नवोदित सक्तावत
आखिर सचिन तेंदुलकर ने वह अहम घोषणा कर ही दी जिसके लिए सभी मुंतज़िर थे. बेकरार थे. तैयार थे. और इसे सुनना ही चाहते थे. लोग सचिन को अब खेलते नहीं बल्कि घर बैठे देखना चाहते थे. एक दिनी क्रिकेट के बाद 20—20
क्रिकेट से विदा होने के बाद अब टेस्ट मैच की ही कसर बाकी थी. इंतजार इस बात का था कि सचिन स्वयं विदा होते हैं या उन्हें निकाला ही जाएगा. क्योंकि अच्छा प्रदर्शन करने से तो वे रहे. वे भूल चुके थे कि अच्छा प्रदर्शन कैसा होता है. सो,
तमाम क्रिकेटप्रेमियों के जेहन में सवाल था कि सचिन क्या चुनते हैं?
गावस्कर की तरह स्वयं ससम्मान विदा होना या शास्त्री या सिद्धू की तरह निकाला जाना,
जो कि अपने आप में दुर्व्यवहार से कम नहीं. खैर,
सचिन ने स्वयं विदा की घोषणा करके अपना वह आत्म—
सम्मान बचा लिया जिसे कमाने में 24
बरस लग गए लेकिन छीछालेदर करने में लोग 24
सेकंड भी नहीं लेते. तो,
सचिन तेंदुलकर अब भूतपूर्व क्रिकेटर होने जा रहे हैं. लाखों—
करोड़ों लोगों की निगाहें अब उनके आखिरी टेस्ट मैच की ओर हैं. यदि वे इस मैच में चल जाते हैं तो अपने आप में टीस होगी क्योंकि इससे साबित हो जाएगा कि वे तो फार्म में हैं. यानी अच्छे खासे खिलाड़ी को अपना खेल छोड़ना होगा. लेकिन यदि जीवन की अंतिम पारी में वे सस्ते में आउट हो जाते हैं तो निश्चित ही ब्रेडमेन की परंपरा में शामिल होकर सर्वकालिक महान बल्लेबाजों की जमात में शामिल हो जाएंगे. याद कीजिये,
रनों की मशीन कहे जाने वाले ब्रेडमेन जीवन की अंतिम पारी में कदाचित शून्य पर आउट हो गए थे,
महज चार रन को तरस गए थे और इसीलिए उनका औसत 96
का रहा. चार रन बनाने पर यह औसत सौ रन प्रति पारी हो जाता. लेकिन महान खिलाड़ी महान त्रासदी का शिकार हुआ. महान लोगों का प्रारब्ध उन्हें महान त्रासदियों देता ही है. किसी भी क्षेत्र में देखा जा सकता है.
खैर, सचिन ने अब विदा की घोषणा कर दी है और नई पीढ़ी के अभद्र, छिछले, उथले, सतही, वाचाल और तथाकथित सितारे खिलाड़ियों के लिए स्थान रिक्त कर दिया है. वे खिलाड़ी जो सचिन की मौजूदगी में सहज नहीं हो पाते होंगे, उन्हें अब उनकी जहालत के लिए खुला मौका मिलने वाला है. भले ही मन से सचिन का सम्मान न करते हों, दिखावा तो करना ही पड़ता है. भद्रजनों के खेल की देशना को उच्छृखंलता का जामा पहनाने के इस दौर में सचिन वैसे भी आउट आफ फैशन हो चुके थे. वे संन्यास की घोषणा न भी करते तो भी उनका होना न होना एक समान था. वे वर्तमान खिलाड़ियों से ट्यूनिंग बैठा नहीं पा रहे थे. यह संभव भी नहीं है. कहां सचिन जैसा शालीन, गंभीर, सभ्य, प्रतिभावान और कहां वर्तमान टीम के चरित्रहीन, बिकाउ, बेगैरत, प्रतिभाहीन, धनलोलुप, अश्लील, भ्रष्ट, कमजर्फ और बदमिजाज कर्णधार? तो, सचिन ने ठीक ही किया. चयनकर्ता तो उन्हें उनकी छबि के कारण चाहकर भी कुछ नहीं बोल पा रहे थे लेकिन अंतिम फैसला तो स्वयं सचिन को ही करना था. यह उपयुक्त समय था कि सचिन हटें और स्थान खाली करें, वर्ना इस उन्मादी मुल्क में तारीफ जितनी जोरों से की जाती है, गालियां भी उतनी ही शिदृदत से मिलती हैं. लंबे समय से आलोचनाओं को शिकार हो रहे सचिन ने अब संन्यास ले लिया और अपना अभूतपूर्व गौरव सुरक्षित कर लिया, यही सबसे बड़ी राहत भरी खबर है. शेष तो सूचनात्मक औपचारिकताएं हैं.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस कालांतर में ब्रेडमेन को केवल रन बनाने की मशीन मानकर उनके कलापक्ष को भुला दिया गया, क्या सचिन जैसा जीनियस भी ऐसी किन्हीं महान भूलों का शिकार तो नहीं हो जाएगा? क्या हम सचिन को रन बनाने की मशीन मानते आए हैं? रन बनाना तो आसान है. आईपीएल में तमाम धुरंधर जो रनों का विस्फोट करते हैं, उनके आगे निश्चित ही सचिन नहीं ठहरते. ठहरना भी नहीं चाहिए. सचिन रनरेट तेज करने की मशीन नहीं, वह एक बल्लेबाज है. कलात्मक बल्लेबाज. उसे यदि मास्टर कहा जाता है तो समझ आता है लेकिन ब्लास्टर कहना उसके कलापक्ष के साथ अन्याय करने जैसा होगा.
जब भी सचिन पर कुछ बोलने की बारी आती है, दुनिया भर के गेंदबाज़ मानो रटारटाया, पारंपरिक बयान देते हैं कि सचिन को आउट करना कठिन था, या वे उन्हें आउट करने की हसरत रखा करते थे वगैरह—वगैरह. इन बातों में सच्चाई का प्रतिशत कम नजर आता है। सचिन कोई राहुल द्रविड़ या जैक्स कैलिस की तरह दीवार नहीं रहे जिन्हें आउट करना कठिन हो, अथवा चुनौती हो. उन्हें तो आउट करना सदा आसान रहा है। 97 में साउथ अफ्रीका के दौरे पर डोनाल्ड ने उन्हें धूल चटाई थी, यही काम सदी के आरंभ में मैक्ग्रा ने किया. जैसन गिलेस्पी नहीं कर पाए सो वे ऐसी इच्छा जताएं तो समझ में आता है. लेकिन सचिन के संन्यास पर मुरलीधरन ने बयान दिया कि उन्हें आउट करना मुश्किल था, समझ से परे है। ना ही सचिन बहुत चिपकू बल्लेबाज रहे ना ही मुरलीधरन बेहद खौफनाक गेंदबाज. सो यह बात जमती ही नहीं है. सचिन ने तो सदा किसी दरवेश की भांति अपने विकेट सस्ते में उछाले हैं.वे बहुत बार कमजोर गेंदों पर घटिया शॉट खेलकर नौसिखिये की तरह चलते बने हैं। यह सब बखूबी जानते हैं.
सचिन का खेल मैंने दस वर्षों तक देखा. भारतीय टीम को मिले नए कर्णधारों के आगमन के बाद मैंने क्रिकेट ही देखना छोड़ दिया क्योंकि मेरे लिए क्रिकेट का मतलब सचिन ही रहा. सचिन की तमाम जय—
जयकारों के बीच किसी तटस्थ सवाल को पनपने का पूरा अधिकार है कि सचिन ने आखिर ऐसा कौन सा तीर मारा कि उसे भगवान का दर्जा दिया जा रहा है?
