: :
परसाई जी का एक संकलन प्रकाशित हुआ, ऐसा भी सोचा जाता है. वाणी प्रकाशन से. इसके पहले पृष्ठ पर लेखक की ओर से चार वाक्य हैं: ये निबंध मैंने पिछले चार सालों में लिखे हैं. इनमें विषय की विविधता है. सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक विषयों पर मेरे अनुभव और चिन्तन इन निबंधों में हैं. इससे अधिक कुछ नहीं कहना. जहॉं बात खुद ही बोलती हो, वहॉं अधिक कुछ कहने की ज़रूरत ही क्या? और इस संकलन में बात जो बोल रही है, उसका महत्व इस बात में है कि इन निबंधों के जरिए हम एक प्रतिबद्ध लेखक के आत्म संघर्ष के साथ संवाद कर सकते हैं. इन निबंधों में परसाई जी की चेतना अपने नैतिक सरोकारों में अडिग रहती हुई भी अपने राजनैतिक और वैचारिक आग्रहों की नये सिरे से पड़ताल करती है. इन निबंधों में कई स्थापनाएँ हैं, जो शुद्ध गोत्र मार्क्सवादियों को आज भी खटकेंगी- दस बरस पहले तो कुफ्र ही लगतीं. धार्मिक अंधविश्वासों का विरोध जारी रखते हुए भी इन निबंधों में विज्ञान को धर्म का विकल्प नहीं माना जा रहा है. विज्ञान ही सत्य के बोध का एकमात्र वाहक है – इस तानाशाह दृष्टि के स्थान पर हम परसाई जी के इन निबंधों में मनुष्य की समग्र चेतना में विज्ञान के साथ धर्म की अहमियत की भी स्वीकृति का भाव पाते हैं. विज्ञान स्वयमेव नैतिक है, और जीवन के अन्य आयामों की जांच के प्रतिमानों का \”वैज्ञानिक\” होना पर्याप्त है, इस जड़ीभूत मान्यता के स्थान पर इस पुस्तक में हम पढ़ते हैं,
“धर्म की साधना और विज्ञान की खोज का एक ही उद्देश्य है- मनुष्य का उदात्तीकरण, उसकी ऊर्ध्वगति, मनुष्य का मंगल ….जब धर्म मनुष्य के मंगल के ऊँचे पद से गिराया जाता है तब उसके नाम से निहित स्वार्थ अधर्मी दंगा कराकर मनुष्यों की हत्या कराते हैं. और जब विज्ञान को उसके ऊँचे लक्ष्य से स्वार्थी साम्राज्यवादी उतारते हैं तो हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिरते हैं और लाखों मनुष्य मारे जाते हैं. वह मनुष्य ही है जो धर्म और विज्ञान का सही या गलत प्रयोग करता है. वरना धर्म पोथी में है और विज्ञान प्रयोगशाला में. ईश्वर को रामकृष्ण परमहंस ने सार्वभौमिक सत्य, विवेक और प्रेम माना है.\” (पृ. 74)
मतलब यह कि अपनी अंतर्निहित उच्चता का दावा विज्ञान, तार्किकता के आधार पर करे, या धर्म दैवीयता के आधार पर- ऐसे दावों की परख कर प्रतिमान तो वास्तविक मानवीय व्यवहार ही है. मनुष्य की ऊर्ध्वगति के प्रसंग में किसकी क्या भूमिका है- इसी से मालूम पड़ेगा कि उसकी नैतिक महत्ता कितनी कम या ज्यादा है. मनुष्य की ऊर्ध्वगति, उसके मंगल की समस्याओं का वास्तविक संदर्भ है: समाज का शक्ति विमर्श. इस विमर्श के विभिन्न समाजों में विभिन्न रूप हैं और भूमिकाओं की प्रगतिशीलता या दुर्गतिशीलता का निर्धारण इस शक्ति विमर्श के प्रसंग में पक्षधरता से ही होता है. न तो धर्म अनिवार्यत: प्रतिक्रियावादी है, न विज्ञान स्वभावत: प्रगतिशील. ऐसे सुविधाजनक विभाजनों की सीमाएँ भयावह रूप से उजागर हो चुकी हैं और वास्तविकता, परसाई जी के शब्दों में यह है कि,
