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समालोचन

Home » राकेश मिश्र की कविताएँ

राकेश मिश्र की कविताएँ

राकेश मिश्र का चौथा कविता संग्रह- ‘शब्दों का देश’ राधाकृष्ण से २०२१ में प्रकाशित हुआ है, कवि की विकास यात्रा देखी जा सकती है. शब्दों को लेकर वे और मितव्ययी हुए हैं. मार्मिक प्रसंगों को बरतने का तरीका और निखरा है. कवि दृष्टि सक्रिय रहती है और वह हर जगह कविता खोज लेती है. उनकी कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
January 12, 2022
in कविता
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राकेश मिश्र की कविताएँ
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राकेश मिश्र की कविताएँ

 

1.
प्रेम

प्रेम में
देह नहीं थी
भाव था
तुम नहीं थीं
मैं था
घर नहीं था
देहरी थी
आँखें नहीं थीं
स्वप्न थे
खिड़की नहीं थी
आसमान था

पक्षी नहीं थे
पंख थे केवल
प्रेम में.

 

२.
ताड़

ताड़ के सबसे कोमल हिस्से पर
ताड़ छत्र के ठीक नीचे
गर्दन पर
तेज धार छुरे से घाव करता है
संग्राहक
छीलता है रोज़
एक महीन परत देह की
मधु-रस के अजस्र स्राव के लिए
ताड़ की पथराई देह पर

गिने जा सकते हैं
चढ़ते -उतरते रस्सियों के निशान
ओर-छोर तक

वैसे ही रिसती है कविता
मेरे होने से अहर्निश
वक्त रोज़ करता है घाव
मेरे सबसे कोमल हिस्से पर

सूखता जाता हूँ मैं
अनवरत रक्तस्राव से
रक्त-बूँदों से रिसता है
कविता का एक-एक अक्षर
कोई भी गिन सकता है
मेरे घावों और कविताओं को
मेरी देह पर

मेरी किताबों में
जब कभी थमेगा
ताड़ से रस-स्राव और
मेरे होने से कविता-प्रवाह

तब सूख चुके होंगे हम
एक पथरीले खोल के भीतर
हमारा अन्त हो चुका होगा
मर चुके होंगे हम.

 

3.
फूलों की दुकान

फूलों की दुकान में
प्रवेश करते ही
घेर लेती हैं
बिछुड़ी प्रेमिकाओं की देह गंध

हर एक फूल पर
लिखा होता है
उनका पता
अभिसार स्थल का नाम.

 

4.
लड़कियाँ

लखनऊ के हज़रतगंज चौराहे की ओर
बेतहाशा दौड़ते वाहनों की
अनवरत क़तारों के किनारे
खुद को बचाते हुए
खड़ी हैं
दो पुलिसवर्दी लड़कियाँ
एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए
सड़क पार करने की कोशिश में
ना जाने कबसे !

५.
ट्रेनें

ट्रेनें
एक भागता हुआ
घर होती हैं
जिनमें खिड़कियाँ ज़्यादा
दरवाज़े कम होते हैं
दृश्य ज़्यादा
हस्तक्षेप कम होता है

जिनमें
चर्चाएँ बैठी रहती हैं
निष्कर्ष उतर जाते हैं
अगले स्टेशन पर

ट्रेनें
आती-जाती हैं
बिना सुबह-शाम के
रुकती हैं
बेधड़क कहीं भी
कभी लुटेरे चढ़ जाते हैं
कभी लुट जाते हैं
ट्रेनों से उतरे हुए लोग

ट्रेनें
तानाशाह होती हैं
जिनकी हुकूमत चलती है
यात्राओं पर
ट्रेनों के डिब्बे
एक देश होते हैं
देश के भीतर.

 

6.
कवि का शहर

कुछ भी नहीं था
कवि के शहर में
कवि का
एक सूखी उदास नदी थी
जिसके यौवन के गीत
गाये थे कवि ने
एक टूटा सूना रास्ता था
जो कवि के गुजरने का मार्ग था
कविताओं के क़ाफ़िले संग
रात को आने वाली ट्रेनों के रुकने को
दिन में निर्जन सुनसान रेलवे स्टेशन था
जिनसे उतरे मुसाफ़िर
कितनी रातों को सो गये
कवि के बरामदे में चुपचाप
बिना बताये
ताकि टूटे नहीं
कवि की सपनीली नींद

एक दुकान थी दवा की
जहाँ कवि हर शाम
देखता था
कविता के मरीज़
कहते हैं
उसकी किताबें-पांडुलिपियाँ
ठेलों पर ले गए
रद्दी बेचने वाले
उसकी कविताओं के उधड़े पृष्ठ
उड़ते रहते हैं रात-बिरात
जिन्हें लूटने को
लम्बी लग्गियाँ लिए
भटकते रहते हैं
कविता प्रेमी
कवि के शहर में.

