हंस जनवरी 2014 में प्रकाशित आकांक्षा पारे काशिव की कहानी ‘शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट’ अपने शीर्षक के कारण सबसे पहले हमारा ध्यान खींचती है. सूचना और संचार की क्रान्ति के बाद के समय के यथार्थ से परिचित कोई भी व्यक्ति, हो सकता है फार्मूला या समीकरण के प्रारूप में दिये गए इस शीर्षक का ठीक-ठीक अर्थ न समझता हो पर, इतना तो अवश्य ही समझ जाएगा कि यह शब्दावली कंप्यूटर की दुनिया से आई है. कंप्यूटर जिसने अपने होने से पूरी दुनिया को बदल-सा दिया है, कैसे एक आविष्कार से सुविधा, सुविधा से उत्पाद और उत्पाद से आदत या लत में बदलते हुये मनुष्य नामधारी जीवों को क्रूरता की पराकाष्ठा तक पहुंचा सकता है, यह कहानी इस हकीकत को समझने का एक जरूरी माहौल उपलब्ध कराती है. यह कहानी अपनी भाषा और कथ्य के बाने में जिस तरह खुद को संप्रेषित करती है, वह कई अर्थों में दिलचस्प, जटिल और आधुनिक है. असहज करने वाली परिस्थितियों को अत्यंत ही सहजता से विवेचित करती यह कहानी पाठकों से एक खास तरह के आधुनिक यथार्थ बोध की मांग करता है. लेकिन बावजूद इसके प्रथम शब्द से लेकर आखिरी शब्द तक पठनीयता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुये जिस तरह यह कहानी समकालीन शहरी जीवन के जटिल यथार्थों को रेखांकित कर जाती है वह अद्भुत है.
काम के प्रति लगाव या निष्ठा जीवन का एक आवश्यक मूल्य है, लेकिन यही एक निष्ठा जब एडिक्शन की हद तक किसी व्यक्ति के जीवन में शामिल हो जाये तो संवेदनाएं न सिर्फ क्षरित होती हैं बल्कि मनुष्य अपने होने की सारी शर्तों का अतिक्रमण करते हुये क्रूरता से भी दो कदम आगे हैवानियत की हदों को भी पार कर जाता है. कथानायक सुदीप मलिक के जीवन की परिणति बतौर पाठक हमें स्तब्ध और उदास तो करती ही है, उसके व्यक्तित्व में उतर आया ठंडापन हमें भी जड़ कर देता है. भाषा सिर्फ विचारों की वाहिका ही नहीं होती बल्कि संवेदनाओं के सम्प्रेषण में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. जाहिर है भाषा की उपस्थिति मनुष्य और मनुष्यता को गहरे प्रभावित करती है. एक रचनात्मक और प्रवाहमान भाषा के साथ ही समाज में स्त्रियॉं की सम्मानजनक स्थिति हमारे भीतर की नमी को बचाए रखती है. यही कारण है कि किसी खास संस्कृति की विशेषताओं को नष्ट करने के लिए सबसे पहला आक्रमण वहाँ की भाषा और स्त्रीयों पर ही किया जाता है. प्रस्तुत कहानी में इन दोनों तरह के आक्रमणों को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है.
