शिग़ाफ़ : दरारों पर पुल बनाने की कोशिश
सुमन केशरी
राजकमल से २०१० में प्रकाशित मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास शिगाफ पर जिज्ञासा द्वारा आयोजित परिचर्चा में सुमन केशरी का आलेख.
कृति को उसकी सम्पूर्णता में देखते हुए सुमन केशरी ने उपन्यास के बहाने आज की वैश्विक अस्मिता संकट की राजनीति, उसके परिणाम और उसके संभावित खतरे की विवेचना की है. यह विवेचना बहुकोणीय इस तरह है की कृति और आलोकित हो उठती है.
मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास शिगाफ़ पढ़ते हुए मेरी आँखों के आगे बार बार मंझोले कद का गोरा चिट्टा, दुबला–पतला लड़का क्यों आ खड़ा होता है, जो 1999-2000 के आस पास कश्मीरी विस्थापितों के लिए चंदा मांगने आता था – हम कैंप में रह रहे हैं.. आंटी आपके पास अगर कुछ कपड़े…’ अजीब मजबूर आँखें – संकोच और झुंझलाहट से भरी हुई. गर्मी की तपती दोपहरें कैसी अंगारों-सी लगती होंगी उसे. उसे घर से बेघर और खुद्दार इंसान से मजबूर भिखारी बनाने की जिम्मेदारी अव्याख्येय प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि इंसान की खुदगर्जी और दरिन्दगी थी. शिगाफ़ उस तथा उस जैसे हजारों कश्मीरियों की ऐसी कहानी है, जिसे कहने वाली कश्मीरी नही है. वह मुसलमान भी नहीं है, पर कश्मीरी हिन्दुओं और मुसलमानों के दुखों को देख पा रही है, इस प्रकार यह उपन्यास परकाया प्रवेश का सुंदर उदाहरण बन गया है.
अभूतपूर्व उपलब्धियों से जगमगाते हमारे समय की सबसे बड़ी उपलब्धि है-अविश्वास. यह दुनिया को जानने समझने की लीनियर दृष्टि का ही परिणाम है कि हम मानने लगे हैं कि एक का सच दूसरे के सच से जुदा होता है, एक की सच्चाई के सामने दूसरे का पक्ष झूठा हो जाता है अगर सीधे-सीधे झूठा नहीं तो अविश्वसनीय या संदेहास्पद तो जरूर ही. इसीलिए अपने सच को धर्म मानकर उसके लिए खुद मर जाना या दूसरे को मार गिराना लक्ष्य प्राप्ति का अनुष्ठान बन जाता है. भांति भांति के रंग-रूप, भाषा-व्यवहार, सोच-विचार-आस्था वाले लोग साथ साथ परस्पर मेल-जोल से रह सकते है, यह तो असंभव सपना हुआ जा रहा है.
साहित्य हो या राजनीति या कोई भी अन्य सामाजिक क्रिया, आजकल के उत्तर आधुनिक अस्मितावादी दौर में प्रामाणिकता की खोज अस्मिता के दायरे में ही करने का चलन बन गया है. प्रामाणिकता और अस्मिता लगभग पर्याय हो गए हैं. आजकल कोई कथा प्रामाणिक तभी है जबकि वह ठेठ सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता के अर्थ में विशुद्ध आत्म द्वारा बाँची जा रही हो. इस प्रचलित कॉमनसेंस का सर्जनात्मक प्रतिवाद करने के कारण मनीषा कुलश्रेष्ठ का शिगाफ़ गहरे और दूरगामी अर्थों में महत्वपूर्ण हो जाता है.
एक आम भारतीय अपनी तमाम जातिगत, लिंगगत, भाषागत, प्रांतगत, प्रोफेशनगत अस्मिताओं के बावजूद भारतीय हो सकता है. पर हम इंटेलेक्चुअलों के कंधो पर तो हाशिए के प्रताडि़तो के उत्थान की इतनी महत् जिम्मेदारी है कि हम अस्मिता के कुंए से छलांग लगाकर सीधे अन्तर्राष्ट्रीयता के महासागर में डाईव करते हैं. इसीलिए कश्मीर समस्या पर बात करते हुए वे लोग लगभग भुला दिए गए हैं, जो कभी वहां के वाशिन्दे थे, और अब अपने ही देश में शरणार्थी हैं.
