24 जुलाई 1997 को सुल्तानपुर में कवि मानबहादुर सिंह की नृशंस हत्या ने सबको विचलित कर दिया था. गांवों – कस्बों और सुदूर अंचलों में साहित्यकार अदृश्य रहते हुए कई स्तरों पर संघर्ष करते हैं. उनका लिखा भी लगभग अदृश्य रह जाता है.
मानबहादुर सिंह का होना क्या है? कथाकार और तद्भव के यशस्वी संपादक अखिलेश का यह आलेख बताता है. अखिलेश ने उस दौर को याद किया है जब युवा लेखक घंटो बैठ कर ऐसे कवियों से बौद्धिक और रचनात्मक खाद –पानी लिया करते थे. एक पूरी पीढ़ी तैयार होती थी. पर हत्यारे कविता नहीं पढ़ते हैं.
यह सुल्तानपुर और सिर्फ मान बहादुर सिंह की गाथा नहीं है यह हर कस्बे और उस कस्बे के ऐसे तमाम लेखकों की गाथा है.
सूखे ताल मोरनी पिंहके
अखिलेश
– नहीं खिलाऊंगा . मान बहादुर जी ने साफ़ इंकार कर दिया था .
– क्षमा करें महोदया, मेरे पैरों के पास आंखें नहीं हैं.
अखिलेश
१९७९
अर्थात यह उन दिनों की बात है जब कस्बाई शहरों में पुरानापन बड़ी मजबूती से पसरा रहता था. नयी चीजें, नया ज्ञान, नये रिवाज वहां आने में काफ़ी समय ले लेते थे. और तो और लोकप्रिय फ़िल्में भी अपनी रिलीज के बाद बम्बई से वहां आने में तीन चार साल लगा देती थीं. हमारा छोटा सा शहर सुल्तानपुर भी ऐसा था. यूं हम कुछ दोस्त समकालीन साहित्य के संपर्क में आ चुके थे और इस क्षेत्र में भी विराजमान नगर के चिर पुरानेपन से भरसक टकरा रहे थे. वाकई वातावरण में रूढ़ियों का शिकंजा मजबूत था. हम नौजवान दोस्तों की मंडली जिसमें हरि भटनागर, सत्येन्द्र प्रकाश और राजू, रमन मिश्र के साथ मैं शामिल था, इस शिकंजे के विरूद्ध जो कर सकने की सामर्थ्य रखती थी, कर रही थी: यानिकि शिकंजे वालों के लिए साहित्य एक साधना था तो हम आवारगी कर रहे थे, वे साहित्य को वीणावादिनी की अनुकम्पा मानते थे, हम लाइब्रेरी से धड़ाधड़ किताबें लेकर पढ़ रहे थे. वहां साहित्यकार उदात्त था यहां हम उद्दंड थे. हम उन लोगों का विरोध करते थे, उनका मजाक बनाते थे. वे मानते कि लेखक सदाचारी होता है, हम सिगरेट के छल्ले उड़ाने लगे, रेस्टोरेंट में चाय पीने लगे और उस ज़माने में जितना संभव था अश्लील भाषा का इजहार करते.
लेकिन अन्दर एक खलिश रहती थी कि हम ज्यादा नहीं थे जबकि हम आधुनिक हिन्दी साहित्य की गहमागहमी में प्रवेश करना चाहते थे. बहुत सारे रचनाकारों, किताबों, संगोष्ठियों से निकटता की लालसा हमारे अन्दर थी किन्तु छोटे शहर में यह कहां मुमकिन था. अतः उदास होकर हम अपनी उदासी छुपाने का जतन करते. हकीक़त यह थी कि सुल्तानपुर के दरवाजे कोई बाहरी लेखक आता नहीं था और सुल्तानपुर के अन्दर से कोई ऐसा रचनाकार प्रकट नहीं हो रहा था जिसके सम्मुख हम माथा नवाते.
तभी एक दिन जानकारी मिली कि दिल्ली स्थित प्रकाशन संस्थान नाम के प्रकाशक ने बीड़ी बुझने के क़रीब कविता संग्रह छापा है जिसके रचनाकार मान बहादुर सिंह सुल्तानपुर जनपद के हैं. मेरे जैसे सुल्तानपुरिया नए लेखक (?) के लिए रोमांचक खबर थी कि सुल्तानपुर के एक गांव बरवारीपुर में कोई ऐसा छुपा रुस्तम है जिसकी किताब शाया हो गयी है वह भी दिल्ली से. अतः इस शख्शियत से मिलने के लिए मुझमें एक उतावलापन नमूदार होने लगा. तब तक दूरभाष व्यापक का प्रसार नहीं हुआ था इसलिए मैंने मान बहादुर सिंह के नाम एक पत्र लिखा कि उनके लिए मेरे मन में बहुत आदर है और मुलाकात का कोई डौल बनना चाहिए. पता अंदाजा से लिख दिया :
श्री मान बहादुर सिंह
ग्राम पोस्ट – बरवारीपुर, तहसील – कादीपुर,
जिला – सुल्तानपुर, उ.प्र..
