विवेक निराला
देश और देश और देश के बीच
मरे हुए और मरे हुए लोगों के बीच
कथा और हकीकत के बीच
बचे हुए कुछ जि़ंदा शब्द
हंस रहे पूरे आत्मविश्वास के साथ
और बन रही है कहीं
कोई एक लम्बी कविता.
अपने पहले कविता-संग्रह ‘हम बचे रहेंगे’ से ही चर्चा में आए कवि विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता-संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग’ अब सामने है. किसी कवि का दूसरा संग्रह आने के बाद जहां कवि पर विश्वास और दृढ़ होता है वहीं एक सहज जिज्ञासा भी जन्म लेती है कि कवि ने अपना कितना विकास किया है? क्योंकि कुछ कवि अपने पहले कविता-संग्रह को ही नहीं लांघ पाते जबकि कुछेक कवियों के लिए उनका हर संग्रह अनन्तिम लगता है. पहला संग्रह ही बहुत सुगठित और ‘मेच्योर’ हो तो यह आशंका थोड़ी और बढ़ जाती है.
विमलेश के पहले कविता-संग्रह में उसके पहले होने का एक युवापन था एवं और भी पकने की संभावनाएं थीं. यदि शीर्षकों के सहारे कहें तो पहले में जहां ‘हम बचे रहेंगे’ का युवा जोश था वहीं दूसरे तक आते-आते कवि ‘एक देश और मरे हुए लोग’ खड़ा देख रहा है. पहले में जहां ‘ईश्वर हो जाउंगा’ के ‘भरोसे के तन्तु’ थे वहीं दूसरे में ‘जीने की लालसा’ के साथ ‘जीवन का शोकगीत’ भी है.
यह कविता-संग्रह पाँच उपशीर्षकों में विभक्त है. इस तरह मैं, बिना नाम की नदियां, दुख-सुख का संगीत, कविता नहीं तथा एक देश और मरे हुए लोग- इन स्वरों में जैसे कवि का पूरा राग निबद्ध है. एक कविता में खुद विमलेश कहते हैं- ‘‘ आओ कि/मिल कर निर्मित करें एक राग/जो ज़रूरी है/बहुत ज़रूरी/इस धरती को बचाने के लिए.’’ कवि राजेश जोशी कहते हैं कि सतर्कता और चालाकी से कुछ भी पैदा किया जा सकता है, लेकिन कविता नहीं. यह बात बिल्कुल सही है कि चालाकी से बहुत कुछ पैदा किया जा सकता हो किन्तु मनुष्यता का तो क्षरण ही होगा. यह संग्रह हमें इस लिए भी आश्वस्त करता है कि विमलेश की कविताएं चालाकी की नहीं, मनुष्य की जिजीविषा की सहज-सरल कविताएं हैं. जो सतर्कता और चालाकी नहीं जानते उन्हें मूर्ख समझा जाता है और शायद इसीलिए समझदारों-दुनियादारों के बीच कवि मूर्खता का वरण करता है-
समय के लिहाज से अब तक
मूर्खों ने ही बचाया है कला की दुनिया को
आज के समय में बुद्धिमान होना
बेईमान और बेशरम होना है
इसलिए हे भंते बुद्धिमानों की दुनिया में
मैं मूर्ख रहकर ही जीना चाहता हूं
इसलिए हे भंते मैं पूरे होश-ओ-हवास में
और खुशी-खुशी
मूर्खता का वरण कर रहा हूं. (स्वीकार)
कभी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सभ्यता के विकास के साथ कवि-कर्म के कठिन होते जाने की बात कही थी. कवि राजेश जोशी कहते हैं-‘‘कविता ने बिम्बों की जिस भाषा को सदियों में रचा था, आज वह संकट में है क्योंकि बाज़ार और नयी प्रौद्योगिकी ने बिम्बों की एक प्रतिभाषा तैयार कर ली है.’’ गोल्डमान का विचार था कि बाज़ार का अर्थशास्त्र मनुष्य को इण्डीविजुअल, एक स्वतन्त्र इकाई बनाते हुए कविता को एक ऐसी एकल आवाज़ बना देगा जो आन्तरिक रूप से थकान और बाहरी रूप से क्षरण की शिकार होगी और अन्ततः उसकी मृत्यु हो जायेगी. किन्तु इतिहास देखें तो लगता है कि जेनुइन कविता के लिए हर समय मुश्किल ही रहा है. आज भी कठिन समय की बातें की जा रही हैं किन्तु अभिव्यक्ति के ख़तरे मौजूद हैं तो इस कटिन समय में भी स्पेस मौजूद है. सांच कहै तो मारन धावै का संकट कबीर का भी था और आज के कवि की मुश्किल भी है.