यूं तो शिगाफ़, उपन्यास की प्रोटोगोनिष्ट अमिता के माध्यम से कश्मीर विस्थापन को देखने की कोशिश है जिसकी शुरूआत कश्मीर से भगाए हिन्दुओं के घर से बेघर कर दिए जाने के दर्द से होती है, पर यास्मीन, जुलेखा, नसीम, सुलतान और जमान की कथाओं के माध्यम से शिगाफ़ पूरे के पूरे कश्मीरी अवाम के विस्थापन की पीड़ा को अभिव्यक्त करता है.
ब्लॉग, डायरी, बहस, आत्मालाप तथा वर्णनो-विवरणों से बनी इस किताब में न तो हम अखबारी एकरसता देखते है और न ‘’हाय कश्मीर’’ .. ‘’वाह कश्मीर’’ जैसी गलदश्रुपूर्ण भावुकता. यह जरूर है कि इन प्रविधियों के प्रयोगों के चलते समस्याओं को पात्रों के नजरिए से ही देखा गया है, जिससे समस्याओं के दार्शनिक आयाम उपेक्षित रह गए हैं. इस शैली के प्रयोग से उपन्यास में रोचकता तो आ गई है पर गंभीर पाठकों को गहराई का अभाव खटकता है.
यह ध्यान देने की बात है कि उपन्यास में दी गई तारीखें वास्तविक घटनाओं के घटे होने की तारीखें भी हैं अर्थात ये घटनाएं उन्हीं तारीखों में सचमुच में घटी थी. इस दृष्टि से यह उपन्यास सच और गल्प का अद्भुत संगम है.
उपन्यास का आरंभ स्पेन में होता है. स्पेन मायने, अपने प्रान्त से ही नही – देश से भी जलावतनी की पीड़ा और समानता यह कि स्पेन भी बास्क–गैर बास्क संघर्ष में गृहयुद्ध का सामना कर चुका है. ला मांचा की यात्रा के दौरान इयान बाँड, अमिता को फ्रांको की तानाशाही, गुएर्निका की तबाही, पोस्ट सिविल वार सोसाइटी की हिप्पोक्रेसी, जीवन मूल्यों में आई भारी गिरावट और आंतरिक संघर्षों के बारे में बताते हुए कहता है कि –तुम्हारा कश्मीर मसला… कुछ कुछ हमारे ऐतिहासिक बॉंस्क संघर्ष से मिलता है. हमने भी तो हल निकाला था. हमारे यहां बास्क समुदाय की अपनी स्वतंत्र पहचान है. वे अपने हितों का फैसला खुद करते हैं. बास्क स्वायतशासी स्टेट है. (38)
यह बात कहते हुए इयान बाँड एक ओर तो पाम्पलोना की गलियों में गैर बास्क लोगों के इमिग्रेशन को लेकर दीवारो में दर्ज विरोध को भूल जाता है और यह भी कि इन दिनों सारे विश्व में धर्म, नस्ल और रंग तथा विचारधारा को लेकर संकीर्णता नजर आ रही है. अमिता नोट करती है कि हम ‘’पीछे की तरफ लौट रहे हैं’’ (16)
इयान बाँड द्वारा बास्क समस्या हल किए जाने की बात सुनकर ही अमिता महसूस करती है कि ‘’हमारे यहां हल निकालना इतना आसान नहीं’’ क्योंकि बकौल जमान कहें तो कश्मीर की समस्या असीमित कोणों वाली समस्या है, जिसका कोई भी छोर पकड़ पाना मुश्किल ही है. 172