यदि उसने चौके—
छक्के ही लगाए हैं तो क्रिस गेल, गिलक्रिस्ट, साइमंड्स, कैलिस, विराट कोहली, धोनी, सहवाग,
उन्मुक्त आदि—
आदि के बारे में क्या ख्याल है?
सचिन तो इनके आगे कुछ नहीं हैं. इसका जवाब बिलकुल आसान है. ये लोग विस्फोटक बल्लेबाज हैं,
इनका कला से कोई लेनादेना नहीं है. सचिन एक कलाकार है. वह बल्लेबाजी को जीता है,
शॉट्स में समा जाता है. cover drive
लगाते हुए वह स्वयं cover drive
ही हो जाता है. मुझे याद है एक बार एक कथित क्रिकेट प्रेमी से मेरी बहस हुई थी. साथ में मैच देख रहे थे. सचिन बल्लेबाजी को आए. 13
रन पर आउट हो गए,
जिनमें तीन चौके शामिल थे,
तीनों क्रमश: on, off और cover drive थे. जब सचिन आउट हुए तब क्रिकेटप्रेमी ने उन्हें कोसा और कहा घटिया खिलाड़ी है. सस्ते में चलता बना. मुझसे प्रतिक्रिया पूछी गई तो मैंने कहा—
यह सचिन की निसंदेह महान पारियों में से एक है. क्रिकेटप्रेमी को आश्चर्य हुआ. क्यों?
मैंने कहा—
सचिन ने जो तीन शॉट्स लगाए,
वे अत्यंत सुंदर,
कलात्मक और खूबसूरत थे. निगाह बंध सी गए. रिप्ले पर आंख गढ़ी रही कि कैसे खेल लिया यह पीस. यह मिठास भरा टुकड़ा! वाह! खिलाड़ी हो तो ऐसा! द एसेंस आफ क्रिकेट एट इट्स बेस्ट. निहायत ही सधे हुए और लाजवाब शॉट थे,
जो सचिन की ही बुक में मिल सकते हैं. अब हर्जा नहीं,
टीम जीते या हारे. लेकिन सचिन ने एक और महान पारी खेली,
इसके लिए उनका आभार. सज्जन सहमत न हुए सो न हुए. होते भी क्यों,
सचिन को रन बनाने की मशीन जो मान बैठे थे.
जब सचिन का आगमन हुआ था, नब्बे के दशक की शुरुआत में, तब वे एकमात्र ऐसे बल्लेबाज थे जो युवा उर्जा से भरे थे और महत्वाकांक्षी थे. रनों की स्वाभाविक भूख के अलावा उनमें प्रदर्शन करने का जुनून था. उनके आउट होते ही बाकी के विकेट धड़ाधड़ गिरने लगते, वे जमे रहते तो टीम जीतती. यह एक परिपाटी सी बन चुकी थी. मांजरेकर, प्रवीण आमरे, विनोद कांबली, अजय जडेजा उनके सहयात्री रहे लेकिन उनके जैसी योग्यता नहीं दिखा पाए. लेकिन गांगुली और द्रविड़जैसे बांके नौजवानों ने आकर इस छोटे कद के बड़े खिलाड़ी का बहुत सारा तनाव कम कर दिया. रही सही कसर सहवाग, युवराज, धोनी व उनकी टोली ने पूरी कर दी. अब सचिन के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं बची. सही भी है कि अब वे टीम में रहकर करेंगे भी क्या? पहले जिम्मेदारी के भाव ने उनसे उत्कृष्ट प्रदर्शन करवाया, कलात्मक पक्ष ने उनसे आला दर्जे का क्रिकेट पैदा करवाया लेकिन मौजूदा दौर में तो इनसे से कोई भी चीज सचिन के पास बाकी नहीं रह गई है. वे अब ना तो मास्टर रह पाए, ना ब्लास्टर. लेकिन हमें सचिन को सूक्ष्मता से समझना होगा. भारतीय क्रिकेट के इस धूमकेतू की छबि धूमिल न हो. खुदा खैर करे.
