रचना और आलोचना के रिश्ते को लेकर शुरू हुई संवाद श्रृंखला को अपने अपने तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं युवा लेखक समीक्षक महेश चंद्र पुनेठा और प्रभात कुमार मिश्र.
संकटग्रस्त समय में आलोचना का संकट
महेश चंद्र पुनेठा
मैं अपनी बात वहाँ से शुरू करना चाहुँगा जहाँ मोहन श्रोत्रिय जी ने अपनी बात समाप्त की है कि आलोचना का संकट व्यापक सांस्कृतिक-सामाजिक संकट का लक्षण भर है. यह बात बिल्कुल सही है कि आज पूरा समाज संकट में है.
रूढ़ प्रतिमान रचनात्मक लेखन की पूरी परख नहीं कर सकते. चीजें निरंतर गतिशील और परिवर्तनशील होती हैं इसलिए उनके मानकों को किसी निश्चित दायरे में बाँधना उचित नहीं हैं. नए प्रतिमान और औजार जरूरी हैं. पर ये परिवर्तित साहित्य के गर्भ तथा अपनी जमीन से ही पैदा होने चाहिए, आयातित नहीं. बात चाहे रचना की हो या आलोचना की अंधी आयात की प्रवृत्ति रुकनी चाहिए. यदि आयात किया भी जाए तो गंभीर विचार के बिना नहीं. पर यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि एक कालजयी साहित्य अपने प्रतिमान खुद गढ़ता है. पूर्व निर्धारित प्रतिमानों से ही मूल्यांकन करना कोई आवश्यक नहीं है. जैसा कि डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं – जैसे अच्छी कविता शास्त्र के अनुसार नहीं लिखी जा सकती वैसे ही अच्छी आलोचना किसी शास्त्र के अनुसार नहीं की जा सकती…..रचना को पढ़ते हुए उसकी मूल्यांकन प्रक्रिया अपने आप बनती जाती है. अंग्रेजी के समीक्षक मैथ्यू अर्नोल्ड की से पंक्तियाँ भी सही हैं कि महान कवियों की महान काव्य-पंक्तियाँ दूसरी कविता को परखने के लिए कसौटी यानि प्रतिमान हो सकती है. इसके बावजूद हर देश-काल के श्रेष्ठ साहित्य में कुछ ऐसे प्रतिमान पाए गए हैं जिन्हें सार्वभौम कहा जा सकता है – सरलता-सहजता-साधारणता ,निश्छलता, लोकहृदय की पहचान,उससे जुड़ाव, लोकशक्ति की पहचान, अनुभूति की व्यापकता व समकालीनता, प्रकृति से निकटता, जनपदीयता , जीवन की चिंता, नवीनता, सार्थकता ,साहित्यिकता और समाजिकता के बीच संबध, रचना की व्यापकता और गांभीर्य आदि ऐसे प्रतिमान हैं जिनका आज भी ध्यान रखा जाना चाहिए. ये हमारी संपूर्ण साहित्य परम्परा से निकले हुए प्रतिमान हैं.
आलोचना के औजार कुछ इस तरह के होने चाहिए जो अर्थ, समाज, राजनीति आदि की अंतरसंबद्धता से निर्मित मानव-मन और व्यवहार तथा मानव-संबंधों में निरंतर आ रही रही जटिलता की भीतर तक जाँच पड़ताल करने में सक्षम हों. रचना को अपने समय और समाज की संबद्धता में देख सकें. साहित्य-चिंता के समक्ष जीवन-चिंता को प्राथमिक देने वाले हों. अपने वर्गीय संस्कारों और सौंदर्याभिरूचियों के विरूद्ध संधर्ष करते हुए ,अपने जीवन की संकीर्ण परिधियों का अतिक्रमण करने वाले हों. संपूर्ण जीवन के यथार्थ और सौंदर्य-स्वप्न को अपने भीतर संजोने वाले हों. जिनसे भारतीय जीवन की संघर्षात्मक परिस्थिति और उसकी सौंदर्य उष्मा जाहिर हो.
इस संदर्भ में डॉ. शिव कुमार मिश्र का यह कथन हमारा पथप्रदर्शन करता है- आलोचना का धर्म है कि वह रचना के पास पूरी सजगता किंतु विनम्रता से जाए, पहले रचना को उसकी अपनी जमीन पर निवृत करे उपरांत उसे मूल्य दे. जो आलोचना रचना को अपनी संपूर्णता में, उसके सारे अंगों पर आवश्यक विचार करते हुए उद्घाटित कर सके , उसके मर्म को खोल सके ,उसे उसकी भव्यता दे सके ……वह मानक हो या न हो.
