नानाजीः चांद से थोड़ी सी गप्पे
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नानाजी, मॉडल टाउन वाले नानाजी, त्रिलोचन नानाजी… और उनके बीच पसरा मेरा बचपन. आज जब मेरी आठ साल की बेटी खिलखिल पूछती है- मम्मा आपके इतने सारे नाना और सारे रियल? फेर में पड़ जाती हूं- सगे और दूर के रिश्तों को लेकर. ऐसे कोई सवाल या उसकी गुंजाइश से भी परे बीता मेरा बचपन. नानाजी की मौत के बाद लोगों की बातों-सवालों-आरोपों को सुनकर समझ आया कि वाकई यह बहुत बड़ा दुनियावी खेल है. इसकी मार से खून में बहने वाले, संस्कारों के बीज डालने वाले रिश्तों को अजनबी बनाने की साजिश रची जाती है.
मेरे लिए नानाजी यानी शमशेर नाना. मॉडल टाउन वाले नानाजी यानी बड़े मामा मलयज के साथ सी-12, मॉडल टाउन में रहने वाले टी.एन. वर्मा. त्रिलोचन नाना यानी नानाजी के ठहाके लगाने वाले दोस्त. बचपन में नानाजी के सारे दोस्तों को मैं नाना ही कहती थी, पैर भी छूती थी. त्रिलोचन नाना और नागार्जुन नाना के तो खास तौर पर. पैर खाली नानाजी के ही नहीं छुए कभी. उनसे तो सीधे गले से ही लगी.
आज भी आंख बंद कर जब उनकी छवि को याद करती हूं तो उनके बेहद मुलायम से हाथ सिर से गाल तक महसूस होते हैं. उनके हाथ बेहद मुलायम थे, बिल्कुल गुलगुल. बड़ा मजा आता था उन्हें छूने में. उनके चेहरे पर छाई हुई हंसी तो मानो उनके व्यक्तित्व में घुली हुई विनम्रता का एक सदाबहार तराना था. बादल के टुकड़े का खफीफ भाव. कितने भी नाराज क्यों न हो नानाजी हमसे या बाहर वालों से मुस्कान का एक पुट चेहरे पर बना रहता ही था. यह उनके व्यक्तित्व की अनोखी अदा थी.
मोटे से चश्मे के भीतर से झांकती उनकी प्यार से लबालब आंखें. इतनी स्निग्ध-पारदर्शी आंखें शायद ही किसी की मैंने कभी देखीं. बचपन की शुरुआती स्मृति जो मुझे याद पड़ती है वह कागज, पेन-पेंसिल और रंगों के प्रति उनका प्रेम. वह ढेर सारे कागज-पेंसिल और रंग मुझे दे देते और जो भी मैं आड़ा-तिरछा खींचती, वह घंटों तक उसमें अर्थ खोजते. हर आने-जाने वाले से उसके बारे में बतियाते. बड़ी हुई तो पता चला उनके कला प्रेम के बारे में.. और जब उनकी कविताएं पढ़ीं तो जाना कि उनमें एक चित्रकार का दिल धड़कता था और नजर भी कला मर्मज्ञ की थी. वह अपने इर्द-गिर्द, बच्चे की मासूम लकीरों में भी कला तत्व की वैसी ही पड़ताल करते जैसे किसी दूसरे की कविता या लेख में.
जब दुनिया में मैंने आंखें खोलीं तो मां-पिता के अलावा जिसने मुझे खिलाया-समझाया वह नानाजी ही थे. मम्मा-बाबा के बाद अगर किसी पर सबसे ज्यादा अधिकार जताया तो वह थे नानाजी. उनके बाद नम्बर आता था राजेश चाचा का. बाबा के शुरुआती दिनों के कम्युनिस्ट दोस्त, जो ताउम्र हमारे घर के सदस्य बने रहे. राजेश चाचा और नानाजी में एक ही समान बिंदू था, श्रम के प्रति सम्मान और लगाव. इसके अलावा चाचा के गीतों को भी वह बहुत रस लेकर सुनते थे. चाचा भोजपुरी क्रांतिकारी गीतों और उसमें भी खासकर गोरख पांडेय के गीतों को जब गाते तो नानाजी बाकी काम छोड़कर उन्हें बहुत ध्यान से सुनते औऱ गर्दन हिला-हिलाकर उनका रस लेते. चाहे वह क्रांति के निर्बाध उद्घोष लिए गीत – कम्युनिस्ट हम हैं हम हैं कम्युनिस्ट, मानो न मानो बात हमारी हम रहेंगे इस्ट… रहा हो या फिर गोरख के भोजपुरी गीत- एक दिन राजा मरनल आसमान में उड़त मैना न, या समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई… सारे गाने चाचा की आवाज में जितना हम बच्चों को बांधते थे, उससे कम नानाजी को नहीं. मैं और मेरा छोटा भाई अनुराग तो चाचा की गायन मंडली का अनिवार्य हिस्सा थे ही कई बार कक्कू (अस्मिता, मलयज मामा की बेटी), बाबू (अभिषेक, मलयज मामा का बेटा) और आरफी साहिब जो मॉडल टाउन में हमारे घर के पास रहते थे, उनके बच्चे-जुल्फी-फौजी भी साथ में सुर से सुर मिलाने की कोशिश में जुट जाते थे. जब गाने का समां बंधता तो नानाजी खिसक कर हमारी मंडली के पास आ जाते और हौले-हौले गुनगुनाते. बच्चों में सबसे बुरा सुर मेरा ही था. आवाज मेरी भारी थी और गला सुर से कोसों दूर था. जब सब बच्चे इसे लेकर मुझे चिढ़ाते तो नानाजी मेरा हौसला बढ़ाते, कहते- ‘हाथ-पैर से ही नहीं मेरी भाषा आवाज से भी सबसे मजबूत है.‘ बस उनका इतना कहना होता और मैं चिढ़ाने वालों को धौल जमाने लग जाती.
