संवेदनाओं का पुल
सरिता शर्मा
कृति : रेत का पुल (कविता संग्रह, संस्करण-2012)
रचनाकार : मोहन राणा
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 200
मोहन राणा विदेश में बसे उन हिन्दी लेखकों में हैं, जो प्रचलित वादों और विवादों से दूर रहकर चुपचाप अपने लेखन में जुटे हुए हैं. उनकी सोच सर्वथा मौलिक है और अपनी जीवनदृष्टि को व्यक्त करने के लिए नए बिम्बों के इस्तेमाल से अपने अलग मुहावरे गढ़ते है. अब तक उनके सात कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उन्होंने ‘सबद’ ब्लॉग में आत्मकथ्य में अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बहुत ईमानदारी से लिखा है, ‘लेखक कविता और शब्द संरचना के बीच कार्बन पेपर की तरह है, जो हम छपा देखते-पढ़ते हैं वह दरअसल एक अनुभव का अनुवाद है जिसमें एक सच्चाई को उकेरा गया है. कविता दो बार किसी भाषा में अनुवादित होती है. पहली बार जब उसे शब्दाकार दिया जाता है दूसरी बार जब उसे पढ़ा और सुना जाता है. कविता अकथनीय सच का अंर्तबोध है और प्रेम का दिशा सूचक, भय मुक्त जीवन को जीने का रास्ता है. हर शब्द इस रास्ते पर एक कदम है. और हर कदम एक रास्ता है.’
कवि-आलोचक नंदकिशोर आचार्य के अनुसार –‘मोहन राणा की कविता अपने उल्लेखनीय वैशिष्टय के कारण अलग से पहचानी जाती रही है क्योंकि उसे किसी खाते में खतियाना संभव नहीं लगता. यह कविता यदि किसी विचारात्मक खाँचे में नहीं अँटती तो इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि मोहन राणा की कविता विचार से परहेज करती है – बल्कि वह यह जानती है कि कविता में विचार करने और कविता के विचार करने में क्या फर्क है. मोहन राणा के लिए काव्य रचना की प्रक्रिया अपने आपमें एक स्वायत्त विचार प्रक्रिया भी है.’
‘रेत कापुल’ मोहन राणा कासातवाँ कविता संग्रह है जिसमें 80 कविताएँ हैं. कवितायेँ –‘रेत का पुल’ और ‘तीसरा पहर’इन दो खण्डों में विभाजित हैं .ये कविताएंअपने समय का प्रतिनिधित्व करती हैं .मोहन राणा सार्वभौमिक कवि हैं जो यूरोप के भिन्नदेशों में भ्रमण करते हुए हर जगह अपने अतीत को तलाश करते है. इन कविताओं में स्वयं को पहचाननेऔर समझने की लगातार कोशिश दिखाई देती है और ये विस्थापन से जन्मे अकेलेपन को दर्शाती हैं. कवि का खुद से संवाद चलता रहता है. इनमें जीवन के सूक्ष्म अनुभव महसूस किये जा सकते हैं. बाज़ार संस्कृति की शक्तियों के विरुद्ध उनकी सोच कविता में उभरकर आती है.
पीछे रह गयी मातृभूमि रह– रह कर पुकारती है– ‘उत्प्रवासी\’ कविता में- ‘महाद्वीप एक से दूसरे तक ले जाते अपनी भाषा/ दुनिया और किसी अज्ञात के बीच एक घर साथ/ ले जाते आम और पीपल का गीत/ ले जाते कोई ग्रीष्म कोई दोपहर\’. स्वाभाविक चुप्पी और आसपास के माहौल से सम्प्रेषण न कर पाने की व्यथा को प्रकट किया गया है. अनबीता अतीत हमेशा साथ रहता है. उनकी कविताओं में स्मृतियों की भी एक अहम भूमिका है. ‘परसों का नाश्ता आज’ कवितामें स्ट्रीम ऑफ कॉन्शियसनेस दिखाई देती है ‘असावधान वर्तमान में हमेशा अतीत ही उपस्थित’. ‘रात’ कविता में स्मृतियाँ इस तरह आती हैं- \’फुसफुसाती वन देवी, पलकें बंद कर लो और जागो/ एक अँधेरे में जिसमें गुम हैं स्मृतियाँ/ कि उसे जीते हुए याद नहीं रहता कुछ देखकर भी वहां\’.देवी,साती रेक्ष्य में देखते हैं.