जवाब में उनका पोस्टकार्ड आया कि अगले सप्ताह वह सुल्तानपुर के राजकीय इंटर कॉलेज में कॉपी जांचने आ रहे हैं. यहाँ वह अगले कई दिनों तक 10 बजे सुबह से शाम होने तक उपलब्ध रहेंगे. मुलाकात होनी ही चाहिए.
पत्र पढ़ कर मेरी मन ही मन प्रतिक्रिया थी- अच्छा तो मास्टर हैं. हिन्दी पढ़ाते होंगे और क्या.
जिस रोज मैं उनसे मिलने जा रहा था, सोच रहा था :
कवितायेँ तो इनकी पढ़ी नहीं हैं. अतः मैंने उनसे कहने के लिए एक वाक्य बनाया – आपका कविता संग्रह पढ़ने की बड़ी इच्छा है, विश्वास करिए पढ़ने के बाद लौटा दूंगा.
सामने राजकीय इंटर कॉलेज का वह कमरा था जिसमें कॉपियां जांची जा रही थीं. मैं इसी विद्यालय से बारहवीं तक पढ़ कर निकला था और दसवीं में शायद इसी कमरे में मेरी कक्षा लगती थी.
मैंने अपने नाम की पर्ची भीतर भिजवाई. दो मिनट के बाद वह मेरे सामने थे. कुर्ता धोती और पैरों में पम्प शू वाला जूता पहने हुए. कंधे पर सदाबहार लाल रंग का अंगौछा लटक रहा था. दाहिना हाथ एक प्लास्टिक का झोला पकड़े हुए था. पहली नजर में निराश हुआ क्योंकि अपनी कल्पना में मैंने उनको हमउम्र से कुछ ही साल ज्यादा का समझा था, जैसे हरि भटनागर या सत्येन्द्रजी थे, पर ये मुझसे लगभग बीस साल बड़े निकले.
– मैंने सोचा था आप युवा होंगे. मैं चुप नहीं रह पाया.
– मुझे लगा था आप काफ़ी प्रौढ़ होंगे. मान बहादुर जी ने कहा. इस प्रकार हम दोनों ही परस्पर एक दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे थे.
कुछ देर बातचीत होती रही पर संभवतः कॉपी जांच कमरे से ज्यादा देर बाहर बिताना उनके लिए मुनासिब न था.
मैं मुलाकात से पूर्व तैयार किया गया वाक्य बोलता उससे पेश्तर उन्होंने अपने झोले में हाथ डाल कर किताब निकाली – बीड़ी बुझने के क़रीब. मैं कहने ही वाला था कि पढ़ कर लौटा दूंगा, उससे पहले वह पेन निकाल कर पुस्तक मुझे भेंट करने लगे. इस प्रकार मेरे पास पहली बार ऐसी किताब आयी जिसे उसके रचयिता ने लिख कर मुझको भेंट किया था. बेशक मेरे हाथ में मान बहादुर जी का कविता संग्रह था और मान बहादुर जी के हाथ में झोला था. कविता संग्रह में कवितायेँ थीं और उनके झोले में हमेशा ना जाने क्या क्या रहता था. बाद में भी वह जब अपने घर के अलावा कहीं मिले, झोला जरूर उनके पास रहता. उस झोले से कभी भी कुछ भी निकल सकता था. कविता की किताब, लोकलहर या पीपल्स डेमोक्रेसी जैसे माकपा के मुखपत्र, कोई लघु पत्रिका, आलू, दालमोठ वगैरह कुछ भी.
– आप बीड़ी पीते हैं ? मैंने बीड़ी बुझने के क़रीब के सर्जक से विचित्र सवाल पूछा.
– नहीं, मैं खैनी खाता हूँ.
उन्होंने झोले से सुर्ती निकाली और चुनौटी भी. अपनी एक गदेली पर सुर्ती चूना का मिश्रण बना कर वह उसे दूसरे हाथ के अंगूठे से बड़ी देर तक रगड़ते रहे. इस रगड़ की लय से उनका लटका हुआ झोला हल्का हल्का हिल रहा था. सुर्ती होठ के नीचे या पीछे रख कर उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और कहा – अब हम लोग संपर्क में रहेंगे.
उन्होंने झोले से सुर्ती निकाली और चुनौटी भी. अपनी एक गदेली पर सुर्ती चूना का मिश्रण बना कर वह उसे दूसरे हाथ के अंगूठे से बड़ी देर तक रगड़ते रहे. इस रगड़ की लय से उनका लटका हुआ झोला हल्का हल्का हिल रहा था. सुर्ती होठ के नीचे या पीछे रख कर उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और कहा – अब हम लोग संपर्क में रहेंगे.