राजेश चाचा खुद मेहनत करने और मेहनत करने वालों से गहरी दोस्ती करने के मामले में पक्के कम्युनिस्ट थे ही, बाकी यूं वह कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा-माले) के होलटाइमर तो थे ही. वह बड़े से लेकर छोटा सारा काम खुद करते थे, और वह भी बड़ी लगन से. चाहे वह सीवर या नाली साफ करने का काम हो, बिजली का काम हो या फिर किचन में मां की मदद करना- हर काम में वह मुस्तैद रहते थे. इन सब में चाचा की महारत नानाजी को विस्मित करती और वह उनके खाने-पीने का भी खास ख्याल रखते. मुझे खाना खिलाने की नई विधियां खोजने में भी नानाजी और चाचा में खूब पटती थी. नानाजी को उनकी ये खूबियां बहुत भाती थीं. वह बीच-बीच में मुझसे कहते- ‘देखो बेटा इंसान को ऐसा ही होना चाहिए. सारे काम करने वाला और मेहनत करने वालों से दोस्ती और उनका सम्मान करने वाला. कोशिश करो कि अपना काम तो खुद करो ही, मां के काम में भी हाथ बंटाओ.‘ वह खुद भी अपने खाने के बर्तन खुद ही धोते, बशर्ते कविता या अखबार अध्धयन में डूबे न हों. चाचा और नाना दोनों ही अपनी-अपनी तरह से साम्यवाद को पूरी ईमानदारी से न सिर्फ जी रहे थे बल्कि हम जैसी नई पौध में उसके बीज भी डाल रहे थे.
जितने साल नानाजी के सानिध्य में बीते, मैंने खुद उन्हें इस सीख पर चलते देखा. इससे जुड़े कई ऐसे वाकये हैं- बेहद रोचक और शमशेरियत के अलग-अलग रंगों से रूबरू कराने वाले. बाद में जब नानाजी की कविताओं को पढ़ा-समझा, उनके साहित्यिक कद को देखा तब ये ही पहला भाव आया कि बड़ा और सच्चा कवि-साहित्यकार दिल से सहज होता है, आडंबरों से परे और दंभ तो उसे छूता भी नहीं.
जब मैं थोड़ी बड़ी हुई तो नानाजी ने ही बताया कि जन्म से लेकर बड़े होने तक उन्होंने इतना करीब से मुझे ही देखा. इसलिए मेरा एक-एक कदम उनके लिए कौतुहल का विषय बन जाता था. इस कौतुहल में ही वह अजब-गजब प्रयोग करते और अच्छे से अच्छा खिलाने-पिलाने, संस्कार डालने की कोशिश करते. एक बात जिस पर उनका सबसे अधिक जोर शुरू से लेकर अंत तक रहा वह था मां के प्रति प्रेम. छुटपन से ही उन्होंने यह गांठ बांधी कि अपनी मां से प्यार करो, उससे बढ़कर किसी को न मानो.
पहली बार जीवन में मैंने जो निबंध लिखा, उसका शीर्षक था-मेरी मां. निश्चित रूप से नानाजी ने ही आदेश दिया था इसे लिखने का. कक्षा तीन या चार का वाकया था यह. मैंने जो टूटी-फूटी भाषा में लिखा था, उसे बेहद ध्यान से पढ़ा उन्होंने. उसके बाद उन्होंने बताया कि इसमें क्या-क्या चीजें नहीं हैं. फिर उन्होंने कहा, तुम लिखो मैं बोलता हूं. इसके बाद तो याद ही नहीं कि न जाने कितनी ही बार मेरी पेंसिल टूटी, कितनी बार मैं पानी पीने गई और न जाने कितनी बार शू-शू करने. बाबा (पिता- अजय सिंह) के दखल के बाद जाकर मां पर निबंध का किस्सा कहीं जाकर साढ़े पांच पेज पर पहुंच कर थमा. उसके बाद तो मैंने तौबा ही कर ली. नानाजी के बताए निबंध को लिखकर उनसे चेक करवाने का जोखिम इसके बाद न लिया मैंने. इस संकट का मोचन करती मां. वह झटपट तैयार हो जाती. मैं उन्हीं से चेक करवाती और वही नानाजी को कह देती कि उन्होंने देख लिया है.
बचपन में जब तक हम नानाजी के साथ रहे बच्चों को कहानी सुनाने का जिम्मा उन्हीं का होता था. यह सिलसिला अक्सर ही उनके बचपन की ओर मुड़ जाता था और वह खो जाते थे. सबसे ज्यादा अगर उन्होंने किसी के बारे में बताया होगा तो वह अपनी मां के बारे में. वह अपनी मां से बहुत जुड़े हुए थे. उन पर अपनी मां की गहरी छाप थी. उनकी मां की सादगी, उनकी साफगोई का नानाजी पर गहरा असर पड़ा था. साफ-सफाई का भी, जैसे वह यह बताना नहीं भूलते थे कि उन्हें बचपन में कई बार कपड़े बदलने पड़ते थे- सुबह स्कूल जाने और आने के समय, खेलने के समय अलग, खाने के समय अलग और फिर सोने के समय अलग. ये सुनकर मैं सोचती थी कि बाप रे, दिन भर कपड़े ही बदलते रहते होंगे बचपन में नानाजी.
गहनों से एक तरह की चिढ़ सी थी नानाजी को. इनमें छिपे आडम्बर के अलावा उन्हें लगता था कि इनमें गंदगी फंसी रहती है. खास तौर पर गले के हार और अंगूठी तो वह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. मुझे याद है कि मैं कोई 9-10 साल की रही होंगी और सहेलियों की देखा-देखी मैंने भी अंगूठी पहन ली. नया-नया शौक था बचपन का. मुझे यह तो पता था कि नानाजी को अंगूठी पसंद नहीं है पर सोचा कि छुपा कर काम चल जाएगा. उस चक्कर में हाथ को पीछे दबाए-दबाए घूम रही थी, नानाजी अपनी आदत के अनुसार अखबार पढ़ने में मग्न थे. अचानक पीछे से आवाज आई, भाषा! और मुझे लगा कि चोरी पकड़ी गई. खुद ही उनके सामने जाकर कहने लगी कि पहली बार पहनी है अंगूठी नानाजी, फौजी-जुल्फी ने दी है… यह सुनते ही नानाजी ने गले से लगाकर कहा कि इसे फेंक दो, बच्चों को ये सब नहीं पहनना चाहिए. इसमें कितने कीटाणू लगते हैं और फिर वहीं पेट में चले जाते हैं. यह कहकर उन्होंने कहा कि मैं उनकी आंख में दवा डाल दूं. यानी उन्होंने बुलाया था इसके लिए… ओह! अंगूठी पर उनकी टोक का असर इतना रहा कि फिर कभी सहजता से न पहन आई. यही हाल बाकी गहनों को लेकर भी रहा जिसमें अंगूठी के बाद गले की माला का नंबर आता था.
