फोटो Steve McCurry
परमेश्वर फुंकवाल इधर फिर कविता में सक्रिय हुए हैं, भारतीय रेल में रहते हुए उसे एक कवि की नज़र से भी देखते हैं. रेल श्रमिकों पर लिखी इन कविताओं में रेल-संसार का वह जाना पहचाना चेहरा हमें दिखता है जिसे हम देखते तो रोज हैं पर पहचानते नहीं, यहाँ तक की हिलार स्टेशन पर पीर पांजाल की सुरंग से निकलकर खड़ी हुई ट्रेन भी किसी प्रेमी की तरह है, प्रतीक्षारत व्याकुल.
परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ
रेल श्रमिक: तीन कविताएँ
१८५३ से
शब्द शब्द ही रह जाते हैं
बहुत हुआ तो बन जाते हैं भाव
पर ट्रेक के किनारे
उस लम्बी रेल को सरकाते हुए
उनकी हैसा- हैसा
उसमे बसी गालियों
लोक कथाओं के पात्रों को
देखा है कितनी बार
मैंने जीवित हो उठते
शब्दों, भावों से ऊपर
एक घटना बन जाते
रेल सरकती है
कंक्रीट के स्लीपर सरकते हैं
और दौड़ पड़ती है
एक रेल जीवन की पटरी पर
रास्ते के किनारे
बच्चों के हाथ अनजाने मुसाफिरों से बात करते हैं
और मैं बात करता हूँ अपने शब्दों से
महसूसता हूँ उनकी हीनता
पन्नों पर बिखरी स्याही और
गहरी हो जाती है
और मैं चल पड़ता हूँ
उस रेलपथ के पास
जहाँ शब्दों के जीवित होने का चमत्कार होता आया है
१८५३ से.
सोमाजी
कई कई बार देखा है मैंने
उस पहाड़ से बोझ को
चुटकियों में सरकाते
सोमाजी की एक आवाज
काफी होती है
उस कंक्रीट के ट्रेक की सीध ठीक करने को
जिसे महीनो पीट पीट कर किया था
अनगिनत पहियों ने टेढ़ा
समवेत स्वर की ऊर्जा
सब कुछ बदल सकती है
फिर वही सोमाजी
कैसे असफल होता है
उस टेढ़े बाबू की लिखाई को
अपने हक में लिखे
फैसले में तब्दील कर सकने में
उसके हटाये वजन
फ़ाइल पर रख सकने के काम के नहीं
उसकी भाषा का कोई शब्द
यहाँ के शब्दकोष में नहीं
उसे नहीं पता
जिस जादू से उसकी गेंग सम्मोहित करती है
दुनिया के सबसे बड़े अवरोधों को
उसे सिखाने को प्रबंधन संस्थान चलते हैं विश्व भर में
उस जादू को यहाँ बैठे लोग सिनर्जी कहते हैं
और वह सोमाजी के किसी काम का नहीं.
आवाज़
गर्मी की भरी दोपहर में गूंजती थी
वह आवाज़
उससे टकराती थीं
दसियों आवाजें
उनसे टपकता था
दुनिया का सबसे मीठा जल
उनका लाल फेंटा
मई की लू के लिए खतरे का निशान था
रेलपथ के किनारे का सूखा बबूल
उनके लिए अपनी छांह
बचाकर रखता था
उनकी बाट जोहता था
उनकी रोटी की महक में सांस लेता था
मैं कई कई बार सोचता हूँ
यदि कही जाती ये आवाजें
अपने हक की लड़ाई में
तो क्या नहीं बदल सकता था
इनके हाथों की लकीरों का भूगोल
जिनका इतिहास
नारों के पीछे के अर्थशास्त्र में
उलझी एक भूल जाने वाली कहानी भर है.
सर्दियाँ: पांच प्रेम कविताएँ
१
इस बार की सर्दियों में जब
रात की धुंध
चाँद को अपने आगोश में लेगी
वह निकल आयेगी
छत पर
और लपेट लेगी वह ठिठुरन
जो उसे हुई थी
उस पहले शब्द से जो उसने
किसी के प्रेम में कहा था.
