिष्टता को समझने की बजाय, अन्य विश्वविद्यालयों को उस विशिष्टता तक लाने की बजाय ऐसा क्योंकर हुआ कि उस विशिष्टता को समाप्त करने में स्वयं जे.एन.यू. के ही कुछ लोग सक्रिय हो गए. जिस जे.एन.यू. में विभागों को स्वायत्तता बतौर अधिकार के मिली हुई थी, वहीं जाने-माने विद्वानों को कुलपतियों की सनकों के कारण इस्तीफे क्यों देने पड़े? जो एडमीशन पॉलिसी सारे देश के लिए मिसाल बन सकती थी, उसे छोड़ समकालीन ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ के कोरस में जे.एन.यू. वाले भी क्यों शामिल हो गए? जिस छात्र आन्दोलन से सारा देश सीख सकता था, वह कुछ छात्रों और कुछ प्रशासकों के अहंकारों के टकराव में घास की तरह पिस क्यों गया? 1983 में जरा-सी बात से शुरू हुआ यह टकराव जे.एन.यू. को सदा के लिए बदलनेवाला तूफान बन गया था. एक दिन मैंने नामवर जी से कहा था, ‘श्रीवास्तव साहब इतना अड़ियल रवैया क्यों अपनाए हुए हैं? स्टूडेंट्स की इतनी-सी बात मान क्यों नहीं जाते?’
नामवर जी की आवाज में तीखापन कम अवसरों पर सुना है. हर स्थिति में सम स्वर में बात करने की कला वे बखूबी जानते हैं, लेकिन उस दिन था तीखापन आवाज में. बोले, ‘स्टूडेंट्स की क्या नाक कटी जाती है? बदतमीजी के लिए माफी क्यों नहीं माँग सकते?’
मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन बात नामवर जी की ही सही थी. आवाज का तीखापन जे.एन.यू. संस्कृति के भविष्य की चिन्ता से ही जन्मा था. वे उसके निर्माताओं में से हैं. समझ रहे थे कि खतरा कितना गहरा और कितना दूरगामी है. उस आन्दोलन की परिणति कुलपति के घर पर कई दिनों तक चलनेवाले घेराव और फिर धर-पकड़ और अन्ततः जे.एन.यू. में दूरगामी बदलावों में हुई. सच तो यह है कि 1983 के बाद जे.एन.यू. के इतिहास का जो अध्याय शुरू हुआ, उसमें जे.एन.यू. के धीरे-धीरे बदलते जाने की, खुद पर नाज करनेवाले ‘द्वीप’ स्वभाव को छोड़कर धारा के साथ तैरने को व्याकुल होते जाने की टैजी-कॉमेडी ही लिखी हुई है. पिछले कुछ वर्षों में जे.एन.यू. ‘मुख्य धारा’ का अंश बनता ही चला गया है. रैगिंग और ईव-टीजिंग की ‘मुख्य धारा सुलभ’ घटनाएँ जे.एन.यू. में भी घटने लगी हैं. छात्रों, अध्यापकों और कर्मचारियों के चुनाव जाति जैसे ‘ठोस’ आधारों पर होने लगे हैं. लाइब्रेरी के एक रीडिंग रूम का अनौपचारिक नाम ही ‘धौलपुर हाउस’ पड़ गया है.आशा है कि अब धारा तीन सौ सतहत्तर जैसे और मेरे उन ग्रामस्मृतिलीन मित्र जैसे लोग जे.एन.यू. से ज्यादा अपनापा महसूस करते होंगे. खैर.