उनका सारा जोर इस बात पर था लड़कियां मजबूत बनें और साज-सजावट के चक्कर में न पड़े. उनके हाथ इतने मुलायम थे लेकिन वह चाहते थे कि मेरे हाथ बिल्कुल सख्त हो- कड़े, जटिनी के जैसे. जाट महिलाओं की मजबूती, उनकी कर्मठता-हिम्मत का वह बीच-बीच में जिक्र जरूर करते. बहुत बाद में पता चला कि वह भी जाट परिवार से थे. उनका प्रिय डायलॉग था- हाथ इतने कड़े करो कि एक झापड़ में ही लड़का गिर जाए. जटिनी की तरह मजबूत होने चाहिए हाथ-पांव और दिल, यह कहकर वह मेरी पीठ पर धौल जमाते थे. स्त्री सशक्तीकरण की जबर्दस्त भावना थी उनमें. इसे बहुत बारीकी से वह महसूस करते थे और व्यवहार के धरातल पर इसे गजब अनूठे ढंग से लागू करते थे. रोज सुबह मैं उनके साथ दिल्ली में मॉडल टाउन में अपने घर के पास मदर डेयरी पर दूध लेने जाती. उनका सारा जोर रहता कि मैं वहीं ठंडा दूध कम से कम आधा लीटर पी जाऊं. शायद उनके बाद कभी ऐसे ठंडा दूध न पिया होगा मैंने. दूध उन्हें वैसे भी बहुत प्रिय था. जिस पर जितना प्यार आया समझो उसे उतना ही ज्यादा दूध मिला. बस बाबा को छोड़कर, जिन्हें वह कभी दूध न पिला पाए. लेकिन मां… मां तो उनकी फेवरेट थी. मां को वह बहुत चाहते थे. उन्हें जब दुलार करते तो बिल्कुल तरल हो जाते. उनका लाड़ देखने लायक होता. मां को वह रोज याद से दूध देना कभी न भूलते. नाश्ते पर ही पूछते- शोभा दूध लिया तुमने. कहीं बाहर जाते तो बाबा को यह हिदायत जरूर देते- अजय शोभा को रोज दूध मिलना चाहिए. हम बच्चे उनकी इस हिदायत पर मन ही मन बड़ा हंसते, सोचते जाते-जाते भी नानाजी को मां को दूध पिलाना जरूर याद रहता.
बाद में समझ आया कि वह दूध नहीं उनकी यह चिंता थी कि घर की गृहिणी को पर्याप्त पोषण मिले. नानाजी को यह बिल्कुल भी गवारा नहीं होता था कि हम बच्चे अपनी मां की अवज्ञा करें. अगर हम मां की बात न सुनते तो शर्तिया नानाजी की डांट पड़ती. साथ में ही लंबी-चौड़ी डोज- जिसके कई शब्द तो हमें याद भी हो चुके थे. कई बार उन शब्दों को हम दोहराने लगते, मन ही मन. जैसे, ‘मां से बढ़कर कोई नहीं होता… मां की बात को अनसुना किया तो पिटाई भी हो सकती है, ये याद रखना… मुझे यह बिल्कुल पंसद नहीं कि शोभा की बात न मानी जाए… दुनिया में जो बच्चे मां का कहना नहीं मानते, वे कभी आगे नहीं बढ़ सकते… तुम लोगों की मां कितनी मेहनत से तुम लोगों को पाल रही है फिर भी तुम उसकी नहीं सुनते तुम लोगों को इसके लिए शर्मिंदा होना चाहिए… जाओ, अपनी मां से माफी मांगों और कान पकड़ कर कहो कि ऐसी गलती नहीं दोहराओगे.’ ये उनके फटकार के कुछ ऐसे वाक्य थे जो हर बार आगे पीछे करके दोहराए जाते. हां, लेकिन हम जितना भी इन शब्दों को मुस्कुराते हुए दोहरा लें लेकिन हम कभी इस मुद्दे पर नानाजी की डांट को हल्के में लेने का जोखिम नहीं उठाते थे. हमें पता था कि अगर ये दोहराया गया तो वाकई पिटाई पड़ सकती है. शायद मुझे और अनुराग को नानाजी से सबसे ज्यादा डांट और पिटाई मां की बात न मानने या अनसुना करने के मामले में ही पड़ी.
इसके साथ ही साथ नानाजी का जोर अदब पर होता था. आने वाले से हम किस तरह दुआ सलाम करें, पैर छुए, पानी कैसे दें- ये सारी सीखें नानाजी से ही मिलीं. इस बात का जिक्र नानाजी के दोस्त फरीदी साहब के साथ चली लुका-छिपी के बिना पूरा नहीं हो सकता. फरीदी साहब दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू पढ़ाते थे और नानाजी से उनकी खूब छनती थी. शाम को उनका हमारे घर आने का समय मुकर्रर होता था और उस समय मैं पहले से ही गली के मोड़ पर निगाह रखना शुरू कर देती थी. सारी जंग इस बात की होती थी कि घर में घुसते ही सबसे पहले कौन सामने वाले को अस्सलाम-वालेकुम कौन बोलता है. हारने वाले को वालेकुम-अस्सलाम तो कहना ही होता था. अगर मैं जीतती तो मुझे इनाम में टॉफी मिलती. ये सारा खेल नानाजी ने ही शुरू कराया था और वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए इस खेल का लुत्फ उठाते. इस खेल में जितना रोमांच था, उतना उस समय के किसी खेल में न था. सलाम की आदत ऐसी पड़ी कि आजतलक अभिवादन में हाथ सलाम के लिए ही उठते हैं.
