नवनीत नीरव
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प्रज्ञा |
\”सभ्यता के विकास में बाज़ार की जरूरत की अहमियत को रेखांकित किए बिना बाजारवाद की आड़ में बाज़ार को ही नकारने की प्रवृत्ति भी हिन्दी में खूब दिखाई देती है.\” इन पंक्तियों के माध्यम से राकेश जी ने \’मन्नत टेलर्स\’ समेत बाजार को केंद्र में रखकर लिखी जा रही वर्तमान हिंदी कहानियों के वृष्टिछाया वाले पक्ष को सामने रख दिया है. जहाँ बाजार और विकास के तादात्मय को सिरे से नज़र अंदाज कर कहानी को सिर्फ़ और सिर्फ़ बाजार विरोधी तथ्यों के आधार पर जबरन खड़ा करने की कोशिश की जाती है. राकेश जी के इस लेख को पढ़ने के बाद ही \’मन्नत टेलर्स\’ कहानी को मैंने पढ़ा. कहानी की बारीकियों को समेटते हुए राकेश जी ने बहुत संतुलित तरीक़े से इस आलेख को निभाया है. फिर भी मैंने अपने तरीके से कुछ लिखने की कोशिश की है. परंपरागत दुकानों, श्रमिक और शिल्पियों के अधिकारों समेट असंगठित क्षेत्र की तमाम विसंगतियों को आपने अपने इस आलेख में भरसक रेखांकित करने का प्रयास किया है जिनकी कहानी के माध्यम से कहे जाने की तमाम संभावनाएं थीं.एक अच्छे आलेख के लिए राकेश बिहारी जी का साधुवाद. प्रज्ञा जी को कहानी के निर्वाहन के लिए बधाई.
असंगठित क्षेत्रों में भूमंडलीकरण की मार तो पड़ी ही है क्योंकि सरकार द्वारा बाजार को बाहरी कंपनियों के लिए खोलने पर बड़ी प्रतिस्पर्द्धा ने सबसे पहले छोटे श्रमिकों और शिल्पकारों का खात्मा ही कर दिया. साथ ही उनमें से कुछ कुशल शिल्पियों को सस्ते किन्तु नियमित श्रम के आधार पर नौकरी देकर उनकी स्वायत्ता को समाप्त करने की मुहिम शुरू कर दी. सस्ते श्रम के साथ-साथ गुणवत्ता के मानक भी ऊंचे हुए. गुणवता के रिसर्च, मार्केटिंग और तकनीक का प्रभाव बढ़ा. जहाँ सरकारी नियमों ने बाजार को प्रवेश दिया वहाँ उसके हिसाब से शिल्पियों की क्षमता संवर्द्धन और क्षमता विकास पर काम नहीं किया. सुनियोजित तरीके से न ही बाजार उपलब्ध कराया. फलस्वरूप यह सेक्टर बड़ी कंपनियों और स्थानीय लेवल पर उनके प्रोडक्शन सेंटरों के हाथों में चला गया. हैंड मेड प्रोडक्ट की मांग बढ़ी है लेकिन सामान्य शिल्पियों को उस अनुरूप रोजगार और मेहनताना नहीं मिला. सरकार की स्किल डेवलपमेंट स्कीम फर्जीवाड़े के अलावा कुछ नहीं करती. केवल artisan card और health card जैसी स्कीमें इनके खाते में आईं.
टेलरिंग मास्टर सूरत और लुधियाना की कंपनियों में अपनी स्वायत्तता को छोड़ मास्टर ट्रेनर जैसे काम करने लगे हैं. जिसके नफ़े-नुकसान दोनों हैं. कुछ लोगों ने व्यवसाय ही बदल दिया है. छोटे और असंगठित क्षेत्र के कामों बाजार और उसकी विसंगतियों के बाद किसी चीज की सबसे ज्यादा मार पड़ी है तो वह है ‘मनरेगा\’. जिसने कुशल शिल्पकारों को अकुशल मजदूरों की श्रेणी में साथ लाकर खड़ा कर दिया है. कहानी को पढ़ते वक्त उपरोक्त विचार स्वतः ही आ रहे थे. जिनकी तलाश पूरे कहानी भर रही. राकेश जी ने कहानी के केंद्र को लेकर लिखा है कि कहानी का नाल सही जगह नहीं गड़ पाया है. जिससे मेरी भी सहमति है. निम्न मध्यम वर्ग और असंगठित क्षेत्रों के कामगारों को लेकर कहानी में बहुत सारे अंतर्विरोधों दिखाई पड़ते हैं. बावजूद इसके कहानीकार ने अपनी बात रखने की सफ़ल कोशिश की है.
कुछ और बातें जिन्हें मैं यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा जो कहानी में यदि आती तो इसका फलक व्यापक हो जाता.
‘मन्नत टेलर’ कहानी की शुरुआत धीमी है. ‘मन्नत टेलर’ तक आते-आते कहानी का एक तिहाई हिस्सा निकल जाता है. उन बातों के आधार पर कहानी आगे कैसे बढ़ेगी और इसका अंत क्या होगा इसका अनुमान आसानी से लग जाता है. अंत सुखद है. परन्तु वह परिवार विशेष और पूँजीवाद के विजय की कहानी बनकर रह जाता है. जो इस व्यवसाय या कहें तो इस असंगठित सेक्टर की समस्या का मूल है. इस तरह के अन्य छोटे और घरेलू उद्योगों अन्य समस्याएं भी हैं. जिनकी ओर प्रज्ञा जी ने इस कहानी के माध्यम से लगभग इशारा करने की कोशिश की है. लेकिन वह वास्तविक समस्याओं और उनके विमर्श से दूर ही रह जाता है.
कहानी की शुरुआत में आया ‘समीर का ज्वार’ कपड़ों की तरफ़ उसकी असंतुष्टि को लेकर था या स्वभावतः ही वह ऐसा ही है. इस बात को कहानी स्पष्ट नहीं कर पाती. क्योंकि जिस समय रेडीमेड कपड़े चलन में कम थे यानि कपड़े सिलाने के जमाने में लोग पाँच-पाँच घंटे खुदरा कपड़े की दूकानों पर अलग-अलग रंगों और डिज़ाइनों जी थान को देखने में बिता देते थे. जींस चलन में आने के बावजूद भी कभी फॉर्मल ट्राउजर का विकल्प नहीं बन सका. समीर जैसे फैशनपरस्त या यूँ कहें तो जिनके मानक सामान्य कपड़ों से ऊपर होते हैं. वे बाजारपोषी तो हो सकते हैं, परन्तु मन्नत टेलर के हितकारी तो कतई नहीं. इसी जगह कहानी का अतिवादी पक्ष उपस्थित होता है. जहाँ कहानी में जबरन किसी टेलर की जरूरत महसूस कराने की कोशिश की जाती है. पसंद-नापसंद हर व्यक्ति बेहद निजी फैसला होता है. रेडीमेड कपड़ों की दुकान हो या थान वाले की दुकान शहरों के फैशनपरस्त कभी संतुष्ट नहीं हुए और भविष्य में उनके संतुष्ट होने की सम्भावना भी कम ही है. जो कि बाजार के लिए अनुकूल स्थति है.
आज भी बाजार के हर स्वरुप ने ग्राहकों को अपनी जरूरत महसूस कराई है और कमोबेश उसे संतुष्ट करने की कोशिश भी कर रहा है. सेल एक मार्केटिंग का तरीका है. इस तरह के कई हथकंडे विज्ञापनों समेत बाजार उपभोक्ताओं के लिए आजमाता रहता है. कहानी समीर के माध्यम से कहीं यह बात तो नहीं कहना चाहती कि बाजार भी पितृसत्तात्मक मूल्यों का पोषक बन गया है जिसमें महिलाएं एक साधन मात्र हैं और वे पुरुषों के हितों/इच्छाओं की पूर्ति करने की कोशिश में हैं. अगर ऐसा है तो कहानी के इस बिंदु पर दुबारा चिन्तन की जरूरत है. कपड़े की मजबूती के हमारे मानक हमेशा ही बहुत दोयम दर्जें के रहे हैं. जैसा कि कहानी में समीर के पिता का बोध बताया गया है.
उदारीकरण के बाद के बाज़ार ने इन्हीं मानकों को ध्वस्त करके नए मानक गढ़े हैं. जिसमें न तो परम्परागत उपभोक्ता फिट बैठते हैं और ना ही बाज़ार. उपभोक्ता को अपग्रेड करने के लिए बाजार ने मॉल संस्कृति, फिल्म धारावाहिक, सेल समेत विज्ञापनों का सहारा लिया. सुन्दर और सजीले दिखने के लोलुप निम्न मध्यम वर्गीय और मध्यमवर्गीय परिवार तो उत्पादों के अनुसार अपग्रेड हो गए या होने की कोशिश में हैं लेकिन परम्परागत उत्पादक, कुटीर उद्योग और स्थानीय बाजार वे इस दौड़ में आर्थिक, तकनीकी और समुचित प्रशिक्षण के आभाव में पिछड़ गए. इसके लिए शोध और विकास को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. अब वे ग्राहक भी नहीं रहे जो टेलर मास्टर के यहाँ अमिताभ बच्चन के सूट की तस्वीर को देखकर सिलाना तय करें.
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राकेश बिहारी |
कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है उसकी पकड़ बढ़ती जाती है. शिल्पियों के बच्चे सामान्यतः पढ़े-लिखे कम ही होते हैं. लेकिन यहाँ एक सवाल उठना लाजिमी है कि हम शिक्षा से क्या समझते हैं? सिर्फ़ मैट्रिक, इंटर या फिर स्नातक (10+2+3) पास होना या कुछ और…? अगर एक शिल्पी परिवार का बच्चा इतना ही समय उस हुनर को सीखने में बिताता है और उच्च कोटि का प्रोडक्ट बनाकर अपना जीवन-यापन करने की स्थिति में है, तो क्यों उसकी इस हुनर की शिक्षा को मान्यता समाज या सरकारी शिक्षण व्यवस्था नहीं देती है? कहानी इस मुद्दे पर बात न कर परंपरागत शिक्षा व्यवस्था के पक्ष में सगर्व खड़ी दिखाई देती है. असलम को एम०बी०ए० बता देना व्यवसाय के ढंग से चला सकने का पर्याय बताने की कोशिश भी हुई है. जबकि इनफिनिटी जैसी चमक-दमक वाली दुकानें वास्तव में बड़ी कम्पनियों की या तो सब्सिडयरी कम्पनियाँ (प्रोडक्शन सेंटर) बन कर खड़ी हुई हैं या फिर मिडिल मैन की भूमिका में हैं. शोषक और शोषित दोनों वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हुईं.
कहानी एक सामान्य टेलर मास्टर की तरफ़ खड़ी है या फिर मॉल कल्चर की तरफ़ यह भी स्पष्ट नहीं है. कुछ भावुक संवादों के जरिये‘स्टैंड’ समान्य टेलर की तरफ़ रखने की कोशिश भी की गयी है. लेकिन इतने से बात नहीं बनती. मसलन असलम का कहना कि ….पर त्यौहार पर शौक से आज भी कैंची उठा लेते हैं. “ या फिर रशीद भाई के मुंह से…. \’\’बेटा! ये तो उम्र भर का दुख है. जाने वाले की यादें रह जाती हैं बस.\’\’
आज कि वर्तमान परिस्थिति जहाँ एक भी सामान्य शिल्पकार अपनी स्वायतता नहीं बचा पा रहा तो इसमें भी सामूहिक जिम्मेदारी समाज की ही है. लेकिन यह भी स्वीकारना चाहिए कि उनमें से कुछ लोगों के पास पहले की अपेक्षा बेहतर मौके और सुविधाएं भी हैं. क्या होता है कि सब कुछ बह जाने के बाद भी हम ख्याली पुल बनाते चलते हैं. जैसा कि समीर सोच कर मन्नत टेलर्स की खोज में जाता है. यह भावुकता हमें कुछ करने या सोचने नहीं देती. बहुत सी चीजें धीरे-धीरे हमारे हाथों से लगभग फिसल रही हैं. पलायन हर जगह है. हम अब भी अपनी सुखद यादों (नॉस्टेल्जिया) मानक मानकर उन्हें संजोने में यकीन करते हैं. जिनके स्वरुप के बिगड़ जाने का एक भय भी हमेशा हमारे साथ रहता है. सब कुछ बदल जाए. यादों और ख्यालों का विकास हमें कतई पसंद नहीं. गाँवों के स्वरुप के बिगड़ने की दलील इसी वजह से दी जाती है. यह अंतर्विरोध आजकल निम्न माध्यम और माध्यम वर्ग में एक सामान्य लक्षण के रूप में परिलक्षित होने लगा है. जो कि समीर के स्वभाव में भी दिखता है.
कहानी में टेलर मास्टर के बहाने हस्तशिल्प और लघु उद्योगों के अनेक उपक्रमों एवं कलाओं को केंद्र में रखकर उनके शिल्पियों के संघर्ष एवं बाजारवाद की वजह से पैदा हुए संकटों को बखूबी दिखाया जा सकता था. लेकिन कहानी यहाँ चूक जाती है.
एक बार पुनः प्रज्ञा जी और राकेश बिहारी जी को बधाई.
नवनीत नीरव
navnitnirav@gmail.com