मुखामुखम
7 अक्टूबर, 1992 का दिन मेरे जीवन के सबसे यादगार दिनों में से एक है. मैंने दो-चार दिन पहले अपना लेख ‘भक्ति संवेदना: काव्य और शास्त्र का मुखामुखम’ नामवर जी को पढ़ने के लिए दिया था. इसी में मैंने भक्ति के काव्योक्त और शास्त्रोक्त रूपों को, उनके परस्पर मुखामुखम को समझने का प्रस्ताव किया है. आज शाम उस पर बात करने जाना था, उनकी राय जाननी थी. पहुँचा तो हस्बमामूल गुरुदेव ने स्वयं ही दरवाजा खोला. मैं कुछ कहूँ इसके पहले ही किवाड़ फेरते हुए बोले, ‘‘पुरुषोत्तम जी, लेख तो आपने ऐसा लिखा है कि आपके चरण छूने की इच्छा होती है!’’ मुझे काटो तो खून नहीं. अपने गुरुदेव की मारक व्यंग्य-क्षमता से अवगत था, खुद शिकार भी हो चुका था (इस घटना के बाद भी हुआ), बरबस मुँह से निकला, ‘‘डॉक सा’ब इतना ही खराब है, तो सीधे कह दीजिए. इतना तीखा सरकाज्म मत कीजिए, प्लीज.’’
‘‘मैं सरकाज्म नहीं कर रहा, ठीक कह रहा हूँ. अद्भुत लेख है. नारद के भक्ति-सूत्रों की ऐसी रीडिंग आज तक किसी ने नहीं की है. भक्ति-बोध का उन्नीसवीं सदी के नवजागरण से सम्बन्ध भी आपने बहुत सटीक ढंग से रेखांकित किया है, और पंडित जी की सीमाएँ भी बिलकुल ठीक दिखाई हैं. सबसे बड़ी बात यह कि इस लेख से भक्ति को स्वायत्त वैचारिक उपक्रम के रूप में पढ़ने की राह खुलती है.’’
इस आश्वस्ति के साथ मेरे होश वापस लौटे और फिर काफी देर तक उस लेख के बहाने भक्ति-संवेदना और नवजागरण से जुड़ी समस्याओं पर बात होती रही.
सत्रह साल हो चले उस शाम को, उसका रोमांच तो जस-का-तस है ही, बीच-बीच में, इस व्यक्तिगत रोमांच से आगे जाकर भी नामवर जी द्वारा दी गई उस अभूतपूर्व शाबाशी का अर्थ समझने की कोशिश करता रहता हूँ.
मैं था क्या उस वक्त? नामवर जी का ऐसा विद्यार्थी, जो बकौल डॉ. वीर भारत तलवार के, उनकी सबसे ज्यादा डाँट खाता था. उनके विभाग का जूनियर मोस्ट फैकल्टी मेम्बर और एक ऐसा लेखक जो था तो कवि, लेकिन ‘उदीयमान’ हो रहा था बतौर आलोचक के. एक ऐसा हिन्दुस्तानी जिसकी रुचि हिन्दी साहित्य के इतिहास में जगह बनाने से ज्यादा हिन्दू और अन्य प्रकारों की साम्प्रदायिकता से संघर्ष करने में थी. जिसे हितचिन्तक सलाह भी दिया करते थे कि इन ‘फालतू’ के कामों में ज्यादा वक्त देने से ज्यादा अच्छा है कि साहित्य जगत में उठा-बैठा जाए.
इस मामले में भी नामवर जी दूसरे साहित्यकारों से अलग ही थे. मैं दिलीप सीमियन, भगवान जोश, सुमन, जमाल किदवई, अरुणकुमार, रविकांत, वृंदा, अमर जैसे अनेक मित्रों के साथ ‘साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन’ (एस.वी.ए.) नाम के संगठन में काम करता था. यह संगठन भी अपने ढंग का एक ही था. खैर. तो, 1989 में हम लोग बहादुरशाह जफर मार्ग पर एक्सप्रेस बिल्डिंग के पास के मैदान में साम्प्रदायिक राजनीति के विरोध में कुछ दिनों के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे. प्रेसनोट तो हमने जारी किया था, लेकिन किसी भी ‘महत्त्वपूर्ण’ व्यक्ति को अलग से आमन्त्रित नहीं किया था कि आकर हमारे धरने-उपवास की शोभा बढ़ाए या हमारा उत्साहवर्धन करे. एस.वी.ए. के काम करने के अन्दाज में स्वाभाविक रूप से वही बाँकापन था, जो उसके अधिकांश कार्यकर्ताओं के व्यक्तिगत स्वभाव का अनिवार्य अंश था. लेकिन साम्प्रदायिकता के खतरे से आशंकित और चिन्तित केवल हम एस.वी.ए. वाले थोड़े ही थे.