कंप्यूटर को यथोचित आदेश दिया जा सके इसके लिए एक कूट भाषा का आविष्कार हुआ. लेकिन वही कूट भाषा जब हमारी दैनंदिनी का हिस्सा हो जाए तो? यह प्रश्न ऊपर से चाहे जितना सहज लगता हो अपने भीतर तेज रफ्तार बदलते समय की कई सांघातिक व्यंजनाओं को छुपाए बैठा है. यही कारण है कि पठनीयता के गुण के होते हुये भी यह कहानी अपने पाठकों से एक अतिरिक्त शब्द-सजगता की मांग करती है. कहानी का पहला पैरा जो सुदीप मलिक का इकबालिया बयान है, में गैरज़रूरी भाषाई व्यवहारों से उत्पन्न क्रूरता से दो कदम आगे का ठंडापन व्याप्त है. तभी तो सुदीप मलिक जिसेन अपनी पत्नी की हत्या कर दी है, अपने इस कृत्य को ‘कुछ नहीं करना’ कहता है. उसके इस इक़बालिया बयान का एक हिस्सा आप खुद देखिये –
“मेरे कंसोल के बटन ने आखिरी सोल्जर के हाथ में गन थमाई और… आखिरी टेरोरिस्ट बस खत्म होने को था उसने मेरे हाथ से कंसोल छीन लिया. आप समझ रहे हैं? समझ रहे हैं आप… मैं गेम जीत रहा था और उसने कंसोल छीन लिया. वह लैपी शट डाऊन करने के लिए झपटी, उसे म्यूट करने की सारी कोशिश के बीच मैंने… सिर्फ कंप्यूटर में फाइल हटाने का परमानेंट आप्शन यूज किया, शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट.“
समझ रहे हैं आप? कंप्यूटर की भाषा में सुदीप मलिक क्या कहा गया यहाँ? आईए उसके इस बयान को डीकोड करते हैं. दरअसल वह एक कंप्यूटर गेम खेलने में इतना मशरूफ था कि उसे घर परिवार, आस-पड़ोस, लोक-समाज किसी की चिंता नहीं थी. या यूं कहें कि इन सबसे बेखबर था वह. लगातार छः घंटे तक संदीप की उपेक्षा और ‘काउंटर स्ट्राइक’ नामक कंप्यूटर गेम से आने वाले शोर-शराबे से ऊब कर उसकी पत्नी ने पहले उससे आवाज़ कम करने की गुजारिश की थी और उसके नहीं सुनने पर उठ कर लैपटॉप बंद कर दिया था… नतीजा? उसे ‘म्यूट’ करने की सारी कोशिशों के बीच कंप्यूटर में किसी फाइल को परमानेंटली डिलीट करने के कमांड का इस्तेमाल. यानी चुप न होने और गेम में बाधा डालने के एवज में पत्नी की हत्या! कितना क्रूर है यह सच! लेकिन दूसरे अनुशासन की भाषा पाठक के मन में वह प्रभाव शायद उत्पन्न नहीं करती जो चुप कराने की कोशिश और हत्या जैसे शब्द कर पाते… लेकिन इस भाषा का प्रयोग कहानी या कहानीकार की असफलता नहीं है. कारण कि कहानी महज हत्या के बोध को संप्रेषित नहीं करना चाहती. यदि कहानी का उद्देश्य सिर्फ इतना भर होता तो यह एक आम अपराध कथा हो कर रह जाती. यहाँ कहानी हत्या में नहीं, हत्या के बाद हत्यारे के भीतर व्याप्त उस क्रूर ठंडेपन में है जो उसे हत्या की त्रासदी को समझने तक नहीं देता और वह अदालत में कहता है – “मैंने कुछ नहीं किया. मैं बस गेम जीतने ही वाला था”
भाषा की जीवंतता यदि हमारे संवेदनाओं की वाहिका होती है तो उसका मशीनी हो जाना सिर्फ असंप्रेषण की स्थिति ही नहीं पैदा करता बल्कि उससे कहीं बहुत आगे जाकर हमें असंवेदनहीन बना देता है. यह कहानी उन्हीं परिस्थितियों का जिंदा बयान है. लेकिन हाँ, लेखिका ने कंप्यूटर से किसी फाइल को परमानेंटली डिलीट करने के लिए जिस कमांड का यहाँ उल्लेख किया है वह तकनीकी रूप से गलत है. यह कमांड ‘शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट’ नहीं बल्कि ‘शिफ्ट+डिलीट’ होता है. इसलिए कायदे से इसे ‘शिफ्ट+डिलीट=परमानेंट डिलीट’ लिखा जाना चाहिए था. चूंकि यह कथन/समीकरण कहानी का बीज वाक्य जैसा है और इसे ही कहानीकार ने शीर्षक भी बनाया है, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए था. गौरतलब है कि भूमंडलोत्तर यथार्थ की जटिलताओं को अभिव्यक्त करने में पारंपरिक शबदावली कई बार असमर्थ मालूम पड़ती है. ऐसे में भावों की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति के लिए साहित्येतर अनुशासनों से शब्द लेकर आने पड़ते हैं. भाषा और साहित्य की समृद्धि के लिए यह आवश्यक भी है, लेकिन इस क्रम में पर्याप्त शोध जरूरी है ताकि तथ्यगत जानकारियाँ पाठकों तक अपने उचित प्रारूप में पहुँच सकें.
