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समालोचन

Home » राकेश मिश्र की कविताएँ

राकेश मिश्र की कविताएँ

राकेश मिश्र की इन नयी कविताओं में जीवन का वह पक्ष संवेदित हुआ है, जिस पर लिखना आसान नहीं. मृत्यु पर लिखते हुए यह सावधानी बरतनी होती है कि दुहराव न हो. वह प्रेम नहीं है. मृत्यु एक बार ही घटित होती है. स्मृतियों को गूँथ कर ‘अंत्येष्टि’ कविता लिखी गयी है जिसमें मृत्यु की पीढ़ियां विचलित करती सामने आती हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
January 11, 2023
in कविता
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राकेश मिश्र की कविताएँ
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राकेश मिश्र की कविताएँ

अंत्येष्टि

मेरे बाबा को फूँका गया
गाँव के बाग से सटे खेत में
महीनों तक चिता की राख के पास
हाथ जोड़ कर बैठे रहते मेरे अबोध पिता

सुदर्शन बाबा की उँगलियों को पकड़ कर
आम के बाग में जाना और पके आमों पर
झटहा चलाना याद रहा केवल

वयोवृद्ध नाना का केवल पाँव देख पाया था
अस्पताल से अंतिम विदा के समय
नानी का मरना बाद में जान पाया
बड़का बाबूजी मरे तो पचखा था
पेड़ पर रख दिया था मृत शरीर
बड़ी पंचायत के बाद हुआ दाह-संस्कार

छोटे बाबूजी के मरने में भरपूर सहयोग किया
उनकी पेंशन के लिए लड़ते भाइयों ने

बड़की माई कैंसर के कोमा में थी दो माह
आजीवन दमा था चाची को
निमोनिया से मरे शिशु भतीजे को तो
फेंक दिया था पूस की ठंडी घाघरा में

काँपते बीतीं अगली कई रातें
ठंडे पानी को सोचकर
छोटी बहन को हरिश्चंद्र घाट ले गये
लाल चूनर और सिंदूर में

रोता रहा जलती चिता के पास गंगा किनारे

रोते का चुप होना रोते रोते
जानते हैं लोग

वृद्ध माँ-पिता को दवा देते हुए
आता है अंत्येष्टि का विचार
क्या तैयारियाँ होंगी
कौन कौन लोग आयेंगे इत्यादि
जबकि स्वस्थ पिता ने बताया था
एक रात बात करते करते सहसा
बाबा के दाह स्थल के बग़ल ही फूंका जाये उन्हें
जहाँ हाथ जोड़कर बैठे रहते वे बचपन में
तब कोई उठाने वाला नहीं था गोंद में उन्हें

उस अनुपलब्ध गोंद में बैठना चाहते हैं पिता
मरने के बाद कदाचित्
माँ का काशी जाना तय है
मरने के लिये काशी बसना चाहती थीं

कभी अपने बच्चों की ओर से
अपनी भिन्न-भिन्न अंत्येष्टियों को सोचता हूँ
क्या रहेगा सहूलियत भरा उनके लिए
मैं ज़्यादा भारी तो नहीं !
कहाँ ले जाएंगे
मणिकर्णिका, स्फटिक शिला या निकट के वैकुण्ठ धाम

बुढ़ापा दुबला होता है
९० किलो से ऊपर के पिता ७० के बचे हैं
४५ किलो से कम की बची हैं माँ

साहस नहीं मन में सोचने का
अपने से आगे की अंत्येष्टियों को
मेरे बच्चों के बच्चे और उनके माँ-पिता
जीवन अंत्येष्टियों से भरा लगता है

कितनी सारी भावनात्मक-वैचारिक अंत्येष्टियों के बाद
संपन्न होती है शारीरिक अंत्येष्टि

अंत्येष्टियों में शामिल होने की बारी जोहते
पेड़ों के दुःख का भी ख़याल आता हैं
घाट के डोम और पंडित की दक्षिणा का सोचकर
यह समझना मुश्किल नहीं कि अंत्येष्टि
धार्मिक से ज़्यादा आर्थिक क्रिया है.