हमें अपनी हर गतिविधि में बहुत से लोगों का समर्थन और सहयोग मिलता था. इस उपवास में भी रोज बहुत से लोग आते थे. शाम को तो मेला-सा लग जाता था. प्रेस के मित्र भी बहुत सहयोग कर रहे थे, लेकिन यह बात अपनी जगह कि हम ‘निमन्त्रित’ किसी को नहीं करते थे. बिना निमन्त्रण के ही एक दिन स्व. वी.पी. सिंह भी आए थे, और मैंने, दिलीप ने अपनी आदत के मुताबिक उनकी भी क्लास ले डाली थी. प्रो. रणधीर सिंह, प्रो. विपिनचन्द्र, प्रो. धीरूभाई शेठ, कृष्णकुमार, दिलीप पाडगांवकर, जावेद अख्तर, अरविन्द नारायण दास-बुद्धिजीवियों में से ये कुछ नाम हैं जिनका उस उपवास में और एस.वी.ए. की अन्य गतिविधियों में भी रुचि लेना याद है. उस उपवास के दौरान रणधीर सिंह जी ने जिस वात्सल्य से हम में से हरेक के सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया था, वह मेरी अमिट यादों में से एक है.
हमें अपनी हर गतिविधि में बहुत से लोगों का समर्थन और सहयोग मिलता था. इस उपवास में भी रोज बहुत से लोग आते थे. शाम को तो मेला-सा लग जाता था. प्रेस के मित्र भी बहुत सहयोग कर रहे थे, लेकिन यह बात अपनी जगह कि हम ‘निमन्त्रित’ किसी को नहीं करते थे. बिना निमन्त्रण के ही एक दिन स्व. वी.पी. सिंह भी आए थे, और मैंने, दिलीप ने अपनी आदत के मुताबिक उनकी भी क्लास ले डाली थी. प्रो. रणधीर सिंह, प्रो. विपिनचन्द्र, प्रो. धीरूभाई शेठ, कृष्णकुमार, दिलीप पाडगांवकर, जावेद अख्तर, अरविन्द नारायण दास-बुद्धिजीवियों में से ये कुछ नाम हैं जिनका उस उपवास में और एस.वी.ए. की अन्य गतिविधियों में भी रुचि लेना याद है. उस उपवास के दौरान रणधीर सिंह जी ने जिस वात्सल्य से हम में से हरेक के सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया था, वह मेरी अमिट यादों में से एक है.
नामवर जी एक दिन दोपहर में आए. सच यही है कि मैं ही नहीं, बाकी सब लोग भी उन्हें वहाँ देखकर चकित रह गए थे. आखिरकार यह तो हिन्दी जगत के बाहर भी विख्यात है ही कि नामवर जी किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में जाते हैं तो अध्यक्षता करने! और यहाँ वे मौजूद थे बिना किसी खास न्यौते तक के. अपना समर्थन जताने और ‘‘पुरुषोत्तम जी, दिलीप…साथ ही अन्य उपवासियों का हालचाल जानने के लिए.’’ मैंने आत्मविडम्बना ओढ़ते हुए कहा था, ‘‘डॉक सा’ब माफ करेंगे, साहित्यिक काम कुछ खास नहीं हो पा रहा है, आजकल.’’ बोले, ‘‘फासिज्म से लड़ने से बड़ा साहित्यिक काम इस घड़ी और क्या है पुरुषोत्तम जी.’’ मैंने कहा, ‘‘आप ही लोगों की प्रेरणा है.’’
