राकेश बिहारी
भूमंडलोत्तर कहानियों के विश्लेषण की इस श्रृंखला में इस बार मेरे सामने है, राकेश मिश्र की कहानी – ‘पिता–राष्ट्रपिता. राकेश अपने समय के बौद्धिक और राजनैतिक विमर्शों में सीधे–सीधे हस्तक्षेप करनेवाले कथाकार हैं. इन अर्थों में भी इनकी कहानियाँ अपने समाकालीन कथाकारों की कहानियों से अलग और विशिष्ट हैं कि ये अपनी संश्लिष्ट रचनात्मक बुनावट के भीतर मौजूद विमर्शों को डिकोड किए जाने के लिए पाठकों से एक खास तरह की बौद्धिक परिपक्वता या तैयारी की मांग करती हैं. नया ज्ञानोदय के फरवरी– 2014 अंक में प्रकाशित ‘पिता–राष्ट्रपिता’ भी उनकी एक ऐसी ही कहानी है. यह कहानी बहुत ही मुखर और घोषित रूप से गांधी बनाम अंबेडकर के राजनैतिक विमर्श को रेखांकित करते हुये इस बात पर ज़ोर देती है कि ‘गांधीजी को देवता मानकर उन्हें पूजने की जरूरत नहीं. बल्कि एक इंसान के तौर पर उनकी खामियों, कमजोरियों के साथ उनके मूल्यांकन की आवश्यकता है’. एक ही लक्ष्य को हासिल करने के उद्देश्य के साथ क्रियाशील होने के बावजूद अपनी वैचारिक भिन्नताओं के कारण गांधी और अंबेडकर स्वतन्त्रता पूर्व की भारतीय राजनीति में लगातार आमने–सामने होते रहे थे. लेकिन आज़ादी के बाद गांधी और अंबेडकर की वैचारिक असहमतियों की आड़ में एक सोची समझी रणनीति के तहत गांधी और अंबेडकर को एक दूसरे के दुश्मन की तरह पेश किया जाता रहा है.
गांधी बनाम अंबेडकर के द्वंद्व के बहाने गांधी के विचारों के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत की बात न तो भारतीय राजनीति के लिये नई है न हीं, राकेश मिश्र और उनकी कहानियों के लिए. बहरहाल विवेच्य कहानी पर सीधे–सीधे आने के पहले मैं राकेश मिश्र के पहले कहानी–संग्रह ‘बाकी धुआँ रहने दिया’ में संकलित और चर्चित उनकी एक कहानी ‘तक्षशिला में आग’ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहता हूँ –
“इसी विश्वविद्यालय के कैंटीन के बोधिवृक्ष के नीचे प्रणयकान्त को इल्म हुआ कि गांधीजी ने हिंद स्वराज में अपनी भाषा में मर्दवादी रवैया अख़्तियार किया है जो समकालीन स्त्री विमर्श वाले समय में उचित नहीं है. कि इतिहास में उन वंचितों–पीड़ितों के लिए कोई जगह क्यों नहीं है, जो भारतीय समाज और इस राष्ट्र–राज्य के सबसे बड़े हिस्से हैं”.
इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुये मैं यह भी याद करना चाहता हूँ कि राकेश मिश्र के उक्त संग्रह पर केन्द्रित अपने समीक्षा–आलेख के अंत में मैंने इन्हीं पंक्तियों को उस संग्रह की कहानियों के प्रतिपक्ष की तरह उद्धृत करते हुये यह भी कहा था कि राकेश को इन पंक्तियों से जूझ कर हीं अपनी आगामी कहानियों का रास्ता खोजना होगा. उस संग्रह के बाद राकेश की कहानियों ने इन पंक्तियों के आलोक में किस तरह की विकास–यात्रा तय की हैं यह एक अलग लेख का विषय हो सकता है, पर ‘तक्षशिला में आग’ और ‘पिता–राष्ट्रपिता’ को एक साथ पढ़ते हुये यह तो स्पष्ट होता ही है कि ‘तक्षशिला में आग’ का प्रणयकान्त जो तब एक विश्वविद्यालय का छात्र था अब कुछ और विकसित रूप में गांधी विचारों का व्याख्याता नियुक्त हो कर हमारे समक्ष ‘पिता–राष्ट्रपिता’ के ‘मैं’ की तरह उपस्थित है. हाँ, इस बार वह घोषित रूप से दलित भी है.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारतीय राजनीति लगातार मूल्यविहीनता का शिकार होते–होते आज वैचारिक अवसरवादिता तक की स्थिति में पहुँच चुकी है. तथाकथित वैचारिक प्रतिबद्धताऑ का फरेब रचते विचार–पुरुषों की व्यावहारिकतायें ‘खाने और दिखाने के दाँत’ के मुहावरे को ही चरितार्थ कर रही हैं. बहुत ही मुखर और प्रखर रूप से गांधी–विरोध के बाने में दिखती कहानी ‘पिता–राष्ट्रपिता’ अपनी सूक्ष्मताओं में भारतीय राजनीति के इस दुहरेपन को भी उजागर करती है. इस कहानी के इस विनम्र पाठ से असहमत पाठक–आलोचक यह भी कह सकते हैं कि गांधी के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को दबंग तेवर के साथ रेखांकित करने वाली इस कहानी के पात्र खुद वैचारिक अवसरवाद के शिकार हैं.
