• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » परख : निर्वासन (अखिलेश) : हरे प्रकाश उपाध्याय

परख : निर्वासन (अखिलेश) : हरे प्रकाश उपाध्याय

प्रसिद्ध कथाकार और तद्भव के यशस्वी संपादक अखिलेश (१९६० : सुल्तानपुर-उ.प्र) का यह दूसरा उपन्यास है- उनके तीन कहानी संग्रह (आदमी टूटता नहीं, मुक्ति, शापग्रस्त और अंधेरा) और एक उपन्यास (अन्वेषण) प्रकाशित है. उन्हें श्रीकांत वर्मा, इंदु शर्मा कथा, परिमल, वनमाली, अयोध्याप्रसाद खत्री, स्पंदन, बालकृष्ण शर्मा \’नवीन\’ और कथा पुरस्कार आदि से सम्मानित किया जा […]

by arun dev
May 31, 2014
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
प्रसिद्ध कथाकार और तद्भव के यशस्वी संपादक अखिलेश (१९६० : सुल्तानपुर-उ.प्र) का यह दूसरा उपन्यास है- उनके तीन कहानी संग्रह (आदमी टूटता नहीं, मुक्ति, शापग्रस्त और अंधेरा) और एक उपन्यास (अन्वेषण) प्रकाशित है. उन्हें श्रीकांत वर्मा, इंदु शर्मा कथा, परिमल, वनमाली, अयोध्याप्रसाद खत्री, स्पंदन, बालकृष्ण शर्मा \’नवीन\’ और कथा पुरस्कार आदि से सम्मानित किया जा चुका है. इस चर्चित कृति पर हरे प्रकाश की समीक्षा.  