निश्चय ही हमारा यह परिचय जल्द ही घनिष्ठता में बदल गया. वह मेरे ही नहीं मेरे सभी साहित्यकार मित्रों के प्रिय हो गए. उनका गांव बरवारीपुर सुल्तानपुर से लगभग चालीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित था. किसी छुट्टी के रोज मैं, हरि भटनागर, सत्येन्द्र प्रकाश सुबह बस पकड़ कर उनके यहाँ चले जाते और रात होने तक लौट आते. बीच की अवधि में कवितापाठ, रचनापाठ होता, चाय पानी भोजन होता और बहसें होतीं जो यदाकदा इतनी तीव्र हो उठतीं कि मान बहादुर जी की पत्नी जिनको वह मालकिन कहते थे आ जातीं और समझाना शुरू कर देतीं – कुकुर बिलार की तरह झगड़ना शोभा नहीं देता है. उनके चले जाने पर हम पुनः अपनी पर आ जाते थे. धीरे धीरे बरवारीपुर के यात्रियों में रमन मिश्र, शीतल भी जुड़ गए थे. नए कहानीकार अरविन्द कुमार सिंह भी हमारे पहुँचने पर सम्मिलित हो जाते. अरविन्द बरवारीपुर में ही रहते थे और उनके रचनाकार बनाने में मान बहादुर जी का सर्वाधिक अहम योगदान था.
मान बहादुर सिंह का हाथ खुला हुआ नहीं था. यूं वह इंटर कॉलेज में वरिष्ठ प्रवक्ता थे, बाद में प्राचार्य तक हो गए थे. ठीकठाक वेतन, गांव में खेतबारी भी. लेकिन वह मन से पूरे किसान थे, जो फिजूलखर्ची में बिलकुल विश्वास नहीं करता. यही कारण होगा, हम मित्र उम्र में उनसे पर्याप्त कम होते हुए भी मुलाकात होने पर चाय समोसा मीठा पर उनसे ज्यादा खर्च करते. जबकि वह बारोजगार थे और हम बेरोजगार थे. मैं अभी पढ़ ही रहा था किन्तु हरि भटनागर और सत्येन्द्र जी तो वाकई नौकरी न होने का दंश झेल रहे थे. एक बार वह सुल्तानपुर आये तो हर बार की तरह हम उनके साथ थे. उन्होंने ताज़ा कवितायेँ लिखी थीं जिन्हें लेकर खासा उत्साहित थे. बोले – तुम लोगों को कुछ सुनाने के लिए लाया हूं. अबकी हमने भी ठान लिया था, हममें से कोई बोला – पर हम सुनेंगे नहीं, हमको भूख लगी है.
वह इधर उधर मसोसते रहे फिर कहने लगे– समोसा खिला दूंगा. हमने इंकार किया– यह भोजन का समय है, आप हमको खादिम होटल में गोश्त खिलाएं. खादिम होटल एक छोटे से कमरे में चलने वाला ढाबा था जिसके मटन दोप्याजा जैसा स्वाद सात सितारा होटलों में भी नहीं मिलेगा .
– नहीं खिलाऊंगा . मान बहादुर जी ने साफ़ इंकार कर दिया था .
– क्यों ?
– क्यों क्या ? क्यों खिलाऊं ?
– हमारा मन है इसलिए. और क्यों क्या ? सवाल है क्यों नहीं खिलाएंगे.
अंततः वह हमारे जाल में फंस गए. हम खादिम होटल में दाखिल हो रहे थे. स्वयं मान बहादुर जी क्षत्रिय होने के बावजूद शुद्ध शाकाहारी थे. वह मुंह बंद किये और मुंह फुलाए बैठे रहे, हम मुंह खोल खोल कर ढिठाई से खाते रहे. भोजन समाप्त होने के बाद हम बाहर सड़क पर आ गए. सड़क पर देर तक मान बहादुर जी खामोश रहे तो पूछा गया – बहुत चुप हैं ? इतना अच्छा भोजन करा देने के बाद आपको खुश होना चाहिए. वह गुस्से में थे, फट पड़े– आप लोगों ने खाना नहीं मेरा मांस खाया है. यह बेहद सख्त बात थी. जरूरत से ज्यादा. उन्होंने इसे समझा और स्पष्ट किया – जितना पैसा खादिम के यहां फालतू में खर्च हुआ उतने में मैं अपनी पोती के लिए फ्राक खरीद लेता या पत्नी के लिए धोती. निश्चय ही इस प्रकार का गणन किसान ही करता है और किसान की तरह ही वह सुल्तानपुर की प्रत्येक यात्रा में अंततः न खाने पीने पर व्यय करते न फ्राक खिलौने धोती पर. वह सब पैसा बचा कर शाम को बस पकड़ बरवारीपुर चले जाते. बरवारीपुर से याद आया …
अंततः वह हमारे जाल में फंस गए. हम खादिम होटल में दाखिल हो रहे थे. स्वयं मान बहादुर जी क्षत्रिय होने के बावजूद शुद्ध शाकाहारी थे. वह मुंह बंद किये और मुंह फुलाए बैठे रहे, हम मुंह खोल खोल कर ढिठाई से खाते रहे. भोजन समाप्त होने के बाद हम बाहर सड़क पर आ गए. सड़क पर देर तक मान बहादुर जी खामोश रहे तो पूछा गया – बहुत चुप हैं ? इतना अच्छा भोजन करा देने के बाद आपको खुश होना चाहिए. वह गुस्से में थे, फट पड़े– आप लोगों ने खाना नहीं मेरा मांस खाया है. यह बेहद सख्त बात थी. जरूरत से ज्यादा. उन्होंने इसे समझा और स्पष्ट किया – जितना पैसा खादिम के यहां फालतू में खर्च हुआ उतने में मैं अपनी पोती के लिए फ्राक खरीद लेता या पत्नी के लिए धोती. निश्चय ही इस प्रकार का गणन किसान ही करता है और किसान की तरह ही वह सुल्तानपुर की प्रत्येक यात्रा में अंततः न खाने पीने पर व्यय करते न फ्राक खिलौने धोती पर. वह सब पैसा बचा कर शाम को बस पकड़ बरवारीपुर चले जाते. बरवारीपुर से याद आया …
एक बार प्रख्यात कवि त्रिलोचन जी के साथ मान बहादुर सिंह, मैं, कई अन्य लोग थे. जीप में सब चले जा रहे थे . त्रिलोचन जी ने मान बहादुर जी से पूछा – आप कहां के रहने वाले हैं?
