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Home » परख : स्वप्न समय (सविता सिंह) : ओम निश्चल

परख : स्वप्न समय (सविता सिंह) : ओम निश्चल

स्‍वप्‍न समय सविता सिंह राधाकृष्‍ण प्रकाशन प्रा.लि.7/31, अंसारी मार्ग दरियागंज, नई दिल्‍ली मूल्‍य 250 रूपये स्‍त्री-मन की सुकोमल वीथियों से गुज़रते हुए ओम निश्‍चल सविता सिंह का नाम हिंदी कविता में जाना पहचाना है. अब तक उनके तीन संग्रह \’अपने जैसा जीवन\’, \’नींद थी और रात थी\’ व \’स्‍वप्‍न समय\’ प्रकाशित हैं किन्‍तु उनकी कविताओं का […]

by arun dev
June 2, 2014
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स्‍वप्‍न समय
सविता सिंह
राधाकृष्‍ण प्रकाशन प्रा.लि.7/31, अंसारी मार्ग
दरियागंज, नई दिल्‍ली

मूल्‍य 250 रूपये






स्‍त्री-मन की सुकोमल वीथियों से गुज़रते हुए
ओम निश्‍चल

सविता सिंह का नाम हिंदी कविता में जाना पहचाना है. अब तक उनके तीन संग्रह \’अपने जैसा जीवन\’, \’नींद थी और रात थी\’ व \’स्‍वप्‍न समय\’ प्रकाशित हैं किन्‍तु उनकी कविताओं का संसार बहुत घना और संवेदनशील है. उनकी कविताओं में जीवन का मटमैलापन, उदासियॉं, स्‍त्री-जीवन की कठिनाइयॉं और यातनाऍं भाषा-संवेदना के बारीक और झीने कलेवर में प्रकट होती हैं. वे उस मध्‍यवर्ग की स्‍त्रियों की गाथा अपनी कविताओं में लिखती हैं जिनके जीवन में दिखते चाकचिक्‍य के पीछे हताशाओं और रेत की तरह बिखरती जाती खुशियों का बुझा-बुझा सा संसार है. हाल में आया उनका कविता संग्रह \’स्‍वप्‍न समय\’ स्‍वप्‍नमयता में जीती स्‍त्रियों की पीड़ाओं का निर्वचन है. 
‘अपने जैसा जीवन’ और ‘नींद थी और रात थी’ के बाद ‘स्‍वप्‍न समय’ के साथ पुन: कविता के समुज्‍ज्‍वल आकाश में सविता सिंह का आगमन हुआ है. जो लोग सविता सिंह की कविताओं के मिजाज़ से वाकिफ हैं, वे यह जानते हैं कि उनकी कविता हमेशा शब्‍द-सौंदर्य के एक नए संसार का सृजन करती आई है. एक कवयित्री होने के नाते स्‍त्री के अभेद्य अवचेतन में क्‍या कुछ चमकता, घटित होता है, सविता सिंह उसे कविता की उनींदी और धड़कती हुई काव्‍यभाषा तथा अनूठी बिम्‍बमालाओं में व्‍यक्‍त करती हैं. रमानाथ अवस्‍थी ने लिखा है: ‘कुछ अँधियारे में खनकेंगे/कुछ सूनेपन में चमकेंगे/ उनमें ही कोई स्‍वप्‍न तुम्‍हारा भी होगा.‘ इन कविताओं में स्‍त्री का ऐसा ही स्‍वप्‍न-समय समाहित है जिनसे गुजर कर भारतीय स्‍त्री के सुकोमल मन की वीथियों से उसके अभेद्य भाव संसार में प्रवेश किया जा सकता है.
