• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » परिप्रेक्ष्य : कुसुमाग्रज राष्ट्रीय पुरस्कार

परिप्रेक्ष्य : कुसुमाग्रज राष्ट्रीय पुरस्कार

फ़ोटो क्रेडिट  :    रूलान्ड फ़ोसेन,अम्स्तर्दम      जब विष्णु खरे को इस वर्ष का प्रतिष्ठित ‘कुसुमाग्रज राष्ट्रीय पुरस्कार’ दिया गया तब मराठी के महत्वपूर्ण कवि प्रफुल्ल शिलेदार ने गम्भीरता से पुरस्कृत कवि के काव्य-मंतव्य को टटोलते हुए मराठी में यह आलेख लिखा जो ‘महाराष्ट्र टाइम्स’  में प्रकाशित हुआ है. हिंदी में तमाम पुरस्कार हैं, […]

by arun dev
June 13, 2016
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
फ़ोटो क्रेडिट  :    रूलान्ड फ़ोसेन,अम्स्तर्दम     

जब विष्णु खरे को इस वर्ष का प्रतिष्ठित ‘कुसुमाग्रज राष्ट्रीय पुरस्कार’ दिया गया तब मराठी के महत्वपूर्ण कवि प्रफुल्ल शिलेदार ने गम्भीरता से पुरस्कृत कवि के काव्य-मंतव्य को टटोलते हुए मराठी में यह आलेख लिखा जो ‘महाराष्ट्र टाइम्स’  में प्रकाशित हुआ है.

हिंदी में तमाम पुरस्कार हैं, पुरस्कृत लेखक जमात है पर सम्मानित लेखकों की महत्ता और योगदान को गम्भीरता से रेखांकित करते विश्वसनीय आलेखों के प्रकाशन की रवायत ऐसा लगता है लुप्त हो गयी है. 

तमाम छुटभैय्ये पुरस्कारों और उनके संदिग्ध कर्ताधर्ताओं के समानांतर साहित्य से लगाव के प्रकटीकरण के कई और भी विकल्प हैं. आप किसी लेखक के दस दिन / बीस दिन /महीने दिन के \’स्टे\’ का प्रबंध किसी अनुकूल  जगह पर कर सकते हैं. और इस बीच उसके सृजन को पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित कराया जा सकता है. किसी पत्रिका के किसी अंक के सभी रचनाकारों को मानदेय अपने किसी की स्मृति में दे सकते हैं आदि आदि. खैर 

विष्णु खरे को इस सम्मान के लिए बहुत बहुत बधाई.  और इस आलेख के लिए प्रफुल्ल शिलेदार का आभार. 


विष्णु खरे : अजेय मेधावी कवि                  
प्रफुल्ल शिलेदार




विष्णु खरे की कविता से जब हम रू-ब-रू  होते हैं  तब उस कविता के अलगपन के बारे में मन में कई बातें आती हैं. एक तो उनकी कविता बड़े अवकाश की माँग करती कविता है. बिला ज़रूरत छोटी छोटी कविताएँ लिखना उनकी कवि प्रकृति में नहीं लगता. उनकी कविता मुख्यतः बड़े अवकाश में ही खुलती और खिलती प्रतीत होती  है. दूसरी बात यह है कि वे कविता की भाषा को गद्य के  उस कगार तक ले जाते हैं  जहाँ पर हम भी उस भाषा का तनाव महसूस करने लगते है.  लेकिन आश्चर्यकारक ढंग से उनकी कविता अपना कवितापन बचाते हुए हमें भी चकित कर देती है.

भाषा के बहुत अलग संस्कार विष्णु खरे की कविताओं पर हैं. आधुनिक हिंदी कविता में भाषा को तराशते हुए कविता के लिए उसे अधिकाधिक ग्रहणशील बनाने वाले कई कवि हुए हैं.  मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन जैसे भाषा को नई तमीज़ देनेवाले कवियों के बाद आई साठोत्तर कविता में  दो महत्वपूर्ण कवियों ने अपने से पहले की भाषा में मूलभूत बदलाव लाए. ये दो कवि हैं विनोद कुमार शुक्ल और विष्णु खरे. इन दोनों कवियों की मिज़ाज में गहरा फ़र्क़ है. विनोदकुमार शुक्ल भाषा के मितव्यय पर कड़ा ध्यान देने वाले कवि हैं बरक्स विष्णु खरे अपनी प्रतिभा क्षमता से भाषा को तनाव देकर एक लम्बा क्षेपण करनेवाले कवि हैं.


