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काली रात में पीली स्ट्रीट लाइट की बदौलत अजीब-सा रौशनी का धब्बा कहीं पर धसा, कहीं से उधड़ी ज़मीन पर फैला हुआ था. ऐसा लगता था जैसे कोई बूढ़ा बीमार प्रेत अपने कमज़ोर और नापाक पंजों से हवा का सीना चीरने की कोशिश कर रहा है. सामने गगन के घर का फाटक और उसके उधड़े हुए पलस्तर में लिपटी सफ़ेद दीवार एक अनपढ़ वज़ीफ़ा-गो की तरह डटी खड़ी थी और दस्तूर के अनुसार मेरे घर के फाटक पर वही मनहूस चबूतरा फिर पानी से भीग रहा था. उसके फिसलौने पन से बारहा मुझे डर लगता था मगर टंकी का पानी भर जाया करता, अलार्म वाली औरत अपनी मशीनी आवाज़ में गला फाड़ती रहती, मगर कम्बख़्त की आवाज़ नीचे मेरे कमरे तक न पहुँचती. जिस दिन मैं वक़्त से मोटर बंद कर देता, उस दिन किसी जीत का सा एहसास होता. अब या तो मैं अपने कमरे से सटी पतली सी बालकनी में से झाँक कर चबूतरे को देखता रहूँ कि इस पर टंकी ने अपनी बूढ़ी थूथनी से राल टपकानी शुरू कर दी है या नहीं, या फिर ठीक आध या पौन घंटे बाद शरीफ़ों की तरह जाकर मोटर ही बंद कर दूँ. मगर ध्यान ऐसी चीज़ है कि इधर मोटर का स्विच, जो कि नीचे उतर कर फाटक के पास सीढ़ियों के ऐन नीचे मौजूद था, ऑन किया. मोटर घरघरा कर बोली और उधर मैं भाग कर ऊपर आया. किसी बे-ज़रर या ग़ैर-ज़रूरी से काम में लग गया, जैसे मोबाइल पर रील देखना, अपने स्मार्ट-टीवी पर चल रही सीरीज़ को रिज़्यूम कर लेना या फिर अपने गुमशुदा माज़ी के बारे में औल-फ़ौल बातें सोचना. मगर इन्सानी दिमाग़ के बुनियादी उसूल को समझने से मैं हमेशा नाकाम रहा कि ध्यान है ही भटकने की चीज़.
कई बार मुझसे अम्मू ने कहा भी कि बाबा! नया मोटर ले लीजिए, अब तो बाज़ार में ऑटोमैटिक मोटर भी मिल जाते हैं, जिनमें एक सेट टाइम के मुताबिक़ ऑन-ऑफ़ का सिस्टम पहले से मौजूद होता है. चुनाँचे इन्हें ऑन करने की ज़िम्मेदारी बस आपकी रह जाएगी. मैं भी हर बार सोचता कि हाँ! बदलवा लूँगा, नया लगवा लूँगा. इस झंझट से छूटूँगा. मगर दिमाग़, जिसकी अच्छी-ख़ासी कसीदा-ख़्वानी मैं अभी कर चुका हूँ, मुझे कुछ वक़्त तक पानी की बर्बादी पर लान-तान करता और फिर मुतमइन हो कर किसी बच्चे की तरह सब भूलभाल, बाक़ी के खेल तमाशों में लग जाता.
अक्सर ऐसा होता कि मोटर ऑन मैं करता और बंद इसे अम्मू करता, ये रात गए का अमल होता, क्योंकि अक्सर मैं जब रात का खाना, देर-सवेर खाकर हाथ धोने चलता तो मालूम होता कि वाशबेसिन का नल ग़रग़राकर भक्क से ख़ामोश हो गया. सो नीचे जाकर मोटर ऑन करता, पानी के टंकी में चढ़ने के इंतिज़ार में झुँझलाया हुआ, अपना शोरबे में सना हुआ हाथ लेकर इधर से उधर टहलता रहता. ऐसे वक़्त में अम्मू मुझे देखता तो मुस्कुराता. वो अक्सर कुछ पढ़ रहा होता था. इस बच्चे को मैंने आज तक किसी अवाई-तवाई काम में नहीं देखा. सिर्फ किताबें पढ़ता रहता है, जबकि मेरा मन उम्र की इस पचासवीं मन्ज़िल में पहुँचते-पहुँचते उन इक्का-दुक्का किताबों से भी क़रीब-क़रीब ऊब चुका था, जिनकी मुंडेर से मैं जवानी में कभी-कभी झाँक कर देख लिया करता था. जब यूट्यूब पर सारी इन्फोर्मेशन है, टीवी पर इतना कुछ देखा जा सकता है, तरह-तरह के विषयों पर फिल्में और वैब-सीरीज़ बन रही हैं तब फिर पढ़ने की इस अधूरी और मेहनत-तलब लज़्ज़त के लिए क्यों इतना ख़्वार हुआ जाए.
मैं उससे जब कहता कि अम्मू! बेटा कभी कुछ खेल-वेल लिया करो, बैडमिंटन लाया था, वैसा ही पड़ा है. सोचा था तेरे साथ खेलूँगा किसी वक़्त मगर तू तो इतनी सी उम्र में इन मोटी-मोटी किताबों में मुँह दिए रहता है. क्या मिलेगा इतना पढ़ कर? अपनी उम्र के बच्चों की तरह व्यवहार क्यों नहीं करता? अरे, कुछ दोस्त बना, कहीं आया-जाया कर. ग्यारहवीं जमात में तू पहुँच गया मगर घर घुसना है, अपने कमरे को भी किताबों का अड्डा बना रखा है. ठीक है, पढ़ना अच्छी बात होगी. मगर क्या दुनिया और ज़रिए से नहीं देखना चाहता? सिर्फ किताबी कीड़ा बन कर किसी का……मैं यहाँ या ऐसी किसी बात तक पहुँचता कि खुले हुए नल से एक-बार फिर ज़ोर की हवा निकलती और भरभरा कर पानी ज़ोरों से निकलने लगता. अम्मू मेरी बातें सुनकर मुस्कुराता रहता, जैसे कि मैं उसका बाप नहीं, बल्कि वो मेरा बाप हो.