हिंदी कविता जगत में उपस्‍थित कवयित्रियों के रचने का तौर तरीका आपस में भिन्‍न है. यथार्थ को किसी अखबारी घटना की तरह बयान करने के बजाय वे उसे संवेदना और अनुभूति के रसायन में बदलती हुई बेहद महीन-सी आवाज़ में अपनी बात कहती हैं. कवयित्री पर ‘नींद थी और रात थी’ का हैंगओवर अब भी इतना तारी है कि उसने जैसे यह मान लिया है कि एक स्‍त्री का जीवन नींद और स्‍वप्‍न में ही उदित और  अस्‍त होता है. नींद और स्‍वप्‍न से कवयित्री का यह राग इतना घना है कि वह तमाम कविताओं में नींद और स्‍वप्‍न के बिंब उकेरती है. किसकी नींद स्‍वप्‍न किसका, स्‍वप्‍न और प्‍यास, सपने और तितलियॉं, स्‍वप्‍न के फूल, स्‍वप्‍न के ये राग तथा स्‍वप्‍न समयजैसी कविताओं में नींद और स्वप्‍न का ही आवर्तन पुनरावर्तन है. अन्‍य तमाम कविताओं में भी प्रकारांतर से नींद और स्‍वप्‍न के बिना कवयित्री का काम नहीं चलता. पहली ही कविता ‘कौन वह’ में –मगर कौन है यह सपनों सा दौड़ता हुआ/ जो आता है और मेरी काली देह में समा जाता है—कहना यह जताना है स्‍त्री की दुनिया में नीद और सपनों का यह कैसा अनूठा सहकार है. नींद और स्‍वप्‍न में जो क्षण भंगुरता है—स्‍त्री जीवन जैसे उसी का पर्याय हो. कवयित्री लिखती है: एक नींद की तरह है सब कुछ / नींद उचटी कि गायब हुआ/स्‍वप्‍न-सा चलता यह यथार्थ…/ वैसे यह जानना कितना दिलचस्‍प होगा/ किसकी नींद है यह/ जिसका स्‍वप्‍न है यह संसार.सविता सिंह की इन कविताओं में नींद और स्‍वप्‍न के इसी राग की व्‍याख्‍या है.
नींद, रात और स्‍वप्‍न से सविता सिंह का लगाव पुराना है. 2005 में आए संग्रह ‘नींद थी और रात थी’ में भी उन्‍होंने नींद और सपनों से बनने वाले एक विशिष्‍ट काव्‍यलोक का सृजन किया था. ‘एक दृश्‍य स्‍वप्‍न-सा’ कविता में वे जिस सौहार्द और सहकार की चर्चा करती हैं और जिसके कारण सदियों से मनुष्‍यों का समाज बचा हुआ है, वह अब जैसे उसके लिए एक स्‍वप्‍न-सा ही है. यानी पहले के ये दृश्‍य जिनमें एक डाल पर सोयी दूसरी डाल और एक टहनी से सटी दूसरी टहनी का सह अस्‍तित्‍व हुआ करता था, वह अब स्‍वप्‍न में बदल गया है. फिर एक जगह वह यह कहती हैं: ‘सपना एकांत की आंखों का रंगीन पानी नहीं, नींद का ही एक रंग है.‘ इस तरह नींद और सपने से अतीत और वर्तमान के अनेक रूपक बुनती हुई वे ‘नींद थी और रात थी’ में ‘स्‍त्री सच है’ कविता में एक स्‍त्री की लॉंघती हुई जिस प्‍यास का जिक्र करती हैं उसे इस संग्रह की आखिरी कविता ‘नीला विस्‍तार’ में फिर एक नया विस्‍तार देती हैं. यहॉं फिर से समुद्र के लहराने, स्‍वप्‍न के जागने के साथ ‘एक स्‍त्री लॉंघ रही होगी एक अलंघ्‍य प्‍यास’ का वृत्‍तांत बुनती हैं. यहॉं वे स्‍वप्‍न और स्‍त्री को एक बताती हैं . वे स्‍त्री को रात या रात में स्‍वप्‍न जैसा मानती हैं — –एक नीले विस्‍तार में फैला ऐसा स्‍वप्‍न-जिसका ज्‍यादातर हिस्‍सा अज्ञात है. कहने का आशय यह कि स्‍त्री-मन को समझना किसी स्‍वप्‍न को उरेहने जैसा है या रात के अज्ञात में छलांग लगाने जैसा है.