अपने दो प्रमुख पात्रों का परिचय कराती इस कहानी की शुरुआती पंक्तियाँ देखिये– “राकेश भाई कम्युनिस्ट थे और फिलहाल सरकार द्वारा पोषित और संरक्षित एक गांधीवादी संस्था के निदेशक थे. मैं दलित था और अभी नया–नया एक कॉलेज में गांधी विचार पढ़ाने के लिए व्याख्याता नियुक्त हुआ था.” कम्युनिस्ट और दलित वैचारिकी ने गांधी–दर्शन से अपनी असहमतियों को लगातार प्रकट किया है. ऐसे में किसी कम्युनिस्ट का एक सरकारी गांधीवादी संस्था का अध्यक्ष होना हो कि एक मुखर दलित का गांधी विचार का व्यायाख्याता नियुक्त होना कहीं न कहीं उनके राजनैतिक और वैचारिक अवसारवाद को ही रेखांकित करते हैं. सिद्धांत और व्यवहार के बीच का फर्क कई बार जीवन की जटिलताओं से उत्पन्न विवशताओं का नतीजा भी होता है जिसे देखने के लिए हम रवि बुले की कहानी ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ के ‘नाथूराम गांधी’ की तरफ देख सकते हैं. लेकिन ‘पिता–राष्ट्रपिता’ के ये दोनों पात्र जिस तरह मज़ाक उड़ाने की हद तक जा कर गाँधी विरोध के सुनियोजित और संयुक्त वैचारिक–उदयम में लगे हैं उसे देखते हुये उनकी वैचारिकता और व्यावहारिकता के बीच की खाई किसी विवशता या विडम्बना के बजाय उनकी अवसरवादिता को ही रेखांकित करती है.
हिन्द स्वराज के शताब्दी वर्ष में आयोजित एक सेमिनार में पढे गए अपने पर्चे के बारे में इस नवनियुक्त व्याख्याता की राय को इस संदर्भ में जरूर रेखांकित किया जाना चाहिए –
“चूंकि वह मेरी कक्षा नहीं थी जहां पाठ्यक्रम के बारिश में गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का गुणगान मेरी मजबूरी हो. लिहाजा मैंने गांधीजी के हरिजन उद्धार और अस्पृश्यता निवारण जैसे कार्यक्रमों का खूब मज़ाक उड़ाया.”
गौर किया जाना चाहिए कि इसी परचे के लिए राकेश भाई ने इन महाशय की पीठ भी थपथपाई थी और अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में गांधी के मूल्यांकन की आवश्यकता को भी रेखांकित किया था. यहाँ ठहरकर दो प्रश्नों पर विचार किए जाने की जरूरत है– पहला प्रश्न यह कि क्या मूल्यांकन और मज़ाक उड़ाया जाना दोनों एक ही बात है? और दूसरा प्रश्न यह कि मूल्यांकन सिर्फ गांधी के विचारों का ही क्यों? कहने की जरूरत नहीं कि मतभिन्नता वामपंथियों और दलित विमर्शकारों के बीच भी रही है. दो विचारों के बीच परस्पर संवाद भी होना चाहिए. अलग–अलग विचारधारों की शक्ति और सीमाओं का युगीन पुनर्मूल्यांकन करते हुये देश और समाज की प्रगति के लिए उनके बीच समन्वय स्थापित करते हुये किसी साझे एजेंडे के तहत एक मंच पर खड़ा होना आज के समय की बड़ी जरूरत है. लेकिन एक मंच पर एक दूसरे के साथ आने का कारण येन केन प्रकारेण किसी तीसरे का विरोध (मूल्यांकन भी नहीं) ही हो जाये तो? जाहिर है ऐसी स्थितियाँ किसी रचनात्मक बदलाव की तरफ नहीं ले जातीं, बल्कि वैचारिक असहमतियों को निजी दुश्मनी और वैमनस्यता के कुत्सित मुहाने पर ला खड़ा करती हैं.