– गांव बरवारीपुर के.
– बरवारीपुर अशुद्ध है. सही होगा बरुवारीपुर.
फिर त्रिलोचन जी पूरे सफ़र बरुवारीपुर की व्युत्पत्ति तथा विकास पर बोलते रहे. शेष के पास उनको सुनने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था.
फिर त्रिलोचन जी पूरे सफ़र बरुवारीपुर की व्युत्पत्ति तथा विकास पर बोलते रहे. शेष के पास उनको सुनने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था.
वह जो भी हो बर अथवा बरु, हमारे लिए समर्थ और आत्मीय कवि मान बहादुर सिंह का गांव था. ऐसा कवि जो मन एवं तन से ठेठ गंवई था. जो अपनों के हजार इसरार के बावजूद शहर में रात बसर करने को तैयार न होता. जबकि वह अपने विचारों में पर्याप्त आधुनिक थे. अंगरेजी से एम. ए. थे इलाहाबाद वि. वि. से और दुनिया के अनेक काव्य सिद्धांतों से परिचित थे.
शहर उनको प्रारंभ से अप्रिय था. युवावस्था में उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने गए थे, इलाहाबाद उनको रास नहीं आया, जबकि उन दिनों वह साहित्य, विद्या, राजनीति का महान तीर्थ था, और ये सभी क्षेत्र मान बहादुर जी की पसंद थे. फिर भी उनका मन नहीं लगा. वह बताते कि उन्होंने वहां पांच वर्ष का समय खिचड़ी खाकर काट दिया था. वह प्रतिदिन दोनों बेला खिचड़ी पकाते और शेष समय पढ़ते रहते.
– उन पांच वर्षों में जीभ ने कभी आपसे विद्रोह नहीं किया ? मेरा उनसे प्रश्न था.
– मैं जीभ का ग़ुलाम नहीं. उन्होंने बताया.
सचमुच उन्होंने अपनी रसना को साध लिया था. बल्कि किसी भी क़िस्म की विलासिता के प्रति उनमें विराग भाव रहता. अच्छा खाना, अच्छा कपड़ा, अच्छा रहन सहन सभी के प्रति वह प्रायः उदासीन रहते. वह महज सुर्ती और भांग के सम्मुख बेबस थे. उन्होंने एक कविता भी लिखी थी – सुर्ती, जिसकी कुछ पंक्तियां यूं हैं :
सुर्ती अपनी सच्ची साथी
सस्ती साथी
जब जी चाहा ओठ दबाया
हर थकन को दूर हटा कर
हमें काम पर फिर उकसाती
आँखों से झट नींद भगाती
यह चार पृष्ठों की कविता है और इसमें उन्होंने सुर्ती को अपनी कविता की गुइयां (सहेली) बताया और यह भी कहा है कि सभी नशों की नानी है यह. यहां सुर्ती को अपनी माटी की सोहर कजरी जैसा ऊंचा मुकाम दिया गया है.
भांग का सेवन वह रात में करते. वह भांग का गोला नहीं होता था, भांग का शरबत भी नहीं, वरन एक चूर्ण रहता था जिसमें हर्रे, सौंफ आदि भी मिलाये जाते थे. मान बहादुर जी सफाई देते – यह पेट को फायदा पहुंचाता है. यदि यह मान लिया जाए कि वह इसको पेट नहीं नशे के मकसद से ग्रहण करते थे तो भी कुल मिला कर उनका जीवन सादा और निश्चित क़िस्म का ही था. पढ़ना लिखना, परिवार की देखभाल, नौकरी के लिए रोज बेलहरी की यात्रा, वहां से लौट कर अपने साहित्य तथा कृषि के काम में मगन. बाकी जो वक्त बचता, मुकदमेबाजी में जाता. मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी को भी थोड़ा समय देते. जनपद के पुराने कम्युनिस्ट माकपा नेता कामरेड शीतला प्रसाद मान बहादुर जी के ही गांव के थे. दोनों में घनिष्ठता थी. इसीलिए मान बहादुर जी हम लोगों को कभी कभार कामरेड कह कर संबोधित करते. इस तरह देखा जाय, मान बहादुर सिंह समकालीन हिन्दी कविता में अनोखे उदाहरण थे, वह ऐसे कवि हुए जो ठेठ देहात में रह कर आधुनिक ढंग की कवितायेँ लिख रहा था. गांव में रह कर कविता करने वाली शख्सियत के रूप में उन्होंने दिल्ली तक का ध्यान आकृष्ट किया था और उनके पहले कविता संग्रह बीड़ी बुझने के क़रीब की प्रतिष्ठा में इस धारणा का भी अवदान था.