‘स्‍वप्‍न समय’ स्‍त्री-मन की ऐसे ही खामोश हलचलों का जायज़ा लेने वाला संग्रह है. उसकी मुस्‍कराहट के पीछे भी अवसाद की ऐसी छाया लिपटी हो सकती है जिसे केवल स्‍त्री का मन जानता है. समाज उत्‍तरोत्‍तर बदल रहा है, स्‍त्री पहले से थोड़ा अधिक स्‍वावलंबी हुई है, पर उसकी आजादी अब भी अप्रतिहत नहीं है. सच कहें तो उसकी अकिंचन इच्‍छा आज भी कुछ ऐसी ही है: ‘आओ समा जाओ मुझमें हवा/ खेलो मुझसे/ दूखूँ अपने चांद, पहाड़, आकाश और चिड़िया.‘ (ऐ हवा) किन्‍तु ऐसी ख्‍वाहिशों के लिए भी मामूली से मामूली स्‍त्री कितना तरस कर रह जाती है. इन कविताओं में हम एक ऐसी स्‍त्री देखते हैं जो अपनी व्‍यथा को उतार कर एक तरफ रखती है जबकि यह दुनिया सुंदर हो रही है. वह प्रसन्‍नचित्‍त प्रतीक्षा करती है बार बार एक नए आघात की. यानी प्रसन्‍नता कितनी क्षणिक है एक स्‍त्री के जीवन में. आघातों का क्‍या, वे तो मिलते ही रहते हैं. स्‍त्री जीवन की असुरक्षा ही उससे यह कहलवाती है कि ‘’बेबसी में मैं याद करती हूँ /पत्‍तों के लिए सबसे सुरक्षित जगह जंगल ही है/ और किताबों के लिए पुरानी कोई लाइब्रेरी/ वहीं जाकर मैं अपनी किताबें भी छिपा आउँगी एक दिन/ जैसे छिपाए हैं मैंने अपने प्रेम और दुख सपनों में.‘’(अजन्‍मी मछलियों का संसार)
‘नीला’ सविता सिंह का प्रिय शब्‍द ही नहीं है, उनकी कविताओं का संसार भी नीला , गाढ़ा और द्रवित कर देने वाला है. अकारण नहीं, कि नीला विस्‍तार, नीला संसार, नीला रंग, नीले रेशे—जैसे शब्‍द उनकी कविताओं में बहुधा मिलते हैं और तब याद आता है किसी कवि ने लिखा था: ‘जहॉं दर्द नीला है.‘ नीला यानी दुखों का एक रंग जिसे महसूस करने के लिए स्‍त्री नींद के उस तट पर जाना चाहती है जहॉं स्‍वप्‍न की नदी बहती है. वह उसके गहरे नीले जल में डूबना चाहती है जिसका रंग उसकी लिखी जाने वाली कविताओं की छायाओं से श्‍यामल हुआ है. स्‍त्री की यह सॉंवली व्‍यथा सविता सिंह की कविताओं में लहराती मिलती है और भीतर जागती हुई कविता जो जीवन की फटी चादर सिल रही है. स्‍त्री-जीवन के सुनसान में प्रेम की आहट आती भी है तो घटिया पठारों पर बजने वाली वीरानियों-जैसी. जबकि वह एक ऐसी विह्वलता से भरी है जो उसमें एक नदी की तरह उमड़ती है. पर वह यह कह कर रह जाती है : ‘सब कुछ कितना रंगहीन है आसपास.‘ उसके हर कथन में उसका अवसाद शहद की तरह टपकता है: ‘अब मैं तुम्‍हें मिल नहीं पाऊँगी/ अब मैं लौट गयी हूँ उन्‍हीं पत्‍तों में / जिनकी मैं हरियाली थी/ उन्‍हीं हवाओं में जिनकी थी मैं गति‘(ग्रीष्‍म तक) . वे एक कविता में कहती हैं:
एक सांस आती है
जाती है एक
एक शरीर अपनी देह खोजता है
एक दुख बदलता है उसे काया में
स्‍पंदन में बची रहती है इच्‍छा
संसार करवटें बदलता है
ऋतुऍं अपना वस्‍त्र
छटपटाती रहती है तो बस कामना