लोग जल्दी में हैं
सबको दर्ज़ करना है अपना-अपना इतिहास
मैं संकोची
एक जमाने पहले खेत-बधार छोड़ कर आया
लौटना चाहता हूं
उस समय में
जब सच कहना रिवाज था
झूठ की आंखों में घोंप दी जाती थीं सैकड़ों सुइयां. (एक देश और मरे हुए लोग).
बहुत पहले के आचार्य भरत मुनि ने एलीट क्लास यानी भद्रलोक से अलग लोक में तीन तरह के लोग बताये हैं-‘दुःखार्तानां’, ‘श्रमार्तानां’ और ‘शोकार्तानां’. बाद में अभिनव गुप्त ने लोक को और स्पष्ट करते हुए कहा-‘लोकानां जनपद वासी जनाः.’ 90’ के बाद कवियों का नागर जीवन से लोक जीवन की ओर झुकाव हुआ है. इसे भी संशय की दृष्टि से देखा जा रहा है और लोक में शरण लेना कहा जा रहा है, हालांकि यह भी एक सच है कि कुछ कवियों ने फैशन के तहत लोकभाषा और लोक जीवन को कविता में ला खड़ा किया है. ऐसे कवियों ने लोकगीतों का उल्था कर कविता ‘बनायी’ है या कहें कि लोक को एक ‘डिवाइस’ की तरह इस्तेमाल कर कविता रची है, लेकिन कुछ विभिन्न अंचलों से आए कवियों ने आंचलिक बोली-भाषा और लोक संवेदना से हिन्दी कविता के शब्दकोश का विस्तार भी किया है और कविता का एक दूसरा सौन्दर्यशास्त्र भी खड़ा किया. इन कवियों ने ‘लोकेल’ को ग्लोबल के बर-अक्स खड़ा किया है. विमलेश भले कोलकाता में रहते हों लेकिन जानते और मानते हैं कि ‘‘मेरा कोई शहर नहीं मैं किसी शहर में नहीं/मेरे अंदर एक बूढ़ा गांव हांफता’’ है.
लोक में शरण लेना वस्तुतः भूमण्डलीकरण के प्रतिरोध का एक तरीका है. भूमण्डलीकरण एक शहरी समाज उत्पन्न करता है जबकि लोकजीवन शहरी समाज के पहले की अवस्था है. भूमण्डलीकरण से पहले का पूंजीवादी समाज भी इस लोकजीवन को आहत करता है. लोकजीवन की यह विशेषता होती है कि उसमें मानव समाज प्रकृति के साथ बंधा रहता है जबकि भूमण्डलीकरण प्रकृति के शोषण और दोहन की वैश्विक व्यवस्था है. प्रकृति का शोषण होगा तो मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता भी टूटेगा और जब यह सम्बन्ध-विच्छेद होगा तो मनुष्य प्रकृति को अपना उपनिवेश समझेगा, फिर जीवन के वे मूल्य भी नहीं रह जाएंगे. भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में जब गांव के गांव उजाड़े जा रहे हों और विकास के नाम पर किसानों की उर्वर ज़मीन पर कंकरीट की अट्टालिकाओं से सजे बंजर ‘स्पेशल इकोनामिक जोन’ बनाए जा रहे हों तो लोकजीवन से जुड़ा कवि इस कारपोरेट लूट पर टिप्पणी करता है-
लूट रहा कोई हरियाली
सोख रहा नदियां, जल कोई
खिलते नहीं फूल दस बजिया
कहां गई सूरज की लाली
उखड़ा जाता भू का सीवन.