पता नहीं इस लड़के में क्या ऐसी बात है कि इसको मैं कभी डाँट ही न सका. बिन माँ का बच्चा मगर शरारत और बद-तहज़ीबी से ऐसा पाक-साफ़ कि कई बार तो इसकी बातें सुनकर बड़ों को शर्म आ जाए. गली में यहाँ से वहाँ तक सभी उसकी तारीफ़ें करते. उसे अम्मू राजा, अम्मू बेटा कह-कह कर सबकी ज़बानें न सूखतीं. घुँघरियाले बाल, गहरी भूरी आँखों में ज़हानत की चमक, छोटी-सी उम्र में उठने-बैठने, बात करने का सलीक़ा. मुझे उसमें अक्सर उसकी माँ की झलक दिखाई देती थी, वो भी इसी तरह थी, दिन-भर किताबें पढ़ती. उसके पास हर सवाल के चार जवाब मौजूद होते थे, हालाँकि वो बहस करती नहीं थी और मुझ जैसे जाहिल निफ्फट से करती भी किस मुआमले पर. मगर लगता ऐसा ही था कि अगर वो कभी किसी मौक़े पर बहस करेगी तो अपनी मोटी-मोटी किताबों से जमा की गई दलीलों की मदद से सामने वाले को मिन्टों में चित कर देगी.
अम्मू को उसकी बेशतर किताबें और ज़हानत विरासत में मिली थी. उसकी ख़ामोशी, उसी की भलमनसाहट, उसकी मुस्कुराहट और उसकी निगाहों की गहराई. ऐसा नहीं था कि अम्मू शरारत न करता हो, मगर उसकी शरारतों में भी एक ख़ास अदा थी, एक बिल्कुल अलहदा रंग. मेरी आदत है कि यूट्यूब पर अक्सर विडियो ज़ोर-ज़ोर से सुनता हूँ. इनमें कई एक सियासी होती हैं. मज़ेदार बहसें, लोगों की तरह-तरह की बोलियाँ, सियासी, समाजी समस्याओं पर एक दूसरे को अपने-अपने ज्ञान से जिस तरह लोग चौंकाते, छेड़ते और हराते थे, वो सब देखने में बड़ा मज़ेदार था. अक्सर उसके कमरे तक मेरे मोबाइल से निकलने वाली आवाज़ें जाया करतीं. मैं जानता था मगर मेरी दिलचस्पी कम न होती और मुझे अक्सर ही इस बात का ध्यान न रहता कि मेरा किताबी कीड़ा, मेरा अम्मू इस वजह से डिस्टर्ब हो रहा होगा. मैं अक्सर कोई रील देखकर ज़ोर से क़हक़हा भी लगाता, कभी-कभी गाली बक दिया करता या फिर बद-मज़ा हो कर रील में मौजूद शख़्स की बात को अपनी बात से काटने की कोशिश करता, जैसे कि मैं इस डिजिटल दुनिया का तमाशाई नहीं हूँ, बल्कि ख़ुद उस जगह मौजूद हूँ, जहाँ ये सब बहसें हो रही हैं. ये सारे काम इस क़दर बे-ध्यानी में होते थे कि मुझे ख़ुद पर क़ाबू ही न रहता. जब कमरे की चौखट से टिके हुए मेरे नन्हे अम्मू के साए का एहसास मुझे होता तो मैं चौंक कर उधर देखता, उसके लबों पर वही भीनी-भीनी मुस्कराहट खेल रही होती.
‘क्या है? मैं भी सब जानते हुए पूछता’
‘गगन अंकल का फ़ोन आया है.’ वो कहता.
‘क्या कहते हैं.’ इस बार भी मैं सब कुछ जान कर हँसते हुए अंजान बन कर कहता.
‘कह रहे हैं कि उनका बेटा पढ़ रहा है, अपने पिताश्री से कहो कि आवाज़ थोड़ी धीमी कर लें और हो सके तो कमेंट्री करने में ज़रा कम जोश दिखाएँ.’
‘चल बदमाश.’ कह कर मैं उसके पीछे दौड़ने के लिए उठता तो वो झट कमरे में घुस कर चटख़नी लगा लेता.
सर्दी की रातों में जब उसकी उठने की हिम्मत न हो रही होती और वो अपने लिहाफ़ में पड़ा हुआ किसी किताब के मज़े ले रहा होता और मेरी आवाज़ सन्नाटे की वजह से ज़्यादा तंग करने लगती तो वो मुझे कॉल करता. मैं उसका फ़ोन काट देता, वो दोबारा तिबारा यही अमल अंजाम देता. यहाँ तक कि मैं झुँझलाकर मोबाइल बंद करके एक तरफ़ रख देता. उसे ख़ूब इल्म होता था कि मैं इस सर्दी में लिहाफ़ छोड़कर वीडियो की मुहब्बत में तो उसके कमरे की तरफ़ जाने से रहा, चुनाँचे वो मुझे ख़ामोश करने के ऐसे हीले तरीक़े आज़माता कि मैं मजबूर हो जाता.
2.
अम्मू जब भी दिन या रात को नीचे किसी काम से जाता, या मैं ही उसे भेजता या गगन किसी काम से उसे बुलाता तो मैं आवाज़ लगा कर उस से कहता.
‘अम्मू, चबूतरे पर संभल कर पाँव रखना. फिसलौना बहुत है.’
ये बात मैंने उस से इतनी बार कही थी कि अब वो मेरी बात का जवाब तक न देता था. वैसे मुझे उससे ख़ुद को नुक़्सान पहुंचा लेने का अंदेशा नहीं था. मैंने उसे बहुत छोटी उम्र से ही कभी बच्चों की तरह खिलंदड़ा पन करते नहीं देखा. मेरी बीवी कहा करती थी कि ऐसा शरीफ़ बच्चा किसी बहुत बड़े आलिम बुज़ुर्ग की रूह अपने तन में लिए हमारे यहाँ पधारा है. न तो खिलौनों की ज़िद में रोए, न तो क़ुलाँचे भरे, न कूदे-फाँदे. इस उम्र तक आते-आते भी उस में कोई ऐसा अल्हड़पन न था, जिसकी वजह से उसकी तरफ़ से मुझे कोई फ़िक्र हो. अलबत्ता ये ज़रूर डर लगा रहता था कि बड़ा होकर भी अगर ये ऐसा ही भोला, किताबी कीड़ा और दुनिया से अंजान रहा तो पता नहीं इस का मुस्तक़बिल क्या होगा? कहाँ-कहाँ ठगा जाएगा. क्या-क्या इस के साथ होगा. ख़ुदा से मैं यही दुआ करता था कि माँ की तरह मेरा साया इस बच्चे पर से बे-वक़्त न उठा ले. ये मेरा अपनी ज़िंदगी से लगाव कम था, बल्कि उस की तरफ़ से मेरी फ़िक्र का सबब ज़्यादा कि मैं उस के बुढ़ापे तक साथ रहना चाहता था. एक निरीक्षक की तरह, एक दुनियादार संरक्षक की तरह. मैं अपनी बीवी से जब कभी इस बाबत कुछ कहने की कोशिश करता तो वो मुझे मुँह पर उँगली रखकर चुप करा दिया करती. जब ज़्यादा तंग करता तो कहती:
‘आप बहुत बुज़दिल इन्सान हैं, दुनिया में डरते रहने से कुछ नहीं होता. ज़िंदगी सब ही गुज़ारते हैं. इस कारगाह-ए-ज़िंदगी में कोई चालाक है तो कोई शरीफ़. कोई बुद्धू है तो कोई अय्यार. मगर सभी की भली-बुरी गुज़र जाती है. मुस्तक़बिल की फ़िक्र करना ठीक है, मगर उस की फ़िक्र में घुल-घुल कर अपने आज को बर्बाद कर लेना बे-वक़ूफ़ी है, घामड़ता है. एक छोटे से कीड़े को भी पैदा होने के तुरंत बाद क़ुदरती तौर पर ज़िंदा रहने के लिए की जानी वाली जिद्द-ओ-जहद की बुनियादी समझ मिल जाया करती है. इसलिए इतना डरिए मत सब हो जाता है, सब होता रहेगा. ज़िंदगी जीने का नाम है, मर-मर के जीने का नहीं.’