जहाँ तक विचारधारा का सवाल है यह स्वीकार करना पड़ेगा कि विचारधारा वह धरातल है जहाँ खड़े होकर हम चीजों को देखते हैं. यह जीवन को देखने के एक नजरिया है. यह हमारा पूर्व निर्धारित पक्ष है. एक दृष्टि है जिसके बिना चीजों को व्यवस्थित तरीके देखना संभव नहीं है. विचारधारा जीवन-जगत को देखने की दृष्टि देती है. रचनाकार को रचने की प्रेरणा देती है. रचनाशीलता को एक विशेष दिशा में आग्रही बनाने में मदद करती है. विचारधारा का संबंध ऐेतिहासिक चेतना से है. ऐतिहासिक चेतना ही है जो आलोचक के विवेक ,सौंदर्यबोध और संवेदनशीलता को प्रभावित करती है. उसकी आलोचनात्मक चेतना का निर्माण और विकास करती है. यह दो-चार साहित्यशास्त्रीय पुस्तकें पढ़कर नहीं पैदा होती. इसके लिए अपने समय और समाज की स्थितियों,संघर्षशील मनुष्य की जीवन दशाओं तथा सामजिक वास्तविकताओें की जटिलताओं को जानना-समझना जरूरी है. इसमें प्रत्यक्ष जीवनानुभव और विचारधारा उसकी मदद करते हैं.
हर रचना किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित होती है. यदि रचना में विचारधारा निहित है तो भला आलोचना को उससे कैसे अलग रखा जा सकता है? आलोचना का काम रचना की व्याख्या करना मात्र नहीं होता है. थोड़ी देर के लिए यदि व्याख्या ही मान लें तब भी उसमें विचारधारा निहित होती है. एक ही रचना की अलग-अलग आलोचकों की अलग-अलग व्याख्या इसी बात को प्रमाणित करती है. कई बार आलोचक का विचारधारात्मक आग्रह मूल पाठ के बोध की दिशा को ही बदल देता है. आलोचना दृष्टियों में भिन्नता का संबंध समाज में मौजूद विचारधारात्मक भिन्नता और संघर्ष से होता है. यदि समाज में वर्ग और विचारधाराएं मौजूद हैं तो साहित्य और कला के क्षेत्र में उनका होना स्वाभाविक है. समाज में जब तक तमाम तरह की विचारधाराएं होंगी तो रचना-आलोचना भी उससे अछूती नहीं रह सकती. अलग-अलग विचारधाराएं अलग-अलग वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं. इसलिए इन दोनेां का गहरा संबंध रहता है.
विचारधारा को आलोचक की आलोचना की एक कसैाटी भी कहा जा सकता है. विचारधारा के बिना आलोचना का अराजक होने का खतरा हमेशा बना रहता है. उसमें अंतर्विरोधों की संभावना बढ़ जाती है. प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कोई न कोई विचारधारा अवश्य होती है. इस संदर्भ में मुझे लोकधर्मी आलोचक डॉ. जीवन सिंह की यह बात सटीक प्रतीत होती है, “ साहित्य में विचारधारा की भूमिका कभी समाप्त नहीं होती. विचारधारा तो जाने-अनजाने सभी के साथ रहती है. उनके साथ भी ,जो विचारधारा का विरोध करते हैं, उनकी अपनी विचारधारा होती है. …साहित्य रहेगा तो विचारधारा भी रहेगी ,उससे मुक्ति संभव नहीं.’’ यहाँ ’साहित्य’ के स्थान पर ’आलोचना’ पढ़ें तब भी बात समान रूप से लागू होती है. यह दूसरी बात है कि वह विचारधारा कितनी मानवीय,तार्किक एवं वैज्ञानिक है. विचारधारा और आलोचना का वही रिश्ता है जो वृक्ष और जमीन का. हर आलोचक अपनी विचारधारा से ही किसी रचना को देखता और उसका विवेचन-विश्लेषण करता है. रचना को मूल्य देने की प्रक्रिया में आलोचना या आलोचक की अपनी दृष्टि या दृष्टिकोण की निश्चय ही बुनियादी भूमिका होती है. दृष्टिकोण विचारधारा से पैदा होता है. बावजूद इसके अपेक्षा की जाती है कि आलोचना अधिकाधिक वस्तुनिष्ठ हो ,उसकी निगाह रचना के सारे अंगों पर हो , ऐसा होने पर ही रचना का सही मर्म सही आशय में खुल पाएगा या खोली जा सकेगी.