२
इस बर्फीले तूफ़ान ने
ढँक दिए हैं
सारे रास्ते
शब्दों की आवाज़
जमे हुए पानी के टुकड़ों में
टूट जाती है
अंगीठी में लकड़ी की एक गाँठ फूटती है
लपट कुछ तेज़ होती है
इस आंच में वो चिठ्ठी भी है
जिसको पाकर उसकी साँसें ऐसे ही दहक उठी थीं
३
खिड़की के शीशों पर वह रात भर जमा रहा
सुबह तक उसने की इकट्ठा
ज़माने भर की हिम्मत
आँखों से रेले की तरह निकल आने को
उसके जीवन में प्रेम
ऐसे ही बसा रहा
उसके दुखों ने उसे दी
सबसे ठंडी सर्दियों में
अंतर्दृष्टी के शीशों पर
नीचे सरक आयी ओस
सी पारदर्शिता
सुबह की मध्ययम धूप में
कमरे में उसे दिखी
सिर्फ रात भर की गयी प्रार्थनाएँ
तह की हुई रजाई के अलावा.
४
पीर पांजाल की सुरंग से
हिलार स्टेशन पर ट्रेन
प्लेटफोर्म पर केवल बर्फ प्रतीक्षा में है
पटरियां दुःख में गीली हुई जाती हैं
इंजन की सीटी पता नहीं किसे पुकारती है
किसकी प्रतीक्षा करती है
उसकी आत्मा में
वह लडकी है
जिसने वादा किया है
जिए जाने का
प्रेम के बीत जाने के बाद भी….
५
पेड़ के कंधे
बोझिल हैं
जड़ें सुन्न
कहते हैं जब बर्फ पिघलेगी
धरती पर फूल खिले होंगे
तितलियों के पैरों में
होंगे प्रेम के नए बीज
किसी चश्मे से
पानी पी रहे होंगे
जीवन के पक्षी
वह फिर हरा दिखेगा
नहीं दिखेगी
मिट चुकी
कुछ उदास पीली पत्तियां
जो प्रेम में थीं..
बड़े होते पुत्र से
ठोक पीट कर ठीक होती हैं आकृतियाँ
चीरा जाता है सीना धरती का
बीज की कोख के लिए
मेरे सानिध्य में
तुम भी ऐसा ही महसूसते होंगे
तुम्हारे प्रस्थान के बाद
यहाँ जंगलों में
पतझड़ का सन्नाटा पसर जाता है
मन में होती बारिश
स्नेह को
अंकुरा देती है
पीले पत्तों के अनुभव जीवन के खनिज हैं
उनकी खडखडाहट रोपती है
पांवों के नीचे
पूरा का पूरा आसमान
तुम एक ऐसा बनता हुआ फूल हो
जिसे मैं देना चाहता हूँ
पृथ्वी को
और चाहता हूँ पढ़कर नहीं
जी कर समझो तुम इन शब्दों के अर्थ.
ओनर किलिंग
प्रेम मरता है
और सम्मान भी
प्रेम की सांद्रता
से घना होता जाता है
नफरत का अम्ल
बन्दूक, चाकू, रस्सी, आरी
केवल नाम नहीं रह जाते
साधन बन जाते हैं
उधर एक नदी मर जाती है
इधर कोई जंगल दम तोड़ता है
जोतने वाली आँखों की नमी
छीनती है खेत से
उसकी साँसें
पता नहीं कब शामिल हो जाता है
कीटनाशक अखबार की सुर्ख़ियों में
भूख से बेहाल किसान
पृथ्वी के सम्मान को चुनौती जैसा
जमीन साथ नहीं देती
आकाश निर्दय है
जैसे वाक्यों की चादर से ढंके जाते हैं
अक्सर रक्त रंजित हथियार
मैं खोजता हूँ शब्द उस मौत के लिए
शीर्षक इस कविता के लिए
मुझे कोई और नाम नहीं मिलता.
परमेश्वर फुंकवाल (16 अगस्त 1967, नीमच (म.प्र)
आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातकोत्तर
साहित्य और अनुसन्धान में गहन रूचि. राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दस से अधिक शोध पत्र प्रकाशित.
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन.
सम्प्रति: पश्चिम रेलवे में अधिकारी
संपर्क: pfunkwal@hotmail.com