पूंजी का सब खेल तमाशा
जेब भरो सब अपना-अपना
आम आदमी मीठा चारा
खाओ देकर झूठ दिलासा
कहो मुबारक निर्जन भूवन…..
हमारे समय में बहुत सारी चीजें हैं, दुनिया को मुठ्ठी में समेट लेने के नारे हैं, चकाचैंध से भरा बाज़ार है, इन्टरनेट है और उसकी एक वर्चुअल दुनिया है लेकिन इन सबके बीच एकान्त कहीं गुम हो गया है. प्रकृति से मनुष्य का रिश्ता और भी कम रह गया है. कंकरीट के जंगलों से फूल-पत्ती-पेड़-चिडि़या गायब हुए तो जीवन और कविता में भी इनकी कमी साफ़ दिखाई देती है. प्रकृति से संवाद के स्वर साहित्य में विरल हैं. विमलेश के इस संग्रह से यह सुख मिलता है कि इसमें रोज आकर मुंडेर पर बैठने वाली चिडि़या के अब न आने का दुःख भी है और एक पेड़ से संवाद भी. खिड़की पर फदगुदिया शीर्षक कविता में वे कहते हैं-
कोई नहीं था कहीं
जिससे कह सकता
खिड़की पर
हसरत भरी निग़ाह से ताकती
एक फदगुदिया चिरई थी
उसके समीप जाकर
धीरे से उसके कानों में फुसफुसाया-
कि गांव से चिठ्ठी आई है
आज मैं बहुत खुश हूं
और उसके साथ मैं भी
आसमान में उड़ गया.
इस कविता संग्रह में ‘बिना नाम की नदियां’ उपशीर्षक के अन्तर्गत स्त्रियों पर केन्द्रित कविताएं हैं. जीवन के रिश्तों को भी कवि अपनी कविताओं का विषय बनाता है. जीवन के ये रिश्ते स्थाई हैं, रिश्ते की ये स्त्रियां स्थाई हैं और इन स्त्रियों की बेडि़यां भी फिलवक़्त स्थाई ही हैं. इन कविताओं में आजी, माँ और बहनों के साथ ही हाॅस्टल की लड़कियां भी शामिल हैं. ‘एक ऐसे देश और समय में पैदा हुई थीं वे/जहां उनके होने से कंधा झुक जाता था’. इन कविताओं में पितृसत्ता की बेडि़यां हैं तो उनसे मुक्ति की छटपटाहट भी. इसीलिए वे कहती हैं-‘‘मत भेजना मुझे बाबुल वहां/जहां आदमी नहीं रहते/सिर्फ़ लाशें रहतीं टहलती/भेजना मुझे तो भेजना मेरे बाबुल/उस लोहार के पास भेजना/जो मेरी सदियों की बेडि़यों को पिघला सके.’’ स्त्री-पराधीनता का सम्बन्ध जैविक कारणों से है अथवा आर्थिक कारणों से- यह प्रश्न विचारण्ीय रहा है. माक्र्सवाद आर्थिक संसाधनों पर पुरुष वर्चस्व को इसका कारण मानता है, किन्तु क्या स्त्री का आत्मनिर्भर होना ही इसका हल है? उसकी हंसी से लेकर प्रजनन तक पुरुष का नियंत्रण है. निर्णय का अधिकार भी पुरुष के पास सुरक्षित है. भले ही कहा जा रहा हो कि बाज़ार स्त्री को मुक्त कर रहा है लेकिन विमलेश बताते हैं कि ‘‘उन्हें ज़रूरत नहीं मंहगे आई लाइनर्स, नेल पाॅलिश/या खूब चटक आलता की/….उन्हें ज़रूरत खूब चमकीली धूप की/जिस पर जता सकें वे अपना हक़ किसी भी मनुष्य से अधिक/जिसे भर सकें अपनी आत्मा के सबसे गोपन जगह में.’’ हिन्दी कविता में स्त्री तो हमेशा से रही है किन्तु उस कविता का आनन्द उसे कम ही मिल पाया है. कविता रचने वाली स्त्रियां हमेशा बहुत थोड़ी रही हैं. प्रायः कविता में हम पुरुष द्वारा गढ़ी हुयी स्त्री ही पाते हैं, फिर भी कुछ रचनाकार परकाया-प्रवेश से स्त्री और उसकी आकांक्षा व्यक्त कर पाते हैं.