शिगाफ़ की खूबी यही है कि मनीषा कश्मीर समस्या को अनेक कोणों से देखने का प्रयास करती हैं. जहीन मेडीकल स्टूडेंट वसीम क़य्यूम खान इस्लाम को बचाने के लिए, इस्लाम के मूल्यों को जिन्दा रखने के लिए .. कश्मीर की जन्नती फि़जा को काफ़िरों से आजाद कराने और कश्मीर को एक आजाद इस्लामिक मुल्क बनाने के लिए ही अलगाववादी/आतंकी बना (221). 12 सितम्बर 1999 की अपनी डायरी में वसीम को प्रेम करने वाली यास्मीन नोट करती है कि आक़बत (मरने के बाद की दुनिया) और मगफ़रित (मौत के बाद कयामत के दिन होने वाले इम्तिहान) के नाम पर जिन्दा लोगों को बम में बदला जा रहा है. (315)
समस्या को दूसरा पक्ष दुनिया के नक्शे में कश्मीर के स्ट्रेटेजिक लोकेशन से सम्बद्ध है. अमिता के शब्दों में, \” के इश्यू’ अब भारत और पाकिस्तान की बीच ही नहीं रहा है, इसके सुलझावों और उलझावों के बीच चीन और अमेरिका भी अपने कांटे डाल चुके हैं. उनकी भी युद्ध नीतियों का अहम् मुद्दा है ये ‘के’ मसला.\” (39)
कश्मीर मामले का एक सिरा उस राजनीति से जुड़ता है जिसमें नेता देश की सुरक्षा और विश्वास को भाड़ में झोंकते हुए, कड़ी परिस्थितियों में ड्यूटी निभाते जवानों और अधिकारियों को मानवाधिकार आयोग के अलावा ‘एमनेस्टी’ जैसी संस्थाओ के सामने आए दिन मानवाधिकार हनन के आरोप में खड़ा कर देते हैं. उपन्यास सेना के जवानों के मानवधिकार के सवाल उठाने का भी साहस दिखाती है, जो अन्यत्र दिखाई नहीं पड़ता
.
और इन सबके ऊपर वजीर की टिप्पणी कि …बदलेगा नहीं (भला कश्मीर) जब चारों तरफ से पैसा कश्मीर की और बह रहा है. आर्मी से, सरकार से, मिलिटेंसी से, सऊदी अरब से, एन जी ओ से. आजकल यहॉं हर किसी ने दुकान खोली हुई है. यहां हर चीज़ बिक रही है – यतीमों की, मज़लूम औरतों की, मिलिटेंट बनाने की, पकड़वाने की, उनसे मिलवाने की.… बदअमनी का लंबा-चौड़ा कारोबार फैला हो तो कौन अमन चाहे? न मिलिटरी, न मिलिटेंट. एन जी ओ की मुफ्त रोटी.. सऊदी अरब से मिलता शोरबा…. किसको भुखमरी में लिपटा अमन चाहिए?\” (85)
और इस कथन के दो भिन्न चित्र बहुत साफ और अंदर तक हिला देने वाले अंदाज में मिलते है. एक है जुलैखा के पिता द्वारा आतंकियों को पनाह देने की कथा और दूसरा उपन्यास के अंत में अमन की उम्मीद जगाते टूरिस्टों के बस पर भूख की मार से त्रस्त बच्चे द्वारा बम फेंके जाने की घटना.