यह बात सही है कि कोई भी विचारधारा आलोचना की वहीं तक मदद करती है जब तक वह रचना की अर्थवत्ता और सार्थकता समझने में सहायक हो. रचना की अर्थवत्ता तो रचनानिष्ठ होती है पर उसकी सार्थकता समाज-सापेक्ष. रचना की सार्थकता पहचानने के लिए उसकी विचारधारा को जानना जरूरी है. लेकिन जब विचारधारा इन दोनों को ढँकने लगे तो आलोचना के लिए घातक बन जाती है. विचारधारा की झूठी सज-धज या सतही लीपा-पोती बड़ी खतरनाक है. आलोचना के लिए मैं एक वैज्ञानिक विचारधारा का होना जरूरी मानता हॅूै. ऐसी विचारधारा जो मानवता के पक्ष में तथा शोषण ,उत्पीड़न और अत्याचार के विरोध में हो. जो जनता के संघर्ष का पक्ष ले तथा जिसमें शोषणमुक्त समाज बनाने की संकल्पना हो. जो जनता की कठोर और कोमल धड़कनों को सुन सके.
अंत में, आलोचना मूल रचना में जीवन मूल्यों की जाँच पड़ताल करती है. नए रचे जाते सौंदर्यबोध को परखकर लोकप्रिय बनाती है. उन्हें लोक हृदय में प्रतिष्ठित करती है. और नए मूल्य, नए सांस्कृतिक रूझान, नई लोक रूचि का व्यापक स्तर पर सृजन करती है. आशा की जानी चाहिए कि आलोचना आज के संकटग्रस्त समय में अपने इस दायित्व का निर्वहन करेगी.
मैंने उनको भी सरेराह फिसलते देखा…
प्रभात कुमार मिश्र
हिन्दी के अलावा जिन भारतीय भाषाओं में बहुत ज्यादा साहित्य लिखा जा रहा है, उनमें आलोचना की संस्कृति और आलोचनात्मक लेखन उतना ज्यादा नहीं होता. इस बात को इस आधार पर मानने में सुविधा होगी कि ‘हिन्दी आलोचना’ बतौर एक अनुशासन जिस तरह विकसित हो सकी है, वैसी स्थिति ना तो ‘बांग्ला आलोचना’ की है, न ही ‘मराठी आलोचना’ की…दूसरी भाषाओं में तो खैर नहीं ही है. इसलिए गोपाल प्रधान की चिंता और यह अपेक्षा कि आलोचना का स्तर और दायरा कम होता जा रहा है जायज है.
अपने आलेख में उन्होंने आलोचना विशेषकर हिन्दी में लिखी जा रही आलोचना के सम्बन्ध में मोटे तौर पर दो ठहरावों का उल्लेख किया है. एक तो यह कि विभिन्न वजहों से आलोचना में सच कहने के साहस का अभाव दिखने लगा है और दूसरे कि आलोचना में साहित्य, राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति आदि की साझी समझदारी की जगह खंडित और संकुचित बुद्धि का प्रभाव ज्यादा है. इससे बाहर निकलने के उपाय के बतौर उन्होंने हमारी उस शास्त्रीय परम्परा की शक्ति की खोज करने का सुझाव दिया है जिनमें कि सच कहने का साहस भी है और ज्ञान को देखने-समझने की उनकी दृष्टि भी तंग नहीं है.
बहरहाल, मुख्य मुद्दा आज लिखी जा रही हिन्दी आलोचना की दशा-दिशा की पड़ताल करना है. आज का हिन्दी जगत युवा आलोचकों से खूब परिचित है और उनकी समझदारी पर रीझा हुआ भी. कहने को कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना में यह युवाओं की दमदार उपस्थिति का युग है. सवाल यह है कि क्या यह इन युवा आलोचकों की सार्थक उपस्थिति का भी युग है? प्रायः युवाओं के बीच से यह बात भी उभरकर आ रही है कि हिन्दी में आलोचना की स्वस्थ संस्कृति का अभाव है. यह एक अलग बहस का विषय है कि यह शिकायत ठीक है या नहीं. यहां सोचने की बात यह है कि आलोचना की संस्कृति के अभाव का आशय क्या है? दो बातें हैं, एक तो आलोचना का अधिकार, और दूसरे आलोचना का विवेक. इन दोनों से ही आलोचना की संस्कृति का निर्माण होता है. इसलिए इन दोनों के अभाव में ही हम आलोचना की संस्कृति के अभाव का कारण भी देख सकते हैं. एक पाठक, एक श्रोता, एक दर्शक हमें आलोचना करने का अधिकार है, और हमारी आलोचना को विवेकसम्मत होना चाहिए.