“विज्ञान ने बहुत से भय भी दूर कर दिए हैं, हालांकि नये भय भी पैदा कर दिए हैं. विज्ञान तटस्थ होता है. उसके सवालों का, चुनौतियों का जवाब धर्म को देना होगा. मगर विज्ञान का उपयोग जो लोग करते हैं, उनमें वह गुण होना चाहिए, जिसे धर्म देता है. वह आध्यात्मिकता (स्पिरिचुअलिज्म) अन्तत: मानवतावाद . वरना विज्ञान विनाशकारी भी हो जाता है.\” (पृ. 77)
मार्क्सवादी लेखक द्वारा विज्ञानवाद का ऐसा साहसिक नकार महत्वपूर्ण है, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, उस सामाजिक राजनैतिक विमर्श का नकार जो समाज के बदलाव या पुनर्निर्माण के प्रसंग में राज्यसत्ता के सवालों के घेरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहता. मुख्य या एकमात्र समस्या अर्थतंत्र और राज्यसत्ता की ही है, बाकी दिशाओं में किए गये प्रयत्न केवल सुधारवाद हैं, ऐसे प्रयत्नों का कोई खास अर्थ कम से कम क्रांतिकारियों के लिए नहीं है-इस \”प्रगतिशील\” अंधविश्वास से परसाई जी को लगातार उलझन होती थी. बहुत पहले से वे ट्रेड यूनियनों की इस बात के लिए आलोचना करते आ रहे थे कि उनके एजेंडा पर श्रमिक वर्ग की सामाजिक चेतना के विकास को जरूरी प्राथमिकता नहीं मिलती. जात-पॉंत से लेकर सांप्रदायिकता तक के सवालों पर लोक शिक्षण ट्रेड यूनियन और कम्यूनिस्ट पार्टी का काम क्यों नहीं है- यह बात परसाई जी को कभी समझ नहीं आई.
अर्थतंत्र, विज्ञान और राज्यसत्ता पर आत्यंतिक निर्भरता आधुनिक दृष्टिकोण की बुनियादी समस्या के ही विविध पहलू हैं. मार्क्स के चिंतन का असली दार्शनिक महत्व इस \’आधुनिक\’ चिंतन में एकायामीपन का ऐसा विकल्प प्रस्तुत करने में ही निहित था, जिसमें उस मूल तर्क को समझने की कोशिश की गयी थी जो विभिन्न संरचनाओं के बीच अंतस्सूत्र का काम करता है. इस विकल्प का उचित विकास सामाजिक शक्तिविमर्श में निहित वर्चस्व और प्रतिरोध की प्रक्रियाओं को समझने की ओर होना चाहिए था. दुर्भाग्य से, मार्क्सवाद ने आधुनिकतावाद के मूल तर्क को आत्मसात कर लिया और मार्क्सवादी राजनीति राज्यसत्ता के तर्क से टकराने तक सीमित होकर रह गयी. यह इस राज्यसत्तापरक मार्क्सवाद का स्वाभाविक नतीजा ही है कि सांस्कृतिक सवालों पर संगठित मार्क्सवाद का रवैया आमतौर से लीपापोती करने का होता है. मामला चाहे मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध का हो, चाहे सहमत की \’हम सब अयोध्या\’ प्रदर्शनी का. यह बात अभी तक संगठित मार्क्सवाद की वैचारिकता में स्थित नहीं हुई है कि तथाकथित सांस्कृतिक सवाल असल में सामाजिक सता विमर्श के सवाल हैं. याने तथाकथित राजनैतिक सवालों से कहीं ज्यादा गहरे अर्थ में सत्ता के राजनीति के सवाल.