जीते जागते इंसान को पुतलों में बदल देने वाले हथियारों का आकर्षण….. छिपा-छिपी के खेल के से ऐडवेंचर की तरफ ललक दिखती है जमान पर गोली मारनेवाले किशोर में तथा वसीम के भतीजे- अज़ीम की इस बात में कि, ‘चचा इस बार हमें ले चलो.फुसफुसा कर मुझसे (आतंकी वसीम से) बोला था वह. दिसंबर की ठंड में उसकी आवाज से उठता धुआँ और चेहरे पर रोमांच का लुत्फ….’…’तू छोटा है.‘ ‘गनी बेग के लड़को से दो एक साल बड़ा ही होऊंगा…जिन्हें पिछले साल आपके दोस्त ले गए थे चचा मैं भी क्लाशनिकावें देखूंगा… एके भी…. (222-223)
तब अज़ीम को न पता था कि मौत जल्दी ही उसके वजूद पर हक़ जमा लेगी, ठीक उसी तरह जैसे, बस पर बम फेंकने वाला बच्चा नही जानता कि टूरिस्ट नहीं आएंगे तो वह और भूखा मरेगा. जैसे वसीम यह बात जानता है वैसे ही बम फेंकने वाले बच्चे का पिता भी. पर वे सब अपने अपने तथाकथित लक्ष्यों के जालों में उलझे और कसे हुए हैं – कोई नही जानता कि वास्तव में जाल का सूत्र किन शक्तियों के हाथों में हैं — ये लोग कठपुतलियाँ हैं महज कठपुतलियाँ. यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि शेर की सवारी के खतरे कितने बड़े होते है. हिंसा के जिन्न को बोतल से निकालना आसान है क्योंकि भले ही कहा जाए कि हिंसा, मानव के मूल स्वभाव का हिस्सा है, पर हिंसा हिंसा को ही जन्म देगी – शांति और सौन्दर्य को नहीं. यहाँ गांधी अत्यंत प्रासंगिक हो उठते है जब वे कहते हैं कि साध्य ही नही साधन का अहिंसक होना भी जरूरी है- बोए पेड़ बबूल के ते आम कहां ते होए – गांधी परम्परा के इसी टेक के हिमायती हैं . आज हम मिश्र और लिबिया के उदाहरणों से इसे बखूबी समझ सकते हैं. यह अकस्मात नहीं कि बिल्कुल शुरू में ही अर्थात् उपन्यास शुरू होने के पहले ही लेखिका ने कैफ़ी आजमी की यह नज़्म दी है —
एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार
एक खतरनाक शिगाफ़ उसमें नजर आता है
देखते हो तो सुलह की तदबीर करो
अहम पेचीदा मसाइल हैं
उनका सुलझाओ सहीफ़
कोई तहरीर करो
अलगाववादी वसीम भी अपने प्यारों – अज़ीम व यास्मीन तथा अपने अजन्मे बच्चे को खोने के बाद अंतत: इसी नतीजे पर पहुँचता है, ‘’क्या इसके (असलाहों के) बिना हमारी बात कोई नहीं सुन सकता?’’ (223)… ‘’मैं आजादी की जंग और आजादी के नारे के मायनो पर दुबारा सोचूंगा.‘’ (228)
इस उपन्यास में मनीषा विस्थापन की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए एक बिम्ब का बार बार उपयोग करती हैं—‘हमारी जड़ें खुल गई हैं’... ‘जड़ें नंगी हो गई हैं…’ आदि. अमिता के माध्यम से लेखिका गोया इन्हीं जड़ों की तलाश करती है. मनीषा एक जगह यह भी नोट करती हैं कि हिन्दुओं के कश्मीर से विस्थापित हो जाने के बाद वहाँ बचे मुसलमानों की भी जड़ें उघड़ गईं हैं, क्यों कि दोनो कौमे एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं. यह बात भारतीय सामाजिक- सांस्कृतिक विशेषता को रेखंकित करती है.