मेरी मां को नानाजी से जितना लाड़-दुलार मिला, शायद उतना जिंदगी में किसी से न मिला होगा. इस प्यार में कभी कोई कमी-बेशी न की नानाजी ने- चाहे वह दिल्ली में लाजपत नगर और मॉडल टाउन में बिताया समय रहा हो या फिर लखनऊ में भीकमपुर कॉलोनी में उनका आना और फिर उज्जैन और सुरेंद्रनगर में हमारी छुट्टियों का समय. बड़ा ही बिरला दृश्य था जो यूं जेहन में चस्पां है कि मानो हाल ही की बात हो. हम मॉडल टाउन में जी 3-28 में रहते थे. बरसात का मौसम था, मां को जुएं पड़ गई. बड़ी परेशान थीं वह. नानाजी ने सुझाया कि जब गमकसीन किताबों से दीमक हटा सकता है तो बालों से जुएं क्यों नहीं. और फिर आनन फानन तेल में खुद ही उन्होंने गमकसीन घोला और मां के बालों में लगाने लगे- बाबा खूब हंगामा कर रहे थे कि ये क्या हो रहा है, आप लोग क्या कर रहे हैं, कुछ अंदाजा भी है. पर नानाजी और मां तो लगे हुए थे जूं मारो अभियान में. हम बच्चे आंखें फाड़े देख रहे थे कि कैसे जुएं गिरेंगी. फिर नानाजी ने मां के सिर पर उनका दुपट्टा बांधा और इसके बाद जो हुआ उसका अंदाजा तो किसी को न था, एक बाबा को छोड़ कर. मां की जुओं के साथ उनके बाल गिरने शुरू हो गए. नानाजी गहरी चिंता में पड़ गए, ये क्या हुआ. फिर महीनों तक वह या तो खुद मां के सिर पर जैतून का तेल लगाते या मां को याद दिलाते कि उन्हें तेल लगाना है. ऐसे हजारों वाकये होंगे जब नानाजी ममतामयी मां की भूमिका में नजर आए.
अपनी बेटी खिलखिल को पहाड़े याद कराते वक्त नानाजी का स्टाइल याद आ जाता है. बड़े कड़क अंदाज में नानाजी याद कराते थे. ये तो मुझे पता नहीं कि नानाजी गणित के अच्छे विद्यार्थी थे या खराब, मैं बस इतना जानती हूं कि हम बच्चों को पहाड़े याद कराना उन्हीं के खाते में था. हमें सिर्फ सीधे ही नहीं उल्टे पहाड़े याद करने पढ़ते थे. याद न रखने पर धौल भी पड़ती. अगर दिन में पढ़ाते समय नानाजी ने तेजी से कान खींचे या हमारी पिटाई होती तो हम ये सोच कर अपना गम गलत कर लेते थे कि रात तक इसकी एवज में मिठाई या टॉफी मिल जाएगी. नानाजी के पहाड़े और उनका रामायण की कथा को सुनाने के बीच भी गहरा रिश्ता था. नानाजी ने ही हमें बचपन में बड़े ही दिलचस्प ढंग से पूरी रामायण और महाभारत के जरूरी हिस्से सुनाए. रात ही में आती थी इन्हें सुनाने की बारी और इसके लिए हम दिन भर अच्छे बच्चे बने रहना होता था. पहाड़े या पढ़ाई में चूक होने पर रात का यह सुनहरा सिलसिला थम जाता और हम किसी भी सूरत में नानाजी को सुनाने के लिए तैयार न कर पाते.
कई लोगों को हो सकता है कि नानाजी बहुत मुलायम स्वाभाव वाले या मान ही जाने वाले व्यक्ति लगते हों, लेकिन उन्हें पास से जानने वालों को पता होगा कि वह अपने फैसले के कितने पक्के थे. तय करने में जरूर समय लगाते थे लेकिन तय करने के बाद उन्हें उससे कोई डिगा न सकता था. नानाजी रामायण के कुछ प्रसंगों को सुनाते हुए बहुत भावुक हो जाते- सीता की अग्निपरीक्षा, सीता का वनवास, लव-कुश का जन्म. शंबूक वध का किस्सा नानाजी ने हमें सुनाया ही नहीं. इसके बारे में जब मैं आठवीं में पहुंची तो उनसे पूछा कि इसे उन्होंने क्यों न सुनाया तो उन्होंने कहा कि जब इससे मेरे मन को इतनी गहरी ठेस लगती है तो तुम लोग तो बच्चे हो, नृशंस हत्याओं के गौरवगान से बाल मन को दूर रखना जरूरी है. बहरहाल उनसे सुनी रामकथा का असर हम पर यह पड़ा कि राम हमारी कल्पना में राम ही रहे, भगवान न बन पाए. इस मामले में नानाजी और दादीमां (जानकी देवी) की खूब पटती भी थी. पटना से जब दादीमां आती थीं तो नानाजी और दादीमां मिलकर घंटों राम द्वारा सीता को छोड़ने और बाद में गर्भवती सीता के वन में अकेले भटकने, बच्चों को बड़ा करने पर बड़े दर्द के साथ चर्चा करते. दादीमां बोलतीं- हम रहती तो मुआ देती (मैं रहती तो मार देती) और इस पर नानाजी ठहाका मार के हंसते.
त्योहारों पर नानाजी का उत्साह देखते ही बनता था. उन्हें रामलीला देखना, दशहरे का मेला देखना, दिवाली पर बाजार में दीए, खील-बताशे खरीदना खूब पंसद था. सबको नये कपड़े मिले इस बात का खास ख्याल रहता था उन्हें. ईद, बकरीद, गुरु पर्व, लोहड़ी, क्रिसमस सबमें वह किसी न किसी तरह से शामिल होने की कोशिश करते. त्योहारों से एक दिन पहले तो उनका उत्साह देखते ही बनता था. खासकर होली. होली में गुझिया बनाने में भी नानाजी खूब जुटते थे. उन्हें गुझिया को हाथ से गोठंना बहुत सुंदर आता था. जितनी तन्मयता से वह इसमें जुटते थे और टीन-भर के गुझिया बनने पर कितने खुश होते थे—यह आज भी जब याद आता है तो बड़ी हैरानी होती है. वह कहते थे यह भी एक कला है. जब तक हम साथ रहे उनके हाथ लगे बिना गुझिया का काम पूरा न हुआ कभी. आज भी गुझिया बनाते समय नानाजी का घर में गोल घेरे में बैठकर गुझिया गोठंना बरबस ही याद आता है. त्योहारों पर मिलने आने वाले मेहमानों की आवभगत में तो वह बिछ ही जाते. हालांकि उनकी यह आदत साल भर 24 घंटे की थी. कोई भी आया-गया, कोशिश वह यही करते कि उसे कुछ खिला-पिला दिया ही जाए. मॉडल टाउन में जो रिक्शे वाला हमें स्कूल ले जाता उसके बारे में तो सख्त हिदायत होती कि उसे पानी औऱ गुड़ जरूर पूछा जाए.