ऐसे सवालों पर कम्युनिस्ट पार्टी की लापरवाही ने मुक्तिबोध को बहुत गहरे में व्यथित किया था. परसाई जी के चालीस साल के लेखन में जो व्यथा व्याप्त है उसका भी एक ज़रूरी पहलू समाज-संस्कृति की राजनीति और उसके प्रति संगठित मार्क्सवाद की उपेक्षा से जुड़ता है. आज वाम हलकों में सांप्रदायिकता को फासीवाद कहना आम है, और यह भी कृपापूर्वक मान लिया गया है कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के खतरे की उपेक्षा अंतत: बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को भी बढ़ावा देती है लेकिन दसेक बरस पहले तक सांप्रदायिकता को फासीवाद कहने में काफी मीन मेख निभा ली जाती थी. अकाली दल और मुस्लिम लीग के साथ मिल कर आंदोलन चलने और सरकार बनाने की सफाई यह कह कर दी जाती थी कि इस तरह इन पार्टियों के मास बेस को वैज्ञानिक विचारधारा की ओर खींचा जा सकेगा. ऐसे दौर में हम लोगों ने 1983 में जिज्ञासा का पहला अंक निकाला था . परसाई जी बहुत उत्साहित थे इसके प्रति. उन्होंने पत्र लिखा-
“आपका पत्र और फोल्डर मिला. जो आप लोगों की चिंता है वही मेरी. मैं पिछले तीस सालों से इसी काम में लगा रहा हूँ. मगर हमारे बुद्धिजीवी और राजनेता लगातार illusions में जानबूझ कर रहे. सही नाम नहीं दिये. फासिज्म को, जो संगठित और क्रियाशील है, महज सांप्रदायिक प्रवृत्ति कहते रहे. मेरा ख्याल है कि बुद्धिजीवियों से boldly कहना चाहिए कि सही बात यह है. आप ध्यान दें. वे शायद ध्यान न दें पर हमें कहना बन्द नहीं करना चाहिए.
\’जिज्ञासा\’ निकालिये . मेरे द्वारा जो करणीय हो बताइये.\’
परसाई जी को \”करणीय\” तो हम क्या बताते, हॉं, इतना संतोष जरूर महसूस कर सकते हैं कि “boldly” कहना बंद नहीं किया- \’जिज्ञासा\’ का प्रकाशन जारी न रख पाने के बावजूद.
::
नितांत निर्वैयक्तिक ढंग से परसाई जी के बारे में लिख पाना मेरे लिए मुश्किल ही है. सन् चौहत्तर में, ग्वालियर के लक्ष्मीबाई कॉलेज के छात्र संघ ने उन्हें बुलाया था. उनका भाषण सुनने का वह मेरे लिए पहला और आखिरी मौका था. मैं तब तक हिन्द पॉकेट बुक से प्रकाशित \’उल्टी सीधी\’ पढ़ कर अभिभूत हो चुका था और अपने \”राष्ट्रवादी\” बुजुर्गों, रिश्तेदारों का धिक्कार भी झेल चुका था, ऐसी बेहूदा किताबें पढ़ने के लिए. अपने भाषण में परसाई जी ने क्रांति के लिए उत्सुक नौजवानों को अपनी प्रसिद्ध सलाह दी थी, \’इस कॉलेज के लड़के, लड़कियॉं आपस में विवाह कर लें तो बड़ा परिवर्तनकारी काम हो जाएगा.\’ जितनी प्रसिद्ध सलाह थी, उतनी ही अपेक्षित श्रोताओं की प्रतिक्रिया भी…\’हि हि…खी…खी….\’ लेकिन यह विचित्र लेखक था, ऊँची-ऊँची बातें करने की बजाय सीधी (या (उल्टी-सीधी\’ ?) बात कर रहा था, सीधे शब्दों में. समाज को बदलना है तो शुरुआत खुद से करो.
और जिस बदलाव की शुरुआत खुद से होनी हो, वह काफी गड़बड़ बदलाव होता है. ऐसे बदलाव की बातें समझ तो बढ़ाती हैं, सपने तो दिखाती हैं, लेकिन खुद को परेशान करने की कीमत पर.
परसाई जी के लेखन को पढ़ने में कठिनाई यही है. वह लेखन पाठक को खुद को परेशान करता है.
