21वीं सदी की समलैंगिक कहानियाँ अंजली देशपांडे |
दुनिया की तमाम सेनाओं से ज़्यादा ताकत होती है उस विचार में जिसका वक्त आ गया हो और उसे कोई ताकत रोक नहीं सकती, फ़्रांसीसी साहित्यकार विक्टर ह्यूगो ने कहा था. भारत में समलैंगिकता के स्वीकार का वक्त आ तो गया है लेकिन भ्रामक जानकारी, पूर्वाग्रह और अन्धविश्वास ग्रस्त समाज इसे कब स्वीकार करेगा कहना मुश्किल है. हाँ, इस स्वीकार्य की दिशा में पहलकदमी अब मज़बूत भी हो रही हैं, बढ़ भी रही हैं.
अभी परस्पर सहमत वयस्क समलिंगी संबंधों को अपराध की श्रेणी से निकले पूरे पांच साल भी नहीं हुए हैं लेकिन इसके पीछे का संघर्ष इससे छह गुना अधिक लंबा रहा है.
इस संघर्ष ने तीस साल से भी पहले एड्स भेदभाव विरोधी आन्दोलन (एबीवीए) की पहल से मुखर रूप धरना शुरू किया था. एबीवीए ने 1991 में भारत में समलैंगिकता पर पहली रिपोर्ट ‘लेस दैन गे’ प्रकाशित की थी और इसी में पहली बार परस्पर सहमत वयस्कों के बीच समलिंगी संबंधों को अपराध घोषित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निरस्त करने की मांग उठाई और दिल्ली उच्च न्यायालय में इसके लिए याचिका भी लगाई थी.
आखिर 2009 में पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने और इसके नौ साल बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में इस धारा के असर को कम किया और परस्पर सहमत वयस्क समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से निकाल दिया. इस फैसले ने कुछ संस्थानों को भी ऐसी पहल का मौक़ा दिया.
एबीवीए ने ही मुझे इस तरह की यौन उन्मुखता को वितृष्णा के बजाय स्वीकार्य भाव से देखना सिखाया और अंततः सहानुभूति की ओर मेरी यात्रा शुरू हुई.
हाल ही में इण्डिया टुडे-आज तक समूह ने ‘साहित्य आज तक’ उत्सव में स्थापित पहले आठ सम्मानों में एक, ‘जागृति उदीयमान साहित्यकार’ का सम्मान इस विषय पर डॉ. किंशुक गुप्ता के पहले ही कहानी संग्रह, ‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’, को देकर समलैंगिक साहित्य और परोक्ष रूप से समलैंगिकता के पक्ष में खड़े होने का सार्वजनिक बयान दे दिया.
यह स्पष्ट अभिकथन समाज और मीडिया के सुर में सुखद परिवर्तन है जिसकी अनुगूंज आगे और मज़बूत होगी ऐसी आशा है.
‘ये दिल है कि चोर दरवाज़ा’ इस विषय पर हिंदी में पहला कहानी संग्रह है जो वाणी प्रकाशन के उपक्रम ‘सतरंगी वाणी’ से आई पहली किताब है.
वाणी प्रकाशन का इस विषय को समर्पित अलग उपक्रम भी इसी रुझान की और संकेत करता है और निश्चित रूप से ऐसी और किताबें जल्दी ही देखने को मिलेंगी.
निश्चित रूप से अदालती अनुमोदन ऐतिहासिक घटना थी लेकिन अकेले क़ानून समलिंगियों के सामाजिक बहिष्कार के डर का उन्मूलन नहीं कर सकता जो उन्हें ख़ामोशी से गोपनीय जीवन जीने को विवश रखता है. इसके लिए सामाजिक रवैये में परिवर्तन आवश्यक है.
क़ानून की स्वीकृति और सामाजिक मान्यता में अंतर है और सामाजिक स्वीकृति के लिए जिस संस्कार परिवर्तन की आवश्यकता होती है उसमें इसमें क़ानून से बड़ी भूमिका साहित्य और कला की होती है.
इतिहास में सशक्त साहित्य ने अनेक परिवर्तनों का मार्ग प्रशस्त किया है. इनमें ‘अंकल टॉम’स केबिन’ जैसी रचनाओं का नाम लिया जा सकता है भले उन्होंने आम जन में काले गुलामों के प्रति सिर्फ दया भाव जगाया हो लेकिन रास्ता तो खोला ही. ऐसी प्रभावोत्पाद्कता के लिए साहित्य का मर्मस्पर्शी और सत्यनिष्ठ होना ज़रूरी है. पाठकीय सहानुभूति ही काफी है, समानुभूति इंतज़ार कर सकती है. लेकिन क्या साहित्यकारों को यह छूट दी जा सकती है?
उनमें समानुभूति का कम से कम कुछ अंश होना तो अनिवार्य शर्त है नहीं तो वे ऐसे विश्वसनीय पात्र गढ़ ही नहीं पायेंगे जिनमें पाठक खुद को देख पायें. पाठकों को यह दिखाना साहित्यकार का ही काम है कि उनका इलाज करने वाला डॉक्टर, उनके मकान की पुताई करने वाला मनपसंद पेंटर, उनके निकट मित्रों या रिश्तेदारों के रात-रात भर बीपीओ में काम करने वाली संतानों में कोई भी समलैंगिक हो सकता है और ऐसा होने से वे न चरित्रहीन हो जाते हैं न समाज विरोधी. तभी पाठकों में भाव परिवर्तन अंगड़ाई ले सकती है.
यह कहना बे-मायने है कि विषमलिंगी समलिंगियों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकते. आखिर हम दैत्यों, परियों, रोबोट और परग्रहियों के साथ भी तो आइडेंटिफाई करते ही हैं जबकि, रोबोट को छोड़, इनका तो वास्तव में अस्तित्व ही नहीं होता.
समलैंगिकता या पूरी एलजीबीटीक्यू समुदाय की यौन-उन्मुखता वाली अल्पसंख्या कोई समस्या अगर है तो विषमलिंगी, पितृसत्तात्मक समाज संरचना की समस्या है.
यह विषमलिंगियों की समस्या है जो अपने से अलग किसी भी रीत, धारणा या चलन को स्वीकार नहीं कर सकते. यह व्यवस्था एलजीबीटीक्यू को बाहर करके उनपर अपनी समस्या थोप कर उन्हीं को असुरक्षित और खौफज़दा कर देती है. आज के लेखन को अगर सचमुच प्रासंगिक और अपने समय के वांछित समावेशी संस्कार का अंग बनना है या उसे ध्येय बनाना है तो उनके लेखन को इसी धरातल पर खड़ा होगा, अपने पात्रों को इस खौफ से आज़ाद करना होगा जैसा दलित विमर्श और स्त्री विमर्श पर साहित्य ने किया.
यह सर्वविदित है कि जो रचना दिल को न छूए वह भाव परिवर्तन की क्षमता नहीं रख सकती. पात्रों की भय और पीड़ा को ही नहीं उनके संघर्ष के अनुभव को पाठकों तक पहुँचाना साहित्य का काम है वरना यह पात्र असल जीवन की तरह कहीं ख़ामोशी से तहखानों में सुरक्षा महसूस करते हुए छिपे रहेंगे और विषमलिंगियों को भी सुरक्षा का यह एहसास होता रहेगा कि उनके संस्कारों की प्रधानता को कोई चुनौती नहीं है, वे अपना रुख बदलने को तो क्या, इस विषय पर सोचने तक को मजबूर नहीं होंगे. इसी कसौटी पर हिंदी में इस पर कहानियों का यह विश्लेषण आधारित है.
(एक) |
हिंदी साहित्य में आजकल एलजीबीटीक्यू नया विमर्श बन कर उभर रहा है. आम बोलचाल की भाषा में, इसकी हवा चल रही है. इसे बवंडर बनने के लिए और भी लेखकों और रचनाओं की सख्त ज़रूरत है. अभी तो इस हवा में वे तिनके भी चक्कर काट रहे हैं जो इस विषय पर कहानी ज़रूर छापने की सम्पादकीय ज़रूरत और इसके सहारे छप कर नाम कमाने की लालसा के मेल से उड़-उड़ कर इसमें आ रहे हैं जो भ्रांतियों को ही बल दे रहे हैं. संवेदना और संस्कार परिवर्तन के लिए साहित्य में नए अनुभव जगत के टूरिज़्म की नहीं उसकी पूर्णता के सम्प्रेषण की आवश्यकता होती है.
अनेक वरिष्ठ लेखकों को इस विषय पर लिखने की ज़रूरत महसूस होना इसके आगमन का प्रमाण तो है लेकिन क्या यह स्वागत योग्य है और उनके उपक्रम को रचना का नाम भी दिया जा सकता है? क्या इन कहानियों में नया सौन्दर्य शास्त्र गढ़ने का सामर्थ्य या इच्छा भी है जो रुचियों के बदलाव में योग दे सके?
आजकल छप रही ज़्यादातर कहानियाँ पढ़ कर ऐसा आभास भी होता है कि वे प्रचलित रुझान में अपनी जगह बनाने के लिए विषय को समझे बिना इसपर कलम घसीट रही हैं. जब यह दुनिया लेखक के अनुभव जगत का ही हिस्सा न हो तो पाठक को वह इसकी झलक दिखायेंगे कैसे? फिलहाल तो ज्यादातर रचनाएँ निराश ही करती हैं. यह कोई शोध लेख नहीं है महज़ एक कोशिश है कि आजकल छप रही रचनाओं पर एक नज़र डालकर देखा जाए कि जो लिखा जा रहा है उसका स्तर क्या है.
हिंदी साहित्य में समलैंगिको की पूरी अनुपस्थिति तो पहले भी नहीं रही लेकिन उसके प्रति नज़रिए के विश्लेषण की शुरुआत रुथ वनिता ने हाल ही में पेंगुइन से छपी अपनी किताब ‘ऑन द एज’ में की है. उन्होंने हिंदी साहित्य के सौ साल के इतिहास का अवलोकन करते हुए 1924 में छपे पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र की चोकलेट को इस पर पहला उपन्यास और 1947 में आई आशा सहाय की ‘एकाकिनी’ उपन्यास को इस विषय पर एक लेखिका का पहला उपन्यास बताया है. उग्र ने पुरुष समलैंगिकता और आशा सहाय ने स्त्री समयौनिकता पर लिखा है.
रुथ वनिता के अनुसार हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य लेखकों ने भी इस विषय पर लिखा है. मुंशी प्रेमचंद की ‘लांछन’ इसी विषय पर है और राजेन्द्र यादव ने भी एक कहानी ‘प्रतीक्षा’ इसी पर लिखी थी.
मुझे रुथ वनिता की किताब से यह जानकर आश्चर्य हुआ कि 18वीं सदी में इंशा अल्लाह खान इंशा ने इस विषय पर ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखी थी! जो हिंदी की पहली कहानी मानी जाती है.
इस्मत चुगताई का ‘लिहाफ’ तो कई कारणों से ख्यात है ही. इनके अलावा ‘मछली मरी हुई’ जैसा घोर आपत्तिजनक उपन्यास लिखने वाले राजकमल चौधरी की ‘भूगोल का प्रारंभिक ज्ञान’, कहानी भी इस विषय पर है. रुथ वनिता की सूची से लगता है कि 1999 में ‘पूर्वाग्रह’ में छपी सारा राय की ‘कगार पर’ शायद बीसवीं सदी में इस विषय पर अंतिम कहानी थी. उन्होंने इन उपन्यासों के अनुदित अंश और कई कहानियों के अनुवाद इस संकलन में शामिल किये हैं. इनके बाद भी कई कहानियाँ छपी हैं.
इस लेख में सिर्फ इक्कीसवीं सदी के शैशव काल में छपी समलैंगिकता पर कहानियों के विश्लेषण के ज़रिये यह जानने का प्रयास है कि इस विषय पर हिंदी कहानी संसार का क्या स्वरूप उभर रहा है.
इन कहानियों के अवलोकन से साफ़ होता है कि बीसवीं सदी में जितनी कहानियाँ लिखी गईं पिछले दस सालों में उनसे ज़्यादा ही कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं. इनकी संख्या कम से कम 15 तो है ही. इनमें सबसे बड़ा योगदान किंशुक गुप्ता का है जिनकी इस विषय पर अब तक सात कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं. इनके अलावा, शुभम नेगी की दो, मिथिलेश प्रियदर्शी, आकांक्षा पारे, मधु कांकरिया, शहादत खान, रश्मि शर्मा और योगिता यादव की एक-एक कहानी इस विषय पर हैं.
शुभम, किंशुक और शहादत खान को छोड़ कर बाकी लेखक लम्बे समय से अनेक विषयों पर लिख रहे हैं और उनका इस विषय का संज्ञान लेना भी महत्वपूर्ण है. यह पुख्ता संकेत है कि अब बहुत से लेखकों को इस विषय पर लिखने की ज़रूरत महसूस होने लगी है जो कि इस विमर्श के उदय के बाद होना ही था.
दिलचस्प बात है कि इन लेखकों ने अपने लिंग के अनुसार ही समलिंगी रिश्ते चुने हैं. स्त्रियों ने सिर्फ लेस्बियन रिश्तों पर लिखा है और पुरुषों ने पुरुष समलैंगिकता पर. इसमें किंशुक एकमात्र अपवाद हैं जिन्होंने एक लेस्बियन रिश्ते पर भी कहानी लिखी है.
राकेश बिहारी ने रश्मि शर्मा की कहानी ‘बंद कोठरी का दरवाज़ा’ पर मुझसे बातचीत में कहा है कि इसे होमोसेक्शुआलिटी की कहानी नहीं कहा जा सकता, यह एक स्त्री की कहानी है जिसका विवाह एक समलैंगिक से हो जाता है और इसे इसी नज़र से देखना चाहिए. वे इस कहानी पर समालोचन में अपने आलोचनात्मक लेख में कहते हैं कि जब खुद समलिंगी इस पर लिखेंगे तो बेहतर लेखन होगा क्योंकि उसमें अनुभव का स्वाद होगा जैसे स्त्री और दलित साहित्य स्वानुभूति से पग कर निकला.
किस साहित्य को समलैंगिक कहा जा सकता है यह महत्वपूर्ण सवाल है. जिस कहानी में स्त्री पात्र हो वह हमेशा स्त्री विमर्श पर तो नहीं होती. अनेक पात्रों में एक समलैंगिक पात्र को रखने से या उन्हें मुख्य पात्र भी बना लेने से कहानी क्या समलैंगिक विमर्श की हो जायेगी? इस पर विस्तृत चर्चा आवश्यक है.
मुझे लगता है कि कहानी में तनाव की बुनियादी वजह, कहानी के घटनाक्रम को गति देने का मूल कारक अगर समलैंगिकता हो तो उसे इस विषय की कहानी कहा जा सकता है भले समलैंगिक पात्र गौण हो. विमर्श अलग है, उसमें विषमलिंगी प्रधान संस्कृति के प्रतिकार की चेतना की उपस्थिति अवश्यम्भावी होगी.
निश्चित रूप से स्व-कथन सर्वाधिक प्रभावशाली हो सकता है अगर लेखन में उद्वेलन की सरस प्रस्तुति का कौशल हो लेकिन दलित विमर्श और स्त्री विमर्श पर साहित्य और एलजीबीटीक्यू साहित्य के बीच के मूलभूत अंतर को नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इसे रेखांकित करना ही ज़रूरी है.
दलितों को साहित्य ने कभी पूरी तरह अनदेखा नहीं किया, उनके चित्रण में उनके अनुभव का नकार ज़रूर रहा, उनका नज़रिया और उनका स्वर लोप रहा. महाराष्ट्र से शुरू दलित साहित्य ने न केवल इसका ज़ोरदार प्रतिकार किया अपितु साहित्य को अनेक अनमोल रत्न भी दिए. यह स्थिति अब कमोबेश हर भारतीय भाषा के साहित्य में देखी जा सकती है.
स्त्रियों की स्थिति कुछ अलग है, वे अधिकांश साहित्य में मौजूद रही हैं, उनके अस्तित्व मात्र को कभी इनकार नहीं मिला. उनका अपना स्वर दर्ज नहीं हुआ जिसका प्रतिकार ही स्त्री विमर्श में सामने आया.
समलिंगियों की स्थिति कुछ और है. स्त्रियों की तरह यह किसी भी वर्ग और जाति और जेंडर में हो सकते हैं. विषमलिंगी संबंधों के विपरीत इनके संबंध गलीज और समाज विरोधी माने जाते हैं. ऐसे संबंधों को अप्राकृतिक और अवांछनीय माना जाता रहा है और अब भी समाज में कमोबेश यही धारणा बनी हुई है. रुथ वनिता के विश्लेषण से पता चलता है कि नामवर सिंह जैसे कद्दावर आलोचक ने भी ऐसे संबंधों को ‘अप्राकृतिक’ और ‘विकृति’ करार दिया था.
इस आत्मस्वीकृति के साथ मैं अपना विश्लेषण शुरू कर रही हूँ कि मैं भी पहले यही मानती थी कि जो यौन क्रिया संतान उत्पत्ति की संभावना न रखे वह अप्राकृतिक है. यह पूरी तरह मिथ्या है यह मुझे बहुत देर से समझ में आया और इसके लिए मैं एबीवीए का जितना आभार मानूं, कम ही होगा. लेकिन इतना अवश्य है कि नए तर्कों और संबंधों के विभिन्न स्वरूपों को स्वीकार करने जितना तो मेरा दिमाग खुला ही था. ऐसी नकारात्मक दृष्टि तो क़ानून की सम्मति मिलने के बाद भी कुछ आलोचकों में पैठी हुई है. राजकुमारी शर्मा ने ‘साहित्य कुञ्ज में’ अगस्त 2020 में लेख ‘हिंदी उपन्यासों में समलैंगिकता: स्त्री की नज़र से’ में इसे एड्स और अवसाद फ़ैलाने वाला, पश्चिम से आयातित, समाज विरोधी आन्दोलन बताया है (रुथ वनिता, ऑन द एज).
हर साहित्य में, और कम से कम हिंदी में, लेखकों को उनके द्वारा गढ़े पात्रों के साथ जोड़ कर देखने की आपत्तिजनक प्रवृत्ति होती है. कई आलोचक तक समझ ही नहीं पाते कि कहानियों के पात्रों के अनेक जनक हुआ करते हैं.
समलिंगी साहित्य लेखन में लेखक को इसी समुदाय का मान लिए जाने का जोखिम रहता है और इसके मद्देनज़र इन तमाम लेखकों के साहस की दाद देनी होगी कि वे इस विषय पर कलम उठा रहे हैं. उनकी यौन उन्मुखता उनका निजी मामला है इसलिए उसे किसी भी विश्लेषण में शामिल करना ज़रूरी नहीं है और न ही यह अनुमान लगाना ज़रूरी है कि वे इस समुदाय से हैं कि नहीं. इसकी तफतीश के बिना भी विश्लेषण हो सकता है क्योंकि रचना लेखन के बाद स्वतंत्र अस्तित्व रखती है. उसे बतौर रचना ही देखना चाहिए बशर्ते वह घोषित आत्मकथा न हो, जैसा कि लक्ष्मी त्रिपाठी का “आई एम अ हिजड़ा” है.
यह भी सच है कि लेखकीय अनुभव भले रचना का अंग होता है लेकिन उसका खुद का भोगा अनुभव ही हो यह ज़रूरी नहीं है. लेखकों में अन्यों के अनुभवों के तत्व बटोर कर भी अपने अनुभव जगत का अंग बना लेने की विलक्षण क्षमता होती है, होनी चाहिए, तभी उनका लेखन मन मस्तिष्क को झिंझोड़ सकता है. अन्यों के अनुभव आत्मसात करना और परकाया प्रवेश लेखकीय संवेदना का अंग है.
इस सदी में अब तक हिंदी में कम से कम 15 कहानियाँ छपी हैं और यह भी खुशी की बात है कि लगभग सारी प्रख्यात पत्रिकाओं में इनको स्थान मिला है. संभव है कि और भी कुछ कहानियाँ हों जो शोध से ही सामने आयें.
संभवतः इस सदी में इस विषय पर पहली कहानी आकांक्षा पारे की ‘सखी-साजन’ है जो सितम्बर 2014 के ‘वाक्’ में छपी. 2018 में समालोचन में रश्मि शर्मा की कहानी छपी ‘बंद कोठरी का दरवाज़ा’ इस विषय पर दूसरी कहानी है. नया ज्ञानोदय में 2019 में मधु कांकरिया की ‘लाड़ो’ आई. इसके बाद ही शायद इन कहानियों की संख्या बढ़ने लगी. ‘हंस’ में 2022 में पहले मार्च में किंशुक गुप्ता की ‘मछली के कांटे’ और फिर मई के अंक में शुभम नेगी की ‘परछाईं’ छपीं. उसी साल नवम्बर में ‘कथादेश’ में मिथिलेश प्रियदर्शी की ‘रकीब’ भी छपी.
इसके बाद ही आलोचकीय दृष्टी में एक सुखद परिवर्तन रश्मि रावत की ‘हंस’ के अक्तूबर 2022 अंक के ‘सृजन परिक्रमा’ स्तम्भ में इन दोनों कहानियों पर लेख “‘विषम’ लैंगिक दुनिया में एकाकी’” में मिलता है जिसमें इसका स्वीकार्य लेख का अभिन्न अंग है. यह नामवर सिंह के इस तरह के संबंधों को ‘अप्राकृतिक’ और ‘विकृति’ मानने के नज़रिए के विपरीत वैज्ञानिक भी है, रोशन ख्याल भी है और समावेशी भी है.
बाद में इस विषय पर योगिता यादव और शहादत खान की कहानियाँ आईं. एक कहानी मेरी भी है उसका विवेचन और लोग ही करें तो बेहतर.
इन कहानियों को सामने रखने पर कुछ लक्षण उभरते हैं. इनमें स्त्री पुरुषों की संख्या लगभग बराबर हैं लेकिन वे अपने जेंडर अनुसार लेखन कर रहे हैं. स्त्रियों ने लेस्बियन रिश्तों पर ही कहानियाँ लिखी हैं और पुरुष समलिंगी संबंधों पर ही लिख रहे हैं. यहाँ किंशुक अपवाद हैं जिन्होंने लेस्बियन संबंध पर भी एक कहानी लिखी है.
यह सभी कहानियाँ निम्न से लेकर उच्च तक मध्यम वर्ग की हैं. इनमें पेशेवर पात्र हैं जो अधिकांशतः बड़े शहरों में रहते हैं जहाँ अनाम रहने या गुमनामी की सुविधा है शायद इसलिए कि लेखक शहरी हैं. ज्यादातर कहानियाँ सिर्फ समलिंगी पात्र के अपने यौन उन्मुखता के स्वीकार्य या समाज और परिवार में उत्पीड़न की कहानियाँ हैं जो शुरुआती साहित्य का लक्षण हुआ ही करता है जब ऐसे चरित्रों या पात्रों का प्रकटीकरण ही काफी समझा जाता है. इनमें अधिकांश सिर्फ और सिर्फ यौन प्रकृति पर केन्द्रित रहकर पात्र के अन्य पक्षों को नज़रअंदाज़ करके एकरेखीय हो गई हैं. इसमें किंशुक और मिथिलेश अपवाद हैं जिन्होंने विस्तृत सामाजिक सन्दर्भ को ही नहीं पात्रों के जीवन के अन्य पक्षों को भी कहानी में शामिल करके उनको समाज का अंग बना दिया है.
आश्चर्य की बात यह है कि पुरुष लेखकों की कहानियाँ समलिंगियों की दृष्टि से लिखी गयी हैं, चाहे वह प्रथम वचन में हों या थर्ड पर्सन नेरेटिव हों और स्त्रियों की सभी कहानियाँ विषमलिंगी दृष्टिकोण से लिखी गई हैं.
यहाँ कहानियों के छपने के क्रमानुसार नहीं बल्कि कहानियों की थीम के आधार पर विश्लेषण है. सबसे पहले रश्मि शर्मा की कहानी जो राकेश बिहारी के अनुसार समलैंगिक कहानी नहीं है.
(दो) |
‘समालोचन’ में अक्तूबर 2018 में छपी रश्मि शर्मा की कहानी ‘बंद कोठरी का दरवाज़ा’ एक मुस्लिम परिवार में एक गे के साथ शादी के बाद के अनुभव को पत्नी नसरीन की ज़बानी सुनाती है. संस्कृत में बीए फाइनल के इम्तहान के बाद नसरीन की शादी ख़ूबसूरत और रईस रेहान से कर दी गई. शादी की रात शौहर के कमरे में आने से पहले ही सो गई नसरीन को ख़ुशी होती है कि रेहान नाराज़ नहीं हुआ. इंजीनियर रेहान कोलकता में काम करता है, हर सप्ताहांत को आता है और वादा करता रहता है कि जल्दी ही उसे साथ ले जाएगा लेकिन ले नहीं जाता. वह नसरीन के लिए तोहफे लाता है, उसे घुमाता फिराता है. दोस्ताना ताल्लुकात हैं मगर जिस्मानी नहीं. शुरू में यह कह कर टालता रहता है कि पहले एक दूसरे को समझ लें. महीनों गुज़र जाते हैं. एक बार वह खुद ही झीने कपडे पहन कर पहल भी करती है लेकिन वह उसे धक्का देकर भाग जाता है. वह जानने की कोशिश भी करती है कि उसके जीवन में कोई और औरत तो नहीं है. बाद में रेहान अपने एक दोस्त, सज्जाद, को घर लाने लगता है लेकिन नसरीन को उनपर शक नहीं होता. एक दिन वह उनको एक साथ कमरे में देख लेती है. गिर कर बेहोश हो जाती है. पूरा घर ही इकट्ठा हो जाता है. होश में आने पर नसरीन कहती है, “एक आदमी को मेरी सौत बना दिए तुम…. क्या कमी थी मुझमें…”
रेहान रोने लगता है और उसे बताता है कि वह गे कैसे बना. रेहान की सफाई उसकी सिसकियों के साथ निकल रही थी-
“बचपन से लड़कियों के साथ पला-बढ़ा. जब पैदा हुआ तो मेरी आठों बहनों ने हाथों-हाथ लिया. सब कहते हैं बहुत खूबसूरत बच्चा था मैं. जब थोड़ा बड़ा हुआ तो वो सब खेल-खेल में मुझे लड़की बना देती. मुझे भी काजल, टीका लगा कर बहुत अच्छा लगता. दुपट्टे से सर ढंक कर मैं नाचता तो सभी मेरी बलैया लेते नहीं थकते. धीरे-धीरे बड़ा होता गया मगर इसकी मेरी आदत नहीं गई. मुझे लड़के पसंद आते. मैं दसवीं में था तो स्कूल का एक लड़का मुझे पसंद आ गया. हम दोनों साथ-साथ ज्यादा वक्त बिताने लगे.”
लड़कियों के साथ लड़की की तरह पाले जाने पर कोई गे बन सकता है यह सोचने वाली बात है. यही नहीं, पढी लिखी नसरीन एक थेरपिस्ट के पास भी जाती है जो रेहान से मिलती भी नहीं, मिलने की बात भी नहीं करती, लेकिन नसरीन का ही पक्ष सुन कर उसे बताती है उसका पति स्थाई रूप से ‘नपुंसक’ है! गे लोग नपुंसक होते हैं यह भी विचित्र है.
लड़कियों के साथ रहने से कोई गे नहीं बनता और समलैंगिकता नपुंसकता का पर्यायवाची नहीं है इसे समझना चाहिए.
कहानी एक मुस्लिम परिवार की है जिसमें रेहान के दादाजी की तीन बीवियों से 14 संतानें और उनके भी अनेक बच्चे हैं. कहानी में इतने पात्र और उनके आपसी रिश्ते भरे हुए हैं कि शुरू से ही कहानी बोझिल हो जाती है जिसकी ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि इतने पात्र कहानी में कोई भूमिका नहीं निभाते. यह इस पूर्वाग्रह का उद्घाटन है कि मुसलमान परिवार बहुपत्नीक और बड़े होते हैं जिसे आजकल बहुत प्रचारित किया जा रहा है.
रश्मि शर्मा की भाषा भी पहले उर्दू मिश्रित हिन्दी या हिन्दुस्तानी के बाद बहुत ही क्लिष्ट सी हिन्दी में बदल जाती है जिससे इसे पढ़ने में और भी खीझ होती है.
कहानी में अनेक त्रुटियाँ हैं. नसरीन पति को इसलिए तलाक नहीं देती कि वह नहीं चाहती कि उसके गे होने का भेद खुले जबकि परिवार उसकी इस प्रवृत्ति को जानता है और एक बार उसकी खूब पिटाई भी हो चुकी है. वह नहीं चाहती कि रेहान धारा 377 के तहत अपराधी बने. धारा 377 में समलैंगिक होना अपराध नहीं था, सोडोमी आदि अपराध था, मतलब योनि मार्ग के इतर किस्म का सम्भोग जो विषमलिंगियों में भी हो सकते हैं. जब सुप्रीम कोर्ट इसे अपराध की श्रेणी से निकाल देता है तो वह तलाक का फैसला कर लेती है!
तलाक के लिए रेहान की समलैंगिकता को वजह बताना तो ज़रूरी तो नहीं किसी और वजह से भी तो तलाक लिया जा सकता था. अदालत के फैसले का इस फैसले से रिश्ता क्या है? यही कि अब रेहान अभियुक्त नहीं होगा! यह लचर तर्क है.
इसे समलैंगिकता की कहानी क्यूँ न माना जाए जबकि रेहान का समलैंगिक होना ही कहानी का केंद्रबिंदु है और उसके बिना कहानी में टकराव आता ही नहीं? यह कहानी अपने ही अंतर्विरोधों की बलि चढ़ जाती है.
(तीन) |
समलैंगिक पुरुष से ब्याह दी गई स्त्री की कहानी कितनी दमदार हो सकती है इसकी मिसाल है किंशुक गुप्ता की कहानी, ‘सुशी गर्ल’.
‘सुशी गर्ल’ हिंदी साहित्य में पैराडाइम शिफ्ट या आमूल परिवर्तन है. यह प्रतिमान का विस्थापन करती है. इसकी अलग से गहरी विवेचना आवश्यक है जो इस लेख की परिधि से बाहर है.
कहानी में किंशुक ने समाज में छिप कर जीने को विवश समलैंगिकों की समस्या को विषमलिंगी स्त्री की समस्या बना कर स्त्री विमर्श से भी इसका नाता जोड़ दिया है और विमर्श का असली तत्व पहचान लिया है.
किंशुक ने भी समलैंगिक पुरुष से ब्याही स्त्री की कहानी पत्नी के ही ज़रिए सुनाई है. उनकी सात कहानियों में ‘सुशी गर्ल’ चुनने का एक कारण तो यही है दूसरा यह कि नफरत और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त व्यवस्था किस तरह किसीको सामान्य नहीं रहने देती इसकी इसमें गहन पड़ताल है.
विख्यात अमेरिकी प्रतिरोधी गायक पीट सीगर ने अपनी बचपन की दोस्त नोर्मा जीन के लिए एक गीत गाया था जो कालांतर में मर्लिन मुनरो के नाम से मशहूर हुई. इस सिने तारिका की विवादास्पद मौत के बाद ‘हू किल्ड नोर्मा जीन’ के नौ अंतरों में पीट सीगर ने पूरी व्यवस्था को ही कठघरे में खडा कर दिया था.
“हू किल्ड नोर्मा जीन? आई, सेड द सिटी, एज़ अ सिविक ड्यूटी, आई किल्ड नोर्मा जीन” जैसे मर्मस्पर्शी लफ़्ज़ों से शुरू होता यह गीत न प्रेमियों को बख्शता है, न त्रासदी के टूरिस्टों को, न कमीशन पाने वाले उसके एजेंटों को, न प्रेस को, किसीको भी नहीं जिनकी रोज़ी रोटी का आधार थी मर्लिन मुनरो.
इसी तरह ‘सुशी गर्ल’ एक छोटी कहानी में पूरी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर देती है. समलैंगिक पति के साथ अपने अनुभव की कहानी सुनाती हुई पत्नी किसी को नहीं बख्शती, न समाज में प्रचलित दैहिक सौंदर्य की धारणाओं को, न विवाह के उस बाज़ार को जिसमें स्त्री का प्रकट रूप उसके गुणों से अधिक महत्व रखता है, न सेक्स के खुले बाज़ार को जिसमें स्त्री देह व्यंजन की तरह परोसी जाती है, न माता पिता के लडकी ब्याहने की संस्कारिक मजबूरी को, न पति को, न उसके पुरुष प्रेमी को और न ही खुद को. कहानी में समलैंगिकता के कारणों को चीन्हने का कोई भोंडा प्रयास नहीं है न ही उनको पूरी तरह से अच्छा और सकारात्मक दिखाने का प्रयास.
कहानी एक असुंदर स्त्री डॉक्टर की है जिसे अपने एक दोस्त डॉक्टर व्योम से प्रेम हो गया है मगर वह गे है, यह वह उसे नहीं बताता. कुछ समय बाद उसीके भेजे एक और डॉक्टर श्रेय का विवाह प्रस्ताव आता है और उससे ‘मैं’ की शादी हो जाती है.
उनकी पहली रात का वर्णन यह रहा
“श्रेय के आने की आहट सुनकर मेरा शरीर सिहरन से भर गया, वासना के घोड़ों की टापें मेरे शरीर के हर पोर को बेचैनी से भर रही थीं. उसने बिना झिझके मेरा हाथ कसकर पकड़ा और जिस तरह मैं चाहती थी, जहाँ-जहाँ मैं चाहती थी, वहाँ-वहाँ अपने होंठ रखता गया. उसके शरीर में रबड़ जैसा लचीलापन था, जिसे किसी भी तरह तोड़-मरोड़ कर प्रयोग किया जा सकता हो. पर उन उत्तेजना भरे, उत्तप्त क्षणों में उसमें कोई आवेग नहीं, एक बाँध जैसा अविश्वसनीय ठहराव, जैसे वह कोई काम जल्दी-से खत्म करना चाहता हो.”
श्रेय ‘नपुंसक’ नहीं है पर उसकी अनिच्छा की बारीक समझ ही आवेग के क्षण में बाँध का ठहराव ला सकती है. पाठक को कहानी शुरू में समझने नहीं देती कि ऐसा क्यों है. इसका रहस्योद्घाटन तो बाद में होगा. कुछ समय बाद व्योम उनके नर्सिंग होम में न्यूरोलोजी का केम्प लगाने आता है और उन्हीं के घर में रहता है. श्रेय और व्योम पुराने प्रेमी हैं और लम्बे अरसे तक दूर रहने की कोशिश के बाद प्यार की तड़प व्योम को यहाँ ले आई है जिससे शुरू में उसके कैम्प के प्रस्ताव पर श्रेय ज़्यादा खुश नहीं हुआ था. दोनों की नजदीकियां बढ़ती जाती हैं, पत्नी को पता चलता है और वह व्योम पर यौन आक्रमण कर देती है. तब उसे पता चलता है कि यह शादी, यह कैम्प, सब उन दोनों की योजना का अंग था. अब श्रेय से उसका रिश्ता टूट गया है और समय-समय पर माइग्रेन से ग्रस्त रहने वाली ‘मैं’ के पास कुछ सरदर्द और कुछ पश्चाताप बचे हैं कि श्रेय होता तो उसके लिए यह करता, वह करता.
कहानी शादी टूट जाने के बाद ‘मैं’ की ज़बानी सुनाई जा रही है. इसमें शुरू से ही उसकी यादों में उभरते कुछ वाक्य समलैंगिक पति के पक्ष के भी सूक्ष्म संकेत देती हुई आत्मनिरीक्षण के ज़रिये एंटीथीसिस की रूपरेखा देती जाती है.
“बेमौसम रिश्तों के लिए ज़रूरी है कि उसमें सब कुछ न बाँटा जाए,”
और
“रिश्ते रोशनी और अँधेरे के बीच कहीं उपजते हैं. तस्वीरों की तरह ज़्यादा रोशनी सब कुछ तबाह कर देती है”
अंतर्दृष्टि संपन्न ऐसी उक्तियाँ हैं जो इसे एक पत्नी की आपबीती से आगे ले जाकर सार्वभौमिक विचारों तक पहुंचा देती है.
इसी तरह पत्नी का यह समझ पाना कि
“मैं जानती हूँ कि अगर मैंने ऐसा किया होता और उसे पता चल जाता तो वह चुपचाप आँखें मूँद लेता,”
एक ऐसा दरवाज़ा खोलता है जिसे उसीने बंद कर दिया था. इसमें पति के व्योम के साथ संबंध का उसे पता चल जाने के बाद ना तो पति की क्षमा याचना है, न रोना धोना, न ही अपनी बात गुप्त रखने का अनुरोध.
हनीमून के दौरान थाईलैंड के खुले सेक्स बाज़ार में यही पत्नी एक ‘सुशी गर्ल’ को देखती है जिसकी देह पर सुशी सजे हुए हैं जिन्हें लपलपाती जीभ से पुरुष ग्राहक खा रहे हैं, ‘मैं’ का उसके प्रति हिकारत और उस लडकी की पनियाई आँखें और अंत में उसे याद करते हुए ‘मैं’ को लगना कि उससे तो वह सुशी गर्ल ही बेहतर है, महज़ डीटेल्स नहीं कहानी की आत्मा का अंग है. कहानी का शीर्षक इसीसे सार्थक होता है.
‘सुशी’ कौन है? विवाह मंडी में सजा कर पेश की जा रही स्त्री या बाज़ार में देह बन कर बिकने वाली? दोनों को ही यह व्यवस्था अपना रास्ता चुनने नहीं देती और दोनों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करती हुई आत्म निर्णय के अधिकार से वंचित करती है जबकि ‘मैं’ यह समझ नहीं पाती, उसे लगता है कि सुशी गर्ल की स्थिति उससे बेहतर है.
पात्रों के दृष्टिकोण को संरचना में निहित दृष्टिकोण से अलग रखते हुए आपस में गूंथने की यह कला भी कहानी को नया ही आयाम देती है.
विषमलिंगी पत्नी के दृष्टिकोण से सुनाई गई कहानी में अपने पर किये गए ज़ुल्म के प्रति क्रोध और क्षोभ के बावजूद समलैंगिक संबंध के प्रति सहानुभूति का समावेश है जो व्यवस्था के प्रभाव को उद्घाटित करके अंत में उसीको ज़िम्मेदार ठहराता है. पश्चाताप की घड़ी में भी उसका अपने लिए ज़्यादा दुखी रहना कि अब उसकी देखरेख के लिए पति नहीं है, विषमलिंगी के भाव परिवर्तन की सीमा तय करता है, उसमें अभी समानुभूति नहीं है, उसकी यात्रा लम्बी है.
सिमोन द बौउवा का थीसिस है कि दमित को बाहर करना असल में वर्चस्वधारी की समस्या है. स्त्री को बाहर करके पितृसत्ता अपनी समस्या को उनपर थोपती है, इलाज पितृसत्ता का होना होगा. इसी तरह समलैंगिकों को बाहर करके विषमलिंगी संबंधों का मानक उनपर थोप कर पितृसत्ता इसे समलैंगिकों की समस्या बनाने की कोशिश करती है. इस थीसिस को सन्दर्भ रखते हुए पढ़ें तो ‘सुशी गर्ल’ विरल एंटीथीसिस देती है.
(चार) |
‘कथादेश’ के नवम्बर 2022 अंक में छपी मिथिलेश प्रियदर्शी की ‘रकीब’ सुशी गर्ल से बड़े फलक पर है और पूरी सामाजिक राजनीतिक दृश्यावली को साथ लेकर चलने वाली कहानी है. यह अपने किस्म की अलग कहानी है और ऊपर दिए किसी भी खांचे में नहीं बैठती. लम्बी कहानी कई मायनों में महत्वपूर्ण है. यह सिर्फ यौन उन्मुखता पर और उसे स्वीकारे जाने की कोशिश पर केन्द्रित नहीं है, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जीवन और आन्दोलन को अपनी हद में शामिल करती है और गे पात्रों को न्याय की व्यापक लड़ाई का हिस्सा बना देती है.
“कहते हैं मृत्यु के बाद आत्मा किसी नए शरीर को धारण करती है. मृत्यु और प्रेम में यही समानता है. प्रेम भी मरने के बाद किसी नए शरीर में पनाह पाता है. फिर यहाँ से जन्म होता है एक रकीब का. कोई चाहे ना चाहे, देर-सवेर उसके हिस्से यह आना ही है. मेरे हिस्से भी आया और जब आया मुझ जैसे कागज़ के नाव को डुबोकर अपने साथ ले गया.”
प्रथम वचन में लिखी कहानी इन मर्मभेदी शब्दों से शुरू होती अपने वाचक, अंसल, की मनस्थिति में प्रवेश द्वार खोलती है. उसका प्रेमी, एफिल, एक मेसेज भेज कर उससे रिश्ता तोड़ चुका है और अंसल अपनी मित्र दिवि के एक मुसलमान प्रेमी, नसीर, से शादी की दावत में अपने उसी रकीब से टकरा जाता है जिसके लिए एफिल ने उसे इतनी बेदर्दी से छोड़ दिया था.
“मेरे दोस्तों को लगता था, मैं अपने अतीत से उबर चुका हूँ. मुझे भी यही लगता था, यह मिट्टी में प्लास्टिक दफनाने की तरह था. कितने भी साल गुज़र जाएँ, उसे उसी हालत में रहना था.”
इसके बाद शुरू होता है अंसल का अपने पूर्व प्रेमी के प्रेमी के प्रति ऐसा जुनून जिसका अंत जेल में होता है. ऐसा जुनून की वहशत में जाने अनजाने किये गए किसी हरकत की वजह से नहीं बल्कि जुनून के कारण ही राजनीतिक आन्दोलन में जाने के नतीजे के तौर पर होता है.
कहानी राजनीतिक सामाजिक सरोकारों से जुड़े आन्दोलनरत युवाओं और पेशेवरों की दुनिया से परिचय कराती हुई राजनीतिक आंदोलनों की गहरी समझ से ओतप्रोत है. इसमें किसी भी सारोकार को एनजीओ के नाम से निपटा देने का सतहीपन नहीं है जो अनेक कहानियों में देखने को मिल रहा है. इसके पात्र एक्टिविस्ट नहीं हैं, कार्यकर्ता हैं.
आन्दोलनकारियों के लिए ‘एक्टिविस्ट’ शब्द का इस्तेमाल लगभग सौ साल पहले ही शुरू हुआ. आन्दोलनों में अपनी भागीदारी के कारण मुझे याद है कि भारत में यह शब्द 1980 के दशक में सुना जाने लगा और कालांतर में एनजीओ के पदार्पण के साथ प्रचलन में आया जब भारत में अमेरिकी शब्दावलियों ने ब्रितानी भाषा की जगह लेना शुरू किया.
‘रकीब’ के पात्र सचमुच आंदोलनों से जुड़े हैं, इसके लिए किसी विदेशी एजंसी से तनख्वाह नहीं लेते, अपनी नौकरियां करते हैं और स्वयंसेवी कार्यकर्ता हैं जो अपने विश्वासों और विचारधारा के क्रियान्वयन के लिए नौकरियों के बाद मनोयोग से जुटे रहते हैं.
यह दुनिया आज अपरिचित है और इसका बिना भाषणबाज़ी वर्णन कहानी को विशिष्टता प्रदान करता है. इसमें प्रगतीशील विचारों के लोगों का एक छोटा सा दायरा है, जिसमें कई धर्मों के लोग हैं और इसीमें अंसल को अपने सबसे अच्छे दोस्त मिले हैं हालांकि वह किसी आन्दोलन से नहीं जुड़ा है, जुड़ना चाहता भी नहीं, और बाद में आईबी या इंटेलिजेंस ब्यूरो में अस्थाई नौकरी पर भी लग जाता है.
शुरू में भाषा अपना सौन्दर्य सामाजिक संदर्भ से, पेशे की बारीकियों, से प्राप्त करती है. आईबी के फोरेंसिक विभाग में कांट्रेक्ट पर काम कर रहे अंसल का भूतपूर्व प्रेमी, एफिल, बंगाल से आया भोजनप्रेमी है और दिल्ली के रंगमंच का सितारा है. अंसल उसके लिए बंगाली भोजन लेकर जाता है, बांगला भाषा, अभिनय और निर्देशन सीखने लगता है.
“मैं वह सब सीख रहा था जिसमें उसकी पहले से मास्टरी थी. मैं वह सब तो सीख ही नहीं रहा था, जिससे उसे चौंका सकूं. मैंने ऐसा कोई हुनर, कोई काबिलीयत कोई ऐसी विशेषता खुद के भीतर विकसित नहीं की जिससे वह मुझ पर रीझ जाए…गिटार ही सीख लेना चाहिए था…”
एक रीझे प्रेमी को यह सब बाद में ही सूझता है. जिससे प्यार हो उसे अपने पर वरीयता देने की ऐसी कोमलता का मिथिलेश बहुत सुंदर विवरण देते हैं. फोरेंसिक विज्ञान, मोटरसाइकिल के पुर्ज़े अलग करके उनको जोड़ लेने के उसके हुनर में एफिल को कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह तो अपने घर को छोड़ कर किसी प्रेमी से मिलने भी नहीं जाता. एफिल की आत्ममुग्धता और भी उभर कर आती तो उसका चरित्र और पुख्ता होता. कला की दुनिया और विज्ञान की दुनिया के बीच की दूरी भी कहानी बहुत अच्छे से पेश करती है.
एफिल के नए प्रेमी सुशांत को देखने के बाद यही अंसल अपने रकीब का पीछा करने लगता है, मकान बदल कर उसीके मकान के सामने रहने लगता है, उसके अड्डों पर बैठने लगता है और अंततः एक दिन शाहीन बाग़ के आन्दोलन में यह सोच कर पहुंचता है कि उसे लगता है कि एफिल भी वहाँ होगा. वह उनको खबर भी देता है कि जल्दी ही 24 फरवरी को दंगे होंगे. कोई उसपर विश्वास नहीं करता. दंगे हो जाते हैं. शाहीन बाग़ के मंच पर उसकी तस्वीर देखने के बाद दफ्तर में जवाब तलब के बाद उसे नौकरी से निकाल कर कई धाराओं के तहत जेल भी भेज दिया जाता है जहाँ बाद में सुशांत और नसीर भी आते हैं जहाँ अंततः रकीब अपना हो जाता है.
इतने जानदार कथानक के होते हुए भी मिथिलेश की कहानी में कई झोल हैं. कहीं भी एफिल से बेइंतहा प्यार कर रहे अंसल को सुशांत को एफिल से छीन कर प्रतिशोध का ख्याल भी नहीं आता जबकि यही उसे सुशांत के बारे में सब कुछ जानने के लिए उकसा सकता था. अंसल जब शुरु में अपने रकीब का वर्णन करता है तब भी उसमें उसकी निंदा का भाव, रकीब की कमज़ोरी का पता लगाने और उससे बदला लेने की भावना नहीं है. ऐसा होता तो इसे कुछ हद तक प्रामाणिक बनाया जा सकता था. सुशांत की परिपक्वता, अनेक विषयों की उसकी गहरी समझ, उसकी बौद्धिकता उसके प्रति चिढ ही उपजाती है. यह पात्र इसमें सचमुच चरित्र बनकर नहीं उभरता. सुशांत में कुछ त्रुटियाँ उसका मानवीकरण तो करतीं हैं. अंसल का एफिल के बजाय सुशांत के प्रति जनून भी समझ से परे है.
राजनीतिक आंदोलनों का इतना विश्वसनीय चित्र खींचने वाले मिथिलेश, अंसल को जेल भिजवाने की ज़रूरत के चलते यहाँ भी लड़खड़ा जाते हैं. एक आईबी के अधिकारी को शाहीन बाग़ के आन्दोलन में आसानी से कबूल कर लिया जाना तो बिलकुल गले नहीं उतरता वह भी सिर्फ दिवि के एक बार इतना भर कह देने से कि यह अच्छा बच्चा है. शाहीन बाग़ के मंच पर आन्दोलन की नेत्रियों का कड़ा पहरा था और किसीको बिना छान बीन के उसपर चढ़ने नहीं दिया जाता था. कहानी में यथार्थ की संभावनाओं को शामिल किया जा सकता है, उससे छूट भी ली जा सकती है लेकिन इसके लिए लेखकीय कौशल ही नहीं अद्भुत कल्पनाशक्ति की आवश्यकता होती है. एक आईबी के अधिकारी के शाहीन बाग़ के मंच पर चढ़ जाने को विश्वसनीय बनाने के लिए कहानी को बहुत मशक्कत की ज़रूरत थी.
इसी तरह जब दिवि मुसलमान से शादी के बाद आक्रमण के डर से कहीं छिपी बैठी है तब अंसल का उसे खोज निकालना और उसके पास पहुँच जाना तो स्वाभाविक है लेकिन वहाँ दिवि के डर को सिर्फ उसके हंसी-हंसी में कहे गए कुछ वाक्यों में निपटा देना कृत्रिम प्रतीत होता है. अंसल का वहाँ दिवि से एफिल और सुशांत की पहली मुलाकात की बाबत पूछने पर जिस तरह एफिल और सुशांत के प्रेम की कहानी एक लम्बे पैरा में सुनाई गई है वह एक उबाऊ रिपोर्ट से ज़्यादा कुछ नहीं है, जिसमें भाषा भी बोलचाल की स्वाभाविकता की पटरी से खिसक जाती है. यह शुरुआती भाषाई सौन्दर्य से उपजी अपेक्षाओं पर तुषारापात है.
एक उपन्यास के विषय को कहानी में समेटने के लिए अनेक प्रसंगों को काटने की निर्ममता भी लेखक में होनी चाहिए. मिथिलेश उपन्यास को कहानी बना डालने के फैसले के बाद समानान्तर चल रही प्रवृत्तियों और तरह- तरह के आंदोलनों को इसमें शामिल करने के मोह से बच नहीं पाए हैं. जेएनयू में फीस बढ़ोतरी के खिलाफ आन्दोलन, पुलिसिया मार-पीट और शाहीन बाग़, दिवि की शादी के बाद दोनों का छिपते फिरना, फिर शाहीन बाग़ में खुल कर सामने आ जाना, यह सब जेल में रकीबों की मुलाकात का दृश्य रचने के लिए ज़रूरी नहीं था. लेखक ने अपनी इस महत्वाकांक्षा को कुछ लगाम दी होते तो कहानी बेहतर हो सकती थी.
कहानी में और भी अंतर्विरोध हैं. अंसल कभी भी एफिल से मिलकर नहीं जानना चाहता कि वह उसे छोड़ कर क्यों गया? क्या कोई और मिल गया है? वह इसे अपना भाग्य मान कर चुप ही बैठा है. इस निष्क्रियता के मुकाबले सुशांत से मिलने के बाद की अति सक्रियता के लिए उसकी जिस मन:स्थिति का वर्णन चाहिए था वह इसमें नहीं है. क्या अब उसे सुशांत के प्रति घोर आकर्षण महसूस हुआ जो प्यार में ठुकराए जाने के बाद होता है और उसे बाद में पता चला कि यह तो एफिल का प्रेमी है? इसके उलट शुरू में ही उसे सुशांत के रकीब होने की खबर मिल जाती है. सुशांत को देखने के बाद जलन का तो वर्णन है लेकिन यह जलन रकीब के दरवाज़े ले जायेगी, भूतपूर्व प्रेमी के दरवाज़े नहीं इस पर यकीन मुश्किल है. यह सब अंत तक आते-आते कथन को बहुत कमज़ोर बना देते हैं.
इसी से कहानी बेवजह लम्बी होने का एहसास सा दिलाती है क्योंकि इसमें अंसल के अंतर्मन और वाह्य परिस्थितियों के बीच कोई संतुलन नहीं है और अंत तक आते-आते कहानी हडबडी का शिकार हो जाती है.
बौद्धिक रूप से संपन्न लेखक भी थीसिस एंटीथीसिस के इस स्वरूप को कितने सतही तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं इसकी मिसाल है ‘रकीब’ जिसमें प्रेमी अपने रकीब का एंटीथीसिस बन कर अंत में सिंथेसिस के प्रतीक रूप में उसके करीब आ जाता है. कहानी के विषय के निर्वाह में इसके सिवाय कोई चारा नहीं रहता.
शायद इसलिये मनोविज्ञान की अनेक बारीकियां लेखक से छूट ही जाती हैं. सुशांत का इस हद तक अच्छा और संवेदनशील होना, यह जानते हुए कि अंसल एफिल का पुराना प्रेमी है उसका कभी सामना नहीं करना, उससे द्वेष या ईर्ष्या नहीं करना, कभी नहीं अचकचाना, कभी कन्नी नहीं काटना, कभी अहंकार महसूस नहीं करना कि एफिल का पूर्व प्रेमी उस पर नज़र रखे हुए है, इतना इगो-रहित होना उसे एक महामानव बना देता है. काश मिथिलेश उसे वेनगार्ड बनाने के बजाय इंसान बनाते.
(पांच) |
इसके मुकाबले शुभम नेगी की दोनों कहानियाँ छोटी हैं, ‘परछाईं’ ‘हंस’ के मई 2022 में छपी और हंस कथा सम्मान में इस कहानी को एक तरह का सांत्वना सम्मान मिला. दूसरी कहानी ‘टिफिन के माले’ इंडिया टुडे’ के साहित्य वार्षिकी 2023-2024 में छपी है.
‘परछाईं’ में विवरण अधिक और घटनाक्रम नहीं के बराबर है. ‘टिफिन के माले’ इसके उलट घटनाओं से पटा पड़ा है.
“इंसान से ज़्यादा होटल का कोरिडोर बन चुका था वह. उसके अन्दर सीधे रास्ते का अंत एक दीवार थी जिसे न वह लांघ सकता था, न ही वहाँ से कूद कर जान दी जा सकती थी. दायें बाएं कुछ कमरे खुलते थे. सबमें अलग- अलग संसार. एक संसार की भनक बगल के घुटते दूसरे संसार तक को नहीं पहुँचती थी इंसान कम होटल का कोरिडोर ज़्यादा. कोई उसे देखकर नहीं कह सकता था कि इतने कमरे उसके व्यक्तित्व का भाग हैं.”
विषमलिंगी दुनिया में कमरे से वंचित समलैंगिक कोरिडोर में खींच लेने वाले इन शब्दों से शुरू होती ‘परछाईं’ किसी गहरे रहस्य, किसी बहुत गहरे द्वंद्व, व्यथा या संताप के उद्घाटन का वादा करती है.
कहानी थर्ड पर्सन में है लेकिन ‘वह’ का कोई नाम नहीं है. वह होटल में आया है मानव से मिलने, यह भी शायद प्रतीकात्मक ही है कि ‘वह’ अनाम है और जिससे मिलने जा रहा है वह ‘मानव’ है जो कई निशर्त, केज़ुअल सेक्स की घटनाओं के बाद आखिर मिल ही गया. ‘वह’ हमेशा ही डरता है कि इस तरह अजनबियों से होटल में मिलना कहीं कोई साज़िश तो नहीं है उसे ‘रंगे हाथों’ पकड़ने की?
“कोई अपराधी था क्या वह”. यह डर “उसकी दिनचर्या का अटूट हिस्सा था. उसकी हर सांस एक तिहाई जीवन के साथ दो तिहाई त्रास बन चुकी थी.” इतना त्रास, ऐसी दिनचर्या, होटल जाते समय भी डर कि टैक्सी ड्राइवर कहीं भांप न ले ऐसे विवरण कहानी में कुछ आश्चर्यजनक घटने की ऐसी अपेक्षा जगाती है कि आप सांस रोक लें. यह डर और आशंका आगे होटल में रिसेप्शनिस्ट के सामने लोप है (उससे तो सामना भी नहीं होता) जबकि कमरे में बत्तियां बुझा कर मोबाइल घुमा कर ‘वह’ देखता है कि कोई छुपा कैमरा तो नहीं है. यह छोटा सा हिस्सा सतर्कता दर्शाता है वरना लेखक ही बताता रहता है कि ‘वह’ डर रहा है. न पसीने छूट रहे हैं, न धड़कन बढ़ रही है, न सांस फूल रही है, न बहुत प्यास लग रही है. अपना यह सच छिपाने के लिए वह कॉलेज के दोस्त के होमोफोबिक बातें करने पर कोई घटिया सा जोक उगल देता था, यह भी वर्णन में ही है. कहानी में कोई क्रियात्मकता है ही नहीं, कम से कोई ऐसा जोक तो शामिल किया जा सकता था जो सामाजिक पूर्वाग्रह का भांडा फोड़ता.
कोरिडोर का यह सीधा रास्ता स्ट्रेट या विषमलिंगी संबंधों के बीच का कोरिडोर है जिसके दोनों तरफ मान्यता प्राप्त रिश्तों के कमरों की बहुतायत है. यह उसके जीवन के अलग-अलग हिस्से हैं कुछ माता पिता के साथ के, कुछ दोस्तों के साथ, कुछ अजनबियों के साथ जिनसे पाला पड़ता है और कुछ होटल के कमरे में समय-समय पर निशर्त यौन संबंध के लिए मिलने वालों के साथ. अपेक्षा जगती है कि कुछ कमरे खुलेंगे, उनकी दुनियाओं की झलक मिलेगी और अंत में आप वर्जनाओं की उस दीवार तक पहुंचेंगे जिसे न आप लांघ पायेंगे न तोड़ पायेंगे लेकिन शायद अंततः कहानी का प्रभाव उसमें आपसे सेंध तो लगवा ही देगा.
पर होता क्या है? मानव शादी शुदा निकलता है जो शादी तोड़ना नहीं चाहता और उसे यौन सुख देने के बाद खुद उससे कुछ नहीं चाहता तो फिर वह आया क्यों था? क्या उसे ‘वह’ से इतना लगाव हो गया था कि कम से कम एक बार की दैहिक अंतरंगता के बिना, उसे अपने होंठों और अंगुलियों, अपने मुख से सहलाए बिना वह जी नहीं सकता था? अगर ऐसा नहीं था, सिर्फ यौन सुख चाहिये था तो मानव को शादी शुदा होने से इतनी दुविधा क्यों हो रही थी? कहीं संकेत नहीं है कि दोनों अब प्रतिबद्ध होने की कगार पर खड़े हैं. मानव ‘वह’ से कहता है कि वह शादी तोड़ना नहीं चाहता, आखिर इसमें पत्नी का क्या कसूर है?
मतलब कसूर न हो तो आप अलग नहीं हो सकते? एक युवा की यह सोच भी निराश ही करती है जबकि आजकल एक दूसरे को दोष रहित रख कर भी साथ न रह पाने की वजह से तलाक हो रहे हैं और यहाँ तो वजह भी है.
‘वह’ मानव को उसे गले लगाकर सांत्वना देता है क्योंकि उसने सुना है कि गले लगाने से जान बचाई जा सकती है. कहाँ सुना? कहीं मुन्ना भाई एमबीबीएस की ‘जादू की झप्पी’ का अनुवाद तो नहीं है यह? ऐसे अचानक मानव के दूर छिटक जाने के तुरंत बाद ‘वह’ का मानव को झप्पी देना भी अविश्वसनीय ही लगता है.
कोरिडोर का बिम्ब अच्छा तो है लेकिन इसका निर्वाह लेखक कर पाते तभी वह अर्थपूर्ण हो सकता था.
शुरुआती वादे के बाद कहानी की भाषा बोझिल हो जाती है. इसमें वह स्वतः स्फूर्त सहजता बनी नहीं रह पाती जो परकाया प्रवेश के बाद ही आती है.
एक संसर्ग की छोटी सी घटना का बारीक और विस्तृत विवेचन भी मनोविज्ञान के अनेक पहलू खोलते हुए कहानी को अनुभव में परिवर्तित कर सकती है लेकिन लेखक उसे खुद समझ ले तभी तो यह हो सकता है.
शुभम नेगी की दूसरी कहानी, ‘टिफ़िन के माले’ यह सवाल उठाता है कि इसे समलैंगिक कहानी की श्रेणी में रखा जाए या नहीं. यह एक स्कूल के हॉस्टल की डोरमिट्री में कई सीनियर द्वारा समलैंगिक उत्पीडन की कहानी है जो किस्स या दांत गड़ाने से आगे नहीं बढ़ती. इस कहानी में स्टील के ‘टिफिन के माले’ के प्रतीक के मायने ही समझ में नहीं आते क्योंकि हॉस्टल में रहने वाला कोई छात्र टिफिन तो लाता नहीं. क्योंकर वह टिफिन से सारे दुःख जोड़ रहा है समझ से परे है. शायद हॉस्टल ही टिफिन का बक्सा है लेकिन कहानी ऐसा एहसास नहीं दिलाती. शुरुआती हिस्से के बाद टिफिन के माले ही कहानी में आते रहते हैं और हर माले में एक और हॉस्टलमेट के हाथों ‘मैं’ का यौन उत्पीड़न या हरासमेंट होता रहता है.
कहानी प्रथम वचन में है और ‘मैं’ कई सालों बाद अपने अतीत को याद कर रहा है. अगर वह बचपन के इस यौन उत्पीड़न के कारण किसी तरह के मनोविकार से ग्रस्त हुआ है, अलगाव महसूस कर रहा है, समाज के किसी हिस्से के प्रति नफरत या अदम्य क्रोध से भरा हुआ है या कभी किसी भी स्थिति में ‘सामान्य’ नहीं रह पाता तो यह सब कहानी में नहीं है.
वह हॉस्टल में रहता था और डोरमिट्री बदलने पर कोई सीनियर उसमें प्रकट होता है और उसके अत्यधिक गोरे रंग में ढली सुन्दरता पर मोहित होता उसे किस्स करता रहता है. यह सोने के बदलते कमरे ही टिफिन के माले हैं. ‘मैं’ इन सीनियरों की शिकायत नहीं करता, उनका कहा मानता रहता है और इस तरह हॉस्टल में सर्वाइव करता है जिससे खीझ कर उसका सबसे अच्छा दोस्त ‘सुमन’ भी अंत में उससे नाराज़ रहने लगता है. चौथे माले में सुमन एक रात ‘मैं’ के ऊपर चढ़ बैठता है. उसका लिंग हाथों में होता है और वह उसे ‘मैं’ के मुंह से उसे रगड़ने की कोशिश कर रहा होता है. ‘मैं’ उसे धक्का दे देता है.
“टिफिन के अन्दर असंख्य माले हैं. मालों में मेरे असंख्य अतीत. अतीत में असंख्य दुःख. दुखों के असंख्य टुकड़ों में कटा पडा मैं.”
इन शब्दों के साथ ख़त्म होती कहानी इसे पढ़ने के दुःख से छुटकारा दिला ही देती है.
शुभम की कहानियों की समस्या यह है कि उनमें शुरू से अंत तक एक ही भाव प्रभावी रहता है और इसी कारण कहानी बोझिल हो जाती है. उनकी पहली कहानी में सिर्फ डर ही डर है, दूसरी में दुःख ही दुःख मानो समलिंगियों के जीवन में और कोई भाव ही न हो. दिल्ली जैसे महाननगर में जहाँ अब इसपर कुछ खुलापन आ गया है इतना डर बचा भी नहीं है. इसके अलावा उनके जीवन में सिर्फ सेक्स तो नहीं होता, और भी बहुत कुछ होता है और कहानियाँ सिर्फ उसी एक पक्ष पर केन्द्रित रहकर जीवन के अनुभव को ही संकुचित करके पेश करती हैं. उस पक्ष की भूमिका अहम् होती है लेकिन उसे सन्दर्भ से काटने की वजह से कहानियाँ एकरेखीय और उबाऊ हो जाती हैं.
(छह) |
इसकी तरह ही ‘परिंदे’ के अगस्त सितम्बर अंक में छपी योगिता यादव की कहानी ‘शहद का छत्ता’ भी सेक्सुअल हरासमेंट पर है. पर इनकी समानता यहीं तक है.
यह किसी गारमेंट डिज़ाईनर कंपनी में काम कर रही श्रुति और उसके मैनेजर की है जिसमें बॉस देबोमिता सरकार लेस्बियन है और उसपर डोरे डालती रहती है. शहद के छत्ते के बिम्ब शुरू में प्रस्तुत करने वाली कहानी बड़े शहर में लड़कियों के छोटे होते जाते परिधानों, नूडल स्ट्रैप और बेहद महंगे कपड़ों आदि के ज़रिये ताज़ा फैशन पर छींटाकशी भी करती है जिसका मुख्य विषय से कोई ताल्लुक है तो बस इतना कि इससे पता चले स्त्रियाँ अब कितनी आज़ाद हो गईं हैं.
बॉस देबोमिता सरकार के डी एम सरकार बनकर अपने स्त्रीत्व को नकारने को श्रुति बड़े विद्रूप से नोट करती है. कहानी श्रुति के नज़रिए से कही गई है. डी एम का आजकल मतलब ‘डायरेक्ट मेसेज’ होता है और यह कोड बड़ी सूझ बूझ से चुना गया है. दफ्तर में उसकी मैनेजर डी एम उसे तरह-तरह से पटाने में लगी है. उसकी देह से जो दुर्गन्ध दफ्तर में औरों को महसूस नहीं होती श्रुति को ही महसूस होती है, शायद इस वजह से कि डी एम के इस यौन हरासमेंट के बारे में किसी और को कुछ भी मालूम नहीं है. यह है मज़दूर मधुमक्खियों की सहकारिता!
अन्य कार्मिकों के छोटे परिधानों के बरक्स डी एम का ढीली ढाली पेंट और शर्ट पहनना, घड़ी के अलावा कोई ज़ेवर नहीं पहनना उसके पुरुष की भूमिका को रेखांकित करता है. बात-बात पर श्रुति को उसकी देह की दुर्गन्ध महसूसना, सांस रोक लेना या उसके प्लेट में से डी एम के पास्ता खाने पर आई उबकाई जैसे प्रसंगों से एक स्त्री के पुरुष की भूमिका अपनाने वाली लेस्बियन ‘बुच’ की ‘विकृति’ को जतला कर उसके प्रति वितृष्णा का ही वर्णन है. अगर डी एम को इस कदर नापसंद होने लायक बनाना एक विषमलिंगी श्रुति का नज़रिया ही होता जिसका विश्लेषण कहानी को करना था, इस तनाव को चित्रित करना इसका ध्येय था, तो डीएम या लेस्बियन का पक्ष क्योंकर सामने नहीं आता? उसकी यौन प्रकृति पर दफ्तर में कोई बात न होना, किसीका उसकी यौन प्रकृति पर कोई टीका न करना भी लेखकीय दृष्टि में लेस्बियन स्त्री के प्रति सहानुभूति के अभाव को ही प्रकट करता है. कहानी में प्रस्तुत डीएम की पूरी तरह से नकारात्मक छवि को सिर्फ श्रुति के शब्दों में यह कहकर ढंका नहीं जा सकता कि
“आखिर सबकी अपनी यौन प्राथमिकता हो सकती है.”
यहाँ इस बात से इनकार नहीं कि लेस्बियन या गे यौन आक्रमण नहीं कर सकते, कर सकते हैं, लेकिन इस समाज में जहाँ किसी लेस्बियन के लिए खुल कर सामने आना मुश्किल है डी एम का दफ्तर में ऐसा खुला प्रस्ताव जो उसके स्टेटस को, उसकी नौकरी को भी खतरे में डाल देगा, परोक्ष रूप से इनकार सुनने के बाद भी अपना आकर्षण जतलाते जाना पूरी तरह अविश्वसनीय है. उसे श्रुति से बेहद प्यार है इसका भी इसमें कोई संकेत नहीं है. इसके उलट वह कहती है है उसे सिर्फ कुछ ‘प्लेज़र’ चाहिए. उसे सिर्फ और सिर्फ अपने पावर को इस्तेमाल करने वाली के रूप में पेश किया गया है जिसमें कोई मानवीय भावना नहीं है. यह एकांगी दृष्टि कहानी की रीढ़ को विकसित ही होने नहीं देती जबकि श्रुति डार्विन को याद करके पूछ रही है, कि ‘फिटेस्ट ऑफ़ सर्वाइवल’ (असल में सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट जो कि डार्विन ने अपने तकनीकी पेपर में इस्तेमाल किया था) की गूढ़ थीसिस देने वाले यह कैसे भूल गए कि इंसानों में रीढ़ की हड्डी भी होती है?’
श्रुति रीढ़ की हड्डी से संपन्न है तो डी एम, जो इस पुरुष प्रधान व्यवस्था में एक ऐसा उपक्रम चला रही है जिसमें कइयों को नौकरी मिली है, क्या रीढ़ की हड्डी रहित है? यह रीढ़ की हड्डी नहीं दिखती, दिखती है सिर्फ उसका लिजलिजापन जो उसके सिगरेट पीने वाली ‘कूल’ स्त्री की छवि के बावजूद महसूस की जाती है. वर्गीय तनाव सिरे से गायब है. सिर्फ डी एम की लिजलिजी वासना का वर्णन और श्रुति का उसे ‘नीच औरत’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल. जब श्रुति उसे बताती है कि उसे वह ‘हर्ट’ नहीं करना चाहती, ‘बट दिस इस नॉट माय प्रेफरेंस’ तो बॉस का जवाब है ‘आई लव यु एंड वांट सम प्लेज़र विद यु’. साफ़ इन्कार सुनने के बाद लव करने वाले इतना निर्लिप्त रह कर प्लेज़र की मांग नहीं करते. अस्वाभाविक संवाद या तो अनुभवहीनता का या फिर पूर्वाग्रह का संकेत होता है.
रचनाकार जो दुनिया रचता है उसमें सभी पात्रों की अपनी-अपनी जगह होती है, नकारात्मक पात्र की भी और सबको समझना उसका दायित्व है, इससे बचने का उसे अधिकार नहीं हो सकता. इसमें डी एम को समझने की योगिता यादव को कोई ज़रूरत महसूस ही नहीं होती.
अंत में डी एम सीधे श्रुति पर हाथ डालती है और उसकी चीख सुन कर कमरे के बाहर आ जुटे सभी सहकर्मियों को वह दुर्गन्ध महसूस होती है जो अब तक सिर्फ श्रुति को महसूस होती थी. यह दुर्गन्ध किस चीज़ की है? यह एक लेस्बियन की दुर्गन्ध है. अगर यह यौन हिंसा की दुर्गन्ध होती तो कहानी डीएम को कुछ सहानुभूति से पेश करके उसके चरित्र के इस पक्ष का पर्दाफाश करती.
योगिता यादव ने इसमें शहद के छत्ते का बिम्ब जाने क्यूँ इस्तेमाल किया है लेकिन अंत तक आते-आते लगता है कि लेस्बियन ‘रानी’ नहीं बन सकती और बनना चाहे तो मज़दूर मधुमक्खियाँ उसे छत्ते से खदेड़ देंगी. यहाँ मज़दूर मधुमक्खियाँ विषमलिंगी बहुमत है जो लेस्बियन अल्पसंख्या को छत्ते से खदेड़ देती हैं. इससे साफ़ होता है कि क़ानून बदलना काफी नहीं है. समझ भी बदलनी चाहिए.
(सात) |
‘लाड़ो’ मधु कांकरिया की कहानी है नया ज्ञानोदय में 2019 में छपी और इसका मूल न मिल पाने से मैंने इसका अनुवाद रुथ वनिता की किताब में पढ़ा है. जैन बन चुके रसूख वाले राजपूत घराने की वाचक की बुआ की बेटी है लाड़ो जिसने आत्महत्या कर ली. इसके पांच साल बाद एक शादी में वाचक की लाड़ो की बड़ी बहन बिमला के साथ चर्चा में ही कहानी खुलती है. पता चलता है कि लाड़ो के लेस्बियन होने से परिवार के इनकार, उसकी ज़बरदस्ती शादी करवाने, उसे अपनी मित्र, सुहानी, से अलग करने के लिए उसका तबादला बड़ोदा करवाने और उसे परिवार की अपेक्षानुसार जीने को विवश करने वाले परिवार का विवरण है. लाड़ो और सुहानी सिर्फ परछाईं की तरह आती हैं. लाड़ो के पिता राजनीतिज्ञ हैं और सुहानी को भी धमका आते हैं. लाड़ो घर वापस आकर सुहानी के मिलने से इनकार करने से त्रस्त हो कर ख़ुदकुशी कर लेती है. पूरी कहानी औरतों की निर्बलता की ही है. इसमें विरोध है भी तो आपसी बातचीत में. लाड़ो के आत्महत्या के समय लिखे ख़त से पता चलता है कि वह मानती थी कि पिता का राजनीतिज्ञ होना ही उसके लिए अभिशाप बन गया था, न वह इतने प्रभावशाली होते, न वे उसका तबादला करवा पाते, न वे सुहानी को धमका पाते.
मूल अंतर्विरोधों पर बलि चढ़ती कहानी में इस वार्ता में बिमला एक जगह कहती है कि लाड़ो तो लेस्बियन थी, सुहानी ‘नॉर्मल’ थी. ऐसा था तो सुहानी को धमकाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? उसका बाद में यह कहना कि जिस रात लाड़ो उससे मिलने गई, उस रात सुहानी ने मिलने से इनकार कर दिया जिसके कारण ही लाड़ो ने आत्महत्या की. जब सुहानी कथित नार्मल थी, और उसका लाड़ो से प्रेम संबंध था ही नहीं तो लाड़ो उससे मिलने की ज़िद पर क्यों अड़ी थी? उनका कोई लेस्बियन रिश्ता था ही नहीं, तो लाड़ो इस हद तक क्यों हताश हो गई कि ख़ुदकुशी तक पर आमादा हो गई?
लेस्बियन जीवन की समझ के बिना कहानी लिखने के लिए ही शायद लेखिका ने आपसी वार्ता का यह फॉर्म चुना है जिसमें ना लाड़ो के न सुहानी के जीवन का कोई स्पर्श है. यही नहीं, इस वार्ता में वाचक पूछती है कि इस ‘कहानी की नायिका’, सुहानी का क्या हुआ? लाड़ो की आत्महत्या पर केन्द्रित कहानी में उसकी वह सखी सुहानी जिसने उसे ठुकरा दिया और जो लेस्बियन थी ही नहीं वह नायिका कैसे बन जाती है?
यह कहानी न आत्महत्या के भीषण अनुभव को, न ही लेस्बियन को इस तरह विषमलिंगी विवाह में धकेलने के शोषण के स्वरूप की त्रासदी को महसूस करा पाती है. लगता है कि कहानी अखबार के किसी कतरन से उठा ली गई है, वह भी इतने अनगढ़ तरीके से कि शादी की गहमा गहमी, पिंक सिटी में नाच रही स्त्रियों के लहंगों की छटा आदि के फ़िज़ूल के वर्णन इसमें कुछ नहीं जोड़ पाते. शादी के संगीत की पृष्ठभूमि में इस भयानक त्रासदी का शोर बहुत प्रभावकारी हो सकता था. लेकिन इसमें न पृष्ठभूमि ही अंकित हो पाई है, न पात्रों का सजीव चित्रण है, न ही संवाद में कोई सहजता और न ही कोई प्रबल विरोधी स्वर.
(आठ) |
आकांक्षा पारे कम से कम डीटेल्स की जानकारी रखने वाली लेखिका हैं जिनकी ‘सखी-साजन’ सितम्बर 2019 के ‘वाक्’ में छपी थी. कहानी के ऊपर इबारत है ‘यह कहानी उतनी ही सच्ची जितने प्रेम में रतजगे. उतनी ही झूठी जितने प्रेम के कस्मे-वादे.’
कहानी बेला की माँ की ज़बानी सुनाई जा रही है जो शादी के दस साल बाद गर्भवती हुई अपनी बेटी, बेला, की देखभाल के लिए उसके घर आई हुई है. वहाँ उसे एक डायरी मिलती है जिससे पता चलता है उसकी हंसमुख और जिंदादिल बेटी की एक सहेली भी थी, सोनाली, जिसके पिता दूसरी शादी करके उसे और उसकी माँ को छोड़ गए थे. माँ अकेले दम बेटी सोनाली को हॉस्टल में भेज कर पालती रही. उनका तो कोई घर भी नहीं था, छुट्टियों में सोनाली नानी के घर में ही माँ से मिलती है. वह झूठ बोलती रहती है कि पापा गल्फ में नौकरी करते हैं, मगर कब घर आते हैं यह बता नहीं पाने से वह शर्मिन्दा रहती है. बेला ही उसे सच कहने का साहस देती है. बाद में नौकरी करने पर दोनों साथ रहने भी लगती हैं. इस डायरी से ही उसे पता चल रहा है कि दोनों में बे-इंतहा प्यार था. माँ को पहले सोनाली नाम का तक पता नहीं था.
डायरी के कुछ पन्नों से इस लेस्बियन रिश्ते माँ को घिन भी होती है.
“वह जब मुझे चूमती है तो लगता है मैं हवा में उड़ रही हूं. उसके कोमल हाथ जब मेरे शरीर को छूते हैं तो…”
“मुझे यह पढ़ना ही लिजलिजा अनुभव दे जाता है. उबकाई आती है. आगे पढ़ने का मन नहीं करता. यकीन नहीं होता मेरी बेटी ने किसी लड़की के साथ…”
यही माँ अपनी बेटी पर भी फैसला सुनाने से नहीं चूकती. क्या बेला ने सोनाली के भावनात्मक जीवन के रीतेपन का, परिवार पाने के उसकी चाह का फायदा उठाया था?
“आगे मैं सोच ही नहीं पाई. शायद सोचने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. खुद को नए ज़माने की मानती आई हूं. पर यह नयापन मेरे गले में फंस गया था. न रुलाई फूटती थी न आवाज़. यह बेवफाई थी, अपराध था, किसी का शोषण था, किसी की मजबूरी का फायदा था, क्या था आखिर यह. अगर मैं यह तय भी कर लेती तो क्या फर्क पड़ना था. इसकी सुनवाई तो अब कहीं नहीं हो सकती थी.”
ज़ाहिर है कि बेला शायद बाईसेक्शुअल है और दफ्तर में मिले विनीत से दोस्ती के बाद शादी भी कर लेती है. उसके माथे पर कोई शिकन नहीं. सोनाली पीछे छूट गई है. डायरी में डूडलस का सुन्दर उपयोग है. कई जगह फूलों, मकानों के रेखाचित्रों से भी भावनाएं व्यक्त होती हैं जिनका मतलब भी माँ समझाती जाती है क्योंकि प्रदीप (शायद उनका पति) इनके अर्थ समझने में माहिर है और इनकी व्याख्या उसे सिखाता रहता था.
गे प्राइड मार्च को देखने से माँ, जो वाचक भी है, बेला से पूछती भी है कि क्या यह वही लोग हैं जो लड़का लड़का और लड़की लडकी से शादी कर लेते हैं और बेला की बेरुखी उसे हैरान कर जाती है.
“डायरी के आखिरी पन्नों पर कुछ नहीं लिखा था. बस खूब सारी आंखें बनी हुई थीं. खूब सारी. इंतजार का प्रतीक पता नहीं कितनी जोड़ी आंखें. कहीं कोई चेहरा नहीं. बस आंखें बड़ी-बड़ी कजरारी सी लेकिन उदास.
“लगता था उसके शब्द चूक गए हैं. उसकी इच्छा खत्म हो गई है. उसने अपने मन को मार लिया है. कोई चित्र नहीं, कोई गोदना नहीं. बस दो पंक्तियां लिखी थीं लाल स्याही से, भूले हैं रफ्ता-रफ्ता मुद्दतों में उन्हें हम. किस्तों में खुदकुशी का मजा हमसे पूछिए.”
कहानी एकदम एकरेखीय है और एक माँ के ज़रिये अपनी बेटी पर फैसला सुनाने के बाद भी कोई तीक्ष्णता इसमें ला नहीं पाती. माँ बेटी से इस बारे में कुछ पूछती भी नहीं है न उसके इस तरह सोनाली का दिल तोड़ने के लिए कुछ कहती है. यही यौन प्रकृति के मर्म और रहस्य को खोल सकता था. मौक़ा हाथ से निकल गया. यह एक त्रासदी तो है लेकिन माँ बेटी की टकराहट से बचती हुई अपने ही पैर काट लेती है.
(नौ) |
इंडिया टुडे के साहित्य वार्षिकी में इसी साल छपी शहादत खान की ‘स्वीकृति’ समलैंगिक रेप को एक व्यक्ति के समलैंगिक बनाने के लिए ज़िम्मेदार ठहराने के निदान करती आगे उसके ‘इलाज’ की ही नहीं, इलाज के विचित्र तरीकों की कहानी कहती है. यह अपने किस्म की अलग ही कहानी है. अगर इसे गंभीर साहित्य न मान कर, दिमाग ताक पर रख कर, पढ़ा जाए तो कहानी में हंसी न रुके. पूरी कहानी में शहादत खान के अजीबोगरीब विचारों से ही सामना होता है.
होता यह है कि शुरू में ‘उसने’ किसीको बता रहा है कि 13 साल की उम्र में उसका पहली बार रेप हुआ. इस वाक्य के बाद जिसे कहानी सुनाई जा रही है वह गायब ही हो जाता है और कहानी प्रथम वचन में चलती जाती है.
“यह ऐसा सफ़र है जहाँ मेरा हमसफ़र था, जिस पर चलने की इच्छा न होने के बावजूद मैं चला भी, कम से कम भाई के आई. आई. टी से आने तक, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. बीज पड़ चुका था और पानी सूख गया था. अब नागफनी को उगने से कोई नहीं रोक सकता था.”
बीज पानी के सूखने से अंकुराया नहीं करते, नागफनी भी नहीं पर कहानी में कुछ भी हो सकता है.
क्या रेप के कारण कोई समलैंगिक बन सकता है? इस प्रश्न का उत्तर तो कठिन है, बलात्कार ऐसा पीड़ादायक अनुभव होता कि उसके कारण यौन प्रकृति बदल जाए यह संभव तो नहीं लगता. एक तरह से यह अपनी यौन प्रकृति के लिए दूसरों को ज़िम्मेदार मानने, ठहराने की प्रवृत्ति है जो अक्सर बच्चे किसी शरारत में पकड़े जाने पर किया करते हैं, जीवन के इतने अहम् और मूलभूत प्रकृति के लिए नहीं. यह समलैंगिकों की मर्यादा के भी अनुकूल नहीं है. कोई अपने बलात्कारी को कैसे ‘हमसफ़र’ कह सकता है यह भी शहादत खान ही बता सकते हैं.
समलैंगिकता को नागफनी बताने से ही लेखकीय रुख साफ़ हो जाता है जो पूरी तरह समलिंगी विरोधी नहीं है लेकिन यह समझ भी रखता है कि अब जीवन रेगिस्तान बनेगा.
परिवार को उसकी समलैंगिकता की खबर लगती है तो उसे साईकायट्रिस्ट के पास ले जाते हैं कि उसे वैज्ञानिक ढंग से विषमलिंगी बना दे. शहादत ने इतनी रीसर्च तो कर ली है कि मनोरोग पर क़ानून में 90 दिनों से ज़्यादा समय के लिए भर्ती मना है लेकिन यह पता नहीं कर पाए कि समलैंगिकता को मनोरोगों की सूची से जाने कब का हटा दिया गया है या फिर इसे कहानी में याद रखना ज़रूरी नहीं है. मरीज़ की सहमति के बिना ही डॉक्टर उसे ‘होम’ में दाखिल कर लेता है जबकि साइकायट्री का पहला उसूल ही यह है कि मरीज़ और डॉक्टर के बीच भरोसा हो और मरीज़ की इजाज़त के बिना उसका इलाज न किया जाये. (कुछ गंभीर रोगों जैसे स्किजोफ्रीनिया के बहुत बढ़ जाने पर परिवार की सहमति से इलाज किया जाता है.)
इस काल्पनिक क्लिनिक में मरीज़ के साथ हमबिस्तर होने को तैयार हर मरीज़ के लिए एक सुन्दर नर्स होती है, मानो यह उसकी नर्सिंग ड्यूटी हो. फंतासी में कुछ भी हो सकता है. असली बात है यहाँ के इलाज का तरीका. पहले महीने में किताबें पढने को दी जाती हैं, दूसरे में पोर्नोग्राफिक मूवीज़ दिखाई जाती हैं और तीसरे में सुन्दर नर्स के साथ शारीरिक संबंध बनाने को कहा जाता है. ‘मैं’ ऐसा कर नहीं पाता तो बिजली के शॉक दिए जाते हैं, दुबारा नब्बे दिनों का चक्र शुरू होने की धमकी दी जाती है. डर कर वह संबंध बना भी लेता है.
इसके बाद घर लौटा ‘मैं’ काफी चतुर हो गया है. अनेक लड़कियों से दोस्ती करता है, उन्हें घर भी लाने लगता है जिससे उसके ‘ठीक हो जाने’ पर मोहल्ले वाले भी यकीन करने लगते हैं. मगर एक दिन उसका भाई उसे एक लड़के के साथ हमबिस्तर हुआ देख लेता है. इस बार उसे एक जंगल में बने मदरसे में भेज दिया जाता है जहाँ मौलाना अपने खिदमतगारों के साथ अपनी शारीरिक भूख भी शांत कर लिया करते हैं. यह नेरेटर भी इस तरह कई बार उनका ‘शिकार’ हो जाता है. एक दिन चंदा मांग कर लौटते हुए जंगल में उसे गुंडे घेर लेते हैं, चंदे का धन लूट कर उसे गेंग रेप करके पैर में छुरा भोंक देते हैं जहाँ मदरसे ने लोकेशन डिवाइस बाँध रखी थी जिसे वे काट नहीं पाते. उसकी आँख एक अस्पताल में खुलती है जहाँ परिवार भी है, पुलिस भी. कहानी इन शब्दों के साथ ख़त्म होती है,
“मेरे सामने …पुलिस इन्स्पेक्टर बैठा था, जो जानना चाहता था कि मेरी इस हालत का ज़िम्मेदार कौन है.”
जिस व्यक्ति को वह शुरू में आपबीती सुनाना शुरू करता है वही इसमें मौजूद रहता तो संवाद से उसकी इस हालत के लिए सामाजिक मान्यताओं पर मुकदमा तो दायर हो सकता था. यह सवाल एक पुलिस इंस्पेक्टर से पुछवाया गया है जो राजसत्ता का प्रतिनिधि है.
शहादत खान में मदरसे में पहुंचे नेरेटर से यह कहलवाने का साहस भी है कि ‘अल्लाह एक भ्रम है और इबादत एक पाखण्ड’. फिर भी यही मुख्य पात्र किसी भी तरह परिवार के ज़ुल्मों से बचने की कभी कोई कोशिश करता ही नहीं. वह पीड़ित होने के अपने बयान से शुरू करके अंत तक पीड़ित ही बना रहता है. जब पात्र से सहानुभूति नहीं होती तो विषय के प्रति क्या सहानुभूति जगेगी?
शहादत खान की पूरी कहानी बस उसे विषमलिंगी बनाने की नाकाम कोशिश की कहानी है जो समाज की भ्रांतियों और यौन प्रकृति की जटिलता की पड़ताल कर सकता था लेकिन लेखक को इसका निर्वाह करना आता हो तभी यह मुमकिन होता.
(दस) |
प्रचलित मान्यताएं, वर्चस्वधारी विषमलिंगी संबंधों की व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त संस्कृति इन सभी कहानियों का थीसिस या इनका सन्दर्भ है. एंटीथीसिस या प्रतिकार में निश्चित रूप से समलैंगिकता और समयौनिकता के अनुभव को उभारना पड़ेगा. इस उभार में प्रतिकार का बहुत कमज़ोर रह जाना या सन्दर्भ का प्रभावी रह जाना, दोनों ही दोष इन कहानियों को असरदार बनने से रोक देती हैं. सन्दर्भ तब हावी या प्रभावी रहता है जब समलिंगी पात्र किसी कारण हारते नहीं, हार कबूल कर लेते हैं, पराजित का ही जीवन जीते हैं.
रश्मि शर्मा की कहानी में सारी पहल विषमलिंगी स्त्री के हाथ में है और वह समलिंगी पुरुष को पुंसत्व से भी रहित कर रही हैं, इसके लिए एक कथित साइंस का इस्तेमाल भी कर रही हैं, एक थेरपिस्ट से उसे नपुंसक घोषित करवा रही हैं, जो कहानी में रेहान के पूरे चित्रण में है, वह कभी लड़ता ही नहीं, छिप कर, पत्नी को रक्षिता बना कर जीना चाहता है. योगिता यादव की कहानी इससे भी ज़्यादा आपत्तिजनक है जिसमें सभी विषमलिंगी स्त्रियाँ, जो वस्त्रों की वर्जनाओं से आज़ाद होकर सीमित अर्थों में आधुनिक हो चुकी हैं एक लेस्बियन स्त्री की ‘दुर्गन्ध’ महसूस करती हैं, उनकी यह लेस्बियन स्त्री बॉस है, रानी मधुमक्खी है और अंत में उनके, मजदूर वर्ग की भी दुनिया से, खदेड़ दी जाती है. मधु कांकरिया ने तो समयौनिक स्त्रियों को अपना स्वर तक नहीं दिया, कहानी में विषमलिंगी ही उनकी चर्चा करती हैं और इसमें एक भी पुरुष नहीं है, सभी स्त्रियों को पूरी तरह असहाय रख कर वे पितृसत्ता का डंका पिटवा देती हैं.
आकांक्षा पारे कम से कम माँ से अपनी विषमलिंगी बन चुकी बाईसेक्शुअल बेटी को एक लेस्बियन मित्र के शोषण के लिए ज़िम्मेदार तो ठहराती है हालाँकि इसमें अपनी बेटी पर उनकी अपनी विषमलिंगी अपेक्षाएं कितनी हावी थीं इसको अनछुआ छोड़ कर वे कहानी की समस्त संभावनाओं और पक्षों को समेटने से बचती है.
शहादत खान की कहानी कैसी भी हो कम से कम यह सवाल उठाती है कि इतने उत्पीडन के लिए ज़िम्मेदार कौन है? मिथिलेश एक समलिंगी को समाज का अंग बना कर दो समलिंगियों को रकीब होने के बावजूद मित्र बना कर कुछ हमदर्दों के साथ एक पाले में खडा करती है.
शुभम नेगी इस कसौटी पर पूरी तरह नाकाम रहते हैं, परछाईं का उनका समलिंगी पात्र डर की कैद से निकल ही नहीं पाता और टिफिन के माले का पात्र तो आजीवन ज़ुल्म के डिब्बों में ही बंद रहता है.
इनके विपरीत सिर्फ किंशुक गुप्ता समलिंगी जीवन को उसकी सम्पूर्णता में पेश करते हैं बल्कि ‘सुशी गर्ल’ जैसी कहानी में उनकी विषमलिंगी पात्र आत्मनिरीक्षण पर विवश भी होती है.
उम्मीद तो है कि विषय पर आगे बेहतर कहानियां पढने को मिलेंगीं और साहित्य सचमुच इन्द्रधनुषी बन कर भाव-अनुभव के सारे रंगों की छटा बिखेरेगा.
अंजली देशपांडे पत्रकार और एक्टिविस्ट हैं. हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं. इनके दो उपन्यास और एक कहानी संकलन प्रकाशित हुए हैं. हाल ही में मारुति फैक्ट्री में मज़दूर संघर्ष पर नंदिता हक्सर के साथ इनकी हिंदी और अँग्रेज़ी में पुस्तक, ‘फैक्ट्री जापानी, प्रतिरोध हिंदुस्तानी’, प्रकाशित हुई है. anjalides@gmail.com |
मैं इसे एक लंबा, समझदारी पूर्ण और सुलझा “सा” आलेख कहूँगा। अध्ययन, विश्लेषण और समझ के लिए अंजली जी की प्रशंसा होनी चाहिए। फिर भी मुझे लगता है किंशुक जी के प्रति उनका साहित्यिक लगाव उनके इस आलेख में थोड़ा आदेया गया है। वह किंशुक की प्रशंसा के बाद इस आलेख में उनकी कहानियों पर उतनी विस्तृत चर्चा नहीं करतीं जिनती अन्य कहानीकारों की कहानियों पर समय देती हैं। किंशुक जी का नाम 14 बार आया है और उनकी 7 कहानियों पर चर्चा होनी थी। इनमें से दो कहानियों पर अंजली जी समालोचन में पहले आलोचनात्मक चर्चा कर चुकी हैं। फिर भी किंशुक के काम पर आलोचनात्मक दृष्टि डालने से इस आलेख में चूक जातीं हैं। अतः यह आलेख इस बात की मांग करता है कि इसे अंजली जी के किंशुक पर लिखे गए दो आलेखों के आलोक में पढ़ा जाए।
ऐश्वर्य मोहन गहराना सबसे पहले आपके इस दावे का ही जवाब देना चाहती हूं कि किंशुक गुप्ता से साहित्यिक लगाव के कारण ही मैने उनकी प्रशंसा के बाद उनकी कहानियों पर विस्तृत चर्चा नहीं की। समालोचन पर ही तीन कहानियों पर अपने लेख में हाल ही में मैने उनकी सबसे कमज़ोर कहानी चुनी भी और बहुत तीखी आलोचना की, यह भी कहा कि उसे वैचारिक अस्पष्टता का लकवा मार गया है। इसे यहां दोहराना जरूरी नहीं था।
आपने खुद ही कहा है कि इस विषय पर शायद यह पहला समग्र आलेख है। शुक्रिया। इसी नज़रिए से जहां तक हो सके इसे एक ही लेखक पर केंद्रित नहीं रखना था।मेरे लिए ऐसा लेख लिखने के लिए लगभग सभी कहानियों का संज्ञान लेना जरूरी था।
अगर अन्य लेखकों ने इस विषय पर एकाधिक कहानियां लिखी होतीं तो निश्चित रूप से मैं उनकी तुलनात्मक रूप से सबसे सशक्त कहानी ही चुनती। संयोग से इन सबने एक एक ही कहानी लिखी है तो मेरे पास चयन का अवसर नहीं था। मुझे उन्हीं पर लिखना था।
शुभम नेगी की दो कहानियां हैं और छोटी भी हैं। उनकी दूसरी कहानी पर भी लिखने का फैसला मैने इसलिए किया कि यह सवाल उठा सकूं कि यह समलैंगिक कहानी की श्रेणी में रखी जाए या नहीं क्योंकि यह वयस्कों पर नहीं है। यह किशोर वय के छात्रों के बीच यौन उत्पीडन की कहानी है।
किंशुक की सातों कहानियों के विश्लेषण की मुझे जरूरत महसूस नहीं हुई। अन्य कहानियों को इसलिए छोड़ा कि यह पुस्तक समीक्षा नहीं थी। उनकी हर कहानी पर लिखती तब तो शायद आप ही कहते कि सबसे ज्यादा स्पेस मैंने उन्हींको दिया!
इसके अलावा ऐसा करती तो लेख इससे दुगुना बड़ा भी हो जाता। और एक ही लेखक के बारे में अधिक हो जाता।
मैने जो भी कहा है तर्क सहित कहा है। मैने किसी लेखक की किसी भी कहानी को लगाव या अ-लगाव के चश्मे से नहीं देखा। यह मेरी फितरत ही नहीं है। मैने जिस भी कहानी पर जो भी कहा है तर्क सहित कहा है। आप यह आरोप सा लगा रहे हैं कि मैंने किंशुक की कुछ कहानियों की तारीफ की और बाकियों को क्या इसलिए छोड़ दिया कि मैं उनके कमज़ोर कहानियों का बचाव करना चाहती हूं! आपको संशय है।
लेख में मैने उनकी कुछ कहानियों की तारीफ की ऐसा तो नहीं है, हां उनका जिक्र जरूर है। लेकिन संशय तब होना चाहिए जब तर्क कमज़ोर हो। आप तर्क दीजिए कि कहां मेरा तर्क कमज़ोर है। वरना यह आरोप और यह संशय निराधार हैं, ऐसा मैं सिद्ध मानती हूं।
आपने कहा है कि अन्य कहानियों के कथावस्तु को मैंने बेहद अच्छे से परखा है तो किंशुक की कहानियों को क्यों नहीं? एक तो इन कहानियों की संख्या ही बहुत है और मैं इनमें दो पर अलग से लिख चुकी हूं। दूसरे, उनकी सभी कहानियों पर विस्तार से लिखना न लेख के लिए जरूरी था न विषय की कुछ समझ विकसित करने के लिए, जो इस लेख का मूल मकसद था।
अगर सिर्फ सुशी गर्ल के विश्लेषण की बात है तो मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी के मुकाबले किंशुक की कहानी का प्लॉट बहुत जटिल नहीं है।सुशी गर्ल एक ब्याहता के जीवन की शल्य चिकित्सा है। मिथिलेश की कहानी पूरी राजनैतिक व्यवस्था को साथ लेकर चलती है इसीलिए मैंने उनकी कहानी पर ज्यादा विस्तार से लिखा है। इस पर तो ऐतराज़ नहीं होना चाहिए।
चमत्कृत करने वाला आलेख है।अंजलि जी ने चयनित कहानियों की परत खोलने का साहसिक उपक्रम किया है। असहमति हो सकती है लेकिन बहस की संभावनाओं के द्वार तो खुल ही गए हैं।
इक्कीसवीं सदी की समलैंगिक कहानियाँ’ पढ़ा और पढ़ने के बाद जबरदस्त पाठकीय अवसाद में आ गया . विषय रोचक था, इसीलिए मैंने उसे शुरू किया, मगर जिस ढंग से चर्चा को उठाया गया था, वह सिवा कनफ्यूजन और गलाजत परोसने के और कुछ नहीं है. मैं व्यक्तिगत रूप से न तो शुद्धतावादी हूँ और न नैतिकता की परंपरागत परिभाषा को मानने वाला. मगर यह मानता हूँ की एक विचारशील लेखक का पक्ष मनुष्य के हक में होना चाहिए, न कि राजनीतिक नारों या उस प्रचलित हवा के साथ बढ़ना जिससे लोग आतंकित हैं. हो यह रहा है कि लेखक का अपना वजूद आज मानो दब गया है और वह वही कह रहा है जो उससे कहलवाया जा रहा है.