यूं तो नानाजी से मार मुझे कम ही पड़ी. बस एक झापड़ ऐसा था जिसकी रसीदी छाप उम्र भर के लिए रह गई. बात उन दिनों की है जब हम मॉडल टाउन में रहते थे. हमारे घर के ठीक सामने जो मकान था, उनके यहां से दिन भर गानों की तेज आवाजें आती रहती थीं. मेरे लिए वह बड़ा कौतुहल से भरा मकान था. उसकी चाहरदीवारी बहुत ऊंची थी, नजर कोई आता नहीं था, बस गानें सुनाई देते थे. उन दिनों एक गाना खूब चला था- आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए तो बात बन जाए…. ये गाना उफ अब भी याद आता है तो हंसी के मारे पेट में बल पड़ जाते हैं. मैं बस दिवानी थी इस गाने की. सुनती दूर से थी और धुन में शब्द क्या से क्या हो गए. मैं गाती थी- आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए तो बाप बन जाए…. नानाजी ने कई बार टोका कि बेटा ये गाना अच्छा न है, इसे न गाया करो. पर जबान पर तो ये ही चढ़ा था, जब न तब मुंह से निकल ही जाता था. किसी ने यह न कहा न समझाया कि मैं ‘बात’ को ‘बाप’ गा रही हूं और अर्थ का अनर्थ कर रही हूं. खुद यह बात समझ में आने की उम्र भी न थी. तीसरी क्लास में रही होंगी तब मैं. एक दिन शाम को नानाजी शायद बाहर थे मैं आगे वाले उन्हीं के कमरे में नाच-नाच के यही गाना गा रही थी- आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आए तो बाप… और ये जा वह जा. बाहर बरामदे में गिरी मैं, गुलाब की झाड़ी के पास. नानाजी का जोरदार तमाचा गाल पर पड़ा था और बाहर जा गिरी थी मैं. बस ये तमाचा, ये गाना और मेरा गिरना- इतने साल हो गए पर आज भी मेरे गाल, मेरे जेहन पर जिंदा हैं. ऐसा ही एक वाकया मेरे छोटे भाई अनुराग के साथ हुआ था, पर उसपर झापड़ नहीं, नानाजी ने कलम चलाई. उस समय शोले फिल्म का गाना चला था- गुलशन में गुल खिलते है, जब सहरा में मिलते हैं मैं और तू… महबूबा-महबूबा और इसका महबूबा-महबूबा वाला हिस्सा अनु को इतना भाया कि वह इसे ही दोहराता रहता था. दादीमां आई हुईं थी और अनु उन्हीं की गोद में सिर रखकर बोले जा रहा था… महबूबा-महबूबा. बस नानाजी ने लिखा- दादी की गोद में बैठा पोता महबूबा-महबूबा चिल्लाए है, दादी बैठी मुढ हिलाए, ये कौन जुग में हम आए गए…. हम जब थोड़े से बड़े हुए तो नानाजी इन दोनों वाकयों को जब-जब बताते, हम बेचारे शर्म से लाल होते, कहीं सिर झुकाए छिपने को आतुर रहते.
नानाजी की अनगिनत छवियां बरस रही हैं और मैं वैसे ही नहा रही हूं जैसे दिल्ली के घर में आंगन में बारिश में हम बच्चे नहाया करते थे और इसके लिए हरी झंडी नानाजी से ही मिलती थी. शायद आज भी कहीं न कहीं… अखबार पढ़ते हुए नानाजी को देखना अपने आप में बड़ा दिलचस्प अनुभव होता था. बिल्कुल आंख से सटा कर वह अखबार पढ़ते थे और कई बार तो पुराना अखबार ही पढ़ने लगते थे. हमें देखकर बड़ी हैरानी होती कि आखिर वह एक-एक शब्द इतने ध्यान से क्यों पढ़ते हैं. कुछ देर बाद अखबार चेहरे पर गिरा होता और वह मीठी झपकी में गाफिल होते. सर्दी के दिनों में धूप सेंकना नानाजी को बेहद पसंद था. ज्यों-ज्यों धूप खिसकती, त्यों-त्यों नानाजी. अंत में आंगन की दीवार से वह हार मान लेते और वहीं कुर्सी जमा लेते. नानाजी को त्रिलोचन नाना के यहां जाना और देर-देर तक बैठना बेहद पसंद था. मुझे भी साथ ले लेते, हालांकि उनके यहां कोई बच्चा न था लेकिन शास्त्राणी नानी बड़ी सानिध्य भरी मीठी सी लगती. खाने के लिए भी कुछ न कुछ देती ही थी. इन सब से बड़ा आकर्षण उनके तीसरे मंजिल वाले घर पर बड़ी सी खुली छत थी. इस पर इक्खट-दुक्खट खेलने का मजा ही कुछ ओर होता था. रास्ते में लाल पत्थर उठाकर हाथ में छिपा लेती और वहां पहुंच पर छत पर बड़ा सा इक्खट-दूक्खट बनाती.