जवाब में जो उन्होंने कहा, वह रोमांचक था, साथ ही दायित्व-बोध की स्मृति बनाए रखनेवाला भी. तब भी था. अब भी है. मेरी बात के जवाब में बस अकबर इलाहाबादी का मिसरा दोहरा दिया, ‘‘अरे नहीं! हमारी तो बातें-ही-बातें हैं, सैय्यद काम करता है.’’ मेरे मुँह से तो बोल ही नहीं फूटा. कारण था. लोगों को तब भी लगता था कि मैं नामवर जी के बहुत निकट हूँ, वास्तविकता यह है कि मैं उनसे डरता था, अब भी डरता हूँ-न जाने कब अपने प्रसिद्ध व्यंग्य-बाणों में से एक इधर रवाना कर दें. या सीधे-सीधे ही हड़का दें. मुलाकातें भी बहुत कम होती थीं. और जो होती थीं, शुद्ध औपचारिक, एकेडमिक. अकबर इलाहाबादी के मिसरे के जरिए दी गई यह शाबाशी जितनी औचक थी, अपनी चुप्पी उतनी ही स्वाभाविक. नहीं?
इसके बाद बातचीत की कमान हमारे ‘प्रिंसिपल साहब’ दिलीप ने सँभाली, फंड का डिब्बा भी नामवर जी के सामने रखने से ‘प्रिंसिपल साहब’ नहीं चूके. नामवर जी ने कुछ योगदान किया. बहुत देर बैठे रहे-युवजनों से बतियाते रहे.
ये दो शाबाशियाँ मेरे लिए यादगार हैं. स्वाभाविक है. अपने लेखन और समाजकर्म दोनों की नामवर जी द्वारा ऐसी सराहना किसके लिए यादगार नहीं हो जाएगी? लेकिन ये शाबाशियाँ महत्त्वपूर्ण इसलिए हैं कि ये स्वयं नामवर जी के व्यक्तित्व के बारे में भी कुछ जताती हैं. कुछ लोगों का कहना है कि नामवर जी शक्ति-सम्पन्न लोगों को आसमान पर चढ़ा देते हैं. बात कभी-कभी सही भी लगती है. लेकिन फिर से कहूँ, ये मार्मिक शाबाशियाँ पानेवाला व्यक्ति न कोई बड़ा अफसर था, न कोई सत्ताधारी. 1989 में, वह एक नाकुछ से कॉलेज में हिन्दी पढ़ाता था, और 1992 में नामवर जी का जूनियर मोस्ट कलीग था, बस.
बतौर अध्यापक के उनके मूल्यांकनों की प्रामाणिकता हम लोगों ने तो हमेशा निर्विवाद रूप से विश्वसनीय पाई. मुझे हमेशा अच्छा ग्रेड देते थे, लेकिन मेरे ही एक परचे पर टिप्पणी की थी, ‘घास-सी छीलकर रख दी है. परचा लिखने का सलीका सुमन जी से सीखिए.’ मैंने यह बात गाँठ बाँध ली, और अन्य मित्रों को भी बँधवाई. समीर तो मूलतः कवि थे और हैं, बाकी जो कुछ भी वे हैं, भूलतः ही हैं. नामवर जी रूसी रूपवाद पढ़ा रहे थे. श्कोलोव्सकी के बारे में परचा लिखा था. समीर परचा लिखते समय भी कविया जाता था, इसलिए जमा करने के पहले परचा मुझे दिखा लिया करता था. इस परचे का आरम्भ कुछ इस प्रकार हो रहा था, ‘मैं मुँडेर पर पाँव लटकाए बैठा था, कहीं चिड़िया बोल रही थी.’ मैंने टिप्पणी की, ‘यह परचा नामवर जी को दिया, तो मुँडेर से ऐसे गिरोगे कि न चिड़िया बोल पाएगी, न चिड़ा.’ परचा कविता की बजाय गद्य में लिखा गया और फिर नामवर जी को दिया गया.