जैसा कि ऊपर नोट किया गया है कि यह उपन्यास एक तरह से कई छोटी-छोटी कहानियों का कोलाज है. स्पेन में अमिता के जीवन की चर्चा की गई है, जिसका एक अन्य पक्ष अमिता के जीवन में पहले प्यार की तरह इयान बांड का आना है. यह आकर्षण रूह में तो उतरता है पर शरीर में नहीं बहता- कारण – श्रीनगर से विस्थापित होने के बाद अमिता के साथ हुई दुर्घटना. मकान मालिक के वहशीपन की शिकार अमिता लंबे समय तक ठंडेपन में जीती है. जमान के जीवन का दर्द, और उस दर्द के बावजूद अपनी मूल इंसानियत को बनाए रखने की उसकी जिद.. मौत से सीधे जूझ पड़ने की उसकी वृति और क्रमश: हिन्दुस्तान के प्रति बढ़ती समझ के चलते अमिता अपने प्रेम को रूह से उतार कर जिस्म में बहने देती है. यह भी नोट करना चाहिए कि अमिता, जमान में, इयान बांड, यानी कि अपने पहले प्रेम की छवि देखती है. भले ही उपन्यास के शुरू में और खत्म होने पर अमिता के प्रेम का वर्णन किया गया हो पर यह उपन्यास अमिता की प्रेम गाथा नहीं है. अगर वह प्रेम गाथा है भी तो यास्मीन वसीम की प्रेम कथा है और जुबैदा आसिफ़ की प्रेम कथा है… ऐसी प्रेम कथाएं जो परवान न चढ़ सकीं.. जो खून से रंगी गईं क्योंकि न जमीन पर शांति थी न मन में अमन.
विस्थापित हिन्दुओं की तकलीफ़ और गुस्सा अमिता के ब्लॉग पर आई प्रतिक्रियाओं में दिखाई पड़ता है और मणि मौसी की पोती की सगाई में इकट्ठे हुए रिश्तेदारों की बातों में खबरों में फ़ेक एन्काउंटर्स में मारे गए कश्मीरियों के लिए अलगाववादी पार्टी के नेताओं के उपवास पर अरूण भाई साहब की टिप्पणी इसी गुस्से को दिखाती है – ‘कश्मीर में एथनिक क्लीजिंग के पैरोकार यही थे जो आज उपवास रख रहे हैं. हिटलर मानो गांधी का चोला पहनकर आ गया हो….‘ यही गुस्सा अमिता द्वारा मतिभ्रम का शिकार होकर जम्मू में हब्बाकदल ढूंढती दादी के जिक्र में भी दिखाई पड़ता है. मनीषा इस गुस्से को उपन्यास पर हावी नहीं होने देती और ठंडे दिमाग से सभी पक्षों का मत रखती चलती हैं. उनका अपना रूझान स्वभावत: मनुष्यता की तरफ है, डॉयलॉग की तरफ़ है प्रेम की तरफ है.
उपन्यास में तीन और कहानियॉं हमारा ध्यान खींचती हैं. ये हैं नसीम, यास्मीन और जुलेखा की कहानियॉं.दिल्ली की सेल्सगर्ल नसीम की यह बात अंदर तक झकझोर देती है कि ‘हाल तो यह है कि कमाऊ आदमी कश्मीर में आजकल सात औरतों पर एक आता है. (76) और ‘औरते मारे डर के महीनों से सोए बिना रह रही हैं.‘ (78) यही बातें तलाकशुदा नसीम को दिल्ली ले आती हैं जहां वह एक अधेड़ आयु के शादी शुदा आदमी की दूसरी पत्नी बन जाती है. पत्नी, पर हैसियत सेल्सगर्ल से ज्यादा नही. बाकी दो कहानियॉं ज्यादा मार्मिक हैं. यास्मीन की व्यथा और उसकी मौत तो अलगाववादी नेता वसीम की सोच को ही बदल देती है. बहुसांस्कृतिक विरासत को प्यार करने वाले, प्रयोगवादी अमनपसंद टीचर रहमान की बेटी यास्मीन पिता की ही अनुकृति है. वसीम से प्रेम करने और उसके बीज को धारण करने के बावजूद वह वसीम की पोलिटिक्स को एकदम नकार देती है.
यास्मीन दरअसल अमिता के व्यक्तित्व का, उसके चरित्र की ही गोया एक पहलू है – वस्तुत: अमिता की रचनात्मक अभिव्यक्ति
छनती है इस कब्र से वह रोशनी
मेरे चेहरे पर पहचान की तरह थिरकती है… 127
तीसरी कहानी जुलेखा की प्रेमकथा है – यास्मीन के प्रेम में वसीम को बदलने का सामर्थ्य है तो जुलेखा प्रेम में सब कुछ यहां तक खुद को भी भुला बैठने का प्रतीक. वह आसिफ के प्रेम में जेहाद और वफ़ा के लिए सदियों की नींद में गुम हो जाने की ख्वाहिश रखती है और पहली फिदायिन का रूतबा हासिल करती है – अपनो के सुकून के लिए खुद को खत्म कर डालती है क्योकि माँ को जुलेखा का किसी पाकिस्तानी से निक़ाह मंजूर नही.