मान बहादुर जी का पहला संकलन 1978 में छप कर आया तो दो चीजों पर अलग से बात हुयी – एक, इसके रचनाकार पर विख्यात कवि धूमिल का गहरा असर है और दो, यह कि यह ऐसा विरल कवि है जो गांव में निवास करते हुए, जेठ पूस माघ भादों झेलते हुए ठोस आधुनिक और समकालीन संरचना की कवितायें रच रहा है. दोनों ही बातों में सच्चाई थी. निस्संदेह मान बहादुर जी की प्रारंभिक कविताओं पर धूमिल के काव्य मुहावरे का प्रभाव था किन्तु यह भी वास्तविकता है कि मान बहादुर जी ने बाद के दौर में अपनी कविताई में जो परिवर्तन किये उसने उनको किसी भी अन्य कवि या कविता के दबाव से मुक्त बनाया. उन्होंने कविताओं में कहानियों का तानाबाना बुना जो घटनात्मकता, चरित्रांकन, वातावरण और संवादों से सम्पन्न था और कविता को विस्तार में ले जाता था. उनकी मां जानती है, आंखें तैनात हैं जैसी अनेक कवितायेँ मुक्तछंद में प्रबंधात्मकता के रूपाकार का सटीक दृष्टांत कही जायेंगी. एक अवधि के अंतराल के उपरांत उन्होंने दोहे भी लिखे और अच्छी संख्या में लयात्मक गीतात्मक रचनायें पाठकों को सौंपी. विलक्षण यह था कि सामान्य आकार की कवितायेँ लिखने वाला सर्जक एक ओर प्रबंधात्मक दीर्घ कवितायेँ रच रहा था तो दूसरी ओर दोहा सरीखे काफ़ी लघु आकार के रूपविधान में खुद को अभिव्यक्त कर सकने की उसमें लियाकत थी.
मान बहादुर जी के यहां यह चीज भी ध्यान आकृष्ट करती है कि उनके रचनाकार में राजनीतिक दृष्टि विन्यस्त थी. दरअसल वह एक पोलिटिकल कवि थे और उनका राजनीतिक विवेक मार्क्सवाद से बावस्ता था. मार्क्सवाद शुरू शुरू में उनकी कविताओं को ज्यादा नियंत्रित करता है, ज्यादा स्टेटमेंट के रूप में आता है मगर बाद में उन्होंने ऐसा भी लिखा और काफ़ी लिखा जिसमें ग्रामीण जीवन के अनुभव, बिम्ब और क्रिया व्यापार वर्चस्व हासिल करते हैं. उनकी कुछ कविताओं में तो खास तरह की सौन्दर्याभिमुखता, रूमान, ऐंद्रिकता भी दिखाई देती है.
वह लेखन के प्रति पूर्णतया समर्पित व्यक्तित्व थे. बरवारीपुर में न साहित्य समारोह होते थे, न साहित्य के सत्ता प्रतिष्ठान थे. शराब की पार्टियां, फेलोशिप, विदेश यात्रायें, पुरस्कार आदि भी न थे जोकि लेखकों को बेहद प्यारे लगते हैं और जिनके आकर्षण में कई लेखन से विरत होकर यहां वहां का चक्कर लगाते हैं. मान बहादुर जी को इन नियामतों ने त्याग दिया था और खुद उन्होंने इनको. वह अधिकांश समय लिखने पढ़ने के काम में व्यस्त रहते और अपनी पारिवारिक सामजिक जिम्मेदारियां निभाते. नतीज़ा यह निकला कि उन्होंने मात्रात्मक दृष्टि से भी काफी लिखा. मेरे ख्याल से अस्सी के बाद के कविता परिदृश्य में जितना विपुल लेखन उनका था किसी अन्य का नहीं. लेकिन प्रकाशक बरवारीपुर में नहीं, दिल्ली इलाहाबाद में थे जहां मान बहादुर जी जाते नहीं थे, न उनकी खास जान पहचान थी. ध्यान रहे, उनके जो कविता संग्रह छपे उनको प्रकाशन संस्थान तथा अनामिका प्रकाशन ने प्रकाशित किया है; ये दोनों ही सुल्तानपुर के मूल निवासी हैं और रोज़ी के लिए दिल्ली इलाहाबाद में रह रहे हैं.