त्रिलोचन नाना को भी यह खेल पसंद था, नानाजी से बात करते करते कहते, निशाना ठीक से लगाओ भासा! वह मुझे भासा ही बुलाते, कहते इसका अर्थ भी बहुत अच्छा है- प्रकाश. पर मुझे ये अच्छा न लगता. उनसे नाराज होती और भिड़ जाती. नानाजी ने न जाने कितनी बार कहा होगा कि त्रिलोचन नाना से बड़ा विद्वान कोई नहीं है और मुझे इनसे सीखना चाहिए. अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत के बड़े नाम थे त्रिलोचन नाना, पर आखिर हमारी उम्र तो खेलने की ही थी. सो, हम खेल में रमते और दोनों नाना साहित्य संस्कृति समाज की बहस करते. उनकी बातों में मुझे मजा खाली तब आता जब त्रिलोचन नाना ठहाके लगाते. बड़े अचरज से उन्हें देखती. उनके जैसे ठहाके मैंने किसी और के नहीं सुने. मुझे लगता कि इतनी जोर से हंस रहे हैं कहीं दीवारें न गिरे. दूसरा, जब दोनों एक दूसरे को कोई महाकाव्य, कविता या गद्य का टुकड़ा सुनाते. वह क्षण अदभुत होता- दोनों अपने समय के बड़े हस्ताक्षर, एक दूसरे को सुनने-सुनाने के मूड में. बहुत रिदम, अपार स्नेह की धारा दोनों के बीच बहती. शेक्सपीयर, तुलसी, निराला, मुक्तिबोध और भी न जाने कितने इस बीच उन दोनों के बीच से गुजर जाते. बीच-बीच में नानीजी कहती रहतीं, सारी उमर यही किए, मिला क्या. न जाने कितना इन लोगों का बोलने का मन करता है. ये कहते हुए वह पहसुल से साग या सब्जी काटती जाती. नानीजी को पढ़ाने की पहल मेरी मां ने की जिसमें नानाजी ने भी खूब मदद की. बहुत जल्दी सीख गई लिखना-पढ़ना शास्त्राणी नानीजी और नानाजी इसे देख बहुत खुश हुए.
नानाजी सबसे ज्यादा परेशान उन दिनों थे जब देश में इमर्जेंसी लगी और उसके बाद के काले दौर में. उस समय तो हम छोटे थे, ये न पता था कि क्या हो रहा है. बस ये पता चलता था कि इन दिनों बाहर नहीं निकलना, अनजानों से बात नहीं करनी, घर में अजीब सा सन्नाटा रहता था. सारे बड़े तो तनाव में रहते, बाबा घर देर से आते तो नानाजी चक्कर काटने लगते. रात में एक लंबा-चौड़ा भिखारी हमारी गली से गुजरता था, जिसकी आवाज इतनी तेज गूंजती थी कि हम डर के मारे नानाजी के पास दुबक जाते थे. नानाजी ने ही हमें बताया कि ये भिखारी नहीं पुलिस का मुखबिर है जो क्रांतिकारियों या इमर्जेंसी का विरोध करने वालों का भेद पता लगाने के लिए सड़कों के चक्कर काटता है. इस दौरान ही बहुत से ऐसे शब्द मां या नानाजी से सुने जिनके अर्थ बड़े होने पर समझ आए. चूंकि बाबा उन दिनों घर पर कम रहते थे इसलिए नानाजी पर कई और जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं. नानाजी की हंसी पहली बार ही गायब हुई थी और घर में भी इतनी शांति रहती थी कि कान दुखने लगते थे. बाबा के जो दोस्त आते, सब बहुत धीमे-धीमे लगभग फुसफुसाते हुए बात करते. कई बार तो किचन में ही उनकी बैठकी लगती. मां चूंकि बाबा और कम्युनिस्ट पार्टी के दोस्तों में मसरूफ रहती, इसलिए इस समय नानाजी पर ही हमारी जिम्मेदारी थी. उन्होंने बड़े ही सरल शब्दों में हमें समझाया कि इस समय भारत यानी जिस देश में रहते हैं वहां के हाल अच्छे नहीं है. सरकार गलत कर रही है और हमें सब्र से काम करना चाहिए. यही वह वक्त था जब नानाजी ने हमें बहलाने के लिए एलिस इन वंडरलैंड का जो अनुवाद उन्होंने किया था- आश्चर्य़लोक में एलिस सुनाना शुरू किया. जितना दिलचस्प अनुवाद नानाजी ने किया था उससे भी हजार गुना ज्यादा दिलचस्पी से वह इसकी कथा को सुनाते थे. बच्चों की कल्पना की उड़ान की मुक्त धारा कोई नानाजी से सीखता, काश.
हमारी जिंदगी में तब एक बड़ा बदलाव आया जब नानाजी उज्जैन गए. उससे पहले बहुत चहल-पहल घर में होनी लगी थी. नागार्जुन नानाजी आकर नानाजी को जोर-जोर से कुछ समझाते. मलयज मामा भी, बाबा और मां. हां, मां बहुत दुखी थी. उसी ने हमें बताया कि नानाजी हमसे दूर रहने जा रहे हैं. हालांकि तुरंत ही बोला कुछ दिन के लिए— मां ने सोचा होगा इससे बच्चे संभल जाएंगे. पर ये कुछ दिन नहीं सभी दिन की बात हो गई. नानाजी फिर साथ न रह पाए. हम हर गर्मी की छुट्टी में नानाजी के पास उज्जैन जाते और वे हमारे जिंदगी के सबसे मस्त दिन होते. खेलने-कूदने-खाने-पीने-घूमने की पूरी आजादी. यहां नानाजी की आवभगत और बढ़ गई. इसका बहुत से लोग नाजायज फायदा उठाते, नानाजी को पता भी चलता पर वह नजरंदाज कर देते.
