दूसरा राजेन्द्र यादव नहीं हो सकता
रंजना जायसवाल
राजेन्द्र जी का जाना साहित्य की दुनिया की अपूरणीय क्षति है. वे जीवंत, चिरयुवा, साहसी, प्रखर वक्ता, संवेदनशील रचनाकार और स्त्री अधिकारों के प्रबल प्रवक्ता थे. वे जीवन भर स्त्री विमर्श के आगे मशाल लेकर निर्भीक चलते रहे. वे कभी अपने विचारों व स्थापनाओं से पीछे नहीं हटे. यद्यपि स्त्री पक्षधरता के कारण उनपर तमाम आरोप लगते रहे. पर वे कभी विचलित नहीं हुए. अपने निश्छल ठहाकों में सारे प्रवादों को उड़ा दिया. वे एकमात्र ऐसे संपादक थे, जो अपने ऊपर लगाए गए आरोपों को ही नहीं, दी गई गालियों को भी छाप देते थे. मेरे हिसाब से उनकी प्रतिभा से भयभीत साहित्यकार ही उनपर पीठ पीछे आरोप लगाते रहे. उनके सामने टिकने का साहस तो किसी में नहीं था.
वे अद्वितीय साहित्यकार ही नहीं बेहद सहज भले, मिलनसार, हंसमुख व विनोदपूर्ण इन्सान भी थे. उनकी मृत्यु की खबर मेरे लिए वज्रपात से कम नहीं है. मेरी उनसे कई मुलाक़ात है. फोन पर भी अक्सर बातें होती रही हैं. जब मैं २००६ में पहली बार उनसे हंस कार्यालय में मिलने गयी थी तो डर रही थी कि ‘पता नहीं वे मिलेंगे या नहीं. इतने बड़े साहित्यकार हैं. अभी मेरा एक काव्य संग्रह आया है, जो दिल्ली तक पहुँचा भी नहीं है. हाँ, हंस और दिल्ली की कई बड़ी पत्रिकाओं में मेरी कविताएँ जरूर छप रही हैं. पर हूँ तो एक छोटे शहर की नवोदित कवि.’ पर हंस कार्यालय के काउंटर पर पहुँचते ही बिना किसी औपचारिकता के मुझे उनके पास भेज दिया गया. वे अपनी कुरसी पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे. आहट पाकर सिर उठाया और बोले – रंजना जायसवाल हो ना…आओ आओ बैठो. ’उन्होंने चाय –पानी मंगवाया. शहर का हाल-चाल पूछा. परमानंद श्रीवास्तव को लेकर कुछ विनोद भी किया. मैं चकित उनके सफेद चौड़े देदीप्यमान मस्तक को देखे जा रही थी. ऐसा माथा मैने पहले कभी नहीं देखा था. विद्वता उनके माथे पर तेज बन कर चमक रही थी. थोड़ी ही देर में मेरा डर जाता रहा और मैं उनसे सहज बातचीत करने लगी. उन्होंने मुझे चिढाया कि कविता क्यों लिखती हो ?कहानी लिखो. मैने कहा –क्यों? मुझे तो कविता लिखना पसंद है. तो लड़ने लगे– बताओ कविता से क्या परिवर्तन लाओगी ?मैने कहा – वही जो आप कहानी से लाएंगे तो कहने लगे – अच्छा चलो कुछ कविता सुनाओ, देखूं क्या लिखती हो मैने उन्हें ‘चींटियाँ’ और ‘हरे झंडे’ शीर्षक कविताएँ सुनाई तो बोले – अच्छा लिखती हो, पर कहानी भी लिखो. इतना ही नहीं उन्होंने मेरी कविताओं के कुछ व्याकरणिक दोषों का भी परिमार्जन कराया.
मैं उनकी सूक्ष्म आलोचक दृष्टि से अभिभूत हो गयी. इस बीच छोटे-बड़े, नए-पुराने कवि-लेखक आते रहे और वे सबसे सहज से मिलते और बात करते रहे. सबसे मेरा परिचय भी कराया. लंच के समय मुझसे अपना टिफिन भी शेयर किया. मुझे आज भी उस दही-रोटी का स्वाद याद है. उसके बाद मैं जब भी दिल्ली गई हंस कार्यालय जाकर उनसे जरूर मिली. उनसे मैं वाद-विवाद करती थी और वे बिलकुल बुरा नहीं मानते थे. उनके व्यवहार में मुझे हमेशा वात्सल्य मिला. पता नहीं कैसे मुझसे उम्र में काफी छोटी कई लेखिकाएं तक उन पर गलत आरोप लगाती हैं कि वे चरित्र के ….मेरा अनुभव बिलकुल अलग रहा. वे विनोदी स्वभाव के थे. सबको छेड़ते रहते थे पर उन्होंने कभी किसी स्त्री से बेजा फायदा नहीं उठाया. हाँ , कई स्त्रियों ने जरूर उनसे लाभ लिया और बाद में उन्हीं पर आरोप जड़ दिया. वे उन स्त्रियों को भी बुरा नहीं कहते थे. किसी की बुराई करना उनका स्वभाव न था. हाँ, बेवाक टिप्पड़ी करने में वे माहिर थे. जो ठीक लगा उसको कहने में कभी पीछे नहीं रहे .
जोसाहित्यकार उनके स्त्री विमर्श को देह विमर्श का नाम देते हैं. वे उनके विचारों को समझ ही नहीं पाए. उनका मानना यह था कि ‘स्त्री की गुलामी चूंकि देह से शुरू हुई तो उसकी आजादी भी देह मुक्ति से शुरू होगी.’ उनके कथन का मतलब यह बिलकुल नहीं था कि स्त्री अपनी देह का अराजक प्रयोग करे. स्त्री का अपनी देह पर हक हो, वह अपनी इच्छा से प्रेम करे. अपने पसंदीदा पुरूष का संग-साथ करे. इस बात के वे समर्थक थे पर जिस समाज में छिप-छिपाकर सारे व्यभिचार चलते हैं, उन्हें स्त्री की इस आजादी से एतराज होगा ही. यादव जी ने ऐसे लोगों की कभी परवाह नहीं की.
मुझे याद है कि कुछ साल पहले जब मैं दिल्ली की पत्र-पत्रिकाओं में खूब छप रही थी. किसी साहित्य माफिया ने उन सभी संपादकों –प्रकाशकों के पास मेरे चरित्र के बारे में उल्टा-सीधा लिखकर स्पीड पोस्ट किया ताकि वे मुझे ना छापें. यादव जी के पास जब वह पत्र पहुँचा तो उन्होंने फोन करके मुझे समझाया- इन बातों से विचलित ना होना. जब भी कोई लड़की आगे बढ़ती है तो सामंती मानसिकता के लोग यही सब करते हैं. पहले भी करते थे. अक्सर जमीनी लेखिकाओं को यह सब झेलना पड़ता है.
उनके इस सबक को गाँठ बाँधकर ही मैं साहित्य की दुनिया में टिकी हुई हूँ. इधर दो वर्षों से उनसे नहीं मिल पाई. अभी सोच ही रही थी कि वे चले गए. मुझे इस समय भी हंस कार्यालय में अपनी कुर्सी पर बैठे पाईप पीते राजेंद जी दिख रहे हैं और हमेशा दीखते रहेंगे. उन्हें भूलना आसान होगा भी नहीं क्योंकि दूसरा राजेन्द्र यादव नहीं हो सकता .
रंजना जायसवाल,