____________
बे द ख ली का म हा आ ख्या न
हरे प्रकाश उपाध्याय


उग रहे हैं दरोदीवार पे सब्जा गालिब
हम बियाबान में हैं घर में बहार आयी है.
अखिलेश
गालिब
कथाकार अखिलेश के उपन्यास निर्वासन के केंद्र में यूँ तो विस्थापन की समस्या है, पर यह महज भौगोलिक स्तर पर नहीं है, यह बहुस्तरीय और बहुआयामी है. दरअसल विस्थापन एक ऐसी शाश्वत समस्या है जो निरंतर घटित होती रहती है और मनुष्य के पर्यावरण में यह आदि से अनंत तक फैली हुई है. एक काल को विस्थापित कर दूसरा काल दाखिल होता है, एक पीढ़ी को विस्थापित कर दूसरी पीढ़ी दाखिल होती है, एक स्मृति या अवधारणा को मिटाती हुई दूसरी स्मृति काबिज होती है. कई बार कई प्रसंगों में विस्थापन इतना बेआवाज और अमूर्त्त होता है कि उसकी भनक तक नहीं मिलती पर चीजें विस्थापित होती रहती हैं और हम वक्त की रफ्तार में उसकी अनुगंजों को पकड़ नहीं पाते. उससे अनुकूलित हो जाते हैं. जो अनुकूलित नहीं हो पाते, वे अन्य तरीके से विस्थापित हो जाते हैं. विस्थापन कई स्तरों पर घटित हो रहा है, समाज के स्तर पर, पारिवारिक स्तर पर, यथार्थ के स्तर पर, अनुभव के स्तर पर, भावनाओं के स्तर पर. इसके लिए बिल्कुल सटीक शब्द निर्वासन है जिसे अखिलेश ने उपन्यास के शीर्षक के तौर पर चुना है. भौगोलिक विस्थापन को तो हर कोई समझ लेता है, वह अति प्रचलित और अति चर्चित है मगर जीवन स्थितियों, सामाजिक स्थितियों और भावनात्मक स्थितियों के स्तर पर जो निर्वासन बेआवाज जारी है, उससे पीड़ित-प्रताड़ित होते हुए भी हम न उस पर बहुत बात करते हैं और न उसे ठीक से समझ पाते हैं. इस प्रसंग में उपन्यास में चाचा द्वारा सूर्यकांत को लिखी चिट्ठी की पंक्तियां याद आती हैं, जिसमें चाचा अपने शहर में होते हुए भी खुद को विस्थापित बताते हुए लिखते हैं- मैं पांडे के बाबा या पांडे की तरह विस्थापित बिल्कुल नहीं हूँ. मैं जिस सुलतानपुर में बचपन से धूल-मिट्टी खाता रहा, वहीं हूँ लेकिन मैं बिछड़ने की तकलीफ कम नहीं सह रहा हूँ. मेरा पूरा समय ही लोप हो गया है. मेरे सारे अपने, मेरा हर परिचय मुझसे छिटक कर बहुत दूर जा गिरा है या मैं उनसे बेदखल पाताल में पटक दिया गया हूँ. हर विस्थापन में वापसी होती है, लौटने की गुंजाइश या उसका सपना रहता है मगर मैं जो विस्थापन भुगत रहा हूँ, उसमें लौटना बिल्कुल नहीं है, लगातार दूर होते जाना है.  आज का यह निर्वासन अत्यंत भयावह है और अखिलेश ने इसी पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. सूर्यकांत भी चाचा के उस पत्र का जवाब लिखते हुए खुद को एक भयावह विस्थापन का शिकार बता रहा है. जबकि घर से निकाले जाने के लंबे अर्से बाद वह अपने परिवार से मिलकर सुलतानपुर से लखनऊ लौट रहा है. वह सुलतानपुर रामअंजोर पांडे के बाबा के पुरखों-परिजनों की तलाश में आया है पर अपने परिजनों, गाँव और गोसाईंगंज के निवासियों से मिलकर उसे जो अहसास होता है, उसे वह कुछ यूँ प्रकट करता है– विस्थापन में आपकी जड़ें आपके भीतर पैठ बनाये रहती हैं, लेकिन अब मेरे अंदर वह सारा तबाह हो चुका है. संबंध अपने अर्थ खो चुके हैं, वे अपनी आत्मीयता और ऊष्मा से स्खलित हो चुके हैं. ट्रेन में सफर कर रहा सूर्यकांत परिजनों द्वारा दिये गये उपहार की पोटली उठाता है और धीरे से ट्रेन के बाहर छोड़ देता है. यह अत्यंत मार्मिक दृश्य है.

आलोचक राजकुमार ने अखिलेश के इस उपन्यास को संभाव्य चेतना का उपन्यास माना है, पर दरअसल यह शाश्वत चेतना का उपन्यास है. यह उन सच्चाइयों से टकराने की कोशिश है, जो ओझल तो हैं पर आक्रांत पूरी सृष्टि को किये हुई हैं. इस उपन्यास में भविष्य की आहटें भी हैं और अतीत की स्मृतियां भी हैं और वर्तमान की जद्दोजहद की ध्वनियां भी हैं. इस उपन्यास में अपने देश, अपने समाज, अपने परिवार और अपने यथार्थ से निर्वासित हुए लोग अपने मूल की तरफ, अपने अतीत की तरफ अत्यंत करुणा व बेचारगीपूर्वक बार-बार मुड़कर देखते हैं और उसके प्रति पर्याप्त मोह और ममता से आप्त हैं मगर वह अतीत और मूल वक्त के प्रवाह में स्वयं ही इतना निर्वासित, गडमड, जर्जर और जटिल हो चुका है कि उसे पाना, उससे जुड़ना भी अंततः एक निर्वासन का ही चुनाव है. वक्त की आंधी ने चीजों को इतना झकझोर दिया है कि वे अपनी जगह से हिल गयी हैं, धकेल दी गयी हैं और धूसरित हो चुकी हैं. क्या विडंबना है कि एक समय जो विस्थापन मजबूरी और यातना का सबब था, वही विस्थापन बदले हुए वक्त में स्वप्न बन गया है.