आज की हिन्दी आलोचना में हम एक साथ ही दो विरोधी स्थितियां पाते हैं. एक स्थिति तो यह है कि आज कवियों की दुनिया, कहानीकारों की दुनिया या कहें कि रचनाकारों की दुनिया और आलोचकों की दुनिया में पर्याप्त फासला है. इस कारण से आलोचना और आलोचकों का रचना और रचनाकारों पर कोई सीधा-सार्थक हस्तक्षेप नहीं दिखाई पड़ता. सोचने की बात यह है कि इसकी कोई चिंता भी नहीं है. इसी कारण से हम पाते हैं कि जहां एक ओर आलोचना की भूमि पर विभिन्न विधाओं की आपसी साझेदारी में कमी आई है वहीं दूसरी ओर स्वयं आलोचना की रचनात्मकता का भी लोप होता जा रहा है.
दूसरी तरफ यह बात भी गौर करने की है कि आज के युवा कवि-कहानीकार रचनारत होने के साथ ही साथ आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं. हम जानते हैं कि यह प्रवृत्ति छायावाद में थी, बाद में नई कविता के दौर में भी एक सीमा तक. इसका एक बड़ा कारण रचनाकार के मनोनुकूल आलोचना का अभाव था. अपने अनुकूल आलोचना की अपेक्षा के साथ आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय रचनाकार-आलोचकों का बड़ा गहरा असर आलोचना विधा पर दिखाई देता है. आज के एक कवि-आलोचक ने लिखा है ‘‘जब दृश्य पर परस्पर विरोधी अनेक रचना दृष्टियां एक साथ सक्रिय हों तो अपना पक्ष रखने का नैतिक दबाव भी कवियों के आलोचना लिखने का कारण, बीते दौर में बना है. फिलहाल ऐसा दबाव नहीं है तो इसका कारण यही है कि रचनात्मक विरोध नहीं विकसित हो पा रहे हैं और असहमतियां खीझों में बदल जा रही हैं.’’
युवाओं के साथ स्वभावतः दो बातें होती हैं. एक तो उनमें स्मृति और अनुभव की व्यापकता का अभाव होता है, जाहिर है उम्र कम होने के कारण. दूसरे, अनुभव की व्यापकता के अभाव से उनमें कल्पना की व्यापकता का भी अभाव होता है. ये दोनों ही चीजें आलोचना के लिए बेहद जरूरी हैं. इनमें से कल्पना की व्यापकता का अभाव तो कुछ आलोचकों की प्रतिभा के पीछे छिप जाता है किन्तु अनुभव की व्यापकता के अभाव की भरपाई के लिए आलोचक उद्धरण और ‘टीप’ शैली अपनाते हैं. अध्ययन की व्यापकता और उद्धरणों के माध्यम से एक प्रकार से ‘जस्टीफिकेशन आव फैक्ट्स’ के तरीके से स्मृति और अनुभव का बौनापन छिपाया जाता है.
युवा आलोचना का दायरा अक्सर समसामयिक होता है. किन्तु, समसामयिकता को साधने के लिए जिस संतुलन की जरूरत होती है, उसे साध पाना आसान नहीं होता. समसामयिकता कई बार अराजक भी होती है. इसका कारण यह कि उसमें ‘टेन्डेन्सी आव एप्रिसिएशन एंड रिकागनिशन की प्रधानता होती है. ‘एप्रिसिएशन’ और ‘रिकागनिशन’ के लिए ‘साउण्ड डिसिजन’ की जरूरत होती है. यहीं पर सावधानी की आवश्यकता होती है. ‘साउण्ड डिसिजन’ देने के चक्कर में आज की आलोचना पर एक प्रकार का पाण्डित्य-प्रदर्शन हावी है. इसी कारण से आलोचना की भाषा कई बार फिसलकर थाने की एफ. आई. आर. की भाषा या कि पत्रकारिता की भाषा सी लगती है. पत्रकारिता की भाषा में हमेशा निष्कर्ष पहले होता है या कि हावी होता है और तफसील उसके गिर्द, जबकि आलोचना में तफसील की प्रधानता के बाद निष्कर्ष और निणर्य निकाला जाता है.
इन्हीं वजहों से आलोचना जिसका काम रचना को ‘डिमिस्टीफाई’ करना है आज स्वयं ही ‘मिस्टिक’ होती जा रही है.