 

तेरहवीं

सभी उपस्थित थे
उस एक अनुपस्थित की याद में
जो मौजूद नहीं है

पिछले बारह दिनों से
चला गया
कहाँ गया कोई नहीं पूछता

तेरहवीं का विषय
अनुपस्थित का शोक है

अवसान की चर्चा की व्यर्थता को
समझते हैं लोग

एक असहज वर्तमान प्रस्तुत रहता है
रह रह कर प्रस्फुटित होते
लय हीन समवेत रुदन में

बिखरी आवाज़ें ही बची होती हैं
सूखे आंसुओं और
बेहिसाब हिचकियों में रोते हैं

आधे-अधूरे रह गये लोग

तेरहवीं में.

 

शोक

कैसे तुम
कैसे हम

एक आवरण है
गहन शोक का
चारों तरफ़

जल रही देह
सिर पैर की तरफ़ से

हृदय लबालब है
अभी प्रेम से

पूरी प्रकाशित हैं
अपूर्णताएँ
स्वर्ण मुख चेहरे पर

सब कुछ अगोपन है
प्राणहीन देह में

कहना सुनना पूरा जीवन
फिर भी जैसे छूट गया हो
कितना कुछ अनकहा अनकिये

नदी के जल में तैरता है
एक दारुण गुरु विक्षोभ

अस्ताचलगामी सूर्य ने
समेट लिया आज का काम

मुझे भी लौटना है
प्रतीक्षारत शोक के लिए.

२

तुम चले गये
क्षितिज के पार
मेरी पलक झपकते ही चट से

हड्डी टूटने की आवाज होती है
हवा में झूल जाती है भारी देह
मैं बदहवास टटोलता हूँ
गर्दन और वक्ष
खोल कर झटके से फेंकता हूँ
गर्दन पर कसी गाँठ
एक साँप रेंगता है अंधेरे में
पता नहीं जा रहा है या आ रहा
थकन की समझ ही कितनी होती है
बॉडी बैग आ चुका है
लोग आने लगे हैं
विदा देने इतनी जल्दी.

3

मेरे सामने ही हवा हो गई
कहानियों में रची बसी लड़की
सूखा नहीं था अभी
जेब का गुलाब
लबालब था स्नेह
अंतिम ताप से गुजरना था
देह को

अग्नि को थामते हैं
वक्ष और श्रोणि मेखलायें
पर सबसे पहले उड़ते हैं पैर
फिर कपाल क्रिया
चिता की अधजली लकड़ियों से भी
कमजोर साबित हुई
गुलाबी लड़की

4

एक जान हूँ
ख़ुद की देह में
अच्छा नहीं लगता कभी कभी
रहना देह में
अच्छे नहीं लगते
लोग जो जुड़े हैं
देह से

अच्छे नहीं लगते
मजबूरियाँ बीमारियाँ और सुख
प्रतीक्षा और शामें

उबाऊ हैं यहाँ
अपेक्षायें और इंकार

मारक हैं
बर्दाश्त के बाहर हैं
दिनचर्या के व्यतिक्रम
पराधीन देह में स्वाधीन मन
आख़िर कब तक
निकलना होगा यहाँ से

अभी इसी वक्त
देखो!कितना आसान है
जीने की ज़िद छोड़ना
खो जाना
कहीं नहीं में
हो जाना
कोई नहीं .

राकेश मिश्र
(३० नवम्बर, १९६४, बलिया- उत्तर-प्रदेश)

चार कविता संग्रह प्रकाशित. – अटक गयी नींद, चलते रहे रातभर, ज़िंदगी एक कण है और शब्दों का देश.

सम्प्रति: भारतीय प्रशासनिक सेवा में 

rakeshmishr@gmail.com

Tags: 20232023 कविताराकेश मिश्र
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Comments 11

  1. केशव तिवारी says:
    4 weeks ago

    अच्छी कविताएं बधाई राकेश जी को l पहली कविता ने स्तब्ध कर दिया l कई दृश्य आखों के सामने से गुजर गए…

    Reply
  2. Anonymous says:
    4 weeks ago

    अच्छी कविताएँ
    अंत्येष्टि बहुत ही मार्मिक कविता है

    Reply
  3. Anonymous says:
    4 weeks ago

    कोई कविता पढ़कर यदि सामान्य पाठक को भी उस लिखे,कहे से जुड़ाव महसूस हो तो समझना चाहिए कि कविता अपने गंतव्य तक पहुंच गई है..