विनोद जी की भाषा का केंद्र emotion से जुड़ा है तो विष्णु खरे emotion को पूरी तरह एक धोखादेह नियंत्रण में रख कर  हैरतअंगेज़ तरीके से भाषा में एक भिन्न बौद्धिकता बरक़रार रखते हैं. लम्बी कविता के लिए अनुकूल गद्यात्मक भाषा से विष्णु खरे को बिलकुल परहेज़ नहीं. बड़े  आत्मविश्वास के साथ और खुलेपन से वे विचारों और उसके साथ भावना को आंदोलित करने की क्षमता रखनेवाली गद्यात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं. पाठक को अंतर्मुख कर के अलग तरीके से विचार करने को बाध्य करनेवाली भाषा विष्णु खरे के पास है.  कभी कभार तो उनकी कविता की संरचना विलंबित ख़याल की तरह लगती है और उसमे गायकी के आलाप, बढ़त आदि अंग भी बेहतरीन तरीके से उजागर होते हुए लगते हैं.

गहरा इतिहासबोध और अतीत के सूक्ष्म ज्ञान के साथ ही समकाल का व्यापक आयाम विष्णु खरे की कविता को अनन्य बनाता है. मिथकों तथा पौराणिक कथाओं को आधुनिक सन्दर्भ में किस कोण और अंग से देखा जाना चाहिए इस का उदाहरण उनकी महाभारत की कवितामालिका में  दिखता है.  महाभारत के व्यक्तित्वों  और सन्दर्भों को समकालीन सन्दर्भ के दायरे में रख कर विष्णु खरे मिथकों की ओर देखने का अलग दृष्टि-बिंदु हमें देते हैं. यह सन्दर्भ-बिंदु एक सर्वसामान्य मनुष्य के जीवन से गुँथा हुआ है जिस की जड़ें मार्क्सवाद पर उनकी आस्था  में देखाई देती है.


रूढ़िवाद को नकारते हुए खुलकर मार्क्सवाद का स्वीकार करनेवाले तथा उसका पुरस्कार करनेवाले विष्णु खरे की कविता हमेशा आम आदमी के पक्ष में खड़ी होती दिखाई देती है और उसी के कठिन जीवन की जटिलताओं का बखान करती है. आम आदमी के जीवन-प्रश्नों की जटिलता तथा उसकी ज़िन्दगी के ताने-बाने विष्णु खरे अपनी कविता में उजागर करते हैं. सामान्य जीवन जीनेवाले आदमी की ज़िन्दगी  के भी कई राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक पहलू  होते है. साथ ही वह अपनी पिछली कई पीढ़ियों की मानसिकता और जटिलताओं से ग्रस्त होता है. इन सभी बातों को अपने सोच के बरक्स रखकर ही  विष्णु  खरे उन्हें अपनी कविता में हमारे समक्ष रखते हैं.

‘जो टेम्पो में घर बदलते हैं’ या ‘अकेला आदमी’ जैसी कविताएँ या फिर ‘लड़कियों के बाप’ जो टाइपराइटर साइकिल के कॅरियर पर रख कर अपनी बेटी को स्टेनो की परीक्षा के लिए ले जाने वाले और बेटी की नौकरी के लिए कई कार्यालयों के चक्कर काटने वाले पिताओं पर लिखी कविताएँ हैं, समूचे निम्न/मध्य वर्ग पर लिखी एक मर्मग्राही टिप्पणी हैं. टाइपराइटर का बिम्ब बदल कर अब उस जगह कम्प्यूटर की तस्वीर  अपने आप मन में उभर आती है. पढ़ते वक्त पाठक के मन में कविता में स्थित सभी सन्दर्भ समकालीन, आज के, होते जाते हैं. इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि विष्णु खरे की कविताओं में सिर्फ कोई चीज  – जैसे टाइपराइटर – एक बिम्ब नहीं रहता बल्कि कविता का समूचा भाषिक अवकाश ही एक बिम्ब के रूप में स्थापित हुआ होता है. इसलिए उनकी कविता में बिम्ब-विचलन की क्षमता है.