सवा सौ साल पहले भगेलू को अकाल और भूखमरी ने अपनी जमीन से निर्वासित किया. अपने गाँव, देश, परिवार को छोड़ने के लिए वे अभिशप्त हुए. वे जीवन और प्रकृति की यातनाओं की मार झेलते हुए धोखे से गिरमिटिया मजदूर बनाकर गोसाईंगंज से सूरीनाम पहुँचा दिये गये. वही सौ-सवा सौ वर्ष बाद उसी गोसाईंगंज और सुलतानपुर में हालत यह है कि पढ़े-लिखे से न पढ़े-लिखे तक हर आदमी का सपना हो गया है कि वह देश छोड़े. उसे अपना देश रास नहीं आ रहा है. उपन्यास का एक पात्र शिब्बू कहता है- आज के सभी लड़के-लड़की पासपोर्ट बनवा चुके हैं या उसके लिए अप्लाई कर चुके हैं. इंडिया में कोई सड़ना नहीं चाहता, हर कोई अच्छी लाइफ मांगता चाचा. भयानक विडंबना है कि गुलाम भारत का नागरिक यातना और धोखे के कारण देश से निर्वासित होने को अभिशप्त था, तो आजाद भारत का नागरिक स्वेच्छा से, उम्मीद और खुशी से देश छोड़कर बाहर जाना चाहता है.