    मृत्यु और उससे उपजा शोक हर व्यक्ति ने अपने जीवन में जिया,भोगा होता है पर जब मृत्यु को,अंत्येष्टि को,शोक को और इस संसार की निस्सारता को लिपिबद्ध किया जाता है तो वह इस असार संसार में अमर हो जाता है..

    इस सिरीज़ की कविताएं पढ़कर मन स्तब्ध भी है,द्रवित भी है और लेखक,संपादक के प्रति शुक्रगुज़ार भी कि हमारे भाव,विचार,दर्द,पीड़ा,शोक जो मन की अनगिन परतों के नीचे दबे होते हैं,जिन्हें आंखों के रस्ते बह निकलने को वजह और जगह नहीं मिलती उनके लिए समालोचन का यह पाठ सहयोगी हुआ।

    Reply
  4. Dr. Ramanand Tiwari says:
    4 weeks ago

    अंत्येष्टि, तेरहवीं और शोक— तीनों एक से बढ़कर एक कविताएँ। राकेश मिश्र जीवन-बोध को मृत्यु-बोध के रूप में भी देखते हैं; क्योंकि मृत्यु जीवन की अंतिम परिणति है। मनुष्य का संपूर्ण जीवन ही मृत्यु का शोकगीत है। उसे क्षण-प्रतिक्षण मृत्यु के अनुभवों से गुजारना पड़ता है। मिश्र जी की इन कविताओं में जहाँ एक ओर जीवन में रिश्तों के प्रति अखंड राग है तो वहीं उनके विरागी मन की मार्मिक अनुगूँज भी—
    तेरहवीं का विषय
    अनुपस्थित का शोक है।
    x x x x
    मुझे भी लौटना है
    प्रतीक्षारत शोक के लिए।
    मनुष्य जीवन पर्यंत अपने उत्तरदायित्वों का गुरुतर बोझ अपने कंधों पर लिए फिरता है; फिर भी जीवन के अंतिम क्षणों में उसे अपने जीने की ज़िद को छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है—
    देखो, कितना आसान है
    जीने की ज़िद छोड़ना
    खो जाना
    कहीं नहीं में
    हो जाना
    कोई नहीं।

    Reply
  5. दया शंकर शरण says:
    4 weeks ago

    इन कविताओ का सृजन मृत्युबोध से हुआ है जो जीवन का आत्यंतिक सच है।दर्शन की अवधारणा से अलग यह जीवन की एक अवश्यंभावी कुरूप वास्तविकता है। ये कविताएँ हमें उस यथार्थ में ले जाती हैं।

    Reply
  6. कौशलेंद्र says:
    4 weeks ago

    बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी कविताएँ। आदरणीय राकेश जी और अरुण सर को बधाई।
    ऐसी कविताएँ बेहद कम पढ़ने को मिलती हैं।

    Reply
  7. सुबोध शुक्ल says:
    4 weeks ago

    मृत्यु का अविच्छिन्न अवकाश और उसमें ध्वनित जीवन का पार्थिव स्वर, इन कविताओं का हासिल है…

    Reply
  8. Anonymous says:
    4 weeks ago

    बहुत ही सुन्दर महोदय ,जय हिंद

    Reply
  9. Ranjana Mishra says:
    3 weeks ago

    इन कविताओं को लगातार पढ़ना कठिन है। पहली कविता पढ़कर ही रुक गई। ये गहन हैं, मृत्युबोध पर विचार और लेखन सबसे मुश्किल है, पर राकेश जी ने इसे कुशलता से साधा है। दरअसल ये ऐसी कविताएं हैं जहां अनुभव, भाव और विचार अपने संश्लिष्ट रूप में हर पंक्ति में नजर आते हैं। बहुत अच्छी कविताएं।

    Reply
  10. खुशबू सिंह says:
    3 weeks ago

    बेहतरीन कविताएं हैं।

    Reply
  11. Rakesh Mishra says:
    3 weeks ago

    आप सभी का हार्दिक आभार

    Reply

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