विष्णु खरे की कविताओ में जो राजनीतिक और सामाजिक चेतना भी  है उसके दो उदाहरण यहाँ देना चाहूँगा. पहला उनकी ‘मुलजिम नरसिंह राव.’ इन पंक्तियों से शुरू होनेवाली कविता (शीर्षक – ‘एक प्रकरण : दो प्रस्तावित प्रारूप’ – ‘काल और अवधि के दरमियान’  संग्रह से)  जो नरसिंह राव जब जीवित थे और प्रधान मंत्री थे तब लिखी गई है. नरसिंह राव सरकार ने जो बड़ी भारी राजनीतिक गलतियाँ की थीं उन पर लिखी गई इस कविता पर बहुत तीखी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं आई थीं.  उसी तरह \’\’जर्मनी में एक भारतीय कम्प्यूटर  विशेषज्ञ की हत्या पर वह वक्तव्य जो  भारत सरकार देना चाहती है  पर दे नही पा रही है”यह कविता का शीर्षक ही इस कविता के बारे में बहुत कुछ बयान करता है. इस तरह अपने विचारों के हथियारों के साथ सीधा राजनीतिक हमला करने की हिम्मत विष्णु खरे की कई कविताओं में दिखाई देती है जो हिंदी की निडर कविता की परंपरा को ज़ोरावर बनती है.

दूसरा उदाहरण उनकी ‘सर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा’ शीर्षक  की प्रसिद्ध कविता का है. गाँवों कस्बों में ही नहीं बल्कि कई शहरों में भी मैला सर पर ढ़ोने की अमानवीय प्रथा इस देश में आजादी के बाद कई साल तक जारी थी और अब भी गयी नहीं है. विष्णु खरे की यह कविता जब प्रकाशित हुई तब यह प्रथा पूरे जोर पर थी और उस ने केवल हिंदी साहित्य में ही नहीं बल्कि पूरे राजनीतिक क्षेत्र में हलचल पैदा की. कुछ साल बाद इस कुप्रथा पर प्रतिबन्ध लगानेवाले कानून पर अमल किया गया फिर भी सम्बद्ध केन्द्रीय मंत्री के हालिया बयान से लगता है कि यह अमानवीय प्रथा समाज से पूर्णरूपेण गई नहीं है. उनकी कविताओं से सामाजिक चेतना के उदाहरणों का बयान करना याने यहाँ विष्णु खरे की सम्पूर्ण कविताओं का पाठ करना ही हो जाएगा !


अत्यंत विरल और असाधारण अंतरराष्ट्रीय चेतना से एवम् विश्व साहित्य के पाठ से तथा विश्व साहित्य के महती अनुवाद से विष्णु खरे की अनन्यता निखरी हुई है. यूरोपियन साहित्य से वे पाठ तथा अनुवाद के जरिये जुड़े हुए हैं. जर्मन, चेक, डच इत्यादि भाषाओं का उन्हें गहरा परिचय है. पूर्व यूरोप से कुछ महाकाव्यों का, जैसे  एस्टोनिया के  महाकाव्य ‘कलेवीपोएग’का  ‘कलेवपुत्र’  अनुवाद या फ़िर फिनलैंड के महाकाव्य \’कलेवाला\’ का अनुवाद, गोएठे की अजरामर जर्मन विश्वकृति ‘फ़ाउस्ट’ का अनुवाद उनकी अनुवाद-यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव है.  इन सभी भाषानुभावों की प्रतिध्वनियाँ उनकी कविता में सुनाई देती हैं. साथ ही  विश्वस्तरीय फिल्मों  की दुनिया से वे आन्तरिकता से जुड़े हुए है. उनके लेखन के अन्तर्विश्व का एक हिस्सा दुनिया की बेहतरीन फिल्मों  के प्रभाव से रोशन हुआ है, लेकिन किसी भी लेखक के बारे में ऐसा सहसम्बन्ध स्थापित कर दिखाना बहुत मुश्किल काम होता है. हालाँकि यही सब बातें लेखक की रोटी में  नमक की तरह आती है.