पुनर्मूल्यांकन की आड़ में इस तरह की बातें आज आम हो गई हैं. अभी हाल ही में बीते वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिन के अवसर पर उच्च संवैधानिक पदों की गरिमा तक की परवाह किए बिना झूठी और मनगढ़ंत कहानियों के सहारे पटेल के प्रति नेहरू की तथाकथित वैमनस्यता को उद्धृत कर आम नागरिकों के बीच नफरत की दीवार खड़ी करने जो कोशिशें की गई वह विचारधाराओं की शल्य चिकित्सा के नाम पर किए जाने वाले कुत्सित खेलों का ही एक बड़ा उदाहरण है. वैचारिक अवसरवादिता और दरिद्रता के ऐसे दौर में ‘पिता–राष्ट्रपिता’ जैसी कहानियों को और गौर से पढे जाने की जरूरत है.
जिन लोगों ने यह कहानी नहीं पढ़ी है उनके लिए यह बताना जरूरी है कि विवेच्य कहानी के दोनों पात्र– राकेश भाई और कहानी का सूत्रधार मैं, जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, किसी सेमिनार के दौरान मिलते हैं. कहानी के दलित सूत्रधार मैं का गांधी के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण और उसे पेश करने का आक्रामक तरीका विचारों से कम्युनिस्ट राकेश भाई को इस तरह प्रभावित करता है कि वे जगह–जगह उसे वक्ता के रूप में बुलाये जाने की अनुशंसा करते हैं और हर सेमिनार में गांधी विचारों का यह दलित व्याख्याता गांधी के विचारों की धज्जियां उड़ा कर रख देता है. ऐसे ही किसी दिन इलाहाबाद में एक सेमिनार के लिए सुनियोजित तरीके से इकट्ठा होना ही इस कहानी की पृष्ठभूमि है, जहां एक चायवाले की दूकान पर दोनों सुबह–सुबह चाय पीने के लिए जाते हैं.
सेमिनार के लिए रणनीति तय करते इन दोनों महानुभावों की बातों को बहुत गौर से सुनता हुआ वह अधेड़ चायवाला इस बात पर दुख जताता है कि आज के युवा बुजुर्गों के जीवनानुभावों की कद्र नहीं करते. इसी क्रम में वह उन्हें अपने जीवन से जुडी एक कहानी सुनाता है कि कैसे एक दिन फौज की नौकरी के दौरान एक उच्च अधिकारी ने उसे बीड़ी पीते हुये देख लिया था. वह उसे इस कृत्य के लिए सजा देना चाहता था पर तमाम कोशिशों के बावजूद यह प्रमाणित नहीं कर पा रहा था कि वह फौजी बीड़ी पी रहा था. इस स्थिति ने उस कर्नल को बेतरह बेचैन कर रखा था. तब पिता की उम्र के एक दूसरे सहकर्मी के यह कहने पर कि वह उसे अपना पिता तुल्य समझे और सच बोले, उसने बीड़ी पीने का सच स्वीकार लिया था. फौजी के जीवन में घटित इस घटना का प्रभाव कहानी के सूत्रधार ‘मैं’ पर ऐसा पड़ता है कि वह उस दिन के सेमिनार में उस तरह गांधीजी की धज्जियां नहीँ उड़ा पाता जैसी योजना उसने राकेश भाई के साथ मिल कर बनाई थी, बल्कि कुछ जगहों पर वह गांधी दर्शन के प्रति भावुक भी हो जाता है.
जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा है, कि सूत्रधार और राकेश भाई की साझेदारी के मूल में किसी रचनात्मक सुधार या वैचारिक सामंजस्य को प्राप्त करने का उद्देश्य नहीं है. बल्कि उनका एकल उद्देश्य येन केन प्रकारेण गांधी–विरोध ही है. इस क्रम में कहानी उन दोनों के व्यावहारिक अंतर्विरोध और उनकी कथनी–करनी के अंतर को भी रेखांकित करती है. इस बात को समझने के लिए कहानी के दो प्रसंगों पर गौर किया जाना चाहिए. पहला प्रसंग तब का है जब कहानी का सूत्रधार ‘मैं’ राकेश भाई को अपने बारे में बताते हुये खुद को डॉक्टर अंबेडकर के कुल का बताता है– ‘मैं जानता था कि बाबा साहब सपकाले नहीँ सलपाले थे, लेकिन बाबा साहब का वंशज होने से जिस गर्व और विशिष्टता की अनुभूति मुझे हो रही थी, उसे मैं ‘सत्य’ और ज्ञान के दबाव से व्यर्थ ही खोना नहीं चाहता था.’
वैचारिक संघर्ष और प्रतिबद्धता के लिहाज से दलित ही नहीँ एक गैर–दलित भी खुद को अंबेडकर के वृहतर वैचारिक कुल या परिवार का हिस्सा मान कर गर्व का अनुभव कर सकता है लेकिन यहाँ कुल का अर्थ वंश के सीमित अर्थों में ही लिया गया है. इतना ही नहीँ सच्चाई, जो गांधी–दर्शन का एक अपरिहार्य अवयव है, को यहाँ दबाव की तरह रेखांकित किया गया है. ठीक इसी तरह दूसरा प्रसंग चाय की दूकान का है जब चाय दूकान का मालिक इन दोनों पात्रों से अपनी आपबीती साझा करना चाहता है – ‘हम समझ गए कि यह अब अपनी राम कहानी सुनाने के मूड में आ चुका है, लेकिन हम उसे झेलने को तैयार नहीँ थे. राकेश भाई ने उसे निरुत्साहित करते हुये और उसकी औकात की याद दिलाते हुये टोका, “देखना, जरा चाय जल्दी मिल जाये!’
गांधी के विचारों का मज़ाक उड़ाने वाले एक दलित विचारक का सत्य को दबाव की तरह महसूस करते हुये खुद को अंबेडकर का वंशज बताने के लिए झूठ बोलना हो या कि एक कम्युनिस्ट का किसी चायवाले को उसकी औकात बताना ये दोनों ही प्रसंग समकालीन राजनैतिक परिदृश्य में रक्त की तरह प्रवाहित वैचारिक दोगलेपन को तो रेखांकित करते ही हैं राकेश भाई जैसे वामपंथियों और कहानी के सूत्रधार ‘मैं’ जैसे दलित विचारकों से गांधी के पुनर्मूल्यांकन का अधिकारी होने के हक से भी वंचित कर देते हैं. इस तरह मुखर रूप से गांधी के विचारों का मूल्यांकन किए जाने की जरूरतों बात करती यह कहानी अपनी सूक्ष्मताओं और बारीकबयानी में कहीं न कहीं पुनर्मूल्यांकन की आड़ में विरोध के लिए विरोध करने वाले सूरमाओं के वैचारिक अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करती है.
चाय की दूकान वाले एक पूर्व फौजी के सच स्वीकार करने की उपकथा और ‘पिता–राष्ट्रपिता’ का क्लाइमेक्स जहां दलित विचारक अपनी तमाम तैयारियों के बावजूद गांधीजी के विचारों का विरोध नहीँ कर पाता है, के बीच एक गहरा संबंध है और इन दोनों घटनाओं के अंतर्संबंध में ही इस कहानी का मर्म भी मौजूद है. गौर किया जाना चाहिए कि वह फौजी जिसने पिता या पिता की छवि का वास्ता दिये जाने के बाद सच कबूल किया वास्तविक जीवन में अपने पिता से उसका कोई मतलब नहीँ था. उसी तरह इस कहानी के सूत्रधार ‘मैं’ को भी गांधीजी की राष्ट्रपिता वाली छवि मंजूर नहीँ थी. लेकिन दिलचस्प यह है कि सेमिनार में बोलते हुये उसका गांधी के प्रभाव में आ जाने का मूल कारण भी उनकी राष्ट्रपिता वाली छवि ही है–
“सेमिनार जब शुरू हुआ तो मैंने गांधीजी पर बहुत साधारण–सी ही बातें कहीं. कहीं–कहीं उनके त्याग और उपवास के प्रसंग पर मैं भावुक भी हो गया. राकेश भाई अवाक थे कि यह अचानक मुझे क्या हो गया था. इस बात पर तो उन्होंने मुझे आँख तरेर कर भी देखा कि वे राष्ट्रपिता के तौर पर हमेशा हमारे बीच सातत्व की तरह जीवित रहेंगे. लेकिन मैं इतने रौ में था कि राकेश भाई की तरफ से आँखें फेर लेने में मुझे कोई झिझक या शर्म नहीँ महसूस हुई.”