मैं उस की इन बातों से ख़ुद का अनादर महसूस करता तो वो मेरे गले में बाँहें डाल कर शायरी गुनगुनाने लगती
जो अभी नहीं आई, उस घड़ी की आमद की, आगही से डरते हो
ज़िंदगी से डरते हो
वो बहुत अच्छा गाती थी, उस की आवाज़ में इतना रस था, ऐसा सुकून कि मैं अक्सर रातों को सोते वक़्त उस से कुछ गाने की फ़रियाद करता. वो मेरे सर में उँगलियाँ फिराते हुए कुछ गुनगुनाती. कई बार ऐसी शायरी, जिसका एक लफ़्ज़ भी मुझ अनपढ़ के पल्ले न पड़ता. मगर मुझे उस वक़्त बहुत अच्छा लगता था. जी चाहता था कि ये लम्हा कभी ख़त्म न हो. वो यूँ ही गाती रहे और मैं यूँ ही आँखें बंद किए उस की मधुर आवाज़ सुनता रहूँ, नींद भी न आए और गाना भी ख़त्म न हो….. मगर सुबह पता चलता कि ये दोनों बातें हो भी चुकीं.
3.
उस रात गगन मेरे पास सबसे पहले आया था. मैं समझा कि लो भैया! फिर आफ़त आ गई. आज ये फिर भड़केगा. मैं मोटर बंद करना भूल गया हूँ और ये शायद अलार्म सुन सुन कर ग़ुस्से में फिर भर गया है. अपनी बालकनी से उसने चीख़ कर मुझे बुलाने की कोशिश की है, मगर सर्दी की रात है. बालकनी का दरवाज़ा बंद है. मैं टीवी पर एक उम्दा सीरीज़ देखने में मगन हूँ और उस की आवाज़ मुझ तक पहुँच नहीं सकती है. पानी से चबूतरा ही नहीं, सड़क भीग गई है और बाहर फैली कीचड़ में इस बे-मतलब के पानी ने और इज़ाफ़ा कर दिया है. मगर गगन उस वक़्त मुझे जिस तरह देख रहा था मैं समझ नहीं पाया. मोटर वाली बात होती तो वो पहले ही औल-फौल अलफ़ाज़ से मेरा स्वागत करता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ता, फाटक को ही इतनी ज़ोर से धक्का देता कि शायद मैं उसी पर चौंक पड़ता. मगर गगन के साथ आज मालती भी थी, उसने शाल लपेट रखी थी, लग रहा था जैसे दोनों बहुत सटपटाए हुए हैं, मगर समझ नहीं पा रहे कि किस तरह अपनी बात मेरे सामने रखें. मैंने पूछा.
‘क्या हुआ भई? कुछ गड़बड़ हुई है क्या अपनी तरफ़?’
दिन-भर ख़बरें चली थीं कि राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम होने वाला है. राम लला दो हफ़्तों बाद मंदिर में विराजमान होंगे. टीवी और मोबाइल में एक-एक कर ये ख़बरें, चारों शंकराचार्यों के मतभेद, अयोध्या में बाहर से आए हुए कारसेवकों के इन्टरव्यू और मशहूर हस्तियों के ख़यालात वगैरह सब अपनी-अपनी जगह बना रहे थे. गली में एक अकेला मुसलमानों का घर हमारा था, मगर चूँकि हम पुराने वासी थे और यहाँ से वहाँ तक गली में ही क्या, मुहल्ले, दूसरे मुहल्ले में भी मेरे और अम्मू के ताल्लुक़ से किसी किस्म की कोई बुरी बात या जज़्बा मैंने महसूस नहीं किया था. वो जो ऐसे माहौल में एक धीमी सी सियासी आँच की तेज़ी होती है और जिसे सारे हिन्दू और मुसलमान एक ही तरह महसूस करते हैं, हम भी कर रहे थे. मगर अंदेशा नहीं था कि कोई गड़बड़ हो सकती है, और ऐसी कोई ख़बर भी अब तक न आई थी, चुनाँचे मैंने दोबारा पूछा.
‘कुछ बोलते क्यों नहीं तुम लोग?’
मेरे ये पूछने पर गगन भी बिलबिला कर रो दिया और मालती ने झट आगे बढ़कर मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा.
‘अम्मू…… भाई जी… मातो ने कुचल दिया है.’
‘क्या?’ मेरे मुँह से एक ज़ोर की चीख़ निकली. कमरा घूमता हुआ सा महसूस हुआ. ‘मगर कब? वो तो एक घंटा पहले सोने चला गया था.’
गगन ने ख़ुद को सँभाला. आगे बढ़कर उसने मेरे दोनों कंधों को मज़बूती से पकड़ कर कहा.
‘घबराने की बात नहीं है नासिर, उसे अस्पताल पहुँचा दिया है. इलाज भी शुरू हो चुका है. चलो मैं तुम्हें साथ ले चलता हूँ.’
4.
गगन ने सच कहा था. अम्मू को उस हालत में देखना मेरे लिए वाक़ई मुश्किल काम था. रात में जब उस के स्कूटर पर शीतलहर को चीरता हुआ मैं अस्पताल के उस कमरे तक पहुँचा, जहाँ दो डॉक्टर उस का शुरुआती तौर पर मुआइना कर रहे थे, तो उसे देखकर मेरे मुँह से चीख़ निकल गई. उस का एक गाल ज़मीन पर घिसने की वजह से तक़रीबन पूरी तरह उधड़ चुका था, पसलियों पर से बुशर्ट और उस पर पड़ी जैकेट भी बुरी तरह छिल गई थी, मुँह, गर्दन, सीना, पेट. ऊपरी धड़ की कोई ऐसी जगह न थी, जहाँ ख़राशें न हों और बहुत सी जगहों पर से बदन छिल गया था और गुलाबी गोश्त की परत साफ़ दिखाई दे रही थी. निचले धड़ में एक टाँग पूरी उलट कर रह गई थी, घुटने की कटोरी पूरी तरह चूरा-चूरा हो चुकी थी. मेरे अम्मू की ऐसी हालत ने मुझे पागल सा कर दिया.
मैं डॉक्टरों के आगे हाथ जोड़ कर ज़ार-ओ-क़तार रोने लगा. न जाने उस वक़्त मेरे अंदर कौन सा दरिया फूट पड़ा था कि आँसू रुकने का नाम न लेते थे. गगन और वो वार्ड-बॉय बड़ी मुश्किल से मुझे घसीटते हुए बाहर ले गए. मैं बार-बार अपना सर दीवार पर पटख़ता था और सोचता था कि अगर मैंने मोटर के बटन का ध्यान रखा होता तो ये मासूम सी जान, इतनी रात में उतर कर नीचे न जाती. उस की सारी हालत का क़सूरवार मैं था. मेरी ही वजह से उस की ये दुर्गत बनी थी. मैं ख़ुद को कोस रहा था, दोनों गालों पर थप्पड़ों थप्पड़ ख़ुद को पीट रहा था. दिमाग़ में जैसे आँधियाँ सी चल रही थीं. मुँह से बस अम्मू-अम्मू निकल रहा था. बड़ी मुश्किल से मुझे एक कुर्सी पर बिठाया गया, पानी पिलाया गया और समझाया गया कि कुछ बुनियादी फॉर्मेलिटि से गुज़रे बग़ैर अम्मू को ऑपरेशन-थिएटर नहीं ले जाया जा सकता. इसलिए ज़रूरी है कि मैं कुछ होश से काम लूँ. मैंने गगन को बौखलाई हुई नज़रों से देखा, वो मुझसे और एक लेडी डॉक्टर से बराबर बातें कर रहा था. कुछ देर बाद वो कोई फॉर्म लेकर आया. तीन-चार जगहों पर मेरे दस्तख़त लिए और दौड़ा हुआ वापस गया. पता चला कि अम्मू को ऑपरेशन-थिएटर में ले जाया जा चुका है.
रात का तीसरा पहर बीत रहा था, मगर अम्मू अभी तक ऑपरेशन-थिएटर से बाहर नहीं निकला था. मुझे यक़ीन था कि मैंने अपनी बीवी की तरह अपने बच्चे को भी खो दिया है. और ये सब किया-धरा मेरा है. मैं जानता था कि एक नन्हा मासूम फ़रिश्ता मेरे घर में मौजूद है, जो दुनिया और उस के भोले से चेहरे से बिल्कुल ना-आश्ना है, मगर फिर भी वो मातो को चुमकारता था, आते-जाते पास में पड़े हुए ख़ाली प्लाट पर जुगाली करते हुए उस मातो को, उस साँड को वो बड़ी मुहब्बत से देखा करता था. मेरे मना करने के बावजूद कि पिछलग्गू हो जाएगा, वो छुप-छुप कर उसे अपने हाथ से जाकर रोटियाँ खिलाया करता था. मुझे उस वक़्त मातो पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. मातो की सियासी एहमियत पर ग़ुस्सा आ रहा था. साँड को सियासी सुरक्षा देने वाली सियासी पार्टी पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था, उस सियासी पार्टी को पसंद करने वाले तमाम लोगों पर ग़ुस्सा आ रहा था. मेरी नज़र में जितना मैं अपने बच्चे की इस हालत का ज़िम्मेदार था, उतना ही ये पूरी गली, मेरा पड़ोसी गगन, उस की पत्नी मालती, आस-पास के मुहल्ले वाले, शहर और मुल्क के तमाम लोग भी थे, जो आए दिन यूट्यूब पर देखते थे कि साँडों ने कितने बूढ़ों बच्चों की जानें ले लीं, कितने खेतों का सत्यानाश कर दिया. कितने घरों के नाश का कारण बने, और फिर भी इस ख़तरनाक जानवर को पवित्रता के हाले में लपेट कर मासूम बच्चों और बुज़ुर्गों के दुश्मन बने हुए थे.
मेरा अम्मू, हाए मेरा अम्मू. उसे मुझ से इन सब ने छीन लिया. इन की बूदी सियासी समझ ने छीन लिया, जानवरों से इनके ग़ैर-ज़रूरी लगाव ने छीन लिया, इनकी मज़हबी किताबों ने छीन लिया. जब तक ऑपरेशन-थिएटर से कोई ख़बर न आई, मैं न जाने कहाँ-कहाँ तक अपने बच्चे के मुजरिमों को तलाश करता रहा. उन्हें ढूँढ़ ढूँढ़ कर, पहचान कर उनसे बदला लेने के मंसूबे बनाता रहा. इस सियासी पार्टी को हराने, नीस्त-ओ-नाबूद करने के हीले सोचता रहा, इस पूरी क़ौम को अलविदा कह देने, मुहल्ले, शहर और मुल्क छोड़कर अपने बच्चे को कहीं दूर ले जाने के सपने पालता रहा. मेरा जी चाहता था कि इस वक़्त मातो कहीं से मेरे सामने आ जाए और मैं उस को अपने घुटने के नीचे दबा कर, उस की हलक़ूम पर चमकते हुए तेज़ छुरे को इतनी तेज़ी से घोंपूँ, इतनी बुरी तरह उस का गला काटूँ कि ख़ून की धारों से मेरे फाटक से सटे हुए चबूतरे, आस-पास फैली कीचड़ गगन के घर की सफ़ेद दीवार और पास का वो ख़ाली प्लाट सब ख़ूनम-ख़ून हो जाए और जब मातो पैरों को ज़मीन पर घिसे, डकरा-डकरा कर अपने गले से बहती ख़ून की धारा को रोकने में नाकाम, आँखें चढ़ाए, ज़बान लटकाए, मेरे घुटने के नीचे दबा कूद-फाँद रहा हो, तब मैं सब के सामने शोर मचा कर कहूँ कि देखो! मैंने मासूम बच्चों को तड़पा-तड़पा कर, रागीद कर मारने वाले इस जंगली साँड को किस तरह क़त्ल किया है और अब इस के बाद इसकी नस्ल के, इस की तरह के तमाम जानवरों को मैं दुनिया से मिटा दूँगा, जो मेरे बच्चे को मारने की ताक़त रखते हैं, फिर चाहे वो किसी के लिए कितने भी पवित्र क्यों न हों, कितने भी अहम क्यों न हों.
‘हम्म,’ गगन ने मेरे कंधों को हिलाया तो मैं चौंका.
‘अम्मू ठीक है, उसे थोड़ी देर में प्राइवेट वार्ड में शिफ़्ट कर दिया जाएगा. डॉक्टरों का कहना है कि अभी वो दो माह तक शायद अस्पताल में ही रहे, क्योंकि उस की बहुत सी हड्डियाँ टूट गई हैं, सो इनके जुड़ने में वक़्त लग जाएगा. घर जाने के बाद भी काफ़ी एहतियात की ज़रूरत होगी.’
वो मेरे कंधे थपक कर फिर कहीं चला गया. मेरे मुँह से एक लंबी साँस छूटी, मैं अपनी जगह से उठा. मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं अपने बच्चे को जा कर देखूँ. प्लास्टर में लिपटे हुए अपने मासूम से बच्चे का वो बदन, जिसे मैंने बड़े नाज़ों से पाला था. जिसका मैंने धूप-छाँव बड़ा ख़याल रखा था. कैसे उसे इस हालत में देख पाता. मैं अस्पताल की गैलरी में सामने की दीवार की तरफ़ बढ़ता गया. एक खुली हुई खिड़की में से बहुत सी गाड़ियों का शोर और चिड़ियों की मिली-जुली चहचहाहट फैली हुई नीली रोशनी में लिपटे हुए थे. बाहर उजाला ही उजाला था, और मेरे मन के अँधेरे जंगल में अभी-अभी मेरे बच्चे के ठीक होने की ख़बर ने रोशनी की एक नन्ही सी तितली बेदार की थी.
‘दो महीने.’ मेरे मुँह से बस ये दो अलफ़ाज़ निकले.
5.
ग़ुस्से की हालत में इन्सान वो नहीं देख पाता, जो वक़्त का ठहराव उसे दिखाने की कोशिश करता है. इन दिनों मैंने पाया कि मालती ने मेरे बच्चे का जिस तरह ख़याल रखा. वो रोज़ तीनों वक़्त खाना लेकर उस के पास जाती, उसे बड़े प्यार से खिलाती. एक माँ की तरह उस का ध्यान रखती, उसे तरह-तरह के लतीफ़े सुना कर हँसाती, ख़ूब मज़े-मज़े की बातें उस से किया करती. उस वक़्त भी जब वो कुछ न बोल पाता या सिर्फ अपने एक पंजे की उँगलियों से इशारों में बातें करता. मालती उसके इशारे समझ लिया करती. उन दिनों मैं समझा कि औरत के अंदर की माँ, कितनी समझदार और कैसी ख़ूबसूरत होती है. मालती उस वक़्त मेरी निगाहों में इन्सानों के बे-इंतिहा कीड़े-मकोड़ों के हुजूम में एक अज़ीम देवी की सी हैसियत इख़्तियार कर लिया करती.
उसकी आम-सी बातें, चुटकुले और तरह-तरह के मुँह बनाने के अंदाज़ इस तरह के थे, जैसे वो कोई चालीस के ऊपर की औरत न होकर, अम्मू की हम-उम्र, उस की कोई मासूम सी दोस्त हो. मैं क़रीब पड़े सोफ़े पर बैठा उन दोनों की गुफ़्तुगू सुनता. कई बार मेरा जी चाहता कि मैं भी अम्मू से इस तरह बात करूँ. मगर अपनी ग़लतियाँ सोच कर, उस रात मोटर को बंद न करने, वीडियोज़ में डूबे रहने और अपने बच्चे का ख़याल न रख पाने का ध्यान आते ही मैं एक गुनाहगार की तरह उस से नज़रें चुराता. मुझे गगन और मालती ने बहुत समझाया कि होने वाली बात होकर रहती है. उसे कोई रोक नहीं सकता. मगर मैं जैसे रोज़-ब-रोज़ उस एहसास-ए-गुनाह के तले और दबता चला जा रहा था. एक रात जब मैं अम्मू के कमरे में ही रात का खाना खाए बिना सोफ़े पर पड़े-पड़े सो गया तो मैंने ख़्वाब में अपनी बीवी को देखा. वो मुझसे नाराज़ थी. मैं बहुत शर्मिंदा था. मेरे मुँह से अलफ़ाज़ भी नहीं निकल रहे थे. मैं उस से अपने क़सूर को स्वीकार करना चाहता था, मगर उसने अपना मुँह ऊपर उठाया और बनावटी ग़ुस्से से बोली.
‘बुजदिल…बहुत बुज़दिल हैं आप.’
‘मैं जानता हूँ कि तुम क्या कह रही हो.’
‘कुछ नहीं जानते आप. आप मेरे बच्चे से ठीक से बात नहीं कर सकते? वो मासूम जब से यहाँ आया है, आप ने उस से दो बातें भी प्यार से नहीं कीं, उसका सर नहीं सहलाया. उससे हँसे बोले नहीं. यही आप उस का ख़याल रख रहे हैं.’
‘जान, मैं उससे, तुमसे.’ मैं कुछ कहने को हुआ तो उसने मुझे टोक दिया.
‘किसी बात से मत डरिए नासिर….. मैं आपके साथ हूँ.’ मैंने उसके हाथ की गर्मी को अपने हाथ पर महसूस किया और मेरा दिल भर आया. मैं उस की गोद में सर रखकर फूट-फूटकर रोने लगा. और वो मुझे बहुत प्यार से समझाती रही.
‘डरिए मत. सब ठीक है. शेव बनवाइए, बाल कटवाइए. मुझे पता है, उस दिन से आपने मोटर नहीं चलाई है, गगन और मालती के यहाँ जाकर हफ़्ते में दो तीन बार नहा-धो लेते हैं और बाक़ी दिन यहीं पड़े रहते हैं. जब मेरा बच्चा ठीक होकर अपने घर जाएगा तो क्या देखेगा? उठिए, जाइए. देखिए हमारा घर कितना गंदा हो रहा है. साफ़-सफ़ाई कीजिए. अम्मू का कमरा साफ़ करवाइए, नई मोटर लगवाइए. चबूतरा भी किसी मिस्त्री को बुलवा कर ठीक करवाइए. ऐसे नहीं करते…. हिम्मत कीजिए, उठिए, चलिए, मैं भी आपके साथ चलती हूँ. आइए.’
मेरी आँख खुली तो रात गहरी हो गई थी. अम्मू दस्तूर के अनुसार गहरी नींद में डूबा हुआ था. ख़्वाब में मेरी बीवी का चेहरा इतना ज़िंदा और ऐसा रोशन था कि मालूम होता था वो इस वक़्त वार्ड में मेरे और अम्मू के साथ ही है.
6.
अगली सुबह मैं इरादा बाँध कर अपने घर की तरफ़ चला था कि आज सारे काम करवाऊँगा. वैसे भी एक हफ़्ते बाद अम्मू को डिस्चार्ज किया जाना है. सच है, इतने दिनों में घर की हालत बुरी हो गई होगी. मुझे न सिर्फ मोटर बदलवानी चाहिए, चबूतरा ठीक कराना चाहिए बल्कि हो सके तो घर में नया पेंट भी फिरवा लेना चाहिए. अम्मू इतनी लंबी बीमारी से उठकर घर में आएगा तो यक़ीनन नए-नए से दर-ओ-दीवार के बीच उस को थोड़ी राहत मिलेगी. मगर मेरे ये सारे के सारे इरादे धरे रह गए जब मैंने गली के किनारे पर पहुँच कर देखा कि वही काला साँड मातो, मेरे घर की दहलीज़ के ऐन सामने खड़ा है. मैं एक कोने में सिमट कर खड़ा हो गया. मातो हर बात से अंजान खड़ा-खड़ा दुम की मदद से बदन पर बैठने वाली मक्खियों को उड़ा रहा था. उसके पास से गुज़रने वाले राहगीर उससे थोड़ा कतराकर गुज़र रहे थे, सभी को पता था कि वो कितना घातक हो सकता है.
अम्मू के बारे में, पूरी गली जानती थी. सब उससे परेशान भी थे. मगर किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि उस से जान छुड़ाने का कोई रास्ता खोज सके. सहसा मुझे लगा जैसे वो मेरी तरफ़ बढ़ रहा है. मेरे क़दमों के नीचे ज़मीन जैसे जम सी गई. अम्मू का फटा हुआ चेहरा, टूटी हुई हड्डियाँ, मुड़ा हुआ पैर और डॉक्टर का ये जुमला कि ‘वो तो बहुत अच्छा हुआ कि सर नहीं कुचला’ मेरी आँखों के सामने नाचने लगे. मुझे लगा जैसे ये भारी भरकम साँड अभी भागता हुआ आएगा और मुझे अपने वज़नी खुरों तले रौंद कर रख देगा. अपना भारी जिस्म ये मुझ पर गिरा देगा, जिससे मेरा पेट फट जाएगा. अपने नुकीले सींग ये मेरे बदन में ऐसे घुसाएगा कि मेरी पसलियों का जाल तड़ाक से टूट कर रेज़ा-रेज़ा हो जाएगा. आँखें बाहर निकल आएँगी, ज़बान एक तरफ़ को झूल जाएगी और मेरी लाश को पहचानना भी लोगों के लिए दुश्वार होगा. दिन-दिहाड़े उस साँड से ख़ौफ़-ज़दा मेरा बुज़दिल वजूद अपने घर जाने के बजाए दोबारा अस्पताल की तरफ़ चल दिया.
7.
‘बेवक़ूफ़ हो? कोई इन बातों पर अपना मकान बेचता है? और ये भी तो सोचो कि एक हफ़्ते में अम्मू डिस्चार्ज हो जाएगा. इतनी जल्दी में कैसे मकान का सौदा पट जाएगा?’ जब मैंने गगन के सामने ये इरादा ज़ाहिर किया कि मैं उस घर में वापस नहीं जाना चाहता, जहाँ मेरे बच्चे की ये हालत हुई तो उसने मुझे दोस्ताना अंदाज़ में समझाने की कोशिश की. मगर मैं समझने पर राज़ी न था. मैंने तय कर लिया था कि दो-चार गलियों को छोड़कर वक़्ती तौर पर सड़क से सटी हुई एक नई बिल्डिंग में, जिसका गेट भी मज़बूत है और जिसमें हर वक़त एक चौकीदार तैनात रहता है, किराए पर एक फ़्लैट ले लूँगा. दरअस्ल मैंने मालूम भी करवा लिया था, नई बिल्डिंग थी, चुनाँचे दो-एक फ़्लैट ख़ाली भी थे. कुछ अर्से बाद जब अम्मू ठीक हो जाएगा तो मैं कोशिश कर करा के दुबई में मौजूद अपने हम-ज़ुल्फ़ लुत्फ़ुल्लाह भाई की मदद से वहाँ पहुँचने की कोशिश करूँगा. ये सब कैसे होगा, कितने वक़्त में होगा. मुझे पता नहीं था.
मगर मुझे अपने बच्चे की जान की फ़िक्र थी और ऐसे माहौल से उसे बचा कर मैं दूर ले जाना चाहता था, जहाँ कोई भारी भरकम वहशी जानवर मुझ से मेरे बच्चे को हमेशा के लिए छीन न ले. चुनाँचे गगन और मालती, दोनों मुझे समझाते रहे. मगर मैं अपनी जगह से टस से मस न हुआ, मैं उनके सामने ये स्वीकार नहीं करना चाहता था कि मैं सिर्फ अम्मू के लिए नहीं डर रहा, बल्कि ख़ुद मुझे भी उस बैल के क़दमों तले रौंदे जाने के ख़याल से ख़ौफ़ आने लगा है. वही जानवर, जिसके बहुत क़रीब से गुज़रते हुए, एक हाथ से उसे सरका कर गली में कई बार जगह बना कर निकलते हुए मैंने कभी ख़ौफ़ महसूस नहीं किया था.
अब अचानक उसने मेरे लिए एक ख़ूनी और क़ातिल का रूप धार लिया था. मैं उन्हें ये भी नहीं बताना चाहता था कि मेरे बच्चे का बहुत ख़याल रखने के बावजूद मुझे उन दोनों मियाँ-बीवी से ये शिकायत थी कि अब तक उन्होंने उस साँड के ख़िलाफ़ एक भी बात मेरे सामने ऐसी न की थी, जिससे मेरे दिल को थोड़ी तसल्ली ही मिल गई होती. न उसे गली से ही हंकाने का कोई बंद-ओ-बस्त करने का इरादा उन्होंने ज़ाहिर किया था. कभी मैं उनकी हमदर्दियों का बहुत क़ाइल होता और कभी उनके इस रवैये से मेरे ज़ेहन पर एक शदीद ग़ुस्से की लहर चढ़ जाती. लेकिन इस बात का इज़हार उनके सामने मुम्किन नहीं था, चुनाँचे मैंने अपने ग़ुस्से को हमेशा बड़ी कामयाबी से छुपाए रखा.
8.
अम्मू जिस दिन डिस्चार्ज होकर घर आया. उस दिन हमने पहली बार बहुत सी बातें कीं. उम्मीद से उलट उसने मुझसे कोई सवाल नहीं पूछा कि आप हमारे घर के बजाए मुझे यहाँ क्यों लाए हैं. इस किराए के घर में. शायद वो भी मेरी तरह अब उस मकान में जाने से वहशत महसूस करता था या शायद उसे इस फ़्लैट में आने से कुछ राहत ही महसूस हुई हो. मेरी बीवी भी अब मेरे सपनों में आती तो मकान की कोई बात न करती. बल्कि इधर-उधर की बातें करती, मुझसे मुहब्बत जताती, अम्मू की ख़ैर ख़ैरियत पूछती. अक्सर वो इस बात पर ख़ुश और मुतमइन नज़र आती कि मैं अम्मू का ठीक से ध्यान रख रहा हूँ. उसे वक़्त पर खाना और दवाइयाँ दे रहा हूँ. उसको वो किताबें पढ़ कर सुना रहा हूँ, जिनकी तरफ़ मैं कभी आँख उठा कर नहीं देखता था, उस से हँस बोल रहा हूँ और सबसे ख़ास बात ये कि मैंने अब यूट्यूब वीडियो और फिल्में, सीरीज़ वग़ैरा देखना एक हद तक छोड़ दिया है. मेरी बीवी और बच्चा दोनों मुझसे मुतमइन हैं और यही मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ख़ुशी है, मैं इन्हीं का ख़याल रखने का ज़िम्मेदार हूँ और जवाबदेह भी. इस वजह से मैं ख़ुश हूँ कि मेरी बीवी मेरी कोशिशों को सपनों में सराहती है और मेरे बच्चे के चेहरे पर फिर वही मुस्कान लौट आई है.
9.
अम्मू एक बैसाखी की मदद से अब कंपाउंड में उतर कर टहलने लगा था. लेटे-लेटे किसी की भी तबीयत ऊब जाती है और वो बच्चा तो वैसे भी दो माह से लगातार बिस्तर में पड़ा रहा, उस की पीठ पर छाले तक उग आए. उस को नहला कर मैं अक्सर उन छालों पर मरहम लगाया करता था. उस दिन भी रोज़ की तरह शाम के चार बजे खिली हुई धूप में अम्मू नीचे उतर कर टहल रहा था, मैं उसे सीढ़ियों से नीचे पहुँचा कर ऊपर आ गया था. थोड़ी-थोड़ी देर में झाँक कर मैं अपनी तसल्ली के लिए ऊपर खिड़की से देख लिया करता था. मेरा शांत अम्मू, बहुत आहिस्ता-आहिस्ता टहला करता. उसकी चाल में अभी से एक वक़ार और एक अदा थी, उसे देखकर मुझे मेरी बीवी की याद बहुत आती. उस हादसे से पहले तो ऐसा नहीं होता था, मगर अब अक्सर ही बात बे-बात उस की याद मेरी आँखों के किनारों को भिगो दिया करती. अम्मू नीचे टहल रहा है, आराम से, आहिस्ता-आहिस्ता. यही सोच कर मैं आज बहुत दिनों बाद टीवी पर एक पुरानी, छोड़ी हुई सीरीज़ का एपिसोड लगा कर देखने लगा. कहानी काफ़ी चुस्त थी और कुछ ही देर में मैं उस के जाल में फंस गया. क़रीब बीस-बाइस मिनट बाद मुझे अम्मू का ख़याल आया तो सहसा चौंकते हुए मैं खिड़की की तरफ़ लपका और वहाँ का मंज़र देखकर मेरे पैरों तले जैसे ज़मीन खिसक गई. पता नहीं कैसे, बिल्डिंग का फाटक खुला था, और अम्मू उस के बाहर खड़े मातो के सींगों के बीचों बीच हाथ रखे हल्के-हल्के सहला रहा था, जैसे कह रहा हो:
‘कोई बात नहीं मातो…. एक बात थी, आई गई हो गई. हम और तुम तो पुराने दोस्त हैं.‘
मैं अपने बच्चे को उस काले साँड से बचाने के लिए फुर्ती से खिड़की से हटा मगर एक पट में मेरी आस्तीन फँस गई, जैसे किसी ने मुझे रोक लिया हो, मैं देख रहा था. मातो अम्मू के आगे अब बैठ गया था, अम्मू पता नहीं उससे क्या कह रहा था, मगर वो बे-ज़बान काला भुजंग साँड मेरे नन्हे से अम्मू की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, और बार-बार अपने सर को हल्की-हल्की जुंबिश देता जाता, जैसे उस से कह रहा हो:
‘नहीं-नहीं, उस रोज़ जो हुआ, वो ग़लती से हुआ, वो नहीं होना चाहिए था, मैं बहुत शर्मिंदा हूँ.‘
और अम्मू जवाब में कह रहा था:
‘अब छोड़ो भी वो सब बातें, वो देखो मेरे डरपोक बाबा और मैं उस फ़्लैट में रहते हैं.‘
वो हमारे फ्लैट की तरफ़ इशारा कर रहा था. मुझे महसूस हुआ जैसे मेरी बीवी मेरे बिल्कुल बराबर में खड़ी अम्मू और मातो के इस मिलन को देखकर मुस्कुरा रही है और मेरी आस्तीन को उसने मज़बूती से अपनी मुट्ठी में जकड़ रखा है. मैंने आस्तीन छुड़ाने की कोशिश छोड़ दी, अम्मू को नीचे कोई ख़तरा नहीं था. मातो, अम्मू और मेरी बीवी. तीनों बहादुर लोग थे.
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मूल रूप से उर्दू में लिखी इस कहानी का हिंदी रूपांतरण लेखक ने ही किया है.
![]() तसनीफ़ हैदर का जन्म वसई, महाराष्ट्र में हुआ. वर्ष 2005 से वे दिल्ली में रह रहे हैं. उन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम. ए. किया है. तीन वर्ष तक उर्दू साहित्य की वेबसाइट ‘रेख़्ता’ से जुड़े रहे. 2016 में उन्होने ‘अदबी दुनिया’ नाम से हिन्दी उर्दू ऑडियोबुक का यूट्यूब चैनल बनाया जिस पर अब तक 1500 से अधिक कहानियों, उपन्यासों और शेरी-मजमुए की ऑडियो बुक अपलोड की जा चुकी है. तसनीफ़ की नज़्में, कहानियाँ और लेख उर्दू हिन्दी साहित्य की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और वेबसाइटों पर प्रकाशित होती रही हैं. ‘और’ नामक उर्दू पत्रिका भी प्रकाशित कर रहे हैं. उनका पहला उपन्यास ‘नया नगर’ 2021 में उर्दू में प्रकाशित हुआ है. |
बहुत अच्छी कहानी है! आख़िर तक बाँधे रखती है मगर बोझिल नहीं होती। बहुत fluid है। Surprisingly optimistic है।
बस एक बात जो मुझे ज़रा खटकी, जहाँ राजनीति का ज़िक्र पहली बार हुआ है वो टर्निंग पॉइंट से एकदम पहले है, आगे बढ़ जाने के बाद ऐसा महसूस होता है कि ग़लत साइनबोर्ड के बाद भी पाठक सही रास्ते पर आ गया है। वो साइनबोर्ड ज़रा पहले दो राहों के रूप में दिखता तो टर्निंग पॉइंट पर उस का असर (इस केस में ख़ौफ़) और ज़ियादा होता।
दूसरे हाफ़ में वो धड़का ख़ौफ़ बन जाता है। पहले में भी ख़ौफ़ होता अगर उस का और मातो का ज़िक्र incident से ज़रा और पहले होता कि माहौल ऐसा बना हुआ था, ये सब चल रहा था।
पिस्तौल गोली चलने से ठीक पहले दिखती है तो उस का ख़याल इतना तारी नहीं होता, पिस्तौल पहले ही दिखा दी जाए और गोली ज़रा बाद में चले तो पिस्तौल और गोली बँधी रहती हैं।
बहुत शानदार कहानी लिखी है, हालांकि बार बार दिल धड़कता रहा कि अम्मू बचेगा या नहीं, या फिर नए फ्लैट पर जाने के बाद फिर कुछ हो न जाए, लेकिन तसनीफ आपने जो अंत किया है वो कमाल है। शानदार
बहुत ही अच्छी कहानी है। प्रवाह और संवेदना दोनों में शानदार।
भाषा में गजब की रवानी है।कहानी एक बार शुरू करो तो आखिर तक साथ जाना ही पड़ेगा।बेहद जरूरी लेकिन साहित्य में कम वर्णित मुद्दा उठाने के लिए तसनीफ को बधाई के साथ शुक्रिया।
अच्छी कहानी, ख़ूबसूरत परिवेश, संहज, बनावट और कृत्रिमता से दूर, आज ऐसी कहानियों की ज़रूरत है
बेहद बढ़िया कहानी। सुलझी हुई गति और हकीकत की समझदार के साथ बढ़ती हुई। और कहना न होगा, साँड को रूपक होने से बचा ले जाते हुए भी उस रूपक का पुख्ता इशारा करती हुई। वाह।
कहानी इतनी मारक है कि एक सांस में पूरी पढ़ गई . अद्भुत शिल्प और प्रतीक बिंब . ’मातो ’ के रूप में जो एक नैरेटिव गढ़ा है उन्होंने वह इस कहानी को अलग ही रूप प्रदान करती है . बेटे का किताब की दुनिया में खोना , पिता का न्यूज़ चैनल और वेब सीरीज में लगा रहना , एक ही घर में दो परस्पर विरोधी सुर. लेकिन कितना सामंजस्य . यह परस्पर मैत्री और स्नेह आज के युवाओं में नहीं मिलता . इसका एक प्रमुख कारण उनका अपने इतिहास और संस्कृति से कटे रहने के कारण भी है . तसनीफ़ हैदर जी और समालोचन दोनों को बधाई . 🌻🌻
शिल्प में नयापन कम है, पर रूपक और प्रतीक के प्रयोग से कहानी में जान पड़ गई है।
वाक़ई एक बेहतरीन कहानी।जो तकनीक के विरुद्ध एक मासूम बेटे से पिता के गड़बड़ाते रिश्तों के बीच हुए हादसे के बावजूद अंत में जिस तरह मनुष्यता और जीवन की ज़रूरी नैतिकता के पक्ष में जा खड़ी होती है।कहानी का अंत सच्चे अर्थों में उसे जीवन की उम्मीद से जोड़ देता है।
अभी पढ़ के ख़त्म की। कहानी की रवानी, मंज़र निगारी और की गई डिटेल आपको पकड़ के रखती है। लेकिन अंत हैरान करने और खुश करने वाला है।
तसनीफ़ साब को एक अच्छी कहानी की मुबारकबाद!
तस्नीफ की दूसरी कहानियों की तरह इसमें पाठक को कहानी के आलावा भी बहुत कुछ मिलता है… हमारा समय, हमारी सामाजिकी, पार्श्व में खिंची राजनीति और अंदाजे बयान! भाषा के लिहाज से हिंदी को हिन्दुस्तानी के बीच पिरो देने की यह कोशिश(‘चुनांचे’ के अतिरेकी प्रयोग के सिवाय ) कहानी को और दिलकश बना देती है। कहानी को पूरी आर्ट फॉर्म में ले जाकर रचा गया है।
यूँ ही ख्याल आया: कहानी तो अम्मू की अधिक है, नासिर की कम है। इसलिए उनवान बुजदिल नहीं, बहादुर होता तो क्या बात होती।
इस छल समय में यह विरल् होती मासूमियत की बहाली का मार्मिक दस्तावेज़ है। हैदर मियाँ को बधाई।
कहानी दिलचस्प है लेकिन मुझे अनुवाद ने अचंभित किया। ये भी ख़ास बात है कि इसका तर्जुमा ख़ुद तसनीफ़ हैदर यानी लेखक ने ही किया है। बदस्तूर जैसे आसान शब्द (आसान इसलिए कि हिंदी उर्दू का आम पाठक समझ सकता है) को दस्तूर के अनुसार कर दिया गया है। वहीं कसीदा ख्वानी जैसे ख़ालिस उर्दू/फ़ारसी तहज़ीबी उन्सुर से लबरेज़ शब्द को ज्यों का त्यों रख दिया है। मेरी दिलचस्पी ये जानने में है कि लेखक साहब ने अनुवाद के लिए क्या स्कीम अपनाई है, अपनाई भी है या नहीं।
सादर
बेहद उम्दा कहानी है।सरल और सहज होते हुए भी गहरा असर छोड़ती यह कहानी बहुत लंबे समय तक याद रहेगी।