ये सारी कहानियां अंतत: पूरे कश्मीरी अवाम के विस्थापन की पीड़ा की अभिव्यक्ति है. इस विस्थापन की मार को सबसे ज्यादा औरतो ने झेला – शरीर पर – आत्मा पर – हर जगह. अमिता के ब्लॉग का यह हस्सा बेहद महत्वपूर्ण है –
सोचती हूँ, बिना जलावतन हुए भी यह कैसी बेदर्द जलावतनी थी नसीम की. और जो वहीं रह रही हैं … उनकी हर रोज जिस्म से रूह की जलावतनी. कौन ज्यादा दु:ख में है – हम जो वहां से भगा दी गईं – मार दी गईं – जला दी गईं या वो जो वहां भाग रही हैं, अपने वर्तमान से, रोज मर रही हैं पता नहीं. 79
जलावतनी की शिकार अमिता अपनी त्रासदी को ही गोया जीने का आधार बना लेती है. वह मानो अपने लिए कश्मीर को खोजती है – महसूसती है अपने तईं. त्रासदियों से मुक्त करके देखें तो अमिता ऐसा चरित्र है जैसा होने का सपना कोई भी चेतस् स्त्री देखना चाहेगी. अमिता मानो एक मुक्त आत्मा है – स्वच्छंद – आपकी खोई हुई आत्माभिव्यक्ति. क्यों कि वह वहां जाती है जहॉं जाने से आप डरेंगे. यह चरित्र उपन्यास की कमजोरी भी है और ताकत भी. कमजोरी इस अर्थ में कि अमिता का चरित्र बहुत वास्तविक बहुत यथार्थ नहीं लगता. ताकत यह कि आप उसके मार्फत जाने कितनी कहानियों के प्रत्यक्षदर्शी हो जाते हैं – कश्मीर के दु:ख को अपने तईं जीने को बाध्य.
स्पेन में स्पेनिश और कश्मीरियों से कश्मीरी में बात करती अमिता पूरी कहानी को पाठक की रग रग में भर देती है.
यह आकस्मिक नहीं कि कश्मीर समस्या का एक महत्वपूर्ण सिरा वसीम जैसे युवाओं के भटकाव से जुड़ा है और अमिता कश्मीर पर अपनी किताब खत्मकर यूथ पीस फेस्टीवल में हिस्सा लेने जाती है. वह जिन लोगों के संपर्क में है – वे सब के सब – वजीर, उसकी बहन नज्म और ग्रेस की सम्पादिका नौशाबा बीबी ओर खुद जमान – सब के सब युवा एकमत हैं कि पेचीदा मसाइलों को सुलझाने के लिए तहरीर जरूरी है. वे गोया वसीम के हाथ मल कर रह जाने वाले दु:ख को जमान के खत के इन शब्दों में याद करते है –
अगर मैं जानता यह आखिरी वक्त है
तो निकालता कुछ मिनट तुम्हारे लिए
तुम्हें रोककर कहता
प्यार करता हूं तुम्हें – बजाय यह मान लेने कि
इस कहने में रखा क्या है
यह तो तुम जानती होगी…
अगर सब यह जान लें कि इस वक्त का सच यही जीवन है और वे आक़बत (मरने के बाद की दुनिया) और मगफ़रित (मौत के बाद कयामत के दिन होने वाले इम्तहान) से किसी तरह मुक्त हो सकें तो उम्मीद बचती है कि दुनिया कुछ रहने लायक हो सकेगी .
शायद यह पढ़ते-सुनते हुए हमारे सिरों पर से भी हुमा उड़ रहा हो… आमीन..