\’ऐसा भी सोचा जाता है\’ में एक निबन्ध है, \’जरूरत है सामाजिक आन्दोलनों की. इसके ये दो पैराग्राफ पढ़ें :
“समाज में धन्य और धिक्कार की शक्तियाँ होती हैं. ये सामाजिक सदाचरण बनाये रखती हैं. मैंने पिछले कुछ सालों से समाज को इन शक्तियों को खाते देखा है. या गलत जगह प्रयोग करते देखा है. जो चालीस साल पहले धिक्कार पाते थे, वे धन्य पाने लगे हैं और जिन्हें धन्य मिलता था, वे अपमानित पीड़ित और अवहेलित हैं. सामाजिक शक्तियां तटस्थ भी हो गई हैं. चालीस साल पहले जो घूसखोर बदनाम हो गया, वह सिर उठाकर नहीं चलता था. वह समाज से धिक्कार पाता था. आज वह सफल आदमी माना जाता है. वह ऊंचा सिर करके चलता है. लोग उसकी हवेली दिखाकर तारीफ करते हैं- बड़ा चतुर है यह आदमी. क्या हवेली तानी है. लाखों बैंक में हैं. एक हमारे बेटे हैं. दस साल नौकरी करते हो गए. सूखी तनखा घर लाते हैं. बिल्कुल बुद्धू हैं.\”
“सदियों के अनुभव, विवेक, प्रज्ञा और संवेदना से जो जीवन मूल्य हमने विकसित किये थे, उन्हें आजादी मिलते ही चालीस सालों में नष्ट कर लिया. अब सरकार और संगठन प्राचीन शिल्प और चित्र ले जाकर विदेशों में दिखाते हैं कि इतनी महान और समृद्ध हमारी संस्कृति है. कोई पूछे कि अब आप कैसे हैं ? सौंदर्य रचना संस्कृति का अंग है. पर आप तो कुरूपता की रचना कर रहे हैं.” (पृ. 26-27)
परसाई जी आजीवन \’धन्य\’ और \’धिक्कार\’ का विवेक जगाए रखने की कोशिश करते रहे, कुरूपता की रचना का जो अनुष्ठान उन्होंने अपनी आंखों देखा, उसकी परतों को उघाड़ने की कोशिश करते रहे. जाहिर है कि ऐसी किसी भी कोशिश के लिए एक वैचारिक फ्रेमवर्क की जरूरत होती ही है, जिसमें लेखक यथार्थ के अपने अनुभवों को संवेदना के रूप में ढालता है. जब लेखकीय सरोकारों और लेखक द्वारा अपनाये गये वैचारिक फ्रेमवर्क के बीच अंतर्विरोध उत्पन्न होने लगे तो गहरे तनाव की स्थिति बनती है. किसी लेखक के मूल्यांकन का एक जरूरी प्रतिमान यह भी है कि उसकी रचनाशीलता इस तनाव से किस तरह जूझती है. इस कोण से देखने पर वह सीमा उजागर होती है, जो परसाई जी ने स्वयं अपनी रचनात्मकता पर आरोपित कर ली थी. उन्होंने कई जगह अपने नैतिक सरोकारों पर भाकपा के वैचारिक फ्रेमवर्क को हावी होने दिया, परिणामस्वरूप उनकी संवेदना पर डॉग्मैटिक वैल्यू जजमेंट हावी हो गये. जयप्रकाश जी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की अंदरूनी सीमाओं और उससे जुड़े तत्वों की आलोचना और बात है, स्वयं जयप्रकाश जी को हास्यास्पद रूप में प्रस्तुत करना और बात. राजनीतिक टिप्पणीकार और सर्जनात्मक लेखक में फर्क यही है कि राजनीतिक टिप्पणीकार घटनाओं के विवरण से तुरंत आकलन पर पहुंचना चाहता है, जबकि सर्जनात्मक लेखक अपने प्रतिपक्ष पर भी मूल्य निर्णय देने की हड़बड़ी नहीं करता. मूल्य निर्णय वह देता अवश्य है, लेकिन सारी जटिलता को गहराई से परख कर, राजनीतिक पार्टियों की तात्कालिक राजनैतिक मांगों से निर्लिप्त रह कर. लेखक की राजनैतिक चेतना और पार्टियों की राजनैतिक मांग के बीच का फर्क स्वाभाविक तो है ही, लेखक के कोण से वह सर्जनात्मकता की शर्त भी है.
