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परिप्रेक्ष्य : पुरुषोत्तम @ 60

साठ  के पुरुषोत्तम अग्रवाल- एक पड़ाव…   पिक्चर अभी बाकी है...  तृप्ति वामा  समय और समाज की वर्तमान स्थिति और हृदय हीनता के कारण आज का आदमी प्रसन्नता के अवबोध से वंचित है, कि किसी भी सम्वेदनशील मनुष्य के लिए वर्तमान परिस्थितियों में खुश हो पाना लगभग असम्भव–सा हो गया है, कि आज से 60 […]

by arun dev
September 5, 2015
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साठ  के पुरुषोत्तम अग्रवाल- एक पड़ाव…   पिक्चर अभी बाकी है...  
तृप्ति वामा 







समय और समाज की वर्तमान स्थिति और हृदय हीनता के कारण आज का आदमी प्रसन्नता के अवबोध से वंचित है, कि किसी भी सम्वेदनशील मनुष्य के लिए वर्तमान परिस्थितियों में खुश हो पाना लगभग असम्भव–सा हो गया है, कि आज से 60 बरस पहले की पीढ़ी ने सुन्दर भविष्य के जो सपने देखे थे वे कैसे चकनाचूर हो रहे हैं, कि उस ‘नाराज आदमी’ की आंखों के सामने अन्धेरा कितना घना होता जा रहा ! ये शब्द और सम्वेदनाएं प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल के हैं जो उन्होंने अपनी साठवीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह को सम्बोधित करते हुए अभिव्यक्त किए. छात्रों और मित्रों द्वारा बीती 25 अगस्त को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित ’पुरुषोत्तम@60’ अपनी तरह का अनूठा और सफल कार्यक्रम रहा.

कार्यक्रम की शुरुआत केक और चाय के साथ-साथ प्रसिद्ध गायक मदनगोपाल सिंह और साथियों के गायन से हुई. नामवर जीकी अस्वस्थता और अनुपस्थिति खली पर साथ ही अशोक वाजपेयी, मृदुला गर्ग, ओम थानवी, दिलीप सीमियन, लीलाधर मंडलोई, अली जावेद, रामचन्द्र और फ्रेंचेस्का ओरसिनी जैसे वक्ताओं की उपस्थिति ने अवसर को पूर्णता प्रदान की. इस अवसर पर ओम थानवी और आनन्द पांडे द्वारा सम्पादित पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेखन के प्रतिनिधि संकलन ‘किया अनकिया’, पुरुषोत्तम अग्रवाल के निबंधों का संकलन ‘स्कोलेरिस की छांव में’ और उनके फिल्म संबंधी लेखन ‘बदलती सूरत वक्त की बदलती मूरत वक्त की’ का लोकार्पण भी हुआ.

अशोक गहलौत, केदारनाथ सिंह, कृष्ण कुमार, आशुतोष, देवी प्रसाद त्रिपाठी, शिवानंद तिवारी, प्रो.भगवान सिंह, राजेन्द्र सिंह, नरेश सक्सेना, शीन काफ़ निज़ाम, प्रो. रामप्रसाद सेनगुप्ता, गुरुदीप सप्पल, रमाशंकर सिंह, संदीप दीक्षित, विष्णु नागर, गिरीश निकम, नीलांजन मुखोपाध्याय, निर्मला जैन,  सुधीरचंद,  मृणाल पांडे,  डी.पी. अग्रवाल, अल्का सिरोही, अनामिका, अपूर्वानंद, मनीष पुष्कले, राजीव शुक्ल, लक्ष्मीकांत वाजपेयी, गीतांजलि श्री, अजीतअंजुम,  दिबांग,  नग़मा, प्रियदर्शन, विनोद भारद्वाज, आरफ़ा ख़ानम, इकबाल अहमद, इरफ़ान, अमर कंवर, विलियम टाइलर, रविन्द्र त्रिपाठी, प्रो गोपेश्वर सिंह, गीता श्री, मदन कश्यप,अजय पटनायक,  जमाल किदवई, समीर नंदी, गीता गैरोला, रविकांत, शैलेन्द्र तिवारी, राकेश अचल, आलोक श्रीवास्तव, समीर नन्दी, कमल जोशी आदि कई लोग कार्यक्रम में अंत तक उपस्थित रहे और महौल उत्साहपूर्ण और रोमांचक बना रहा.      

साठे पर पाठे होने और सठियाने जैसे जुमलों से इतर किसी बुद्धिजीवी के साठ वर्ष का होने के क्या मायने हो सकते हैं, मौका उन्ही मायनों की तलाश का था. कार्यक्रम में अनेक लोग बोले और उन्होंने प्रोफेसर अग्रवाल के व्यक्तित्व के कई पहलुओं पर प्रकाश डाला. कार्यक्रम की शुरुआत डॉ. रामचन्द्र के वक्तव्य से हुआ. अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने बताया कि  अग्रवाल जी के लिए अध्यापक-छात्र सम्बन्ध औपचारिकता के घेरे से आगे निकल तक आत्मीय और अनौपचारिक होते थे कि उनका जुड़ाव न केवल अपने छात्र के अकादमिक जीवन तक होता था बल्कि वे उनके व्यक्तिगत जीवन की भी उतनी ही सुध लेते थे. अली जावेद ने जे.एन.यू. में पुरुषोत्तम अग्रवाल के आरम्भिक दिनों की चर्चा की और अपनी दोस्ती को ‘सुदामा-कृष्ण’ की मित्रता के विशेषण से नवाजा. दिल्ली के सिख दंगों के विरोध में साम्प्रदायिकता के खिलाफ शुरु हुए आन्दोलन और रामजस कॉलेज में भीष्म साहनी के भाषण सम्बन्धी घटनाओं को याद करते हुए दिलीप सीमियन ने प्रोफेसर अग्रवाल की निर्भीकता और प्रतिबद्धता की चर्चा की. कवि लीलाधर मंडलोई ने पुरुषोत्तम अग्रवाल की कविता ‘अश्वमेध’ का पाठ किया और उनके कवि व्यक्तित्व के साथ ही फ़िल्म और सीरीयल की समीक्षाओं पर भी प्रकाश डाला. एक बार फिर ध्यान दें ‘बदलती सूरत वक्त की बदलती मूरत वक्त की’  ई-बुक है और फिल्म तथा सीरियल की समीक्षा से सम्बन्धित है.  