सूचना और संचार की अभूतपूर्व क्रान्ति से उत्पन्न माहौल के बीच नई आर्थिक नीति के नाम पर अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण की जो शुरुआत नब्बे के दशक में हुई थी, उसके बाद से सामूहिकता का लगातार संकुचन होता गया है. वर्गविहीनता जो कभी प्रगतिशील आँखों मे किसी खूबसूरत सपनों की तरह जगमगाता था शनै: शनै: उसकी चमक फीकी पड़ती गई है और उसके समानान्तर सामाजिकता के लगातार क्षीण और दुर्बल होने की प्रक्रिया जारी है. सामाजिकता के विरुद्ध वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं के पल्लवन की इस नियति के मूल में जिन दो शब्दों की बहुत बड़ी भूमिका है, वे हैं- जीत और गति. उपलब्धि को जीत और प्रगति को गति में रिड्यूस कर दिये जाने का ही यह नतीजा है कि तथाकथित सफलता और वैयक्तिकता के आभिजात्य खोल में छुपी निजी महत्वाकांक्षाएं हमारे भीतर एक संवेदनहीन क्रूरता को बर्फ की सिल्ली की तरह जमाये जा रही है. हर कीमत पर ‘जीत’ और ‘गति’ हासिल करने की इच्छाओं की क्रूरतम नियति की आशंकाओं को इस कहानी के मुख्य पात्र सुदीप मलिक के व्यवहारों और उसके इकबालिया बयान के हर्फ–हर्फ में महसूस किया जा सकता है. सुदीप मलिक के भीतर लगातार पल रही जीत की आकांक्षाओं और उस संभावित जीत की दहलीज पर पहुँचते-पहुँचते रह जाने की स्थिति के बाद उत्पन्न संवेदनात्मक त्रासदी से गुजरते हुये मुझे मैनेजमेंट गुरु शिव खेड़ा की बहुचर्चित-बहुप्रचारित किताब ‘यू कैन विन’/‘जीत आपकी’ की लगातार याद आती रही. क्या इसके पीछे येन केन प्रकारेण जीत हासिल करने की सीख देने वाली उन अत्याधुनिक व्यावसायिक सूक्तियों का कोई हाथ नहीं जो चीख-चीख कर कहती हैं – ‘विनर्स डोंट डू डिफरेंट थिंग्स, दे डू द थिंग्स डिफरेंटली’? दोष उन सूक्तियों का हो कि नहीं, लेकिन उनके बहाने हमारे भीतर रोप दी गई उन महत्वाकांक्षाओं को तो समझना ही पड़ेगा न जो जीत के सिवा कुछ भी न देखने की खुदगर्ज मानसिकता के लिए खाद-पानी का काम करते हैं! आकांक्षा पारे काशिव की यह कहानी भूमंडलोत्तर समय में व्याप्त उन्हीं मानसिकताओं की शिनाख्त और पड़ताल पर ज़ोर देती है.
अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने सपनों के चमचमाते रैपर में जिस तरह अमरीका परस्ती को पिछले दरवाजे से हमारे घरों में दाखिल कर दिया है, वह इस पूरी व्यवस्था का एक बहुत बड़ा उपोत्पाद है. भारतीय बाज़ार के खुलने और भारतीय प्रतिभाओं के निर्यात के बीच व्यावसायिक गतिविधियों के बहाने सभ्यता और इतिहास का अमरीकी पाठ जिस तरह हमें घुट्टी में पिलाया जा रहा है वह किसी मीठे और धीमे जहर जैसा है. गौर किया जाना चाहिए कि सुदीप ‘काउंटर स्ट्राइक’ नामक जिस कंप्यूटर गेम को खेलने में व्यस्त है उसके तहत स्क्रीन पर धड़ाधड़ यू एस सोल्जर टेरोरिस्टों का सफाया करते हैं. दुनिया में आतंक का सुनियोजित संजाल बिठानेवाला एक देश कैसे खेल के उपकरणों तक में खुद को आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष का स्वघोषित योद्धा साबित किए जा रहा है, सिर्फ देखने-सुनने या विश्लेषण भर का नहीं बल्कि चिंता का विषय है. यह किसी देश की अर्थव्यवस्था के विकास का मॉडल भर नहीं बल्कि आर्थिक क्रिया-कलापों के बहाने दूसरे देशों की युवा प्रतिभाओं के मानसिक अनुकूलन की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है. सच है कि इतिहास का पुनर्लेखन सिर्फ इतिहास के पन्नों तक ही सीमित नहीं होता बल्कि उसका एक बड़ा और प्रभावी हिस्सा किसी सूक्ष्म रणनीति के तहत जीवन के अन्यान्य क्षेत्रों से गुजरता हुआ कब हमारे दैनंदिनी का हिस्सा बन जाता है, हमें पता ही नहीं चलता.