यहीं मिला रंजीत. नानाजी के लिए खाना बनाने से लेकर बाकी जरूरी काम करने की जिम्मेदारी रंजीत नाम के एक दुबले-पतले शर्मीले से लड़के पर थी. चटक गोरा था रंजीत, पर रंग ऐसा था मानो उस पर किसी ने उसे हल्दी का लेप लगा नहला दिया हो. वह बड़ी ईमानदारी से काम करता था और जो लोग नानाजी से फायदा उठाते थे उनसे वह बेइंतहा चिढ़ता था. उनके बारे में कुछ-कुछ बोलता रहता, हम बच्चों से अपने दिल का हाल कहता. मेरे साथ उसकी बहुत पटती, साइकिल सिखाने से लेकर स्वीमिंग के लिए वहीं मुझे ले जाता. नानाजी का दुलारा था, इसका एक प्रमाण था कि उसे रोज दूध, अरे नहीं दूध हल्दी पीने को मिलता. नानाजी उसे कसरत सिखाते, उसे दौड़ने के लिए भेजते. नानाजी को उससे खूब स्नेह था औऱ वह भी बहुत जुड़ा हुआ था. नानाजी के कहने से उसने दोबारा अपनी पढ़ाई शुरू की, रात में उसकी छुट्टी जल्दी हो जाती कि वह पढ़े. रंजीत के रंग-रूप, कद-काठी में लगातार सुधार होता रहा और वह साल-दर-साल पढ़ता रहा. जब मैं उससे पूछती कि वह पढ़कर क्या करेगा तो वह शरमा कर लाल होते हुए कहता, सरकारी नौकरी करूंगा और बाबूजी (नानाजी) को अपनी गाड़ी पर बैठा कर ले जाऊंगा. कहां पूछते ही वह कहता धत्त मजाक उड़ाते हैं सब, जब घुमाऊंगा तो देख लेना. यूं कई साल निकल गए.
जिस साल नानाजी उज्जैन आए उसी साल बाबा को लखनऊ में नौकरी मिल गई थी. नानाजी भी हमसे मिलने उज्जैन से लखनऊ आते. रंजीत भी उनके साथ आया था. उसे बहुत सी चीजें खटकती थी, उज्जैन में कई लोगों ने नानाजी के आगे-पीछे जो घेरा बना लिया था, वह उसे पंसद न आता था. ये सब कहता वह मुझसे था, कहता, बाबूजी को आप लोग यहीं बुला लो. वहां ठीक नहीं है, सब लोग अपना मतलब साध रहे हैं. बड़ा नुकसान हो जाएगा. हम दोनों सिर जोड़कर सोचते कि क्या किया जा सकता है, छोटे थे हमारी बात कोई गंभीरता से लेता भी न. एक-दो बार मां से जिक्र किया तो झिड़की मिली, बड़े के कामों में सिर नहीं घुसाते छोटे बच्चे. जो लोग हैं वे तुम्हारे नानाजी से प्यार करते हैं. …औऱ बात आई गई हो गई. फिर पता चला कि नानाजी के उज्जैन छोड़ने से पहले रंजीत की नौकरी लग गई. उसने चिट्ठी लिखी थी, दुख के साथ. वाकई वह सरकारी नौकरी पा गया था. जब नानाजी गुजरात चले गए, तो वह अकेला लखनऊ भी आया था. उसे पहचानना मुश्किल था. लंबा-चौड़ा स्मार्ट सा लड़का, मुस्कान वही. बताया उसने कि नानाजी से मिलने सुरेंद्रनगर भी गया था, जहां बहुत कम देर की मुलाकात हो पाई उसकी. नानाजी के पसंदीदा रसगुल्ले और दो-तीन तरह की मिठाई ले गया था, जिसे नानाजी ने जिद करके खाई और उसे जी भरकर के आशीर्वाद दिया. रंजीत ने फिर कहा, बाबूजी को जल्द ले आओ, ठीक नहीं है उनका वहां रहना. बाबूजी ने मेरी जिंदगी बनाई है, मैं जीवन भर उनकी सेवा कर सकता हूं पर वहां नहीं…. खैर, फिर कभी रंजीत से मुलाकात नहीं हुई. एक-दो खत आए, हरेक में नानाजी का हाल पूछा था उसने. यह भी अजीब डोर थी नानाजी से जुड़ी. कसक होती है इतने बरसों बाद भी. सोचो तो लगता कि एक सहज दिल ने शायद सहज दिल की पुकार सुनी होगी, उसका हाल जाना होगा, बताना चाहा होगा… जो अफसोस पता चल के भी रोका न जा सका. सहज विश्वास अगर एक मामले में भला था तो दूसरे मामले में कितना दुखदायी. बहरहाल ये प्रसंग इतना ही….
नानाजी को मीठा बेहद पसंद था. मिठाइयां हो और खूब हों, आम हों और खूब हो, गन्ने हों और खूब हों… ये सब ऐसी चीजें थी जिन्हें देखकर नानाजी की बांछे खिल जाती थी. नानाजी रूस गए. वह यात्रा आज भी याद आते ही मुंह में पानी आ जाता है. क्या टॉफियां-क्या चाकलेट थे, माशाअल्लाह. लिखते हुए ही उनका स्वाद मुंह में आने लगा. उन टॉफियों-चाकलेटों के लिए हम कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे. नानाजी लाए भी खूब सारी थे, खाते जाओ, खाते जाओ. मां कितना भी बोले इस मामले में नानाजी हमारे साथ होते, कहते बच्चे अभी न खाएंगे तो कब खाएंगे, मेरी उम्र में… पर ये न समझना कि मैं रेस से बाहर हूं, मैं भी खाऊंगा. रूस से नानाजी गुड्डा-गुड़ियां भी लाए थे जो अभी तक मेरे पास हैं और लखनऊ में कमरे में सजी हुई है. नानाजी से ही तब बचपन में रूस के बारे में, रूसी क्रांति और वहां के समाज के बारे में सुना था. नानाजी रौ में बोलते रहते थे, आधी बातें हमारे पल्ले पड़ती, आधी नहीं.
ही उन्हें प्रिय था शेक्सपीयर को पढ़ाना. ये उन दिनों की बात है जब हम लखनऊ में भीखमपुर कॉलोनी में रहते थे और नानाजी गुजरात से वहां आए थे. मेरे कोर्स में शेक्सपीयर की मर्चेंट ऑफ वेनिस लगी थी. नानाजी को जैसे ही मैंने बताया, उन्होंने तुरंत लाने को कहा. फिर क्या था, नानाजी और शेक्सपीयर. करीब चार घंटे तक नानाजी शेक्सपीयर को पढ़ने-उच्चारण करने और समझने का सलीका सीखाते रहे. करीब-करीब खुद ही पढ़ते रहे और आधे से अधिक खत्म कर दिया. इसके साथ ही साथ उन्होंने यह भी विस्तार में बताया कि शेक्सपीयर ने किन परिस्थितियों में लिखना शुरू किया था और वह क्या तत्व हैं उनके साहित्य में जो उसे कालजयी बनाते हैं.