शास्त्रीय तथा लोकप्रिय भारतीय संगीत के साथ  पाश्चात्य पॉप और शास्त्रीय संगीत से भी वे भली भाँति अवगत हैं. उन की कुछ कविताओं में तो पाश्चात्य संगीत के बहुत ही सूक्ष्म सन्दर्भ आते है. एक कविता में उन्होंने मोत्सार्ट और बेटहोफ़ेन की क्रमशः चालीसवीं और पाँचवीं सिम्फ़ोनियों की  प्रारंभिक स्वरलिपियों का इस्तेमाल किया है. सहसा भारतीय कविता में दिखाई न  देनेवाली वैज्ञानिकता भी विष्णु खरे की कविता  में दीख पड़ती है. (उदा.: ‘तरमीम’ कविता: ‘पाठांतर’संग्रह से जो प्रकाश किरणों के वैज्ञानिक सन्दर्भ केंद्र में रख कर लिखी गई अनूठी रचना है). वैज्ञानिक एहसास  का अभाव  असल में हमारे साहित्य में  एक समस्या होती जा रही है. ऐसे में विष्णु खरे जैसे कवि बड़ी राहत हैं.

विष्णु खरे  खरें के हर एक कविता संग्रह के पहले खुलनेवाले पृष्ठ पर प्राचीन मिस्र के चौथे राजवंश के समय, यानी लगभग ई. स. पू. २५०० के आसपास, निर्मित एक लिपिकार की मूर्ति का चित्र छपा होता है.  पेरिस के लूव्र संग्रहालय की यह मूर्ति उसके ऐतिहासिकता के साथ अपनी निर्भीक मुद्रा तथा सत्य की गहराई तक पहुँचनेवाली दृष्टि के लिए विख्यात है. इस मूर्ति के चेहरे पर जो भाव हैं  वे शायद  विष्णु खरे की एक पहचान है. हर लेखक के लिए अनिवार्य  निर्भीकता तथा सच की  जड़ों तक पहुँचने की ख्वाहिश विष्णु खरे के व्यक्तित्व का अटूट हिस्सा हैं. कई बार उन्हें इस की कीमत भी चुकानी पड़ी है. लेकिन इस हिस्से को उन्होंने अब तक अपने से छूटने नहीं दिया. प्रस्थापित सत्ता के केंद्र शायद इसीलिए उनसे से दूरियाँ बनाये रखना ही पसंद करते हैं.
________________


प्रफुल्ल शिलेदार 

shiledarprafull@gmail.com 

(नोट : मूल मराठी में लिखित और प्रकाशित यह टिप्पणी नासिक, महाराष्ट्र  के यशवंतराव चव्हाण मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा मराठी के ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कालजयी कवि \’कुसुमाग्रज\’ की स्मृति में दिया  जानेवाला  वार्षिक राष्ट्रीय कविता सम्मान  विष्णु खरे को पिछली 10 मई को प्रदान किए जाने के उपलक्ष्य में लिखी गई  थी. हिंदी अनुवाद प्रफुल्ल शिलेदार का ही है. यह पुरस्कार पाँच वर्ष पहले चंद्रकांत देवताले को भी प्रदान किया गया था. इस पुरस्कार से सुरजीत पातर, सितांशु यशस्चंद्र, के सच्चिदानंदन, तेम्सुला आओ आदि साहित्यकार भी सम्मानित हुए है)
ShareTweetSend
Previous Post

परख : अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग (राजीव रंजन गिरि)

Next Post

मति का धीर : मुद्राराक्षस

Related Posts

यात्रा में लैंपपोस्ट : क्रान्ति बोध
समीक्षा

यात्रा में लैंपपोस्ट : क्रान्ति बोध

साहित्य का नैतिक दिशा सूचक: त्रिभुवन
आलेख

साहित्य का नैतिक दिशा सूचक: त्रिभुवन

पहला एहतलाम : वसीम अहमद अलीमी
अनुवाद

पहला एहतलाम : वसीम अहमद अलीमी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक