पूनम शुक्ला का एक कविता संग्रह, ‘सूरज के बीज’ प्रकाशित है. हिंदी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित हैं, हो रही हैं. आज उनकी कुछ कविताएँ समालोचन में भी पढ़िए और अपनी राय दीजिये.
पूनम शुक्ला की कविताएँ
रास्ते में
रास्ते में एक नदी मिली
जो आधी थी
आधी गायब हो चुकी थी
एक पहाड़ मिला
जो आधा था
आधा काटा जा चुका था
रास्ते में कुछ झाड़ियाँ मिलीं
जो उचकती तो थीं
लेकिन पेड़ों की आधी ऊँचाई तक ही
पहुँच पाती थीं
एक खंभा मिला
जो सालों सीधा रहा होगा
लेकिन अब वह आधा झुक चुका था
कुछ टूटे-फूटे मकान मिले
जो शायद आधे ही बने थे
या आधे टूट चुके थे
उनकी छतें गायब थीं
या शायद बनी ही नहीं थीं
कुछ लोग मिले
जिनके पेट आधे भीतर को धँसे हुए थे
उनके चेहरों पर आधी भूख
हमेशा नाचती रहती थी
धूप आधी ही खिली थी
बादल बीच-बीच में सूरज को
रोशनी भेजने से रोकते थे
रास्ते में ही कुछ पगडंडियाँ भी दिखीं
जिनपर कुछ लोग ही सही
पर चल चुके थे
वे आम रास्ता नहीं थीं
पर आधा रास्ता बन चुकी थीं.
भीड़ से थोड़ा अलग हटकर
हर तरफ बढ़ती ही जा रही है भीड़
जाती हूँ जहाँ भी भीड़ का एक रेला
आस-पास होता है जरूर
पर कभी-कभी
भीड़ देखने की होने लगती है इच्छा
और मैं भीड़ से थोड़ा अलग हटकर
निहारने लगती हूँ सबके चेहरे
मुझे याद आने लगते हैं बचपन के सारे मित्र
कक्षा में उधम मचाती बच्चों की टोली
अपना आस-पड़ोस
अलग-अलग शहरों में मेरी परिवरिश
अलग-अलग शहर के अलग-अलग लोग
अलग-अलग बोली,भाषा
उनकी वेषभूषा
और फिर खोजने लगती हैं मेरी आँखें
उन अनजान चेहरों में
कोई चिर-परिचित चेहरा
कभी लगता है ज्यों
कक्षा का सबसे शैतान बच्चा
अब सुधर गया होगा
और किसी कंपनी के साथ डील करने
इसी भीड़ में जा रहा होगा
वे बच्चे जो दिन भर क्रिकेट और फुटबाल खेलते थे
उनकी जिन्दगी कहीं खेल बनकर तो नहीं रह गई होगी
उनके चेहरों पर खेल का जोश क्या कायम होगा अबतक
या वे चेहरे उदास चेहरों में तब्दील हो
इसी भीड़ में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे होंगे
पड़ोस की सबसे खूबसूरत दिखने वाली बच्ची
क्या आज भी वैसी ही होगी खूबसूरत
और देखते ही मुझको दौड़ कर आ जाएगी मेरे पास
दिन भर बड़बड़ करने वाली महिलाएँ
क्या अब भी बोलती होंगी वैसे ही
या वे गुमसुम हो चुकी होंगी अबतक
और मेरे सम्मुख आ बिल्कुल चुप हो जाएँगी
बच्चे जो अग्रणी कहे जाते थे कक्षा में
क्या होंगे अब भी हर जगह सबसे आगे
या जीवन के यथार्थ के सम्मुख
मुड़ गए होंगे उनके घुटने
बाल सफेद या गायब हो चुके होंगे
चेहरे पर हल्की झाई पड़ चुकी होगी
और वे गुजरे होंगे ठीक मेरे बिल्कुल नजदीक से
एक बिल्कुल अनजान चेहरे के माफिक
मुझे देखकर भी बिना मुझे पहचाने
उफ ! मुझमें भी तो आ गया होगा बदलाव
नहीं मिला आजतक कोई भी चिर परिचित
जिन्हें खोजती रह जाती हूँ मैं अक्सर भीड़ मे.
कोमल ऊर्जा
फूलों को देखकर लगता है ज्यों
दुनिया में कठोर व बेरंग चीजें
कुछ कम हो गई होंगी
फूलों के स्पर्श सभी के दिलों में
एक कोमल भावना को
जन्म जरूर दे रहे होंगे
एक नए तरह का फूल बाग में देखकर
एक नई ऊर्जा का संचार
अभी-अभी यहीं कही से शुरू हो चुका होगा
और कहीं खत्म होने का नाम नहीं लेता होगा
ठीक वैसे ही जैसे इन दिनों खिला है एक लाल फूल
पाँच सफेद पट्टियाँ इस फूल को पाँच पंखुड़ियों में बदल देती हैं
जबकि सभी की सभी एकसाथ जुड़ी हुई हैं आपस में
पाँच का एक भ्रम पैदा करती हुई
अक्सर सुनती रहती हूँ महापुरुषों के प्रवचन
यह संसार एक भ्रम है
पर इन फूलों के बीच से उपजी हुई
यह भावना भ्रम नहीं है
क्यों न इसका नाम रखा जाए कोमल ऊर्जा
जो तैरती चली जाए धरती के
इस छोर से उस छोर तक
और पिघला दे
धरती की सारी कठोरता
दानवता, दरिद्रता.
खुद से बोलना
(विष्णु खरे की कविता \”अपने आप\” पढ़कर )
जब मैं बहुत छोटी थी और कभी-कभी जाती थी अपने पुश्तैनी गाँव
देखती थी बाबा को कभी-कभी खुद से बातें करते
ऐसा नहीं था कि वे मुखर नहीं थे या अंतर्मुखी थे
ऐसा भी नहीं था कि वे एकांत प्रिय थे
ऐसा भी नहीं था कि वे अपने विचार व्यक्त नहीं करते थे सभा में
फिर भी देखा मैंने उन्हें बातें करते हुए खुद से जब थोड़ी बड़ी हुई तो वही आदत अपने पिता में देखी
आँखों पर ऐनक लगाए अक्सर उन्हें कुछ पढ़ते ही देखा
किताबें, पत्रिकाएँ, अखबार अक्सर उनके इर्द गिर्द ही दिखे
चेहरे पर तरह-तरह के भाव तरह-तरह के विचार
मैं देखती रहती थी अक्सर यहाँ वहाँ से छुपकर
कभी-कभी वे बोलने लगते थे खुद से ही
खुद ही मुस्कुराने भी लगते थे
और फिर लिखने लगते थे पंक्तियाँ पृष्ठों पर
खुद से बोलना मुझे बड़ा ही रुचिकर जान पड़ा तब
जिसने मथा मथनी की माफिक जमा पड़ा दही
और तैरता हुआ मक्खन आ गया ऊपरी सतह पर
जब वे बोलते थे सभा के बीच अक्सर
वही मक्खन लगता था टपकने
सभी सुनते चले जाते थे उन्हें हतप्रभ
बस मैं जानती थी कि यह जादू था खुद से बोलने का अब यह आदत कुछ-कुछ मुझमें भी आने लगी है
मैं भी कभी-कभी अब खुद से बोलने लगी हूँ
विभिन्न बाते अक्सर गुँथती रहती हैं मेरे मन मस्तिष्क में
फिर मैं बोलती हूँ खुद से ही खुद ही
तभी यकायक फटता है घना कुहरा
चेहरे पर बदले भाव देखकर
तभी बच्चे पूछते हैं – क्या हुआ तुमने कुछ कहा क्या ?
मैं कह उठती हूँ – जीने की वजह मिली है.
देखती थी बाबा को कभी-कभी खुद से बातें करते
ऐसा नहीं था कि वे मुखर नहीं थे या अंतर्मुखी थे
ऐसा भी नहीं था कि वे एकांत प्रिय थे
ऐसा भी नहीं था कि वे अपने विचार व्यक्त नहीं करते थे सभा में
फिर भी देखा मैंने उन्हें बातें करते हुए खुद से जब थोड़ी बड़ी हुई तो वही आदत अपने पिता में देखी
आँखों पर ऐनक लगाए अक्सर उन्हें कुछ पढ़ते ही देखा
किताबें, पत्रिकाएँ, अखबार अक्सर उनके इर्द गिर्द ही दिखे
चेहरे पर तरह-तरह के भाव तरह-तरह के विचार
मैं देखती रहती थी अक्सर यहाँ वहाँ से छुपकर
कभी-कभी वे बोलने लगते थे खुद से ही
खुद ही मुस्कुराने भी लगते थे
और फिर लिखने लगते थे पंक्तियाँ पृष्ठों पर
खुद से बोलना मुझे बड़ा ही रुचिकर जान पड़ा तब
जिसने मथा मथनी की माफिक जमा पड़ा दही
और तैरता हुआ मक्खन आ गया ऊपरी सतह पर
जब वे बोलते थे सभा के बीच अक्सर
वही मक्खन लगता था टपकने
सभी सुनते चले जाते थे उन्हें हतप्रभ
बस मैं जानती थी कि यह जादू था खुद से बोलने का अब यह आदत कुछ-कुछ मुझमें भी आने लगी है
मैं भी कभी-कभी अब खुद से बोलने लगी हूँ
विभिन्न बाते अक्सर गुँथती रहती हैं मेरे मन मस्तिष्क में
फिर मैं बोलती हूँ खुद से ही खुद ही
तभी यकायक फटता है घना कुहरा
चेहरे पर बदले भाव देखकर
तभी बच्चे पूछते हैं – क्या हुआ तुमने कुछ कहा क्या ?
मैं कह उठती हूँ – जीने की वजह मिली है.
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पूनम शुक्ला
26 जून 1972, बलिया (उत्तर-प्रदेश)
कविता संग्रह \” सूरज के बीज \” अनुभव प्रकाशन , गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित.
\”सुनो समय जो कहता है\” ३४ कवियों का संकलन में रचनाएँ – आरोही प्रकाशन
सम्पर्क :
50 डी ,अपना इन्कलेव ,रेलवे रोड,गुड़गाँव , हरियाणा – 122001
मोबाइल – 9818423425
ई मेल – poonamashukla60@gmail.com