नामवर जी के व्यक्तित्व में ‘अनप्रिडक्टिबिलिटी’ भी गजब की है. ‘संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध’ का लोकार्पण वी.पी. सिंह ने किया था. नामवर जी जो करते हैं, वही कर रहे थे-अध्यक्षता. अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने किताब और लेखक दोनों को धोकर रख दिया. उस किताब में मेरी केन्द्रीय चिन्ता यह थी कि नफरत की राजनीति के बरक्स प्रेम की राजनीति की सम्भावनाएँ टटोलने में वामपंथी बौद्धिक विफल क्यों रहे? अस्मिता की राजनीति के प्रति सहानुभूति के साथ विचार करते हुए ही कुछ चेतावनियाँ भी इस किताब में दी गई थीं. नामवर जी ने इन बातों की काफी खिल्ली उड़ाई. यह बात और है कि आज तेरह साल बाद ‘संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध’ में की गई भविष्यवाणियाँ सही और दी गई चेतावनियाँ सार्थक ही सिद्ध हुई हैं. मैं नहीं मानता कि नामवर जी जैसे व्यक्ति को ‘सस्कृतिः वर्चस्व और प्रतिरोध’ के तर्क और सरोकार से सचमुच कोई असहमति हो सकती थी. लेकिन फिर भी किताब को खारिज कर दिया? क्यों? यह केवल कोई व्यक्तिगत समस्या थी, या इसका सम्बन्ध हिन्दी बौद्धिकता की व्यापकतर व्याधियों से है?
इस बात की विस्तृत चर्चा कहीं और, कभी और करूँगा. यहाँ तो इतना ही कहना है कि कई बार नामवर जी तात्कालिक सरोकारों के दबाव में बड़े सवालों की उपेक्षा कर जाते हैं. अब याद नहीं पड़ता, हो सकता है कि 1995 में गुरुदेव किसी कारण मुझसे खिन्न रहे हों, और इसी खिन्नता ने उन्हें मेरी खिंचाई के लिए प्रेरित किया हो. ऐसे चमत्कार नामवर जी अन्य लोगों के साथ भी कर चुके हैं. सच कहूँ, मैं आज तक नामवर जी के व्यक्तित्व की इस विशेषता को समझ नहीं पाया हूँ. इस तरह का व्यवहार उनसे करवानेवाली कौन-सी ग्रन्थियाँ हैं? नहीं जानता.
बहरहाल, मैं तो जे.एन.यू. का और जे.एन.यू. के नामवर जी का कृतज्ञ ही हूँ. नौकरी दिलवाने के लिए नहीं, ज्यादा बड़ी बातों के लिए. जैसाकि उनके साठ साल के होने पर लिखा था, ‘सिर्फ पढ़ाने के लिए नहीं, सिखाने के लिए.’
1982 में जब सुमन द्वारा धकियाकर रामजस कॉलेज में इंटरव्यू देने के लिए भेजा गया था, तब न मैंने नामवर जी से कुछ कहा, न उन्होंने किसी से कुछ कहा. अपना तो प्रण था कि दस इंटरव्यू तो अपने बूते ही देंगे. न हुआ तो ग्यारहवें इंटरव्यू के लिए जाने के पहले गुरुदेव से बात करेंगे. भगवान की दया से जरूरत ही नहीं पड़ी. उस चयन समिति की अध्यक्षता गवर्निंग बॉडी के उपाध्यक्ष रामकँवर गुप्ता कर रहे थे, जिनसे मेरी भेंट न इंटरव्यू के पहले हुई थी, न बाद में कभी हुई. विभागाध्यक्ष प्रो. निर्मला जैन थीं, और उनके साथ थे प्रो. रामदरश मिश्र. मेरी नियुक्ति से कुछ लोग आहत हुए. डी.यू. के योग्य, योग्यतर, योग्यतम उम्मीदवारों पर इस जे.एन.यू.आइट को वरीयता देकर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की ‘परम्परा’ तोड़ दी गई थी. कुछ ऋषियों ने विभिन्न प्रकार की कल्पसृष्टियाँ भी निर्मित एवं प्रचारित कीं. निर्मला जी ने अपने विख्यात स्वभाव के अनुसार ‘जनसत्ता’ के संवाददाता से कह दिया, ‘जिस लड़के की नियुक्ति रामजस में हुई है, वह कई प्रोफेसरों को पढ़ा सकता है.’ याने अपन पहले दिन से ही ‘चर्चित’ होते भए. खैर.