उसे पाने की जो है ही नहीं कहीं.(कामना उसे पाने की)
इस तरह सविता सिंह ने उन स्‍त्रियों का संसार यहॉ सिरजा है, जिनका जीवन अपूरित कामनाओं का पर्याय है, जिनके जीवन में बीरानी ही वीरानी है. जिसे समझने के लिए पूरा जीवन भी कम है. बेबसी पर खत्‍म होते हुए जीवन और बेसबब सांस टूटने की व्‍यथा ‘स्‍वप्‍न समय’ में समाहित है. पर इसके लिए वे कहीं न कहीं स्‍त्री को ही दोषी ठहराती हैं जो अपने ही दमन के षडयंत्र में सम्‍मिलित है, जिसने पुरुषों को ही श्रेष्‍ठजन और देवता मान लिया है तथा पुरुष के सतत विलास की समिधा में अपने को हविष्‍य बना डाला है. स्‍त्री जाति पर एक अभियोग सा कायम करती सविता सिंह की कविताओं से हम जान पाते हैं कि ‘’कैसे एक ठंडे वध की तरह संभोग है वहां/ हमारी लिप्‍साओं से कैसे/ जन्‍म लेती हैं पुरुषार्थ की शक्‍तियॉं/ महत्‍कांक्षाऍं किस तरह वेश्‍याऍं बनाती हैं.‘’
इन कविताओं में मैंने बहुधा उदासी की काया में निमज्‍जित स्‍त्री चेतना को महसूस किया है. कवयित्री जिस मध्‍यवर्ग की है उस वर्ग की स्‍त्रियों का संसार बाहर से जिस तरह सुख की चासनी में सना हुआ महसूस किया जाता है, वैसा शायद होता नहीं. बहुत से चाकचिक्‍य के नेपथ्‍य में दुखों का अलक्षित कचरा पसरा हुआ होता है. सविता सिंह की कविताओं के दृश्‍य-बिम्‍ब इस बात की गवाही देते हैं:-
पानी पर ज्‍यूँ गिरता हो पानी
छाया पर गिरती हो छाया
बिम्बों पर प्रक्षेपित होते हों दूसरे बिम्‍ब
एक उदासी मढ़ती हो दूसरी को
यह सब मैंने ऐसे देखा
जैसे यह कहीं और घटित हो रहा हो. (पृष्‍ठ, 126)
जैसा कि मैं कह चुका हूँ, उदासियों का यह नीला विस्‍तार उनकी कविताओं में आक्षितिज समाया दिखता है जब वे यह कहती हैं: बस कुछ और दूर चल कर / छूट जाएगा हमारा साथ मेरी कविता/ तुम्‍हें जाना होगा वहॉं/ जहॉं समुद्र लहरा रहा होगा/ जहॉं स्‍वप्‍न जाग रहे होंगे/ जहॉं एक स्‍त्री लॉंघ रही होगी एक अलंघ्‍य प्‍यास. कहना न होगा कि इस नीले विस्‍तार को \’स्‍वप्‍न समय\’ कविता में परिभाषित करने की चेष्‍टा करती हैं. वे कहती हैं, विस्‍तार यानी खालीपन. न रंग न गंध. सरसराती हवा सी एक हरकत. जिसमें भरता गया एक अर्थ. यानी कंपन. जिससे स्‍वप्‍न समय बना. पूरा जीवन स्‍वप्‍नमयता की कल्‍पना में खोया दिखता है यहां. कवयित्री कहती है: यूँ स्‍वप्‍न से शुरु हुआ यह जीवन, जैसे कि इसके पहले कुछ और न था. चेतना थी तो स्‍वप्‍न की ही. यहां तक कि एक ऐसा बिन्‍दु भी आता है इस स्‍वप्‍न में जिसे न आंखें चाहिए न रात. इन कविताओं के स्‍वप्‍नमय विस्‍तार में कैसे एक  स्‍त्री की इच्‍छाऍं अंतत: गिरती हैं एक अतल गहराई में और उसकी आत्‍मा की नग्‍नता तड़पती है वस्‍त्र के लिए और कैसे आंखे स्‍वप्‍न में ही अप्रत्‍याशित दृश्‍य देखने को विवश है, यह विकलता इन कविताओं के पूरे आरोह-अवरोह में समाई हुई है.