 

7.
माँ

मैं माँ को हमेशा
खेलते-कूदते देखना चाहता हूँ
लाल छींट के सलवार कुर्ते में
आली-फाली खेलती माँ
मेरे पैदा होने के बाद भी
मुझे कमर पर बिठाकर
ननिहाल के सालाना मेले में
सखियों संग गाँव के सिवान के
बागों में निर्विघ्न-निर्द्वंद्व घूमती माँ

गाँव के घर की छत पर तारों को
इशारे कर गीत गाती
मुझे घुग्घू मामा खेलाती माँ

मैं कविताएँ लिखता हूँ
जानती है माँ
पर कभी पूछा नहीं
कितनी कविताएँ लिखी उसपर
कविताओं में कोई रुचि नहीं उसकी
पर मेरी किताबें दिखाती है
घर आने वालों को
उनसे पढ़वाती है
मेरी कोई न कोई कविता
खुश होती है
मुझे देखते ही जुड़ा जाती है जैसे

अब जब वह भूलने लगी है खुद को
अनाम होने लगे हैं तमाम चेहरे
जो उसके जीवन का हिस्सा थे
वह भूलने लगी है सम्बन्धों को
जो उसी से जन्मे हैं

कैसा लगता है
सब कुछ भूलते हुए जीना
उसके भावहीन चेहरे से पता चलता है
भक्त-भगवान के रिश्ते
पूजा घर
सभी भूल रहे हैं उसको

हाथ जोड़ती है
जब कभी पूछता हूँ
ईश्वर के बारे में

पर मुझे पता है
कोई रूप नहीं है उसके मन में
एक शून्यता है
उसकी आँखों में
मुस्कान-हीन है उसका चेहरा
केवल दर्द बचा है उसमें
कुछ भी नहीं होने का
कहीं नहीं होने का
सब कुछ भूलकर भी
न जाने कैसे
मेरे घर लौटने के बारे में
पूछती है सहसा मुझसे
मेरे बचपन का नाम लेकर
जिसे उसने रखा था मेरे पैदा होते ही
और जिसके बाद उस नाम की माँ
हो गया उसका नाम

तब क्षण मात्र को
कहीं अतीत में
लौटता है उसका अस्तित्व
मैं जानता हूँ
जिस महीने बीमार हुई माँ
उसी महीने सारे बच्चे उसके
मिलने आये और चले गए
अपने काम के शहरों को
कोई दो दिन तो कोई दो घंटे में

मैंने देखा मेरे घर आने पर
साफ़ धुले वस्त्रों में तैयार थे
माँ-पिता
जैसे मेहमान आने पर होते हैं
भोजन को बहुत महँगी सब्जियाँ
लाये थे पिता
मैं भी निकल गया भोजनोपरान्त

माँ सम्हाल नहीं सकी
मोह का आरोह-अवरोह
सहज स्नेह और ममता का ज्वार
उतरा तो स्मृतियाँ ले गया उसकी

अब हो कर भी नहीं है
सारी मोह-ममता समेट कर
खुद के भीतर समा गयी
केवल देह रह गयी माँ
कब लौटेगी ? कोई नहीं जानता

कभी-कभी घर के पीछे के स्कूल में
भोजनावकाश में खेलती लड़कियों को
ध्यान से देखता हूँ
इस उम्मीद से कि
इन्हीं लड़कियों में कभी
आली-फाली खेलती मिलेगी माँ
लाल छींट के सलवार कुर्ते में.

_____________

राकेश मिश्र
(३० नवम्बर, १९६४, बलिया- उत्तर-प्रदेश) 

चार कविता संग्रह प्रकाशित. – अटक गयी नींद, चलते रहे रातभर, ज़िंदगी एक कण है और शब्दों का देश.
rakeshmishr@gmail.com

 

Tags: 20222022 कविताएँराकेश मिश्र
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Comments 8

  1. ओम निश्चल says:
    3 years ago

    बेहतरीन कविताएं राकेश जी की। बधाई राकेश जी।

    Reply
  2. Kumar Neeraj Singh says:
    3 years ago

    Absolute delight to read excellent poems! Great job indeed sir! Looking forward to many more!

    Reply
  3. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    ‘कैसा लगता है सबकुछ भूलते हुए जीना’ माँ की खोती जा रही यादाश्त पर एक मार्मिक कविता है। अपनी सहज अभिव्यक्ति में यह कविता एक माँ की ममतामयी छवियों के कई विरल प्रसंग समेटती है। एक दूसरी कविता–कवि के पास कुछ भी नहीं था सिवाय एक सूखी उदास नदी के जिसके गीत उसने गाये थे कभी–‘कवि का शहर’ की ये पँक्तियाँ अपनी भाव व्यंजना से समृद्ध है।राकेश जी को बधाई !

    Reply
  4. अशोक अग्रवाल says:
    3 years ago

    सहज अनुभूतियों की
    सुंदर कविताएं।

    Reply
  5. Rama Shanker Verma says:
    3 years ago

    अत्यंत मार्मिक एवं अतीत को भूले हुए लोगों को पुनः याद दिलाने का जरिया सर आपके कविता के माध्यम से किया जा रहा है जो कि एक सुखद अनुभूति की प्राप्ति जनमानस को हो रही है

    Reply
  6. Lalan chaturvedi says:
    3 years ago

    राकेश मिश्र जी की कवितायें प्राणवान हैं। सब की सब कवितायें। ताड़ कविता तो शायद हिन्दी की पहली कविता है जिसके बहाने कवि अपनी सृजन प्रक्रिया की भी शल्य-चिकित्सा कर रहा है। पर ताड़ का दर्द तो बेजोड़ है। किसी का ध्यान ही नहीं गया। प्रेम और माँ के क्या कहने। समालोचन का काम कमाल का है। यहाँ बेंगलूर में साहित्यिक पत्रिकाओं का अकाल है,ऐसे में वेब-पत्रिकाएँ मानसिक-क्षुधा तृप्त करती है।

    ललन चतुर्वेदी

    Reply
  7. Surendra prajapati says:
    3 years ago

    राकेश मिश्र सर की कविताएं जीवन्तता लिए आत्मीय सहानुभूति से भर देती है। अपनी सहज अभिव्यक्ति में माँ बहुत ही मार्मिक कविता है। प्रेम एक रमणीय आकृति को रचते हुए बेवाकी से अपनी बात कह जाती है।

    Reply
  8. M P Haridev says:
    3 years ago

    अद्भुत

    Reply

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