कहने का तात्पर्य कि गांव की सीमा में बंध कर रहना ठेठ कवि मान बहादुर सिंह के यशपथ में अब रुकावट बन रहा था जबकि एक समय तक इसका उन्हें फायदा हासिल हुआ था. वस्तुस्थित है कि द्विविभाजन को पसंद करने वाले भारतीय साहित्यिक सांस्कृतिक समाज का पलड़ा एक तरफ झुका रहता है. वह समृद्धि की तुलना में गरीबी, सबल की तुलना में निर्बल और शहर की तुलना में गांव को अधिक समर्थन देता है. नगर के बरक्स गांव सदैव ज्यादा नैतिक, सादा, उपेक्षित माना जाता है; सत्य भी यही है. अतः अपनी गंवई छाप की वजह से मान बहादुर जी को शुरुआत में अतिरिक्त ध्यानाकर्षण तथा समर्थन प्राप्त हुआ क्योंकि निश्चय ही वह अपनी रिहाइश के मामले में विशिष्ट हो गए थे. उनका एक मिथक सा बनने लगा जिसको उनकी वेशभूषा एवं कविताओं के देशी मुहावरे ने मजबूती दी. लेकिन अब मिथक की यथार्थ से टक्कर थी: मान बहादुर जी के पास कई संग्रहों भर की कवितायेँ थीं पर प्रकाशक विमुख थे. इतना तक कि जब अशोक वाजपेयी द्वारा घोषित और राज्य द्वारा संरक्षित कविता की वापसी के दौर में प्रकाशकों के मध्य कविता संकलनों को छापने का महोत्सव चल रहा था, मान बहादुर जी उपेक्षित, वंचित ही रहे. जबकि उनके साथ के नागर कवियों को पुरस्कार मिल रहे थे, भोपाल दिल्ली विदेश तक में काव्यपाठ हो रहे थे; उनके संकलन धड़ाधड़ नामीगिरामी प्रकाशक छाप रहे थे. अतएव बरवारीपुर के कवि में निराशा सी पनपने लगी जिसे वह इस तार्किकी से दूर भगाने का जतन करते कि उनकी उपेक्षा इसलिए है कि वह देशज और धुर वामपंथी हैं जबकि समकालीन कविता पर कुलीनतावादी, नागर और सुकोमल वामपंथियों का वर्चस्व है. परिणामस्वरूप ये लाभार्थी हैं और वह प्रताणित. मैं उनकी इस दलील से असहमत होता, उनके सामने भी अपनी नाइत्तफाकी जाहिर करता किन्तु वह अपने उपरोक्त विश्वास को लेकर दृढ़ थे कि दिल्ली के कुलीन कवि उनके विरुद्ध हैं.
एक दो मर्तबा जहमत उठा कर वह दिल्ली इलाहाबाद गए भी. एक बार वह इलाहाबाद गए तो मैं वहां विद्यार्थी के रूप में मौजूद था. मैं स्वयं संघर्षशील असफल युवा रचनाकार था, मेरे पास सफलता के दरवाजों की चाबियां कहां से होती. वह लम्बा कार्यक्रम बना कर आये थे मगर दो दिनों में ही उनका मन उचट गया, वापस लौट गए. इसी प्रकार वह एक बार, शायद 1987 में, दिल्ली आये तो मैं वहां एक बेरोजगार के रूप में उपस्थित था. नौकरी की तलाश में फ्रीलांसिग कर रहा था. हमारी मुलाकात दरियागंज स्थित प्रकाशन संस्थान के कार्यालय में हुयी. यह हरिश्चंद्र शर्मा का प्रकाशन है जो मूलतः सुल्तानपुर के रहने वाले हैं. अब के बारे में मैं नहीं जनता लेकिन तब यह पहली मंजिल पर एक अति लघु कमरा था जिसमें दो से ज्यादा मेहमान एक साथ नहीं बैठ सकते थे, जब मैं पहुंचा तो चार बैठे थे. एक स्टूल पर दो लोग. मान बहादुर जी क्या करते स्टूल खाली करके मेरे साथ सीढ़ियां उतरते हुए नीचे सड़क पर आ गए.
– कैसे हैं ? उन्होंने मेरा हालचाल पूछा. उनके स्वर में उदासी थी.
– कब तक रहेंगे ? .
– जल्द ही जाना चाहता हूं. वह खुश नहीं थे.
– क्यों ?
– मुझे यहां अच्छा नहीं लग रहा है.
इसके बाद कहीं जाने के लिए हमने बस पकड़ी. अब हमारे साथ अरविन्द कुमार सिंह भी हो गए थे जो नॉएडा में नौकरी कर रहे थे. बस में जगह न थी. हम धक्के खाते खड़े खड़े सफ़र कर रहे थे. ड्राईवर बीच बीच में इतनी जोर से ब्रेक मारता कि संतुलन बिगड़ जाता. मान बहादुर जी को ऐसी जुझारू यात्रा का बिलकुल अभ्यास नहीं था. वह कई बार गिरते गिरते बचे थे. इसी धक्का मुक्की में क्या हुआ कि उनका पैर पास खड़ी किसी लड़की के पांव को छू गया. लड़की ने गुस्से से देखा – कुर्ता धोती गमछा झोला पम्प शू वाला देहाती. उस लड़की ने इस ग्रामीण को फटकारा – पैर ठीक से क्यों नहीं रखते. अंधे हो, दिखाई नहीं पड़ता.
– क्षमा करें महोदया, मेरे पैरों के पास आंखें नहीं हैं.