चर्चित पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ पर बोलते हुए फ्रेंचेस्का ओरसिनी ने प्रोफेसर अग्रवाल के अकादमिक योगदान का महत्त्व उद्घाटित किया और ‘देशज आधुनिकता’ जैसी क्रांतिकारी अवधारणाओं की चर्चा की. ‘किया अनकिया’ के संपादक  ओम थानवी ने बताया कि पुरुषोत्तमजी ने लगभग हर विधा पर कलम चलाया है, पर महात्मा गांधी और उनकी अहिंसा की अवधारणा को मजबूती से जोड़ना बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिस पर गौर किया जाना चाहिए.

मृदुला गर्ग ने अग्रवालजी के सर्जक व्यक्तित्व, खासतौर पर उनके कहानीकार पर प्रकाश डाला. चर्चित कहानी ‘नाकोहस’ को ‘नाराज आदमी’ की कहानी की संज्ञा देते हुए मृदुला जी ने इस बात को रखांकित किया कि नाराज आदमी की कहानियों से शुरु कर ‘पान पत्ते की गोठ’ तक आते-आते पुरुषोत्तम अग्रवाल का सर्जक व्यक्तित्व करूणा की संवेदना में डूब जाता है जबकि ‘चौराहे पर पुतला’ जैसी कहानियों में वे किस प्रकार बुद्धिजीवी समाज के पाखंड पर चुटकी लेना नहीं भूलते. इस प्रकार कार्यक्रम की सबसे बड़ी उपलब्धि एक प्रखर आलोचक, कुशल प्रशासक और समाजकर्मी के सर्जक व्यक्तित्व से संवाद स्थापित करना और यह अनुभूत करना रहा कि एक बुद्धिजीवी का रोष कवि एवं कहानीकार का व्यक्तित्व धारण करते ही कैसे करूणा के धरातल पर घनीभूत हो, लोक की पीड़ा से तादात्म्य स्थापित कर लेता है. 
  

अंत में वरिष्ठ कवि और कलाप्रेमी अशोक वाजपेयीने अपनी पीढी के बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधित्व करते हुए बहुत मार्मिक बात कही कि ‘आने वाले आएंगे पर हम जाएंगे नहीं’ भले ही वर्षगांठ साठवीं हो या सौवीं ! इस प्रकार अपनी अदम्य जिजीविषा और उत्तरदायित्व के बोध के बल पर समय और काल की गति बदल देने और अपनी सम्वेदनाओं तथा सशक्त हस्तक्षेप के माध्यम से बुद्धिजीवियों की इस पीढी के कालातीत हो जाने का दृढ़ विश्वास प्रकट किया. उन्होंने पुरुषोत्तम जी के पब्लिक इंटेलेक्चुअलहोने के साथ-साथ श्रेष्ठ शोधकर्ता होने को रेखांकित किया और कबीर पर आधारित अकथ कहानी प्रेम की को हिन्दी का क्लासिक बतलाया. वक्ताओं और आगंतुकों को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि अपनी साठवीं वर्षगांठ के अवसर पर वे सबके आभारी और कृतज्ञ तो हैं पर समय और समाज की वर्तमान स्थिति और हृदय हीनता के कारण प्रसन्नता के किसी भी अवबोध से वंचित है !

कार्यक्रम का संचालन सईद अय्यूब ने किया. नोट करने योग्य एक बात यह रही कि इस कार्यक्रम में युवाओं की उपस्थिति और उनका उत्साह देखते ही बना. यह कार्यक्रम किसी संस्था ने नहीं, बल्कि उनके छात्र-छात्राओं और प्रशंसकों ने मिल कर आयोजित किया था.

इस प्रकार पुरुषोत्तम अग्रवाल की साठवीं वर्षगांठ के बहाने यह अवसर ‘नाराज आदमी’ की उस पूरी पीढ़ी से मुखामुखम और संवाद के रूप में बदल गया जिसने मंडल और कमंडल की राजनीति देखी, बाजारों की बढ़ती भीड और चमक के साथ-साथ झुग्गियों की बढ़ती संड़ांध देखी, जिसने पेजर से वाइबर तक बदलती दुनिया भी देखी, पर जिसके लिए यह देखना संजय की तरह तटस्थ रहते हुए महाभारत देखने जैसा कतई नहीं रहा. अपने समय और समाज के द्वन्द्व और यथार्थ को भोगते हुए करूण आभा से युक्त इस पीढी ने उसे सही दिशा देने के लिए हर सम्भव प्रयास किए.
——————–

डॉ. तृप्ति वामा
jnu.tripti@gmail.com
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