पार्टी की समझदारी इस बात में है कि वह लेखक की राजनैतिक चेतना के अपने स्वरूप और आग्रह का सम्मान करे. दुर्भाग्य से कई बार ऐसा होता है कि पार्टी लाइन को लागू करने का उत्साह पार्टी से कहीं ज्यादा लेखक लोग ही दिखाने लगते हैं. आजादी के तुरंत बाद रामविलास जी की आलोचना जिस तीक्ष्ण वेधी उत्साह से साहित्य में पार्टी लाइन लागू कर रही थी, उससे पार्टी को क्या लाभ हुआ, पता नहीं, हां , साहित्य में बहुत सारे जरूरी सवालों का परिप्रेक्ष्य जरूर लंबे अरसे के लिए विकृत हो गया. निकट अतीत से ही याद करें तो अफगानिस्तान में रूसी फौजों की उपस्थिति की बाबा नागार्जुन ने जो आलोचना की, उससे क्रुद्ध होकर बाबा को घेरने का जो अभियान चलाया गया, उसका मूल तर्क यही तो था कि \”पार्टी कैन डू नो रांग.” चिढ़ाने की गरज से नहीं, बात को समझने की गरज से कहा जा सकता है कि अफगानिस्तान के सवाल पर नागार्जुन का रूख बुनियादी नैतिक संवेदना का था. इस नैतिक संवेदना को \”पॉलिटिकल करेक्टनेस” की कसौटी पर कसना उल्टी गंगा बहाना है- असल में पॉलिटिकल करेक्टनेस की किसी समय प्रचलित अवधारणाओं को नैतिक संवेदना की कसौटी पर परखा जाना चाहिए और साहित्य ऐसी संवेदना की अभिव्यक्ति के प्रामाणिक रूपों में से एक है. राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, उसके आगे मशाल दिखाती सच्चाई.
वैचारिक फ्रेम वर्क के प्रति आत्यंतिक प्रतिबद्धता ने परसाई जी के लेखन में समस्याएं जरूर पैदा कीं लेकिन इन समस्याओं से उत्पन्न बेचैनी उनके सर्जनात्मक मानस में कहीं न कहीं बनी रही. \’ऐसा भी सोचा जाता है\’ के निबंधों में वह बेचैनी सतह पर आ गयी है. जाति, धर्म, सामाजिक आंदोलन, अस्मिताओं के तनाव इन सवालों पर देश के वामपंथी पुनर्विचार के लिए विवश हुए हैं. विवश होकर विचार या पुनर्विचार करना स्वाभाविक ही है, बशर्ते कि विचार की प्रक्रिया में निश्चंदला हो, पांचवें सवार का वस्त्र धारण करने की चतुराई नहीं. परसाई जी के इन निबंधों की विशेषता उनके निश्छल आत्मसंघर्ष में ही है. वे खुद को \’सदा सही\’ ठहराने की कोशिश नहीं करते. वे अपने स्वीकृत विचार की सीमाओं के अहसास से कतराने की कोशिश नहीं करते. इसीलिए उनके आत्मसंघर्ष का साक्ष्य देते इन निबंधों में न आत्मदया है, न आत्म विज्ञापन. ये निबंध एक वामपंथी बौद्धिक द्वारा अपने वैचारिक उपकरणों की पुन: पड़ताल का साक्ष्य देते हैं- और साथ ही बुनियादी नैतिक सरोकारों की निरंतरता का.
परसाई जी के नैतिक सरोकारों को यदि एक शब्दसूत्र में व्यंजित करना हो तो कहना चाहिए: सक्रिय संवेदना. इसीलिए उनके व्यंग्य के सबसे ज्यादा शिकार बने हैं मध्यवर्ग की कायरता को व्यंजित करता \’बेचारा भला आदमी\’ और अवसरवादिता का देहधारी रूप \’भैय्या सांब.\’ एक की सारी संवेदना सिर्फ आत्मोन्मुखी है और दूसरे की सारी सक्रियता भी. दूसरी ओर परसाई जी के लेखन में कुछ लोग लगातार सराहना भी पाते हैं. वह लड़की जो पांच \’दीवानों\’ की कुटिलता के आगे न रोती है, न बिध जाती है, बल्कि उन्हें मूर्ख बनाते हुए अपना सही जीवन साथी चुन लेती है. वह छात्र जो शोषक गुरू के सामने तन कर खड़ा होता है. \’धन्य\’ और \’धिक्कार\’ की शक्तियों का जो विवेक परसाई जी के मानस में स्पष्ट है, वह अपने पात्रों के प्रति उनके रवैये में बिना लाग – लपेट के स्पष्ट होता है. जो रचनात्मक आत्मसंघर्ष उनके बाद के निबंधों में है, उसका सुर शुरू में कुछ मद्धम ही रहा, वरना परसाई जी की विवेक दृष्टि का रचनात्मक प्रतिफलन और भी मार्मिक होता.