रामजस कॉलेज का वातावरण क्या पूरा ‘अद्भुत, अनुपम, मनोहर बाग’ था. लिख सका तो कभी उसके बारे में उपन्यास लिखूँगा. आशा है कि ‘राग दरबारी’ का ‘छंगामल इंटर कॉलेज’ उन दिनों के रामजस के आगे फीका पड़ जाएगा. कुछ वर्षों में हालत यह हो गई कि मैंने नौकरी छोड़ देने का मन बना लिया. राजेन्द्र माथुर मेरे लेख नियमित रूप से ‘नवभारत टाइम्स’ में छापते थे, सम्पादकीय विभाग में खपा लेने को भी राजी हो गए.
लेकिन मैंने आई.सी.सी.आर. की विदेश में हिन्दी अध्यापन योजना में भी एप्लाई किया था. माथुर साहब से बात करने के बहुत पहले. हमारे बेटे ऋत्विक के जन्मोत्सव में आए नामवर जी को मैंने इस बारे में बताया. मुझे विदेश जाने के बारे में अपनी स्वीकृति देनी थी. नामवर जी ने कहा, ‘कोई जरूरत नहीं. तुम्हें जे.एन.यू. आना है.’
रामजस अझेल हो चला था. आई.सी.सी.आर. को मना कर चुका था. जे.एन.यू. का कुछ पता नहीं लग रहा था. इसीलिए माथुर साहब से बात की थी. उन्होंने हाँ तो की, साथ ही याद दिलाया, ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं.’ लेकिन रामजस की शहनाई से तो कैसे भी ढोल अच्छे ही होने थे-दूर के या पास के. इसी बीच जे.एन.यू. का इंटरव्यू कॉल आ गया. थोड़ी देर से ही सही, जे.एन.यू. वापस आने का अवसर मिला. नामवर जी की बात सही साबित हुई.
स्वधर्म और सुमति
आलोचना की बजाय रचनात्मक आलोचना लिखने के विरुद्ध ‘पॉलिमिक्स’ करते हुए नामवर जी ने गीता की उक्ति याद की है: ‘‘स्वधर्मे निधनं श्रेय, परधर्मो भयावह.’’ आलोचना कुछ और बनने का प्रयत्न करे, यह हीनता-ग्रन्थि है. उसे आलोचना ही होना चाहिए-इति आलोचक नामवर सिंह उवाच.
बहुत पहले, विश्वविद्यालयों में साहित्य शिक्षण पर उन्होंने ‘आलोचना’ में एक परिसंवाद आयोजित किया था. अपनी टिप्पणी में, वहाँ भी ‘स्वधर्म’ की बात की थी. विश्वविद्यालय में एक ‘विषय’ बनने के चक्कर में साहित्य अपने बहुमुखी, संवादधर्मी स्वभाव से हाथ धो बैठता है. इस स्वभाव की वापस प्रतिष्ठा ही विश्वविद्यालयों में साहित्य पढ़ानेवालों की सबसे बड़ी चुनौती है. एक सीमित विषय नहीं, साहित्य समूचे जीवनानुभव के साथ मुखामुखम है, इसलिए औपचारिक रूप से साहित्य का अध्ययन- अध्यापन करनेवालों को जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करनेवाले विषयों से प्रामाणिक संवाद करना ही होगा. जोधपुर से लेकर जे.एन.यू. तक नामवर जी के पढ़ाने और पढ़ाई को नियोजित करने के मूल में साहित्य के स्वधर्म-बोध से उत्पन्न यह मूलभूत प्रतिज्ञा ही है. उसी टिप्पणी में, विश्वविद्यालय ही नहीं, समूची पूँजीवादी व्यवस्था का वर्णन नामवर जी ने ‘पुराणों की भाषा’ में किया था-‘यह ऐसी व्यवस्था है, जिसमें पानी ने बहना और आग ने जलना त्याग दिया है, गरज कि हर वस्तु ने अपना धर्म छोड़ दिया है.’