मंजिल आने पर हम बस से उतर गए. मैं देर तक उनके साथ रहा. वह मुझसे कविता समाज राजनीति घर परिवार आदि पर बड़ी देर तक बातें करते रहे परन्तु बेचैन लग रहे थे.इस यात्रा में भी वह अपने निर्धारित कार्यक्रम से पर्याप्त पहले बरवारीपुर चले गए. मैं भी जल्द ही बहन की शादी पड़ जाने के कारण सुल्तानपुर लौट आया;
अब एक बार फिर पहले जैसी हमारी मुलाकातें होने लगीं. सुल्तानपुर वह सबसे ज्यादा मुकदमों के सिलसिले में आते थे. ये मुकदमें अमूमन उनके गांव के पट्टीदारों, पड़ोसियों से खेतबारी के छोटेमोटे विवादों के कारण थे जो दशकों से चल रहे थे. यदाकदा मान बहादुर जी मुझको दीवानी कचहरी लेकर जाते और अपने विरोधी से हंस हंस कर बातें करने लगते, वह भी बराबर का साथ देता. मान बहादुर जी उससे प्रश्न करते– का हो केस की अगली तारीख क्या पड़ी ? विरोधी उत्तर देता – चाचा सोलह तारीख. मान बहादुर जी कहते – हम जरा इनके, अखिलेश, के साथ जा रहे हैं, शाम को बस में पहले पहुंच कर मेरे लिए भी सीट छेकाए रहना. वादी या प्रतिवादी जो भी रहा हो, आश्वस्त करता– चाचा फिकर न करो, तुम बस पहुंचो. हे चाचा लो अमरूद खा लो.
अब मेरा सवाल था – आप लोग कौन दुश्मन हो जो इतने प्रेम से सब निभा रहे हो ?
मान बहादुर जी ने स्पष्ट किया – कई वर्षों तक मुक़दमे चलते हैं. इतने साल कि अगली पीढ़ियां जवान होकर कचहरी आने लगती हैं. हर तारीख पर एक साथ गांव से एक ही बस से आना, सुल्तानपुर आकर दीवानी का रास्ता पकड़ना, तारीख लेना, एक ही बस से लौटना – इस प्रक्रिया में संबंध सामान्य हो जाते हैं. आखिर मनुष्यों का साहचर्य ही तो प्रेम का सबसे बड़ा कारक होता है. फिलहाल मुक़दमे से मुक्त होकर मान बहादुर जी मित्रों के संसार में आ जाते.
कभी कभी वह मेरे घर आते. एक सरकारी कालोनी के दो कमरों वाले घर में मां पिता के साथ मैं रहता था. उस घर का दरवाजा जैसे खोलो एक कुर्सी रखी रहती थी, बाकी फर्नीचर कमरे के बीचोंबीच था. विचित्र बात थी कि उस कुर्सी पर सामान्य तौर पर मेहमान नहीं बैठते थे, शायद असुविधाजनक थी लेकिन मुझको वह बहुत पसंद थी. न जाने कितनी किताबें मैंने उसी के सहारे पढ़ीं. बल्कि सामान्यतः लोगों को नापसंद वह सिंहासन मेरे सारे लिखने पढ़ने वाले साथियों को प्रिय था. मान बहादुर जी भी आकर वहीं बैठ जाते और उनका काव्यपाठ शुरू होता. उनकी आवाज कविताओं के मर्म के साथ कमरे में गूंजती और निकल कर आंगन, बरामदे से होती हुयी दूसरे कमरे में दाखिल हो जाती; वहां जो मौजूद होता वह भी रम जाता. याद है कि उनसे उनकी अनगिनत कवितायें उसी जगह से मैंने सुनीं. लेकिन कई बार दिक्कत भी हो जाती थी. वह पाठ करते हुए इतना तन्मय होते कि अन्य की मनःस्थिति से उदासीन हो जाते. मां जानतीहै उनकी एक बहुत दीर्घ कविता है; संभवतः पचास पृष्ठों की होगी ही, उसे मुझे तीन बार सुनाया उन्होंने. हुआ यह कि एक पाठ के बाद मैं कुछ टिप्पणियां करता था जिनमें से ज्यादातर से वह असहमत होते जो उचित ही था किन्तु जिन बातों से इत्तफाक होता उसके अनुसार कविता पर थोड़ा काम करने के बाद वह पुन:पाठ से गुरेज नहीं करते थे. एक दफा मेरी नानी आयी हुयी थीं, पूछने लगीं – वही चिजिया बार बार क्यों सुनाते हैं.
खैर मेरी बहन की शादी में वह जरूर सुल्तानपुर में रुके. एक होटल में रात्रि शयन का इंतजाम था लेकिन मालूम हुआ, शयन गया चूल्हे भाड़ में, सारी रात वहां गद्य पद्य चलता रहा. मैं यहां घर में व्यस्त था, वहां मान बहादुर जी, बद्री नारायन, अजय तिवारी, अरविन्द कुमार सिंहजैसे अनेक अतिथि आपस में सुनते सुनाते रहे. जाहिर है मान बहादुर जी को सभी सुनना चाहते थे. मैं कोई उनका इकलौता दीवाना तो था नहीं.