वर्ष 1998में कंगारू टीम में माइकल बेवन और डेरेन लैहमन नामक दो खिलाडी चर्चा में थे. ये लोग बिना चौका लगाए अर्धशतक या शतक लगा लेने में माहिर थे. विदेशी खिलाड़ी प्राकृतिक रूप से भारतीयों की तुलना में अधिक फिट और स्वभावत: एथलीट होते हैं. इसलिए दौड़ने—भागने व छलांग मारने में सहज होते हैं. जोंटी रोड्स और हर्शल गिब्स के अविश्वसीय फील्ड जंप इसकी मिसाल हैं. घटिया शॉट्स लगाकर, केवल रन दौड़कर और अधिक से अधिक लेट कट, स्वीप जैसे दबे छिपे शॉट लगाकर शतक बनाने वालों की कमी नहीं. निश्चित ही पोंटिंग जैसे बल्लेबाज की सफलता की गारंटी अधिक रही, गिलक्रिस्ट सदा धुरंधर रहे. 1996 से 2000 तक अफरीदी, इजाज अहमद व जयसूर्या जैसे कातिल बल्लेबाजों का दबदबा रहा. लेकिन सचिन की हम इनसे तुलना ही क्यों करें?
सचिन से हम रन बनाने की अपेक्षा क्यों रखें?
वह अपना खेल खेले और इस बहाने रन बन जाएं तो बहुत अच्छा. टीम जीते तो सोने पर सुहागा. फिर सचिन ने तो सर्वाधिक बार मैन आफ मैच का पुरस्कार भी जीता है. टीम को सैकड़ों बार जिताया है. कंगारुओं का 98
का दौरा कौन भूल सकता है. चैन्नई में सचिन की 155
की नाबाद पारी जिसमें शेन वार्न की राउंड लेग स्पिन पर सचिन ने अविश्वसीय छक्के लगाए थे. कोलकाता में उनके महानतम cover drive और अप्रैल 98
में शारजाह कप में सचिन की दो सदाबहार पारियां,
जिसमें वे रेत के तूफान के बावजूद क्वालीफाई करके अपनी टीम को फाइनल में पहुंचाते हैं. यह पारी विश्व क्रिकेट के इतिहास की श्रेष्ठतम पारियों में शुमार होती है. उनके जन्मदिन पर हुए फाइनल में उनकी चमकीली पारी और गैर—
पारपंरिक शॉट्स….. ये कौन भूल सकता है?
यही तो सचिन का परिचय है. सचिन के खाते में संयोग से सारे बड़े कीर्तिमान आ गए हैं लेकिन हमें केवल इसी के लिए सचिन को याद नहीं रखना चाहिए. कीर्तिमान तो गैर—कलात्मक व्यक्ति भी बना सकता है. मेरे लिए शतकों का महाशतक बनाने वाला सचिन उतना ही महान है जितना 12 रन खेलकर आउट होने वाला. दोनों में कोई अंतर नहीं. बिलकुल साम्य है. सचिन को केवल रन बनाने वाला बल्लेबाज निरुपित करना एक बड़ी सांस्कृतिक भूल है. सचिन को समझने के लिए कला की दृष्टि विकसित करना होगी. सचिन के पास केवल उसकी विलक्षण प्रतिभा की संपत्ति है, जो फार्म मिलने पर जीवंत हो उठती है. यदि हम उसके फार्म को नहीं पहचानते तो उसके आउट आफ फार्म होने पर उसे गालियां देने का भी हमें अधिकार नहीं होना चाहिए.