मोहन राणा की इन कविताओं में मानव और प्रकृति के अनंत रहस्यों में से गुजरते हुए हम भटकन, तकलीफ और संघर्ष से रूबरू होते हैं. उनकी कविता प्रकृति की रमणीयता में भी हमें आकर्षित करती हैं- जैसे ‘पनकौआ’ कविता में ‘छोटा होता जा रहा वसंत हर साल/ छोटा हो रहा है हर साल वसंत में’. इसी तरह एक और कविता ‘पानी का रंग’ से बानगी है‘कि ना यह गरमी का मौसम /ना पतझर का ना ही यह सर्दियों का कोई दिन/ कभी मैं अपने को ही पहचान कर भूल जाता हूँ’ और – ‘मुटरी’ कविता में ‘दिसंबर की सुबह जमे पाले में प्रकट हुई/बाहर कुहासे में ठिठुरता हुआ सन्नाटा’.
एमिली ब्रोंटे ने वुदरिंग हाइट्स में खिड़कियों, दरवाजों और मौसम के बिम्बों का इस्तेमाल पात्रों की मनोस्थिति को उजागर करने के लिए किया है. मोहन राणा की कविताओं में खिड़की लगातार नजर आती है जिससे वे अतीत में और सुदूर झांकते रह्ते हैं– ‘बंद कर दूँगा उसकी खिड़की पर गुलेल मारना’. ‘पाठ’ कविता में \’कई खिड़कियाँ हैं इस घर में एक बाहर एक भीतर’. ’ नक्शानवीस’ में – ‘समय के अंतराल में/ इन आतंकित गलियों में/ मैं देखता नहीं किसी खिड़की की ओर/ रूकता नहीं किसी दरवाजे के सामने\’. \’दरवेश सिफ़त\’ में खिड़की निरर्थक समय का बोध कराती है. ‘यहाँ कुछ स्थिति ही ऐसी हमारे इस मकान में खिड़कियाँ बहुत/ बाहर सब दिखता लगभग हर दिशा/ पर सवाल अक्सर होता कि कुछ दिखे मतलब का तो’. ‘दूर खिडकी पास दिल्ली’ में- ‘भाग रहा हूँ पर दूरियाँ बढ़ती चली जाती हैं\’. खिड़कियाँ एकांत को और भी अधिक भयावह बनाती हैं-‘क्या करूँ इस दृश्य का/ हर दिशा में/ मैं ही हूँ मैं’’.
प्रवासी व्यक्ति होता है उसकी लिखी कविता नहीं, अपने निबंध – \’कवि और समय\’ में मारीना तस्वेतायेवा ने एक जगह लिखा – \’हर कवि अनिवार्य रूप से एक उत्प्रवासी है ’. मोहन राणा ब्रिटेन में हिंदी उत्प्रवासी कवि हैं. भीतर और बाहर के भूगोल के लगातार भ्रमण से उपजी तकलीफ से व्याप्त उनकी कवितायेँ ग्लोबल दुनिया में जीवन-मूल्यों की तलाश करती हुई स्वप्नशीलता में ले जाती हैं. इनमें मन के मौसम के साथ- साथ बाहरी दुनिया की गतिविधियों को ध्यान में रखा गया है – ‘बदलती हुई सीमाओँ के भूगोल में/मेरा भय ही मेरे साथ है\’. ग्लोबल होने के बावजूद मोहन राणा अपनी जड़ों से पूर्णतः असम्पृक्त नहीं हुए हैं . \’अपना एक देस’ कविता में कवि देशवासियों द्वारा उसे भुला दिए जाने से आहत है. \’लोगों ने वहाँ बस याद किया भूलना ही/ था ना अपना एक देस बुलाया नहीं फिर’. भारत में चल रही उथल– पुथल पर उनकी पकड़ बनी हुई है. अन्ना के आन्दोलन को वह विश्व के अन्य भागों में हुई क्रांतियों के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं.\’भरम अनेक’ कविता मेंवह कहते हैं –\’अन्ना हम तुम्हारे साथ हैं मिर्च की पिचकारी आँखों में/ और थप्पड़ किसी नेता को, बुरे वक्त की निशानी कहते हैं बुजुर्ग चश्मे को ठीक करते/ इन दांतों में अब दाने नहीं चबते हवा में मुक्के भांजते/ प्रतिरोध की आँखों में मिर्च की पिचकारी मारता जॉन पाइक/ जैसे छिड़कता हो/ गाफिल कोई नाशक दवा खरपतवार पर/ पालथी बैठे छात्रों के धीरज पर’.