इसके एक महीने के बाद मेरी बेरोजगारी बहरहाल समाप्त हुयी, मुझको उ.प्र. हिन्दी संस्थान में काम मिल गया. पहले इलाहाबाद में तैनाती हुयी, फिर एक साल के बाद लखनऊ तबादला हो गया. अब सुल्तानपुर में मेरी मौजूदगी कम होने लगी जो क़रीब एक डेढ़ वर्ष के उपरांत बहुत कम हो गयी. कालांतर में तो नाममात्र की रह गयी. लगभग इसी क्रम से मान बहादुर जी से मिलने जुलने में भी फर्क आया. हम मित्र जो मान बहादुर जी से गहरे जुड़े थे वे भी एक जगह पर नहीं रह गए. हरि भटनागर भोपाल, रमन मिश्र मुम्बई, राजू इलाहाबाद, शीतल बरेली, अरविन्द दिल्ली, मैं लखनऊ में. केवल सत्येन्द्र जी सुल्तानपुर में. और हमारे अगुआ, प्रिय कवि, अजीज इन्सान, कामरेड मान बहादुर सिंह बरवारीपुर में. अब उनका निकट का साथ, सत्संग मेरे बड़े भाई सरीखे, बुद्धिजीवी, मेरे गर्दिश के दिनों के दोस्त कमल नयन पांडे जी से था. कमल नयन जी तब भी, आज भी, ऐसे नाभिक हैं जो उड़ कर दूर दूर पहुंची सुल्तानपुर की साहित्यिक सांस्कृतिक मिट्टी को आपस में बांधते हैं. और उस दौर में तो संपर्क के लिए आज की तरह चाकचौबंद तथा सस्ती संचार व्यवस्था भी न थी, अतः मान बहादुर जी और हम साथी बहुत मिलजुल न सकने के बावजूद कमल नयन जी के मार्फ़त एक दूसरे के जीवन से, सुख दुःख से वाकिफ रहते थे, जुड़े रहते थे. उन्हीं से एक दिन पता चला कि मान बहादुर जी अपने कॉलेज में प्रिंसिपल हो गए. इस सूचना से मुझको खुशी हुयी मगर यह भी लगा कि मान बहादुर जी को इस ज़िम्मेदारी के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए था. वह लिखने पढ़ने वाले आदमी हैं और सीधे सरल भी; अतः प्रिंसिपल जैसे प्रशासकीय पद का काम कैसे संभाल सकेंगे. लेकिन किसी ने बताया, बेहतर ढंग से संभाल रहे हैं तो मैं निश्चिंत हो गया.
इस तरह धीरे धीरे सन 1997 आ गया और अंततः 1997 का जुलाई की जुलाई की 24 तारीख भी. 25 तारीख की सुबह थी. तड़के अखबार आ गया था. चाय पीते हुए पढ़ रहा था. सुल्तानपुर के उस समाचार पर भी आंख गयी – प्राचार्य की हत्या. मैं पूरा पढ़ता उससे पहले ही फोन आने शुरू हो गए – हत्या मान बहादुर जी की हुयी थी. किसी आत्मीय की मृत्यु दुःख देती है मगर उनकी हत्या ने दुःख, क्रोध, पछतावा, क्षोभ जैसे अनेक भावों से न केवल मुझे वरन समूचे देश के साहित्यिक लोगों को हिला दिया था. हत्यारा फरार था. दिन, हफ्ते, माह बीतने लगे; राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में शोकसभाएं हो रही थीं, जुलूस निकल रहे थे परन्तु मान बहादुर सिंह का कातिल फरार था.
हत्यारा विद्यालय में अकेले मान बहादुर सिंह के ऑफिस में घुसा था. वह कॉलेज के छात्रों, अध्यापकों, इतर कर्मचारियों के समूह के बीच से उन्हें खींचता हुआ ले गया. कायरों का हुजूम देख रहा था; किसी ने आगे बढ़ कर उसका गिरहबान नहीं पकड़ा, उसके हाथ नहीं मरोड़े. उसने भरे बाजार सरेआम कस्बे के हजारों लोगों की मौजूदगी में लोकनिर्माण विभाग के एक कोलतार वाले ड्रम पर अपनी गर्दन रखने के लिए मान बहादुर जी से कहा. उन्होंने रख दी; शायद उनको अभी भी मनुष्य जाति की करुणा और सदाशयता पर विश्वास था कि कोई उनका कत्ल क्यों करेगा. जैसे एक भयानक दु:स्वप्न देखा जा रहा हो, गंड़ासे से ड्रम पर टिका सर धड़ से अलग कर दिया गया था. इस तरह दुनिया को बदलने और उसे बेइंतिहा सुन्दर बनाने का ख्वाब देखने वाला कवि दुनिया से चला गया.
मान बहादुर जी की कविता मैं तो ऐसा गीत लिखूंगा की कुछ पंक्तियां यूं हैं –
हां ऐसा ही गीत लिखूंगा
जैसे सावन के बादल लख
सूखे ताल मोरनी पिंहके
जली तपी माटी के भीतर
चुनमुन अंखुए झांके लहके
दरअसल वह ऐसे ही गीत और कविताएं तो रच रहे थे. उनका दुनिया से चले जाना कविता के अकाल में सूखे ताल मोरनी सरीखे पाठकों के लिए एक सांवले बादल की अनुपस्थिति है. खुद मेरे लिए तो एक प्रिय, गर्वदायी, आदरणीय शख्सियत की भी क्षति है जिसे मैंने शुरुआती दौर में ही जाना था. जिसे हम सब दोस्त बेहद चाहते थे और जो हमें भी बहुत प्यार करता था.
अखिलेश
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