स्वधर्म!
बतौर अध्यापक और आलोचक के, नामवर जी का सारा जीवन ‘स्वधर्म’ की पुनःप्रतिष्ठा के लिए संघर्ष का जीवन रहा है. सफलता हमेशा नहीं मिली है. कई बार स्वयं उन्होंने ही स्वधर्म से विचलन भी किए हैं. वे स्वयं कहते हैं, ‘बार-बार हार मैं गया.’ मुझे लगता है कि कई बार वे स्वयं से ही हारे हैं. उनकी अद्वितीय सम्भावनाएँ उनके वास्तविक जीवन के ‘व्यावहारिक’ दबावों से हारी हैं. यह विडम्बना उनकी ही नहीं, हम में से किसी की भी हो सकती है.‘बार-बार मैं हार गया’-यह आत्मस्वीकृति है. ऐसी नहीं कि कोई बगलें बजाने लगे, बल्कि ऐसी जिससे ‘स्वधर्म’ की स्मृति भी रखना सीखे, और विचलन से बचना भी. अपनी सम्भावनाओं को ‘व्यावहारिक’ दबावों से न हारने देना सीखे. नामवर जी के बारे में सोचता हूँ, तो अपने लिए यही सीख हासिल होती है. एक बार फिर से बाइस साल पहले लिखे अपने लेख का शीर्षक याद करूँ-‘वे पढ़ाते नहीं, सिखाते हैं.’ सजग रूप से भी, अनजाने भी. अपनी उपलब्धियों से भी-असफलताओं से भी. अपनी सम्भावनाओं से भी, विवशताओं और दुर्बलताओं से भी.
ठीक वैसे ही, जैसे उनका जे.एन.यू. सिर्फ पढ़ाता नहीं, सिखाता था, सिखाता है. असफलताओं से भी. सफलताओं से भी. ‘द्वीप’ रहकर भी सिखा रहा था-और इन दिनों ‘मुख्य धारा’ के साथ बहकर भी सिखा रहा है.
सौभाग्य था मेरा कि इस द्वीप पर, उन दिनों पहुँचा, जबकि वह द्वीप ही था. वह सन् सतहत्तर की गर्मियों की एक दोपहर थी. जे.एन.यू. पहुँचकर मुकाम किया, गंगा होस्टल. कमरा नं. 137. आज के जे.एन.यू. वाले कृपया न अविश्वास से मुस्कराएँ न ईर्ष्या में जलें. ‘काउंटर कल्चर’ के उन दिनों में भी जे.एन.यू. इतना उदार तो नहीं था. गंगा लड़कों का हॉस्टल हुआ करता था. कमरा अली जावेद का था- जिसका उपयोग हम जैसों की सराय के रूप में ही ज्यादा होता था. जावेद ने ही उसी दिन या शायद अगले दिन कमल कॉम्प्लेक्स के गीता बुक सेन्टर में किताबें पलटते नामवर जी को और फिर विपिनचन्द्र को दिखाया था–‘देखो वो रहे…’ सन् सतहत्तर की उस दोपहर के बाद के दिन मेरी जिन्दगी के सबसे रोमांचक दिन हैं.