दास्तावस्की ने पीड़ा के क्षणों में कभी कहा था कि सुन्दरता ही इस संसार को बचा सकती है. हर कला के पास सौन्दर्य का एक महास्वप्न होता है. लेकिन सौन्दर्य के साथ वितृष्णा से भरा कटु यथार्थ भी इसी संसार का सच है. यहां कोमलता और प्रेम है तो क्रूरता और हिंसा भी है. हमारे एक बड़े कवि जयशंकर प्रसाद कहते हैं-‘विषमता की पीड़ा से व्यस्त, स्पंदित हो रहा विश्व महान’. जीवन तो विषमताओं से भरा हुआ ही है. इसीलिए विमलेश के इस संग्रह का एक उपशीर्षक है- दुख-सुख का संगीत. इन कविताओं में सुख के संगीत की एक रागिनी भी है और गहरा आर्तनाद भी. कवि स्वीकार करता है कि दुख ने ही बचाया हर बार मर-मर जाने से और दुख ने ही मुझे अपने कवि के साथ साबुत रहने दिया. इसी खण्ड की एक कविता है- घर.
घर एक जंगल है-हम भयभीत रहते हुए भी यहीं रहते हैं
घर दुख है-उससे भागते हैं हम
घर सुख है-बार-बार हम वहीं लौटना चाहते हैं.
कला की जीवन के प्रति और जीवन की कला के प्रति उत्तरदायित्वहीनता के संवाद और विवाद चलते ही रहते हैं. बाख्तीन का प्रसिद्ध कथन है कि ‘कला और जीवन एक नहीं हैं, लेकिन उनको मुझमें एक होना होगा- मेरे उत्तरदायित्व की एकता में.‘ यह एकता मुश्किल जरूरत है पर नामुमकिन नहीं और हर जेनुइन कवि कला और जीवन के उत्तरदायित्व की एकता को साधता है. संग्रह में ‘कविता नहीं’ उपशीर्षक के साथ आठ कविताएं संकलित हैं. विमलेश आदमी के कंधे या किसान अथवा बढ़ई के काठ से ज़्यादा कवि का क़द नहीं बढ़ा पाते क्योंकि ये सब सर्जक या सृजन के उपादान हैं बिल्कुल कवि जैसे ही. फिर किसान से अलग कवि के परिभू-मनीषी होने को वे कोई अर्थवत्ता नहीं देना चाहते.
अच्छा छोड़ो यह सब
शब्दों के सहारे इस देश के एक किसान के घर चलो
देखो उसके अन्न की हांडी खाली है
उसमें थोड़ा चावल रख दो
थोड़ी देर बाद जब किसान थक-हार कर लौटेगा अपने घर
तब चावल देखकर
उसके चेहरे पर एक कविता कौंधेगी
उसे नोट करो….
फिलहाल चलो
इस देश के संसद भवन में
और अपने शब्दों को
बारूद में तब्दील होते हुए देखो.
इस कविता संग्रह के अंतिम खण्ड में पांच लम्बी कविताएं हैं. इधर जीवन की जटिलता और जटिलतर होते यथार्थ के बीच लम्बी कविताओं की वापसी हुयी है. कई महत्वपूर्ण लम्बी कविताएं इन दिनों रची गयीं. विमलेश की लम्बी कविताएं अपने अलग ही स्थापत्य और सौन्दर्य के साथ आती हैं इनमें परम्परा की अनुगूंज भी है और नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा भी. हर कवि को अपने लिए भाषा की खोज करनी पड़ती है जिसमें वह बोल सके. विमलेश ने अपनी भाषा भी खोज ली है और अपनी विशिष्ट कहन शैली भी. उन्हीं के शब्दों के सहारे कहें तो-‘कविता से हीन इस समय में/शब्दों से हीन इस समय में/मूल्यों से हीन इस समय में‘ ये कविताएं सुख भी देती हैं और इस कवि के प्रति आश्वस्त भी करती हैं.
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