इस उपन्यास में इतने तरह के निर्वासनों से साक्षात होता है कि जैसे यह सृष्टि ही निर्वासनों की प्रतिश्रुति हो. सभी चीजें, हर मानव किसी न किसी कारण निर्वासित होने को अभिशप्त है. उपन्यास में दादी अपनी यादों में निर्वासित हैं. वे अपनी उम्र के यथार्थ से निर्वासित हैं. सूर्यकांत विजातीय लड़की से प्रेम विवाह करने के कारण परिवार से बाहर निकाल दिया जाता है. उसे अपना शहर, परिवार और घर छोड़ना पड़ता है. नौकरी में अपनी वैचारिक स्थिति के कारण वह निर्वासित होता है. वही उसके चाचा समय के साथ तालमेल न बिठा पाने, आधुनिक जीवन की चमक-दमक व संवेदनहीनता को न स्वीकार कर पाने के कारण अपने परिवार और अपने समय से निर्वासित हैं. राम अंजोर पांडे अपनी अमीरी से ऊबे हुए हैं, इस कारण वह अपने यथार्थ से निर्वासित हैं. वह हौली की शराब और चने की घुघरी का स्वाद लेना चाहते हैं और अंततः पुनरुत्थानवादी आध्यात्मिकता में जाकर गर्क होते हैं. हर आदमी या तो निर्वासन के कारण या निर्वासन के स्वप्न के कारण बेचैन रूह बना हुआ है. चैन किसी को नहीं है. यहाँ तक की बदलते दौर ने वस्तुओं में भी निर्वासन पैदा किया है. भाषा में निर्वासन हुआ है. बहुत सारे शब्द निर्वासित हो गये हैं. सबका बड़ा ही मार्मिक और सटीक संज्ञान अखिलेश ने इस उपन्यास में लिया है. पर निर्वासित चीजें नष्ट नहीं होती, बस वे रोशनी के बाहर चली जाती हैं, प्रचलन से हट जाती हैं. उन्हें फिर से कोई चाहे तो संजो भी सकता है. अखिलेश अपने इस उपन्यास में अतीत की उन मूल्यवान चीजों को, जो निर्वासित हो चुकी हैं, पुनर्वास की संभावना को भी इंगित करते हैं. उपन्यास में एक प्रसंग है. सूर्यकांत अपने चाचा के घर गया हुआ है अरसे बाद. परिवार और घर से निर्वासित होने के काफी समय बाद. चाचा अपनी तरह का जीवन जी रहे हैं. उन्होंने वर्तमान की आधुनिक चकाचौंध को नकारकर अलग ही यथार्थ में जीना शुरू कर दिया है. सूर्यकांत उनसे एक सवाल पूछता है- चाचा तुम कहां-कहां से तमाम ऐसी चीजें इस घर में रखे हो जो अब गायब हो चुकी हैं? चाचा इस सवाल को जो जवाब देते हैं, काफी दिलचस्प है, ध्यान देने लायक है. चाचा हँस कर कहते हैं- वे गायब नहीं हुई हैं. वे अपनी जगह से धकेल दी गयी हैं. मैं समझ रहा हूँ तुम्हारी बात. ये देसी आम, ये बरतन, ढिबरी, लालटेन, ये सिकहर, ये सिल लोढ़ा, ये सब इसी भारत देश में हैं, पर अपनी-अपनी जगह से धक्का दे दिये गये हैं. ये सब अंधेरे में गिर गये हैं कि तुम लोगों को दिखायी नहीं देते. पर ये हैं.
दरअसल यह उपन्यास महज निर्वासन के बारे में ही नहीं है बल्कि निर्वासन के बहाने उन्नीसवीं सदी के उतर्रार्द्ध से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक सामाजिक-पारिवारिक यथार्थ और मूल्यों में जो बदलाव घटित हुआ है, जो उत्तर आधुनिकता है, उसको भी पकड़ने की कोशिश है. किस तरह समय के साथ मनुष्य का काईंयापन, संवेदनहीनता बढ़ती गयी है, पुनरुत्थानवादी कोशिशें मजबूत होती गयी हैं, इन सब चीजों की बेहतर पड़ताल इस उपन्यास के माध्यम से हुई है. दरअसल संपूर्णानंद वृहस्पति, बहुगुणा, राम अंजोर पांडे महज खास चरित्र नहीं हैं, वे नये दौर के प्रतीक हैं, बिंब हैं. उनकी सोच में जो काइंयापन दिखाई पड़ता है, उनके मन में जो भ्रष्टाचार मौजूद है, वह हमारे दौर का यथार्थ है. नये दौर में यानी इक्कीसवीं सदी में मनुष्य सभ्यता के समक्ष जो संकट पैदा हुआ है, उस पर गंभीर बहस चाचा और सूर्यकांत के बीच हुई है, जो इस उपन्यास के बतर्ज हिंद स्वराज अध्याय के अंतर्गत दर्ज है. यह इस उपन्यास का की-चैप्टर है. यही सारे वे निचोड़ व्यक्त हैं जो इस उपन्यास के प्रस्थान की वजह बने होंगे. यहाँ चाचा और सूर्यकांत के बीच के दो प्रश्नोत्तरों का उल्लेख बहुत जरूरी है, वैसे इस पूरे अध्याय को ही गौर से समझा जाना चाहिए.