बहरहाल, परसाई जी के लेखन ने उन्हें भी प्रभावित किया है, (और ऐसे लोग लाखों की तादाद में हैं) जो उनके वैचारिक फ्रेम वर्क से काफी दूर हैं. ऐसा क्यों ? उन की कला का सधाव सीखने योग्य है . बतरस के लहजे में शुरूआत, तीखी उक्तियॉ और पैनी नज़र इन उपकरणों के जरिए परसाई विलक्षण प्रभाव छोड़ते हैं. इस विलक्षणता का अत्यंत मार्मिक दृष्टांत है: ‘इंस्पेक्टर मातादीन चॉद पर. इस फंटासी का पाठक अनेक हास्यजनक स्थितियों और विसंगतियों से गुजरता हुआ जहॉं पहॅूंचता है, वहॉं बचता है सिर्फ आंतक; जिसे हम स्वाभाविक मानने के आदी हो गये हैं, उस वास्तविकता के आतंक को हमारे सामने लाता यह शब्द चित्र –
“कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह कत्ल के मामले में फँसा दिया जायेगा. बेटा बीमार बाप की सेवा नहीं करता. वह डरता है, बाप मर गया तो कहीं उस पर हत्या का आरोप न लगा दिया जाए. घर जलते रहते हैं और कोई बुझाने नहीं जाता – डरताई है कि कहीं उस पर आग लगाने का जुर्म कायम न कर दिया जाये. बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्हें नहीं बचाता. इस डर से कि उस पर बच्चों को डुबाने का आरोप न लग जाए. सारे मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं.”
कितनी डरावनी स्थिति है. यह कहानी फंटासी में रची गयी है, लेकिन जो स्थिति यहॉं बयान की गयी है. वह फंटासी कहाँ है ? वह तो हमारे रोजमर्रा के जीवन का एक पहलू है- डरावना, अमानवीय. इसलिए और भी डरावना कि \’हमें\’ इसमें अस्वाभाविक सा कुछ लगना ही बंद हो गया है. ऐसी कुछ संवेदना को झकझोरना ही परसाई की सक्रिय संवेदना का लक्ष्य है.
विडंबना यह है कि यथार्थ का डरावनापन कई बार लेखकों के लिए सुलभ युक्ति, बल्कि एक तरह के ‘पोस्चर’ में बदल जाता है. यथार्थ के सिर्फ अशुभ पहलू पर जमी निगाह को ‘आलोचनात्मक’ होने का आत्मतोष भी आसानी से सिद्ध हो जाता है. व्यंग्य की विधा हो तो यथार्थ के प्रति लेखकीय रवैये का ‘सिनिकल’ हो जाना बहुत संभव होता है, जैसा कि ‘राग दरबारी’ में हुआ है. परसाई जी के समग्र लेखन को यदि एक रचना की तरह पढ़ें तो दिखता है कि ‘सिनिसिज्म’ के प्रति उनमें एक तरह का चौकन्नापन है. वे सजग हैं कि, “मनुष्य के पतन की जितनी गहराई है, उससे अधिक ऊँचाई मनुष्यता के उत्थान की है .” (फिर उसी नर्मदा मैया की जय)
::
परसाई जी को अहसास है कि आदमी ऑटोमैटम (मशीन) नहीं है, वह सिर्फ तर्क से नहीं समझा जा सकता. इस अहसास की निष्पत्तियॉं उनके लेखन में अधिकांश जगहों पर मुखर नहीं हैं, यह बात और है. शायद वैचारिक फ्रेमवर्क की बाधा का एक और रूप लेकिन इस लेख – ‘फिर उसी नर्मदा मैया की जय’- में परसाई भी स्पष्टतया कहते हैं, “आदमी कब लकड़बग्घा हो जाए, कब करुणा सागर – ठिकाना नहीं है.”