सिर्फ अंग्रेजी नहीं अन्य भाषाओं से भी नानाजी को बराबर का लगाव था. कई भाषाएं उन्होंने सीखीं, कुछ को सीखने की शुरुआत की, जो बीच में छूट गई. एक खासियत थी कि जो भी भाषा वह सीखते, अकेले न सीखते. मां को और हम बच्चों को भी अपने साथ जोड़ लेते. रूसी, पंजाबी, बांग्ला सीखने का दौर तो मेरी स्मृतियों में आज भी जिंदा है. नानाजी की हजारों छवियों में एक और दिलचस्प वाकिया है, जो अनके व्यक्तित्व के अनूठेपन को माहौल में घोल जाता है. हुआ यूं कि नानाजी को बीच में दाढ़ी रखने का शौक हुआ. खूब लंबी दाढ़ी हो गई, कार्ल मार्क्स स्टाइल. उस पर लगातार हाथ फेरना नानाजी को बेहद पंसद था. बतियाते समय एक हाथ वह दाढ़ी पर ही रखते. कोई पूछता तो उल्लास से भरे वह बताते, अब यह बनी रहेगी, बड़ा मजा आ रहा है. बीच में अगर बाबा टोंकते कि, कार्ल मार्क्स से होड़ ले रहे हैं क्या? नानाजी थोड़ा डपटते स्वर में कहते, ..आपको क्यों दिक्कत हो रही है, मेरी दाढ़ी आपकी दाढ़ी को पछाड़ रही है क्या? फिर दोनों खूब हंसते. बाबा और नानाजी में यूं तो नोंक-झोंक चलती रहती, लेकिन दोनों एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे. फिर हुआ यूं कि नानाजी भइया दूज पर अपनी बहन मुन्नी, जिन्हें हम मुन्नी नानी कहते थे, उनके पास मेरठ गए. साथ में मैं और मां भी गए. वहां दूज का टीका करते हुए मुन्नी नानी ने नानाजी से कहा, एक चीज मांगू अगर तुम इनकार न करो. नानाजी की लाडली बहन थी, उन्हें नानाजी बहुत मानते थे. नानाजी थोड़ा सकपका कर बोले, हां क्यों नहीं मांगो मुन्नी नानाजी ने जब यह पक्का करा लिया कि नानाजी उनकी बात मान ही लेंगे तो उन्होंने कहा, भइया, तुम्हें ये दाढ़ी बहुत पसंद है न! मुझे ये दाढ़ी दे दो.
अब नानाजी की सिट्टी-पिट्टी गुम. अब कुछ हो न सकता था, बात हाथ से बाहर निकल गई थी. नानाजी की बहन ने उनकी दाढ़ी फटा-फट नाई बुलवाकर छीलवा दी. हम सब भौच्चके खड़े सब कुछ देखते रहे. नानाजी ने अपना वायदा निभाया और दोबारा कभी न दाढ़ी बढ़ाई. उनकी बहन भी बेहद खुश थी, उन्हें नानाजी की दाढ़ी जरा न भाती थी. हम जब दिल्ली लौटे तो इस घटना का जिक्र नानाजी दुख और बहन के लिए अपार प्यार के साथ करते थे. फिर उन्हें दाढ़ी शेव करनी पड़ती थी, जो काम उन्हें जरा पसंद न था. वैसे दाढ़ी बनाते समय नानाजी अक्सर अपनी ही कोई गजल गुनगुनाते रहते. पूछने पर कहते इससे इतना नीरस काम जरा सरस हो जाता है. उन्हें शीशे के सामने खड़ा
होकर खुद से बतियाने के अंदाज में यह सुनना-
जहां में जितने रोज अपना जीना होना है,
तुम्हारी चोटें होनी हैं, अपना सीना होना है
या फिर, ऐसे ही किसी अकेले पल में उनके मुंह से न जाने कितनी बार ये लाइनें सुनी होगी-
आज फिर काम से लौटा हूं बड़ी रात गए
ताक़ पर ही मेरी हिस्से की धरी है शायद.
हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहे नानाजी जब सदा के लिए दूर चले गए. फिर अचानक ही अपने-पराए रिश्तों के वार पड़ने लगे. यूं भला ही था कि हम छोटे ही थे तब भी जब ये वार हो रहे थे और कम अक्ली और कच्ची उम्र ने हमें बचा लिया, आरोपों के तीर से हम बचे रहे… बेरहम सवाल हमें घायल न कर पाए….
इतने अलग-अलग रूप-रंग में नानाजी मेरी यादों में बसे हुए हैं कि उन्हें कागज पर उतारना बड़ा दुरुह है. लंबे समय से मन था इन सुनहरी यादों को पन्नों पर उतारने का और फिर-फिर उनकी खुशबू में नहाने का. यूं भी लगता रहा कि क्या इसकी कोई जरूरत है क्योंकि आज जिस रूप में उन्हें याद किया जा रहा है, उसमें इस बात से क्या कोई फर्क पड़ता है कि एक बच्ची की नजर में शमशेर किस सूरत-किस रंग रूप में चमके और उनकी घनी नीमछाया स्मृतियों का उसके लिए महत्व है. इन पंक्तियों को लिखते समय में भी नेपथ्य में कहीं ये बातें जेहन में कौंध रही हैं… गोकि बस… तभी नानाजी की आवाज हौले से कान में बज गई…
…वाह जी वाह!
हमको बुद्धू ही निरा समझा है!
हम समझते ही नहीं जैसे कि आपको बीमारी है….
बस फिर क्या चांद चमकने लगा. मुंह को गोल-गोल कर इस कविता को दुलार से सुनाते नानाजी नजर आने लगे. ये कविता और मैं. मेरी उम्र की हर बच्ची, जो सोचती उन्होंने ये कविता बस उसके लिए लिखी है. बार-बार जिद करके ये कविता सुनना औऱ सुनते ही चले जाना. यूं ही चल निकली चांद से गप्पें करती हमारी सवारी—खूब हैं गोकि!.
भाषा सिंह
लेखक,पत्रकार,संस्कृतिकर्मी