सूर्यकांत चाचा से पूछता है- ऐसा क्या हुआ जो आपको नयेपन से इतना परहेज हो गया? चाचा का जवाब है- गलत कह रहे हो…कौन ऐसा होगा जिसे बच्चे, कोंपलें और ताजा खिले फूल अच्छे नहीं लगेंगे. लेकिन कल्पना करो कोई शिशु अपने से बड़ों को गालियां बकना शुरू कर दे या दौड़ा-दौड़ा कर पीटना शुरू कर दे, तो वह सुंदर लगेगा या तरस खाने योग्य? पुराने का जाना और नये को आकर पुराना पुराना होना और जाना इस नियम से मैं भी वाकिफ हूँ किंतु ऐसा भी नहीं होता कि किसी वृक्ष पर केवल नये पत्तों को ही रहने का अधिकार होता है. पतझड़ एक साथ सभी पुरानी पत्तियों को नहीं उखाड़ देता है. इस तर्क से समाज में जो पिछड़े हैं, जो हाशिये पर हैं उनकी रुचियों, उनके रिवाजों, संस्कृतियों के लिए कोई जगह ही नहीं होनी चाहिये. देखो सूर्यकांत मुझे नयेपन से बिल्कुल परहेज नहीं है, तुम भूले नहीं होगे, मैंने हमेशा उसे गले लगाया. मुझे बस नयेपन का अहंकार और उसकी बेमुरौव्वती असह्य हो गयी, मुझे नफरत हो गयी उससे. मेरी दिली ख्वाहिश ऐसे समय में रहने की थी जहाँ नये पुराने दोनों की सुंदरताएं एक-दूसरे को मजबूती देती हों लेकिन कम से कम मैं ऐसा समय या समय में ऐसी जगह ढूंढ़ सकने में नाकाम रहा. इसलिये मैं पुराने समय में चला आया हूँ. भविष्य में मैं जा नहीं सकता था क्योंकि अपने सपनों का भविष्य हासिल करना इन्सान के अकेले अपने बूते का नहीं होता. और मैं अतीत में आ गया. जानता हूँ कि यह पुराना समय मेरा गढ़ा हुआ है. यह सहज नहीं, बनावटी है. लेकिन क्या करता, भविष्य मैं गढ़ नहीं सकता.

चाचा उत्तर आधुनिक जीवन में पैदा हुई बेरहमी, आपाधापी और चकाचौंध से व्यथित हैं, उसे स्वीकार-अंगीकार नहीं करना चाहते. वे इसके प्रति संघर्ष का रवैया अख्तियार किये हुए हैं. सूर्यकांत का एक और सवाल भी काफी उल्लेखनीय है और चाचा उसका जो जवाब देते हैं, उससे इस दौर की विडंबनाएं, कथित विकास के अंतर्विरोध तार-तार हो जाते हैं.
सूर्यकांत सवाल उठाता है- चाचा आप बस खराब बातों को ही घुमाफिरा कर ला रहे हो. इतने सुंदर पार्क बन रहे हैं. चमचमाती सड़कें, फ्लाईओवर, साफ़-सुथरे मॉल बन रहे हैं. सुंदर मकान और उनकी सुंदर साज-सज्जा, एक से एक बढ़िया कपड़े, पहनने का ढंग- ये सब आपको कुरुप लगते हैं? आपको बस अपना राग अलापने की पड़ी है….चाचा जवाब देते हैं- इन्हें तुम सौंदर्य मानते हो! मुझे तुम्हारी दिमागी गिरावट पर तरस आ रहा है. तुम्हारे तथाकथित महान सौंदर्य पर तुम्हारी गौरी या मेरी बलवंत कौर या किसी भी निष्कलुष स्त्री की मुस्कान या एक रोते हुए बच्चे का अचानक हँस पड़ना या एक चिड़िया का इस डाल से उस डाल पर फुदकना-कोई भी एक भारी पड़ेगा. सुंदरता तभी जन्म लेती है जब उसमें इन्सान, पशु, पक्षी किसी का भी जीवन भीतर से खुशी पाये. इसलिये वही खूबसूरत है जो भीतर से भी खूबसूरत है. तुम्हारे ये राष्ट्रीय राजमार्ग जो करोड़ों वृक्षों का वध करके बने हैं ये कैसे सुंदर हो सकते हैं. ये गाड़ियों और अमीरों की सुविधा के लिए बनाये गये हैं. मॉल सामान बेचने के लिए हैं. तुम्हारा ये औद्योगिक विकास सेज वगैरह फलाना ढिमाका जो किसानों की जमीन छीन कर तैयार हो रहे हैं. बाँध, बिजली परियोजनाएं जो इलाके की पूरी की पूरी आबादी को बेघर, विस्थापित करके प्रकट हो रही हैं- सुंदर कैसे हो सकती हैं?