मई 2001 में यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया, पर्थ जाने का सुयोग हुआ. सुमन वहाँ एम.बी.ए. की पढ़ाई कर रही थीं. मैं एक महीने के लिए, बच्चों को साथ लेकर गया था. कैम्पस में घूमते हुए एक दिन हम लोग पहँच गए विन्थ्रॉप हॉल. बहुत खूबसूरत गॉथिक इमारत, वेनेशियन ग्लॉस की खिड़कियाँ-और उन पर ओल्ड टेस्टामेंट में वर्णित, परमात्मा द्वारा मनुष्य को कृपास्वरूप दी गई सुमतियों की छवियाँ-सूझ-बूझ, साहस, बुद्धि, संवेदनशीलता और ज्ञान. लेकिन ओल्ड टेस्टामेंट (इजाया 11.2) में बताई गई सुमतियों की संख्या तो सात थी. बाकी दो कहाँ गईं? उनकी छवियाँ क्यों नहीं बनाईं कलाकार ने? जाहिर है कि जानबूझकर ही नहीं बनाईं. लेकिन क्यों?
विन्थ्रॉप हॉल का निर्माण नेपियर वाल्टर ने 1931 में किया था. कई बरसों तक तो किसी ने उनसे पूछा ही नहीं कि आपने दो सुमतियाँ क्यों छोड़ दीं. आखिरकार 1959 में तत्कालीन वाइस चांसलर ने जवाब-तलब कर ही लिया. वाल्टर ने लिखा, ‘‘हाँ, दो सुमतियाँ मैंने जानबूझकर ही छोड़ी हैं, क्योंकि मेरी समझ से किसी यूनिवर्सिटी की परिकल्पना से उनका कोई लेना-देना है ही नहीं, ‘धार्मिक और यौनपरक पवित्रता (पाइटी)’ और ‘भगवान का भय (फीयर ऑफ गॉड)’.’’
वास्तुकार का यह सीधा, सार्थक उत्तर, बौद्धिक साहस और संवेदनशीलता का यह घोषणापत्र पढ़कर सचमुच आँखें भीग गई थीं.
अपने जे.एन.यू. ने ऐसी कोई औपचारिक घोषणा तो कभी नहीं की. लेकिन अपने होने भर से यह बता जरूर दिया कि यूनिवर्सिटी का स्वधर्म निर्भीकता और प्रश्न व्याकुलता है, संवेदनशीलता है, ज्ञान की साधना है, परमात्मा का डर दिखाकर खोखली पवित्रता का आरोपण करना नहीं.
उस जे.एन.यू. का विद्यार्थी जो हो, जिन्होंने उस जे.एन.यू. को बनाया, और जिन्हें उसने बनाया ऐसे नामवर जी का विद्यार्थी जो हो, उस मनुष्य को ‘स्वधर्म’ का निर्वाह तो करना ही होगा.
आशा है, कर सका. आशा है, कर सकूँगा.
यह भी आशा है कि नामवर जी द्वारा जीवन की सेंचुरी बनाने के अवसर पर चीयर-अप करनेवालों की भीड़ में, मैं भी कहीं खड़ा होउँगा.
आमीन!
________
(२००९ में \’जे.एन,यू में नामवर सिह\’ पुस्तक के लिए लिखा गया)
डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल
कविता, नाटक, वृत्तचित्र और फिल्मों में दिलचस्पी
संस्कृति : वर्चस्व और प्रतिरोध, तीसरा रुख, विचार का अनंत, कबीर:साखी और सबद तथा अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय आदि प्रकाशित.
मुकुटधर पाण्डेय सम्मान, देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान , राजकमल हजारीप्रसाद द्विवेदी कबीर सम्मान.
कॉलेजियो द मेक्सिको तथा कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर, अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड आदि देशों में व्याख्यान यात्राएं, भारतीय भाषा केन्द्र (जेएनयू ) के अध्यक्ष, एनसीआरटी की हिंदी पाठ्य–पुस्तक समिति के मुख्य सलाहाकार रहे, संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य रहे.
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