भूमंडलीकरण, जिसकी शुरुआत सूचना और संचार की कल्पनातीत क्रान्ति के बहाने हुई थी, को नवउदारवादी आर्थिक एजेंडे को लागू किए जाने की राजनैतिक-आर्थिक विवशताओं और एक रचनात्मक प्रतिपक्ष की विकल्पहीनता ने लगभग एक सर्वस्वीकृति की दशा में पहुंचा-सा दिया है. इस नई व्यवस्था ने वस्तु, पर्यावरण और मनुष्य के बीच के सारे सम्बन्धों को पुनर्परिभाषित करने का काम किया है. विशुद्ध व्यावसायिक उपकरणों से की गई सभ्यता और समाज की यह पुनर्समीक्षा हर वस्तु को उत्पाद और हर व्यक्ति को उपभोक्ता में रिड्यूस कर देती है. और फिर मनुष्य से उपभोक्ता में तब्दील होते ही हमारी पूरी दृष्टि बदल जाती है. हम चीजों को संवेदनाओं से नहीं उसमें निहित सुविधाओं के मूल्य से आंकना शुरू कर देते हैं. सुविधाएं पहले हमारा शौक बनती हैं, फिर जरूरत, फिर आदत और अंतत: लत. विकास के वायदों की शक्ल में कदम-दर-कदम आगे बढ़ती यह व्यवस्था दरअसल कहीं न कहीं अंतरालों के निर्माण का कार्य करती है. अंतरालों का निर्माण यानी दूरियों का बढ़ना. उल्लेखनीय है कि आज यह दूरी सिर्फ वर्ग या वर्ण की ही नहीं रही बल्कि उससे कहीं बहुत आगे ‘वर्क प्लेस’ और घर के बीच भी तैयार हो गई है. नतीजतन लेट सीटिंग जरूरी या मजबूरी नहीं लत हो जाती है. छः–सात अंकों का पे पैकेज चाहे जितनी भी सुविधाएं मुहैया करा दें, घर को मल्टीनेशनल कंपनी का दफ्तर नहीं बना सकता. संबंध और संवेदना जो कभी घर का आधार हुआ करते थे, को जब सुविधाओं के आकलन के अर्थशास्त्र ने विस्थापित कर रखा हो फिर घर जाने की जरूरत ही क्या? सेंट्रली एयर कन्डीशंड दफ्तर, दिन भर तुलसी, लेमन और आमण्ड फ्लेवर की चाय, और फिर रात को 5 एमबीपीस की रफ्तार से गेम और फिल्म डाऊनलोड करने की सुविधा… यह सब घर पर कहाँ! नतीजा… जानबूझ कर घर न जाने की कोशिश… लंबी लड़ाई के बाद हासिल किया गया आठ घंटे के काम का अधिकार कभी इस तरह अर्थहीन हो जाएगा शायद ही किसी ने सोचा हो. ये सारी चीज़ें किस तरह बड़ी बारीकी से हमें भीतर से खोखला किए जा रही हैं, उसे इस कहानी के माध्यम से गहरे समझा जा सकता है.
उल्लेखनीय है कि यह कहानी सुदीप मलिक के इकबालिया बयान से शुरू होकर उसे फांसी दिये जाने के पूर्व उसकी अंतिम इच्छा पूछे जाने तक चलती है. बीच में गवाहों के रूप में उसके सहकर्मियों, दोस्तों, कंपनी के एच आर मैनेजर और एक महिला मित्र के बयान और अदालती कार्यवाही के बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया पर इस घटना को लेकर की जानेवाली बहस दर्ज हैं जिनसे सुदीप मलिक जैसे लोगों की दिनचर्या, आई टी कंपनी के वर्किंग कल्चर और खबरों के उत्पाद में बदल दिये जाने की व्यावसायिकता का पता चलता है. नई तकनीक द्वारा पुराने आविष्कारों और उपकरणों को आउटडेटेड कर देने की पूरी प्रक्रिया को मानव व्यवहारों के माध्यम से समझाते हुये यह कहानी मौखिक संवादों की जरूरत को भी रेखांकित करती है जिसे आभासी दुनिया के नए विकल्प यथा- फेसबुक, ट्वीटर, हवाट्सएप आदि लगातार सीमित और संकुचित करते जा रहे हैं. सम्प्रेषण को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए कभी आधुनिक भाषा का आविष्कार हुआ होगा, लेकिन तकनीकी जगत के नए आविष्कारों का बेजा इस्तेमाल हमें फिर से चित्रलिपि और कूट भाषा के उस युग में ले जाना चाहता है जहां हम संवेदनाओं से खाली हो जाने को अभिशप्त हो जाते हैं.
