मनोज कुमार झा की नयी कविताएँ |
सेज पर उदासी
कामाकुल मैंने हाथ रखा उसकी पीठ पर
उसने रोका व्याकुल विनम्र
अभी रूकिए आरती की घंटिया बज रही है
और सिगरेट कम पीजिए, पत्नी को बुरा लगता होगा
पहली बार मैंने सोचा एक वेश्या की सेज पर
थोड़ी सा ईश्वर रहता जीवन में तो जान पाता कदाचित
कि यह जो इतना मजहबी शोर है
क्या बचा है इसमें थोड़ा सा जल
जिससे धुल सके एक लज्जित चेहरा.
रात के बदले
मुझे एक रात दे कोई
और मोहलत कि लो इसे जो बना लो
तो मैं शायद गफ्फ काली चादर बनाऊँ जिस पर एक भी सितारा नहीं
जो उतना ही गर्म मेरे लिए जितना मेरे शत्रुओं के लिए
या एक कुँआ बनाउँ जहाँ जल के साथ पाक किस्से मिलते हों
या क्या पता
दिन ही बना डालूँ
और थक कर सो जाउँ.
बेनिशान
रात्रि में कराह पुकार है अरण्य में
बल्व सारे बुझ चुके है
बहुत कम रोशनी फेंकते है परिचतों के टेलिफोन नम्बर
तारे नहीं दिखते, ओट है दर्द की भी नींद की भी
करवट बदलने पर कराह खिंच रही है लम्बी
रात के श्यामपट पर एक रक्तमय रेखा उगती है
कोई नहीं उठता, यह अजब अरण्य है एक पत्ता नहीं डोलता
रात भर में ये रेखा बहुत गहरी हो जाएगी
श्यामपट घुल जाएगा सुबह इस रेखा के साथ-साथ
सब अपने-अपने काम में लग जाएंगे.
रात में बारिश
रात बरस रही है
रात भींग रही है
रात छाता बन रात को भींगने से बचा रही है
रात घड़ा बन जल भर रही है
रात कर रही बारिश से क्रीड़ा
रात कर रही बारिश को गंभीर.
रात छपछप
रात सांय सांय !
उदासी का चेहरा
यह उदासियों का मौसम है
उदासियों के नाखून देखे हैं मैंने भाई की पीठ से खून बहाता
दाँत देखा है रात के तीन बजे मच्छरदानी को फाड़ता
मैं इसका चेहरा देखना चाहता हूँ
जरूर मिलता होगा उदास लोगों के चेहरे से थोड़ा
या हो सकता है
अपनी छाया के ठीक उलट हो
मैं उदासी को ईंट बनाना चाहता
जो उन सबके पैरों के लिए ठेस बने
जो उदास लोगों की चप्पल छीन लेते है
जो उदासी को मन में बसा शहद नहीं
मुँह से निकला झाग मानते है
मगर मेरे पास सिर्फ देह
क्या इसे निर्वस्त्र करके गलियों में घुमाउँ तो दिखेगा उदासी का चेहरा
या लगेगा लुढ़क रहा आवाँ से बिछड़ा घरा डाल दो इसे शापिंग माल में.
अंततः एकांत
अंततः तुम अकेले हो जाओगे
देह पर अपनी मूर्खताओं के निशान लिए
परिजनों के टेलीविजनों में समा पाने की सिद्धि कैसे पाओगे
अपनी उदासी को प्रियजनों के लिए लतीफा बनाना भी तो तुमने थोड़ा ही सीखा है
मगर सह लो इसे तो तुम्हें सहना ही है
तुमने ही तो सोचा था कि चैकोर भीड़ द्वारा बनाई गई मुक्ति के पिंजड़े में फंसकर ठहाके लगाने से बेहतर है अपने एकांत में गल जाना.
विकल्प
मैंने खुद को आइनों में देखा
और सपनों में
हुआ पतित अपनी असमर्थता में
कि मैं प्यार नहीं कर सकता खुद से
मुझे वृक्षों से प्यार करना चाहिए कि अपने सपनों में बेहतर दिखूँ
और फूलों से और पत्थरों से
ताकि आइने में बेहतर दिख सकूँ.
उदगम
कितने अधिक रंग हो गए इस दुनिया में
और कितने कम उसको थामने के धागे
अपने शरीर के रंग में मिलावट करती हैं तितलियाँ
और गुजारिश करता है अपने रंगों को
बचाने को व्याकुल थिर फूल
कि सखि रंग के भरम में मत डूबो
चलो मिलते हैं अपने पुराने गुइयों पानी से कि
करोड़ों बरसातों में पा-पाकर अमित प्रवाह
लाखों प्रदेशों में पा-पाकर बहुवर्णी निवास
कैसे बचा है अबतक अपने पुराने रंग में.
और कितने कम उसको थामने के धागे
अपने शरीर के रंग में मिलावट करती हैं तितलियाँ
और गुजारिश करता है अपने रंगों को
बचाने को व्याकुल थिर फूल
कि सखि रंग के भरम में मत डूबो
चलो मिलते हैं अपने पुराने गुइयों पानी से कि
करोड़ों बरसातों में पा-पाकर अमित प्रवाह
लाखों प्रदेशों में पा-पाकर बहुवर्णी निवास
कैसे बचा है अबतक अपने पुराने रंग में.
मनोज कुमार झा
२००८ के भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित.
तथापि जीवन कविता संग्रह प्रकाशित
चाम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक आदि के लेखों का अनुवाद
एजाज अहमद की किताब ‘रिफ्लेक्शन आन आवर टाइम्स’ का हिन्दी अनुवाद
सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए ‘विक्षिप्तों की दिखन’ पर शोध
ई पता : jhamanoj01@yahoo.com
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