मोहन राणा ने कबीर को बदले सन्दर्भों में इन्टरप्रेट किया है. टी. एस. एलियट की तरह उद्धरणों को अपने ढंग से आज के समय से जोड़ दिया गया है जैसे \’कबीरा कुँआ एक पानी भरे अनेक/ सबको नहीं मिलता पानी फिर भी/ मिलता भरम अनेक’ और \’भाखा महाठगिनी हम जानी’. इन कविताओं में प्रेम सघन है मगर अपूर्णता और कसक भी बार- बार मुखरित होती है. – \’कभी लगता शायद दो ही मौसम हों अब से/ दो जैसे अच्छा बुरा/ सुख दुख/ प्रेम और भय/ तुम और मैं’. प्रेम जीवन की संजीवनी है- \’जरूरी सामान की पर्चियों के साथ अकेले/ जीने के लिए केवल सांस ही नहीं / प्रेम की आँच मन के सायों में / हाथ जो गिरते हुए थाम लेता’. प्रेम की स्मृतियाँ उसे जिन्दा रखती हैं- \’पंक्तियों के बीच अनुपस्थित हो/ तुम एक खामोश पहचान/ जैसे भटकते बादलों में अनुपस्थित बारिश/ तुम अनुपस्थित हो जीवन के हर रिक्त स्थान में/ समय नहीं चाहता था कि मैं तुम्हें पहचान लूँ फिर से/ जैसे देखा था पहली बार खुद को भूल कर’.
इन कविताओं में जीवनगान मुखर है. \’पनकौआ’में कटु हकीकत जानते हुए भी कवि आशावान है –\’पेड़ों पर कोंपले आएँगी/ बची हुई चिड़ियाएँ लौटेंगी दूर पास से/ आशा बनी है ऐलान ना होगा खबरों में/ किसी नई लड़ाई का’. कवि के मन में कविता के प्रति गहरा विश्वास है –\’कुछ दिन पहले कविता में यथार्थ की बात/ सोचते बोलते और कुछ दिन बीते रोवन का पेड़ हो गया दिसंबर’ और- \’कवितायेँ हवा की बनी पानी में पिघल गयी/ कागज गल के बनेंगे खाद पत्तों के साथ’. विचलित कर देने वाले दौर में कवियों की तटस्थता चिंताजनक है. \’इस तेज आंधी में नहीं दीखता नारों की ढलानों पर असभ्य शाहों के विरुद्ध कोई बोलता/ खटकती है आम सहमति कि/ कवियों के सरोकार जनपद में कविता की अनुपस्थिति’. \’शोकगीत’ कविता में भी यही दर्द उभरता है–\’आतंक के गलियारों में विलुप्त हैं शोकगीत इस बार/ चुप क्यों हैं शोकगीतों के कवि’. हिंदी कवियों की माली हालत खबर होने को लेकर भी कवि चिंतित है. \’अपील’ कविता में –\’विनती है ईश्वर हिंदी का कवि कभी बूढा ना हो अस्वस्थ ना हो/ उसे मांग ना करनी पड़े इलाज के पैसे के लिए/ रहने के लिए एक घर के लिए बच्चों की पढाई के लिए’.
इन कविताओं में एकांत और उत्प्रवास की पीड़ा की मौलिक शिल्प में गहन अभिव्यक्ति है .यहाँ स्थितियों पर तात्कालिक प्रतिक्रिया मात्र नहीं है. पहले कवि उन्हें आत्मसात करता है, फिर तटस्थता से विचार करने बाद उन्हें शब्दों में ढाला जाता है. ये कवितायें पढ़कर महसूस होता है मानो कवि शाश्वत सत्य की तलाश में निरंतर यात्रा पर हो. वास्तव में इस कविता संकलन को एक उत्प्रवासी की संवेदनाओं का पुल कहा जा सकता है जिसके आर- पार कवि स्मृतियों में विचरण करता रहता है. पुल के एक छोर पर पीछे छूट गया भारत है और दूसरे छोर पर
इंग्लैंड का वह शहर है जहाँ वह एकांतवास करता है. इस संग्रह की कविताओं में कला और कथ्य में परिपक्वता है. कुछ कवितायेँ अत्यधिक अमूर्त होने से दुरूह लगती हैं और कहीं- कहीं अकेलेपन की स्थिति में एकालाप अभिव्यंजना पर अधिक हावी हो जाता है. मगर समग्रता में यह कविता संकलन आज की कविता में महत्वपूर्ण स्थान रखता है.
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