चाचा इस उपन्यास के सबसे संघर्षशील, सजग और सतर्क चरित्र हैं. उनमें अपने युग का प्रतिकार भरा हुआ है. आज जो अंधाधुंध विकास की होड़ मची है, उस पर वे सवाल उठाते हैं. वे विकास की वजह से किसानों और हाशिये के लोगों के हो रहे विस्थापन का प्रश्न खड़ा करते हैं. कथित विकास ने मनुष्य की जिस सहजता व मनुष्यता को नष्ट कर दिया, जीवन के जिस आस्वाद को छीन लिया, चाचा उसकी याद दिलाते हैं. वे होड़ में शामिल होने से इंकार करते हुए अलग रास्ता चुनते हैं, हालांकि इस कारण वे अलग-थलग पड़े हुए भी दिखाई पड़ते हैं. यह हमारे समय की अजब त्रासदी है. इसी होड़ ने सुलतानपुर और गोसाईंगंज के लोगों में भी धन का अपार लालच और विस्थापन की ललक पैदा की है. धन की लालच के कारण गोसाईंगंज के तमाम लोग अमरीका पांडेसे संबंध जोड़ने के लिए झूठ का सहारा लेते हैं, अपनी परंपरा और विरासत से दगाबाजी करने को तैयार हैं. शिब्बू और देवदत्त तेंदुलकर अपना सहज जीवन और परिवार छोड़कर विदेश जाने की प्रचंड आतुरता प्रकट करते हैं.

इस उपन्यास के और समकालीन यथार्थ के मर्म को और बेहतर तरीके से समझने के लिए वे दो चिट्ठियां भी काफी महत्वूपर्ण हैं जो परस्पर चाचा और सूर्यकांत ने एक-दूसरे को लिखा है. ऐसे समय में जब हमारे जीवन से चिट्ठियां गायब हो रही हैं, चाचा ने अपनी चिट्ठी की जो प्रेरणा बतायी है, वह झकझोर देने वाली हैं. चाचा अपनी चिट्ठी में लिखते हैं- अब कोई पत्र नहीं लिखता, लोग एसएमएस और ईमेल से अपने संदेश भेजते हैं. मैं बहुत दिनों से इस चलन के चेहरे पर थप्पड़ मारने के लिए एक पत्र लिखना चाह रहा था. मैं कुछ वर्षों से चाह रहा था कि एक बढ़िया चिट्ठी लिखूं लेकिन बड़ा हृदयविदारक था कि मुझे कोई ऐसा मिल ही नहीं रहा था जिसको संबोधित करके मैं अपने दिल-दिमाग को उड़ेल दूँ. तो हालात यह है इस उत्तर आधुनिक दौर की कि आप चिट्ठी लिखना भी चाहें तो सुयोग्य कोई पात्र नहीं मिलता जिसको संबोधित चिट्ठी आप लिख सकें. पूरा जमाना बहुत हाई-फाई है. यहाँ काम भर बातें होती हैं और सबकुछ त्वरित है. संचार की अति उपलब्धता ने संवाद की, आत्मीय-अतंरंग संवादों की गुंजाइशें नष्ट कर दी हैं. चाचा ने अपनी चिट्ठी में सर्वग्रासी विकास का विकल्प सुझाते हुए लिखा है- देखो तो दुनिया की सुंदरता इसी में है कि मौसम को, नदी को, जंगल को, दिन और रात को मिटाओ नहीं और बर्बाद मत करो, बस उसमें इंसान के लिए थोड़ी गुंजायश और हिफाजत का रास्ता निकाल लो.