स्‍वप्‍न से यह रागदीप्‍त प्रेम सविता सिंह का पुराना है पर वह परवान इस संग्रह में चढ़ा है. सुदीप बनर्जी के लिए लिखी कविता \’स्‍वप्‍न के ये राग\’ अतृप्तियों, त्रासदियों, पराधीनताओं, क्रूरताओं से भरे इस संसार की व्‍यंजना है. ये कविताऍं जैसे एक ही लंबी कविता के कुछ पड़ाव हैं. कहीं भी खत्‍म होती नहीं कविता का उदाहरण पेश करते हुए. सविता सिंह यहां एक स्‍त्री-मन ही नहीं, सभ्‍यताओं की कोख में जन्‍मी मनुष्‍य की नग्‍नता का अवबोध लिखती हैं. एक अनंत सिलसिला है सभ्‍यताओं से छन छन कर आती हुई तरह तरह की पीड़ाओं का, छल छद्म का, उसके अनगिनत रूपों का, अप्राप्‍य प्रेम और उसकी लालसाओं का. इस भयावहता में वे उन भीलों को भी याद करती हैं जिनके शव शीशम और शालवृक्ष की तरह गिरते हैं जैसे मनुष्‍य की मनुष्‍यता. कविता में भी जैसे इतनी समाई नहीं है कि वह थकी हारी मनुष्‍यता की पीड़ा का वृत्‍तांत लिख सके. बकौल कवयित्री:
मेरे जानने में हैं ढेर सारी और बातें
लिखी जाएंगी जो और कभी
अभी तो एक टीस है एक अतृप्‍ति जो भरे हुए है सारे अस्‍तित्‍व को
जैसे यह सृष्‍टि है ही रोने और दहकने की कोई खास जगह
जैसे राग होते ही हैं रुदन को सहनीय बनाने के लिए
उन्‍हें बदलने के लिए किन्‍हीं और अनुभवों में
जिससे बची रहे दुख की पवित्रता. (पृष्‍ठ 117)
स्‍वप्‍न के ये राग जितना हमारे मन को विषण्‍ण बनाते हैं, वहीं कभी कभी स्‍वप्‍न के कुछ फूल ठंडी हवा का बायस भी बनते हैं. ये कविताएँ अक्‍सर उस पुरुषार्थ को पीठ दिखाती हुई लगती हैं जिसके पास संभोग  बस एक ठंडे वध की तरह ही बचा रह गया है जीवन में. ऐसी स्‍थितियों में कवयित्री उस भाषा का विकल्‍प प्रस्‍तुत करती है जिसमें अभी भी इन उदास कृत्रिमताओं और प्‍लास्‍टिक के फूलों के यथार्थ के बीच ऊष्‍मा और ताप मौजूद है. बकौल कवयित्री:
हमें जो चाहिए ऊष्‍मा जो ताप चाहिए हमें
वह मिलेगी हमें हमारी भाषा में ही
सदियों से जिसे हम बोलते आए हैं समझते भी
अपने बिस्‍तरों में हम आरामदेह नींद की फिक्र करें
खोजें अपनी वासना के सच्‍चे आनंदलोक को
कविता काफी है हमें वहां ले जाने के लिए अभी. 