यह बहुत ही रोचक है कि नयी कहानी के दौर में, जबकि परसाई के लेखन की आवाज एकदम अलग सुनी जा सकती थी, नहीं सुनी गयी. डॉ. नामवर सिंह ने स्वीकार किया है,
“उस समय परसाई जी की इन कहानियों (‘भोलाराम का जीव’, ‘भूत के पॉंव पीछे’ ‘जैसे उनके दिन फिरे’) की ओर ध्यान जाना चाहिए था…. वो दरअसल यशपाल की व्यंग्य करने वाली कहानियों की परंपरा में, लेकिन किसी सपाट फार्मूले के मुताबिक लिखी गयी कहानियाँ वो नहीं थीं…. उनकी रचना धर्मिता की अच्छी तरह जॉंच की जानी चाहिए कि आखिर वह कौन सी चीज रही है जो परसाई जी को कहानियों की दुनिया से निबंधों की ओर ले गयी.” (साम्य परसाई अंक, जुलाई 1990, पृ0 296).
नयी कहानी के दौर के अन्य लेखकों से तुलना करते हुए श्रीलाल शुक्ल ‘आत्मकथ्य’ से परसाई जी की विरक्ति को रेखांकित करते हैं, उनका कहना है “मुझे नहीं मालूम कि बोलने के मामले में वे मेरी तरह हैं या अज्ञेय की तरह, हंसते अश्क की तरह हैं या कुँअर नारायण की तरह, रहन-सहन, खान-पान में मण्टो या निराला के नजदीक हैं या पन्त और बच्चन के. मेरा इन मामलों में अनजान होना ही इस बात की दलील है कि परसाई का कोई निजी जन-सम्पर्क एवं सूचना प्रसारण विभाग नहीं है और है भी तो वह बहुत नामाकूल है .” (ऑखन देखी – सं. कमला प्रसाद, 1981 पृ. 425)
परसाई पर आलोचना का ध्यान न जाना परसाई के नामाकूल जनसंपर्क विभाग की वजह से भी हो सकता है, लेकिन समस्या का गहनतर पहलू भी है. नयी कहानी के दौर में कहानी के मूल्यांकन के प्रतिमान कविता से उधार लिए जा रहे थे, जबकि परसाई की रचनाशीलता का स्वभाव दूसरा था. कविता ‘लिखी’ जाती है, उसमें सजग आयास अंतर्निहित है. गद्य मुख्यत: बोलने के लिए है. मोलियर के नाटक के पात्र जोर्दां महाशय बेचारे यह जान कर चकित हो जाते हैं कि वे जीवन भर गद्य ही बोलते रहे हैं. परसाई की कहानियॉं और निबंध इसी “जीवन भर” बोले जाने वाले भाषा रूप का सर्जनात्मक विस्तार है. कविता के प्रतिमानों को कहानी पर लागू करने की पद्धति अपनाने पर यह स्वाभाविक ही था कि बतरस की अनायासता का विस्तार करने वाली और घटना को केवल दृष्टांत की तरह बरतने वाली रचनात्मकता आलोचना को उत्तेजित न कर पाए.
परसाई की कहानियॉं और निबंध हमें याद दिलाते हैं कि सर्जनात्मकता के कविता परक सायासता और वैशिष्ट्य के सिवाय अन्य रूप भी हो सकते हैं. सायासता के मुहावरे में बोलचाल की शब्दावली को लाना एक उपलब्धि है, लेकिन सहज, स्वाभाविक बोलचाल के गद्य को सर्जनात्मक लेखन में बदल देना यह गद्य के अपने क्षेत्र की उपलब्धि है. इसका मूल्यांकन उधार के प्रतिमानों पर नहीं किया जा सकता. इसके लिए गद्य के अपने स्वभाव के प्रति संवेदनशील प्रतिमान चाहिए.