सचिन को समझना मुश्किल है दुनिया वालों के लिए, और खासकर उसके उन प्रशंसकों के लिए जो सचिन के लिए जरूरत से ज्यादा दीवाने हैं, और जाने—अनजाने उसे जी भरकर कोसने को बाध्य हो जाते हैं. क्योंकि सचिन उनके मनमाफिक नहीं पेश आता. क्योंकि जब वे चाहते हैं सचिन रन बनाए, तब सचिन विफल हो जाता है और जब वे भूल चुके होते हैं तब सचिन अचानक ऐसा कुछ कर देता है कि सबका ध्यान बटोर लेता है. असल में, सचिन की लीला आसानी से समझ में नहीं आती! मेरे नजरिये में सचिन एक फ्री—लासिंग क्रिकेटर है! वह अपना खेल प्रस्तुत करता है, जिसे पसंद आना हो आए, ना आना हो न आए! कोई फर्क नहीं पडता! वह किसी को खुश करने, करोडों की उन्मादी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए कतई नहीं खेलता, वह केवल और केवल आनंद के लिए खेलता है! न टीम के लिए न खुद के रिकार्ड के लिए. वह क्रिकेट को काव्य की तरह जीता है, शाट्स गजल के अंदाज में लगाता है और पूरा क्रिकेट कविता की तरह पेश करता है!तिस पर यह तुर्रा भी, कि उसे उन्हीं लाखों लोगों की गालियां खाना पड़ती है जो उसे भगवान का दर्जा दे चुके होते हैं! वह निरंतर घटिया प्रदर्शन करके सभी तथाकथित भक्तों के मुंह से अपने लिए गालियां तक निकलवा लेता है, फिर जब वे सचिन की ओर से निश्चिंत हो जाते हैं कि यह तो खत्म है, फिनिश्ड है, इसे भूल जाओ! तब अचानक कहीं से मास्टर जागता है और ब्लास्ट कर देता है! ब्लास्ट किस चीज का? रनों का या शॉट्स का नहीं, बल्कि अपनी उर्जामय और दैदीप्यमान मौजूदगी का, जिससे लगातार उसका बल्ला कविताएं करता मालूम पडने लगता है. कला के इस क्षण में पता ही नहीं चलता कि क्रिकेट के मैदान का यह रिंग मास्टर अभी अभी प्रशंसकों की बलाएं झेलकर आया है. यह सचिन की लीला ही है कि उसे 24 साल में भी नहीं समझा जा सका है. बेकारी पर आए तो इतना लाचार हो जाता है कि एक रन तक नहीं बनता, और करने पर आए तो महानता के सारे कीर्तिमान नतमस्तक हो जाते हैं.
असल में सचिन अतिवादी है, इस पार या उस पार, बीच का रास्ता उसे पता नहीं. या तो उच्चतम या निम्नतम. नथिंग इन बीटवीन. मध्यमार्ग जैसी कोई चीज़ नहीं. वह लाख रूप बदल ले, राज्यसभा सदस्य बन जाए, या गोल्फ की स्टिक पकडकर इठला ले, भीतर में वह जानता है कि वह क्रिकेटर के सिवाय कुछ नहीं है! उसे दीन—दुनिया का कोई ज्ञान नहीं, सारी सिफत मैदान के भीतर है बाहर नहीं! वह केवल और केवल क्रिकेट के लिए जन्मा है! अपने कैरियर में पिच पर हजारों मील दौड़ा यह छोटे कद का विराट खिलाड़ी अब अपने कदमों को विराम दे रहा है. सचिन की शख्सियत उनके straight drive की तरह सीधी नहीं है, वह हुक शॉट की तरह है जिसमें शरीर पूरा घूम जाता है लेकिन बेहतर फुटवर्क सब संभाल लेता है. वाकई, सचिन लीलामय हैं. उलटबांसी हैं.
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नवोदित सक्तावत,(4 अप्रैल १९८३,उज्जैन)
दैनिक भास्कर भोपाल के संपादकीय प्रभाग में सीनियर सब—एडीटर के पद पर कार्यरत हैं.
सिनेमा, संगीत और समाज पर स्वतंत्र लेखन करते हैं