यह जीवन में व्‍याप रही तमाम तरह की कृत्रिमताओं का निषेध है और जीवन में कविता की भाषा के प्रति गहरी कृतज्ञता और सरोकार है. उस सच्‍ची कविता के लिए आस्‍था है जिसके सिवा कोई दूसरी लिप्‍सा जीवन को विचलित न कर सके. यह उस पाने की कामना का निषेध भी है जहॉं संसार करवटें बदलता है, ऋतुएं अपने वस्‍त्र, और छटपटाती रहती है कामना उसे पाने की जो है ही नहीं कहीं.
आधुनिक और निरंतर चंचल होते इस समय में आजादी की जिस आबोहवा में आज की स्‍त्रियॉं सांस ले रही हैं, यह सोचना अप्रत्‍याशित लगता है कि सविता सिंह की कविताओं की ये स्‍त्रियां आखिर किस समाज से आती है जो आज भी \’नीर भरी दुख की बदली\’ में पल-पुस रही हैं. यों तो इन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि स्‍त्री का जीवन दुखों की पोटली ही है. तब भी ‘सपने और तितलियॉं’, ‘चॉंद तीर और अनश्‍वर स्‍त्री’ व ‘स्‍वप्‍न के ये राग’ जैसी लंबी कविताऍं अलग से ध्‍यातव्‍य हैं. आत्‍मीयताओं से वंचित और अपूर्ण इच्‍छाओं की पांडुलिपियों जैसी लगती स्‍त्रियॉं यहॉं अपने स्‍वाभिमान व अस्‍तित्‍व के लिए संघर्षरत दिखाई देती हैं —यह कहती हुई कि : ‘मैं स्‍वयं काम हूँ स्‍वयं रति/अनश्‍वर स्‍त्री/ संभव नहीं, नहीं मृत्‍यु मेरी.‘
सविता सिंह की कविताओं में स्‍त्री-अस्‍मिता को लेकर जो विषण्‍ण राग आद्यंत पसरा हुआ है, उसकी शिनाख्‍त यहॉं भी की जा सकती है. वे उन आधुनिक स्‍त्रियों की नुमाइंदगी करती हैं जो अपने अवचेतन में व्‍याप्‍त स्‍त्रियों की दुनिया का एक रूपक गढ़ती हैं और उसे गहरे स्‍याह संवेदन और नीले रंग से रंगती हैं. इस संवेदना का रंग शहरी कवयित्रियों में कहीं ज्‍यादा प्रगाढता से मिलता है. आधुनिक सभ्‍यता के इस मोड़ पर भी स्‍त्रियॉं एक टीस के साथ जीवन बिता रही हैं, सोच कर दुख होता है. दुख होता है कि दुस्‍वप्‍न का यह राग स्‍त्रियॉं सदियों से गाती चली आ रही हैं. ये कविताऍं बताती हैं कि भौतिक संपन्‍नता और आधुनिकता की चेतना से लैस इस युग में भी स्‍त्री अपनी इच्‍छाओं से अनुकूलित नहीं है. वह जीवन को एक स्‍वप्‍न की तरह जीती है—और स्‍वप्‍न को जीवन की तरह—स्‍वप्‍न चाहे कितने ही मोहक हों, भोर होते ही स्‍मृतियों की हथेलियों से चू पड़ते हैं. ‘स्‍वप्‍न समय’ को पढ़ना आधुनिक मध्‍यवर्ग की स्‍त्रियों के अलक्षित अंत:संसार से गुज़रना है.
——————————





डॉ.ओम निश्‍चल
जी-1/506 ए, उत्‍तम नगर, नई दिल्‍ली-110059

ईमेल: omnishchal@gmail.com
फोन: 08447289976
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