परसाई के गद्य की विशेषता को व्यक्त करने के लिए शब्द तलाशते मन में कवि भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्ति कौंधती है, “ जैसा हम बोलते हैं, वैसा तू लिख. फिर भी हमसे अलग तू दिख ”. सचमुच, क्या परसाई ऐन वैसा ही नहीं लिखते, जैसा हम बोलते हैं. और इसी तरह लिखे गये से हमको गुजारते हुए परसाई उन्हीं शब्दों, उन्हीं विन्यासों में एक अलग तरह का अवकाश रच देते हैं, जहाँ हम न केवल सच्चाइयों को बल्कि उन सच्चाइयों को गढ़ने वाली भाषा को सर्वथा अनपेक्षित तेवरों के साथ देख पाते है:
“सिर्फ़ यह नहीं है कि ईसा अपना सलीब खुद ढो रहा है या सूली पर टँगा है. ईसा को अपने पाँवों पर अपने हाथों से कील ठोंकने को मजबूर किया जा रहा है और वह कह रहा है- पिता इन्हें हरगीज़ माफ़ मत करना, क्योंकि ये साले जानते हैं, ये क्या कर रहे हैं.” (न्याय का दरवाजा)
जैसे मेरी आपकी बातचीत का कोई टुकड़ा उठा लिया गया है. लेकिन एक भयानक अर्थ का दरवाज़ा खोलने के उस टुकड़े का ऐसा उपयोग हमारे बोलने जैसा लिखने वाले लेखक को अलग दिखा देता है. परसाई जी का लेखन सहज गद्य के सर्जनात्मक विस्तार का विलक्षण उदाहरण है. उनके यहाँ आयास दिखता ही नहीं, इतनी सहज है उनकी अभिव्यक्ति. इसलिए यदि \’सेल्फ कांशस\’ लेखन के दौर में उन पर ध्यान नहीं गया तो ताज्जुब की कोई बात नहीं . सहज को स्वभाव का हिस्सा बनाना बड़ी कठिन साधना की माँग करता है. परसाई का लेखन उस \’सहज साधना\’ को चीन्हने का लेखन है.
सहजता के ही फलस्वरूप परसाई का लेखन संवादधर्मी लेखन है. सामाजिक – राजनैतिक समस्याओं पर एकदम खरी बात करने के बावजूद परसाई अपने पाठक को चिढ़ाते प्रतीत नहीं होते. चिढ़ाने और संवाद स्थापित करने का फ़र्क परसाई के मानस को बखूबी मालूम है. (काश, राजेन्द्र यादव भी \’हंस\’ के संपादकीय लिखते समय इस फ़र्क को याद रखते! काश, मैं स्वयं इस फ़र्क को हमेशा याद रख पाऊॅं !) यह संवाद धर्मिता की वह लक्ष्य है, जिस के कारण परसाई जी न केवल कहानी की विधा से निबन्ध की ओर जाते हैं, बल्कि आगे चलकर उनकी रचनाएं कहानी और निबन्ध के पारंपरिक फ़र्क से आगे बढ़ जाती है. कहानी सरीखे चित्रण से आरंभ कर लेखक पाठक से सीधा संवाद करने लगता है या निबन्ध – सरीखे बयान से आरंभ कहानी का ताना- बाना गूँथने लगता है. सहमति, असहमति अपनी जगह लेकिन परसाई जी के लिए लेखन का लक्ष्य है: ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ संवाद (कई बार उपदेश भी), इस लक्ष्य की साधना ही महत्वपूर्ण है, विधाओं की शास्त्रीय शुद्धता नहीं.
\’धन्य\’ और \’धिक्कार\’ की शक्तियों की परसाई जी की अपनी समझ है, दो टूक और बे झिझका सर्जनात्मकता साधने का कोई अलग आयास नहीं है, कोई दावा नहीं है, लेकिन \”जीवन भर बोले जाने वाले” गद्य की अपनी ज़िजीविषा में परसाई जी की गहरी आस्था है. इसी कारण वे इस गद्य का सर्जनात्मक विस्तार अपने लेखन में करते हैं- कविता के सामने किसी तरह की हीनता ग्रंथि महसूस किए बग़ैर . वे न तो गद्य में कविता की नकल करते हैं, और न कविता को कोसकर कहानी की टोपी में पंख लगाते हैं.