इन सबके बीच जो एक और महत्वपूर्ण बात इस कहानी में है वह है- स्त्री और पुरुष पात्रों की मानसिक बुनावट और उनके व्यवहारगत अंतरों का उदघाटन. गौरतलब है कि अदालत में गवाह के रूप में पेश हर पुरुष पात्र को इस बात पर आश्चर्य है कि सुदीप मलिक ने अपनी पत्नी अनुरीता की हत्या कर दी. जबकि इसके उलट सुदीप की एक पूर्व महिला मित्र को उसके इस व्यवहार/अपराध पर कोई आश्चर्य नहीं होता, बल्कि उसके आश्चर्य का कारण तो यह है कि अनुरीता ने सुदीप जैसे लड़के से शादी कैसे कर ली? एक मर्द की व्यावसायिक व्यस्तताओं (?) की कीमत उसके दोस्त या सहकर्मी को नहीं उसके परिवार को ही चुकानी पड़ती है. यही कारण है कि स्त्रियाँ ऐसी वृत्तियों को आसानी से पहचान लेती हैं.
इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी (1997) – ‘शब्द रहेंगे साक्षी’ में प्रकाशित पंकज मित्र की कहानी ‘पड़ताल’, जिसे मैं भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी की पहली कहानी मानता हूँ, पर बात करते हुये मुझे हमेशा लगता रहा है कि बाज़ारवादी शक्तियां कैसे हमारे निजी और सामाजिक जीवन-व्यवहार को सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से बदलती हैं उसे समझने के लिये इसे रेणु की ‘पंचलाइट’ और संजय खाती की ‘पिंटी का साबुन’ के साथ जोड़कर समझा जा सकता है. अब मैं आकांक्षा पारे काशिव की इस कहानी को उसी शृंखला की चौथी कड़ी के रूप में रख के देखना चाहता हूँ. बाज़ार का सफर कौतूहल से शुरू होकर, स्पर्धा और उपेक्षा से होते हुये कैसे हत्या तक पहुँच जाता है, उसे इन कहानियों के क्रमबद्ध अध्ययन से समझा जा सकता है. उल्लेखनीय है कि नये उत्पाद का आकर्षण हमें हर कीमत पर उसे हासिल करने को प्रेरित करता है. पिंटी का साबुन’ कहानी में साबुन की एक नई टिकिया को हासिल करने के लिये छोटे भाई द्वारा बड़े भाई का सिर फोड़ देना बाज़ार प्रदत्त इसी प्रवृत्ति का परिचायक है. स्पर्धा की यह स्थिति ‘पड़ताल’ तक आते-आते उपेक्षा में बदल जाती है जहां एक व्यक्ति की आत्मकेंद्रित प्रवृत्तियाँ इतनी सघन हो उठती हैं कि वह निजी हितों की पूर्ति के उपक्रम में रिश्ते, परिवार और समाज की ऐसी उपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी के जीने-मरने की भी परवाह नहीं रहती. ‘पड़ताल’ के सोलह वर्षों के बाद आज ‘शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट’ में वर्णित स्थितियाँ उपेक्षा से किसी के मर जाने से भी कई कदम आगे, आत्मकेंद्रित ज़िंदगी में पत्नी के एक मामूली हस्तक्षेप पर उसकी हत्या तक जा पहुंची है. यह हत्या तब और ज्यादा तकलीफदेह और चिंता का कारण बन जाती है जब एक निश्चित समयान्तराल के बीत जाने के बाद भी हत्यारा उस त्रासदी को नहीं समझता और अपनी अंतिम इच्छा पूछे जाने पर एक बार फिर इन्टरनेट देखना चाहता है ताकि वह एक खास कंप्यूटर गेम का नवीनतम भाग देख सके. संवेदनाओं के प्रस्तरीकरण की इस तीव्रगामी प्रक्रिया पर नए सिरे से सोचे जाने की जरूरत इस कहानी को महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बनाती है.
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