कहानी का यह अंत लगभग दो परस्पर विरोधी निष्पत्तियों की ओर संकेत करता है. एक बात यह कि गांधी के महत्व और अवदान को ठीक–ठीक समझने के लिए स्वतन्त्रता संग्राम में उनकी विशिष्ट अभिभावकीय भूमिका से अनुप्राणित उनकी राष्ट्रपिता वाली छवि को समझना बहुत जरूरी है. इसके ठीक विपरीत जिस दूसरी दिशा की ओर कहानी का यह अंत संकेत करता है वह यह है कि राष्ट्रपिता की छवि के प्रभाव से मुक्त हुये बिना समकालीन संदर्भों में गांधी के विचारों का सही मूल्यांकन नहीँ हो सकता है. यह भी दिलचस्प है कि कि इन दोनों ही निष्कर्षों तक पहुंचने के सूत्र और संकेत इस कहानी में समान रूप से मौजूद हैं. यूं तो हर पाठक इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह अपनी प्रसंगानुकूल सुविधा या वैचारिक झुकाव या प्रतिबद्धता के अनुरूप इसकी मनोनुकूल व्याख्या चुन ले. लेकिन इस कहानी के अलग–अलग और विपरीतधर्मी निष्कर्षों की संभावनाएं कुछ अर्थों में कथाकार की सूक्ष्म कलात्मक समझदारी तो कुछ अर्थों में उसकी वैचारिक दुविधा दोनों को रेखांकित करते हैं.
एक ऐसे समय में जब सूचना–क्रान्ति के दबाव में बहुधा कहानियों से उसकी कलात्मकता गायब होती दिखती है, एक शुद्ध वैचारिक कहानी में कहानी के कला तत्व को कायम रख पाने के लिए राकेश मिश्र प्रशंसा के हकदार हैं. लेकिन जिसे मैं उनकी वैचारिक दुविधा कह रहा हूँ उससे मुक्त होने के लिए किसी एक ही विचार के मूल्यांकन की आड़ में उसके विरोध के आग्रह से मुक्त होकर इतिहास के उन संदर्भों की तरफ भी देखे जाने की जरूरत है जो तमाम असहमतियों के बावजूद गांधी और अंबेडकर के बीच परस्पर सम्मान और सौमनस्यता के संबंध की भी गवाहियाँ देते हैं. पूना समझौते के तुरंत बाद अंबेडकर का गांधी को यह कहना हो कि ‘यदि आप अपने आप को केवल दलितों के कल्याण के लिए समर्पित कर दें, तो आप हमारे हीरो बन जाएंगे’ (संदर्भ – राजमोहन गांधी की पुस्तक – अण्डरस्टैंडिंग दी फाउंडिंग फादर्स) या फिर ‘हरिजन’ पत्रिका के लिए गांधीजी का अंबेडकर से संदेश लिखने का आग्रह, ये कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जो असहमतियों के बीच सौमनस्य और सामंजस्य की जरूरतों को रेखांकित करते हैं.
आज देश को गांधी के अनुशासन और अंबेडकर के संविधान दोनों की बराबर जरूरत है. यदि इस रचनात्मक जरूरत को नहीँ समझा गया तो बहुत संभव है कि सिर्फ विरोध के लिए गांधी के विरोध करने की वाम और दलित की इस साझेदारी में कल कोई संघी भी शामिल हो जाये. इसलिए ‘गांधी बनाम अंबेडकर’ और ‘नेहरू बनाम पटेल’ की राजनीति के असली निहितार्थों को समझा जाना भी बहुत जरूरी है. _________________
राकेश बिहारी
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