इस उपन्यास का सूत्रधार है सूर्यकांत जिसके सहारे कथा आगे बढ़ती है. अपने विचारों के कारण तंत्र में फिट नहीं बैठने की वजह से वह अपनी नौकरी से लगभग विस्थापित है. वह रोजगार का विकल्प तलाश रहा है. इसी दौरान बहुगुणा नामक पत्रकार के माध्यम से उसकी भेंट रामअंजोर पांडे से होती है जो गोसाईंगंज से अकाल, भूख, बीमारी और मौत से पीछा छुड़ाते हुए बदहवास धोखे से सूरीनाम पहुँच गये भगेलू पांडे के पोते हैं. राम अंजोर अपार दौलत के स्वामी हैं. पर उनके जीवन का हाहाकार भी कम मार्मिक नहीं है. उन्हें अपनी विरासत को संभालने वाला भरोसे का एक वारिस तक नहीं मिलता, तो दूसरी तरफ अपने पुरखों की खोज उन्हें ऐसी जगह पहुँचा देती है जो एक तरह से उनके वैभव और आधुनिकता की त्रासद परिणति है. रामअंजोर पांडे अपने पुरखों का पता लगाने का काम लगभग बेरोजगार हो चुके सूर्यकांत को सौंपते हैं. इस काम के कारण सूर्यकांत का लौटकर अपने उस परिवार के पास जाने का संयोग बनता है, जहाँ से एक ऐसी लड़की से प्रेम विवाह के कारण जिसका पारिवारिक मूल स्पष्ट नहीं है, वह जलील कर भगा दिया गया होता है. पर सूर्यकांत की यह वापसी उसकी आँख खोलने वाली है. इस यात्रा में वह पाता है कि किस तरह वक्त की रफ्तार ने उसके अतीत की तमाम चीजों को, गाँव, परिवार, संबंधों और लोगों की दिलचस्पी को किस तरह बदल दिया है. इसी प्रक्रिया में उसका बदले हुए गाँव, बदले हुए परिवार और बदली हुई परिस्थितियों से साक्षात्कार होता है. गोसाईंगंज में सूर्यकांत की यात्रा के माध्यम से अखिलेश ने ग्रामीण जीवन का काफी दिलचस्प व जीवंत खाका खींचा है. वहाँ जगदम्बा और प्रधान जैसे दो ऐसे दिलचस्प पात्रों से साक्षात्कार होता है जिनको भुला पाना कठिन है. इसके साथ ही समाज में जाति के प्रश्नों और औरतों की स्थिति पर भी उपन्यासकार ने बखूबी प्रकाश डाला है. उचित ही कहते हैं वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह कि निर्वासनभारतीय समाज के विकास मॉडल की सोनोग्राफी है. शिल्पगत रूप से भी उपन्यास में काफी नयापन है. विषय की संप्रेषणीयता और विश्वसनीयता के लिए अखिलेश ने उपन्यास के ढांचे में भी काफी तोड़-फोड़ किया है. और रोचकता का आलम यह है कि एक गंभीर विषय पर लिखा गया उपन्यास जीवन की तरलता से इतना छलछलाता हुआ भरा है कि कहीं कोई ऊब हावी नहीं होती. उपन्यास समाप्त होने तक सभी पात्रों की मित्रता पाठक से हो चुकी होती है.
कृति – निर्वासन ( उपन्यास) /उपन्यासकार- अखिलेश /प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली-1,मूल्य-600 रुपये

हरे प्रकाश की कविताएँ यहाँ पढ़ें .

मोबाइल-8756219902
hpupadhyay@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

महेश वर्मा की कविताएँ

Next Post

परख : स्वप्न समय (सविता सिंह) : ओम निश्चल

Related Posts

पहला एहतलाम : वसीम अहमद अलीमी
अनुवाद

पहला एहतलाम : वसीम अहमद अलीमी

अमरकांत की कहानियाँ : आनंद पांडेय
आलोचना

अमरकांत की कहानियाँ : आनंद पांडेय

मिथकों से विज्ञान तक : पीयूष त्रिपाठी
समीक्षा

मिथकों से विज्ञान तक : पीयूष त्रिपाठी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक