१९७६ में लिखी गयी ‘पतंग’ कविता आलोकधन्वा के एकमात्र संग्रह ‘दुनिया रोज़ बनती है’ (प्रकाशन -१९९८) में संकलित है. यह आलोकधन्वा की कुछ बेहतरीन कविताओं में से एक है, जो कई जगह पाठ्य-पुस्तकों में भी शामिल है. बच्चों के मनोविज्ञान और वयस्कों के हिसंक साम्राज्य के बीच पतंग निडरता के प्रतीक की तरह आकाश में ऊँची उड़ती है, यह आकाश बेहतर और संवेदनशील दुनिया की कामना का ही विस्तार है.
कविताओं की मर्म-यात्रा पर निकले सदाशिव श्रोत्रिय आज इसी कविता पर ठहरे हैं. इससे पहले आपने विष्णु खरे, राजेश जोशी और दूधनाथ सिंह की कविताओं पर उनके भाष्य यहीं समालोचन पर पढ़े हैं.
पतंग : आलोकधन्वा
एक
उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे
और
हवा की विशाल धाराओं तक उठते चले जाते हैं
जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं
धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या
फल की तरह बहुत पास लटक रही हो-
हलचल से भरे नींबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ
पर रस छोड़ता रहता है
तेज़ आँधी आती है और चली जाती है
तेज़ बारिश आती है और खो जाती है
तेज़ लू आती है और मिट जाती है
लेकिन वे लगातार इंतज़ार करते रहते हैं कि
कब सूरज कोमल हो कि कब सूरज कोमल हो कि
कब सूरज कोमल हो और खुले
कि कब दिन सरल हों
कि कब दिन इतने सरल हों
कि शुरू हो सके पतंग और धागों की इतनी नाज़ुक दुनिया
दो
सबसे काली रातें भादों की गयीं
सबसे काले मेघ भादों के गये
सबसे तेज़ बौछारें भादों की
मस्तूतलों को झुकाती, नगाड़ों को गुँजाती
डंका पीटती- तेज़ बौछारें
कुओं और तलाबों को झुलातीं
लालटेनों और मोमबत्तियों को बुझातीं
ऐसे अँधेरे में सिर्फ़ दादी ही सुनाती है तब
अपनी सबसे लंबी कहानियाँ
कड़कती हुई बिजली से तुरत-तुरत जगे उन बच्चों को
उन डरी हुई चिड़ियों को
जो बह रही झाड़ियो से उड़कर अभी-अभी आयी हैं
भीगे हुए परों और भीगी हुई चोंचों से टटोलते-टटोलते
उन्होंने किस तरह ढूँढ लिया दीवार में एक बड़ा-सा सूखा छेद !
चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं-
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
भूख से
महामारी से
बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें
बच्चों को मारने वाले आप लोग !
एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे
बच्चों को मारने वाले शासको !
सावधान !
एक दिन आपको बर्फ़ में फेंक दिया जायेगा
जहाँ आप लोग गलते हुए मरेंगे
और आपकी बंदूकें भी बर्फ़ में गल जायेंगी
तीन
सबसे तेज़ बौछारें गयीं भादों गया
सवेरा हुआ
ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके-
दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज़ उड़ सके
दुनिया का सबसे पतला काग़ज़ उड़ सके-
बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके-
कि शुरू हो सके सीटियों, किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया
जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर
छतों के खतरनाक किनारों तक-
उस समय गिरने से बचाता है उन्हें
सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे
अगर वे कभी गिरते हैं छतों के ख़तरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हुई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास.
(1976)
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पतंग: अमानवीयता के विरुद्ध उड़ान
सदाशिव श्रोत्रिय
कवि आलोकधन्वा की विशेषता मैं इस बात में मानता हूँ कि वे जब तक स्वयं यह नहीं मान लेते कि कोई कविता लिख कर उन्होंने किसी नए काव्य-अनुभव का सृजन किया है तब तक वे शायद उसे प्रकाशित नहीं करवाते. कवि रूप में उनका यह संयम हमारे इस समय में विशेष प्रशंसा की मांग करता है जब लोगों में कवि कहलाने की जैसे होड़ सी लगी है. इस सम्बन्ध में चीज़ें अब शायद पहले की तुलना में कुछ आसान भी हो गई हैं. आलोकधन्वा की प्रशंसा इस बात के लिए भी की जानी चाहिए कि उन्होंने उस विशिष्ट भावभूमि में हमेशा के लिए कैद हो जाने को भी आवश्यक नहीं माना जिस पर खड़े रह कर उन्होंने सबसे पहले पाठकों का ध्यान आकर्षित किया था. बाद वाले दौर की उनकी कविताएँ उनकी इस रचनात्मक ईमानदारी को प्रमाणित करती है.
आलोकधन्वा की कविताओं में “पतंग” मुझे विशिष्ट लगती है क्योंकि यह बच्चों की दुनिया की काफ़ी गहराई से छानबीन करती है और उसे सफलतापूर्वक बड़ों की समझ के दायरे में ले आती है.
कविता के पहले भाग में बच्चों को, उनकी धमनियों में बहने वाले रक्त को, पतंग को,कपास को, कपास से बनने वाले और पतंग उड़ाने में इस्तेमाल किए जाने वाले धागों को और हवा की उन ऊर्द्ध्वगामी विशाल धाराओं को जिनके साथ ऊपर उठ कर ये धागे पतंगों को आसमान तक पहुंचाते हैं कवि प्रकृति के और सृष्टि के ही विभिन्न और अविभाज्य अंगों के रूप में देखता है. कवि जब कहता है कि :
उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे
या
जन्म से ही कपास वे अपने साथ लाते हैं
तो उसका आशय यही होता है कि प्रकृति किसी बच्चे को पतंग उड़ाने की तीव्र इच्छा के साथ ही जन्म देती है .
अगली पंक्तियों :
धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या
फल की तरह बहुत पास लटक रही हो –
हलचल से भरे नीबू की तरह समय हरदम उनकी जीभ पर रस छोड़ता रहता है
यहाँ कवि धूप और समय के बिम्बों को भी एकमेक कर देता है. इसका कारण शायद यह है कि बच्चे समय जैसी अमूर्त और अभौतिक वस्तु को भी उसके मूर्त और भौतिक रूप में ही ग्रहण कर पाते हैं. भविष्य के किसी मज़ेदार और उत्तेजक समय की कल्पना हर बच्चे को शायद नीबू के रस जैसी ही चटखारेदार लगती है.
ग्रीष्म और वर्षा काल में तेज़ आंधी, बारिश और लू के आने-जाने के दौरान कविता में वर्णित बच्चे जिस गतिविधि की प्रतीक्षा करते हैं वह इस काव्य-रचना में पतंग उड़ाने की यह उत्तेजक गतिविधि ही तो है :
तेज़ आंधी आती है और चली जाती है
तेज़ बारिश आती है और खो जाती है
तेज़ लू आती है और मिट जाती है
लेकिन वे लगातार इंतज़ार करते रहते हैं कि
कब सूरज कोमल हो कि कब सूरज कोमल हो कि
कब सूरज कोमल हो और खुले
कि कब दिन सरल हों
कि कब दिन इतने सरल हों
कि शुरू हो सके पतंग और धागों की इतनी नाज़ुक दुनिया
बच्चों और चिड़ियों की आँखों की इतनी नाज़ुक दुनिया
‘कब सूरज कोमल हो’ और ‘कब दिन सरल हों’ के दोहरान–तिहरान से कवि विलम्ब और प्रतीक्षा के भावों को जिस तरह अभिव्यक्ति देता है उसे किसी भी पाठक द्वारा बड़ी आसानी से देखा–समझा जा सकता है.
कविता के दूसरे भाग में कवि उन बलों का वर्णन करता है जो विनाश और हिंसा के बल हैं. अपनी संवेदनहीनता और नियंत्रणविहीनता में ये विनाशक बल कोमल और असहाय प्राणियों को नष्ट करने पर आमादा रहते हैं :
सबसे तेज़ बौछारें भादों की
मस्तूलों को झुकाती , नगाड़ों को गुंजाती
डंका पीटती – तेज़ बौछारें
कुओं और तालाबों को झुलातीं
लालटेनों और मोमबत्तियों को बुझातीं
जहाँ मस्तूलों, कुओं और तालाबों जैसी बड़ी और ताकतवर चीज़ों का वर्णन करते हुए कवि इन बलों के शक्तिशाली होने की घोषणा करता है, वहीं लालटेनों और मोमबत्तियों के बिम्बों से वह इन बलों के प्रकाश से अंधकार की ओर ले जाने वाले होने का भी आभास देता है. ताकत और विनाश के इस खेल के बीच कवि उन रक्षात्मक बलों की ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है जो अपने स्नेह और करुणा से कोमलता को, निरीहता को,और शरण ढूँढती उन संभावनाओं को बचाए रखते हैं जिनमें आने वाले समय की खुशियां और संगीत छिपा रहता है :
ऐसे अँधेरे में दादी ही सुनाती है ..
अपनी सबसे लम्बी कहानियां
कड़कती हुई बिजली से तुरत-तुरत जगे उन बच्चों को
उन डरी हुई चिड़ियों को
जो बह रही झाड़ियों से उड़कर अभी-अभी आयी हैं
भीगे हुए परों और भीगी हुई चोंचों से टटोलते – टटोलते
उन्होंने किस तरह ढूंढ लिया दीवार में एक बड़ा-सा सूखा छेद !
पर इस दूसरे भाग के बाद वाले हिस्से में कवि उन क्रूर और हत्यारे बलों को कोसता है जो इस दुनिया से सुन्दरता और भोलेपन को मिटाने पर तुले हैं. कवि की वाणी ही जैसे कविता के इस भाग में एक रक्षा-कवच का रूप ले लेती है जो भयानक से भयानक हथियारों को भी गला सकने में समर्थ है :
चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं –
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं
अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें
भूख से
महामारी से
बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें
बच्चों को मारने वाले आप लोग !
एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे
बच्चों को मारने वाले शासकों !
सावधान !
एक दिन आपको बर्फ़ में फेंक दिया जायेगा
जहाँ आप लोग गलते हुए मरेंगे
और आपकी बंदूकें भी बर्फ़ में गल जायेंगी
इन पंक्तियों को ध्यान से पढ़ने वाला पाठक समझ सकता है कि इन्हें कहने वाला (पर्सोना) एक मजबूर और सताया हुआ व्यक्ति है जो उसके साथ होने वाली क्रूरता का प्रतिकार करने में समर्थ नहीं है और जो असंभव के संभव हो जाने की सिर्फ़ कामना ही कर सकता है. वह इसीलिए बर्फ़ द्वारा हथियारों को गला दिए जाने की भोली और व्यथापूर्ण बात करता है जो वस्तुतः एक सुचिंतित वक्तव्य न होकर महज एक शाप है. क्रांति के जो बीज किसी कविता में छिपे हो सकते हैं उन्हें हम इस कविता में भली भांति देख सकते हैं.
किन्तु कविता “पतंग” को कविता बनाने वाला तो वस्तुतः इसका तीसरा और अंतिम भाग ही है . इसी भाग में बच्चों की उस गतिविधि का वर्णन है जो उन्हें इस धरती के विशिष्ट प्राणियों के रूप में प्रस्तुत करती हैं. इस गतिविधि के लिए ये बच्चे वर्ष के जिस काल की प्रतीक्षा करते रहे हैं वह शरद काल कविता के इस तीसरे भाग में ही पहुंच पाता है. वह आकर हमारी इस आंधी-तूफ़ान भरी दुनिया को इन पतंग उड़ने वाले बच्चों के अनुकूल बनाता है. प्रकृति के लिए जैसे यह अनिवार्य है कि वह हर वर्ष कम से कम एक बार इन पतंग उड़ाने वाले बच्चों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करे. प्रकृति पर असली शासन इन बच्चों का ही है. इस सृष्टि में वे और चिड़ियाँ इतनी कमज़ोर और कम महत्वपूर्ण नहीं कि आप उनके साथ मनमानी ज़्यादतियां किए जाएँ. शरद के आगमन के लिए कवि जिस तरह के बिम्बों का प्रयोग करता है वे अपनी ध्वन्यात्मकता ,चमकीलेपन और स्पष्टता से हमें अंग्रेज़ी के बिम्बवादी कवियों की याद दिलाते हैं :
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उड़ानेवाले बच्चों के झुण्ड को
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके –
………………
कि शुरू हो सके सीटियों ,किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया
बच्चों की इस अलौकिक दुनिया का गुणगान कवि यहीं समाप्त नहीं करता. प्रकृति बच्चों की स्वामिनी नहीं है बल्कि वे उसके स्वामी हैं और उसे अपने इशारों पर नचा सकते हैं. इस बात को भी कवि इस कविता की अगली कुछ पंक्तियों में स्पष्ट करता है :
जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
पतंग उड़ाने वाले इन प्रसन्न बच्चों की उपस्थिति कठोर छतों को भी किसी मुलायम गद्दे सी नरम बना देती है और पृथ्वी की समस्त दिशाओं को ख़ुशी और संगीत से भर देती है ( और इसीलिए वे हमारे विशेष सम्मान के अधिकारी हैं ).
कवि बच्चों में बहुमूल्यता और अमरत्व का वह तत्व देखता और दिखाता है जिसे साधने की कोशिश प्रकृति की भी हर चीज़ करती है :
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर
छतों के खतरनाक किनारों तक –
उस समय गिरने से बचाता है उन्हें
सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे
प्रकृति की जो हवा पतंगों को उड़ा ऊंचे आसमान तक ले जा रही है वही हवा उनके नासा-रंध्रों से प्रवाहित होकर उन्हें भी उत्साह और प्रसन्नता से भर रही है ; पतंग के जो धागे उन्हें उड़ा कर आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचा रहे हैं वे ही किसी रहस्यमय तरीके से मज़बूत रस्से की भांति उन्हें भी थामे हुए हैं.
बच्चों की ख़ुशी की अदमनीयता को रेखांकित करते हुए कवि इस कविता के अंत में कहता है कि पतंगबाज़ी के दौरान छतों से गिर कर बच जाने वाले बच्चों के बारे में यदि कोई यह धारणा बनाए कि वे इस तरह की दुर्घटना के बाद हमेशा के लिए पतंग उड़ाना छोड़ देते होंगे तो इसका मतलब यह है कि उसे बाल-प्रकृति और बाल-मनोविज्ञान का ज़रा भी ज्ञान नहीं है. वास्तविकता यह है कि ऐसे बच्चे ठीक हो जाने पर दुगुने जोश और आत्मविश्वास के साथ फिर से वैसे ही जोखिम भरे और साहसिक कार्यों में भाग लेते हैं और पृथ्वी भी उनके साथ जैसे किसी अदृश्य बंधन से बंधी दुगुनी तेज़ी से घूमती हुई उन्हें थामने के लिए पहले से भी अधिक आदर से उनके पैरों के पास आ खड़ी होती है :
अगर वे कभी गिरते हैं छतों के ख़तरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हुई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास.
कविता को पढ़ते समय पाठक के लिए यह जानना आवश्यक है कि कवि का सच हमारी आम दुनिया के सच से कई बार काफ़ी भिन्न हो सकता है. उदाहरणार्थ बच्चों की जिन गतिविधियों को कवि इस कविता में अलौकिक व प्रशंसनीय कह रहा है उन्हें एक विशेष सामाजिक-पारिवारिक-राजनीतिक व्यवस्था दमनीय, दंडनीय और अपराधपूर्ण भी कह सकती है. इसीलिए केवल वही पाठक इन कविताओं के मर्म को ठीक से समझ पाता है जो अपनी काव्य-संवेदना के विकास को एक स्तर-विशेष तक ला पाया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था उस संवेदना- विकास को कोई महत्त्व नहीं देती जो किसी विद्यार्थी को केवल अधिक कमाने और अधिक खर्च कर सकने वाले उपभोक्ता के बजाय एक खुशमिजाज़, संवेदनशील और सृजनशील इन्सान बनाती है.
बच्चे इस कविता में इन्सान के निरंतर ऊपर उठते रहने के प्रतीक हैं. उनमें कुछ ऐसा तत्व है जो उन्हें बंधन-मुक्त रखने की कोशिश करता है और ऊर्ध्वगामी बनाता है. इस ऊर्ध्व्गामिता के बिना इन्सान कैसे एक विकासशील प्राणी बना रह सकता है. प्रकृति ने निरंतर ऊपर उठने का यह गुण उसमें रखा है जिसे कवि प्रतीकात्मक रूप से इस कविता में प्रकट करता है. बच्चे निरंतर ऊपर उठते रहना और आगे बढ़ते रहना चाहने वाले प्राणी है और इस मायने में उनका साम्य चिड़ियों में ही खोजा जा सकता है. कवि इसी उद्देश्य से विभिन्न सन्दर्भों में उन्हें चिड़ियों के साथ चित्रित करता है. पतंग उड़ाते समय वे चिड़ियों की सी फुर्ती, निडरता और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं. चिड़ियों और बच्चों के सन्दर्भ में भूख, महामारी,बाढ़ और बन्दूक की गोलियों का वर्णन ही इस कविता में वह विशेष अपील पैदा करता है जो इसे हमारे आज के समय की कविता बनाती है.
कविता के दूसरे भाग में कवि ने एक शरणस्थल का बिम्ब प्रस्तुत किया है – यह एक ऐसे घर का चित्र है जिसकी लालटेनें और मोमबत्तियां बाहर के तेज़ आंधी –तूफ़ान की वजह से बुझ गई हैं और जो इस समय रात के अँधेरे में डूब गया है. पर इस अँधेरे में भी एक दादी है जो बाहर कड़कती बिजली से अभी–अभी जगे हुए बच्चों को लम्बी कहानियां सुना रही है. यह कहानियां न केवल ये बच्चे सुन रहे हैं बल्कि वे डरी हुई चिड़ियाँ भी सुन रही हैं जो बाहर के आंधी तूफ़ान के कारण उखड़ गई और अब किसी बाढ़ आई नदी में बह रही उन झाड़ियों से उड़ कर आई हैं जिनमें उनके घोंसले बने हुए थे. उनके पर और चोंचें भीग गई हैं पर उन्होंने इन्हीं से टटोलते- टटोलते इसी घर की दीवार में एक बड़ा सा सूखा छेद ढूंढ लिया है और अब वे उसी में आ बैठी हैं. इस विशिष्ट बिम्ब द्वारा भी कवि बच्चों और चिड़ियों के बीच एक सहज सम्बन्ध कायम करने में सफल होता है. इस डरावने अँधेरे में दादी माँ की कहानियों की आवाज़ न केवल बच्चों को बल्कि उन्हें भी ढाढ़स बंधाती हैं और इस तरह चिड़ियों और बच्चों के बीच एक अदृश्य मैत्री स्थापित कर देती है.
आज के समय की संवेदना में जीने वाला कोई भी पाठक बड़ी आसानी से समझ सकता है कि इस कविता का वास्तविक उत्स वस्तुतः बच्चों के पतंग उड़ाने में नहीं है. कवि की संवेदना को झकझोरने और उसे यह कविता लिखने की प्रेरणा देने वाला भाव इस कविता से बाहर कहीं अन्यत्र है. कविता में वह बच्चों के पतंग उड़ाने की गतिविधि से सम्बंधित कोई लयबद्ध गीत नहीं गा रहा है. उसका रोष प्रमुखतः उस क्रूरता और अन्याय के प्रति है जिससे परिचालित होकर नक्सलवादी या किसी अन्य गतिविधि के नाम पर अनेक बच्चों को उसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाता है जिस तरह कोई चिड़ियों को नुकसान पहुँचाने वाले पक्षी कह कर अथवा किसी अन्य बहाने बन्दूक का निशाना बना देते हैं. कवि का रोष उस अमानवीयता के विरुद्ध है जिसने आज बच्चों को बच्चों की तरह देखना बंद कर दिया है. बाल-जीवन के उच्चतर और काव्यात्मक पक्षों को उजागर करना इस कविता के प्रमुख उद्देश्यों में से एक रहा है.
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सदाशिव श्रोत्रिय
(12 दिसम्बर 1941 – बिजयनगर, अजमेर)
एंग्लो-वेल्श कवि आर. एस. टॉमस के लेखन पर शोध कार्य.
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नाथद्वारा के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त (1999)
1989 में प्रथम काव्य-संग्रह \’प्रथमा\’ तथा 2015 में दूसरा काव्य-संग्रह \’बावन कविताएं\’प्रकाशित
2011 में लेख संग्रह ‘मूल्य संक्रमण के दौर में’ तथा 2013 में दूसरा निबंध संग्रह ‘सतत विचार की ज़रूरत’ प्रकाशित.
स्पिक मैके से लगभग 15 वर्षों से जुड़े हुए हैं आदि
सम्पर्क:
आनन्द कुटीर, नई हवेली, नाथद्वारा –313301
मोबाइल:8290479063, 9352723690/ ईमेल: sadashivshrotriya1941@gmail
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