गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़
मैं अपने सपने बेचती हूँ
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय
एक सुबह नौ बजे , जब हम चमकते सूर्य तले हवाना रिविएरा होटल की छत पर नाश्ता कर रहे थे , समुद्र से आई एक विशाल लहर ने समुद्र के किनारे की सड़क पर चल रही और किनारे पर खड़ी कई कारों को उछाल दिया और और उनमें से एक कार को होटल के बग़ल की दीवार में घुसा दिया. यह सब डायनामाइट के विस्फोट जैसा था और इससे उस बीस-मंज़िला होटल की सभी मंज़िलों पर घबराहट की वजह से भगदड़ मच गई. इससे होटल के शीशे का प्रवेश-द्वार भी चूर-चूर हो गया. उस भयावह लहर ने होटल के प्रतीक्षा-कक्ष में बैठे पर्यटकों और सारे सामान को भी हवा में उछाल दिया. बहुत-से लोग टूट गए शीशे की बौछार से घायल हो गए. वह लहर अवश्य ही विराट् रही होगी क्योंकि वह समुद्र के किनारे बनी ऊँची दीवार को लाँघ कर , उस चौड़ी , दोतरफ़ा सड़क को पार करके होटल से जा टकराई और तब भी उसमें इतना वेग था कि इमारत की सभी काँच की खिड़कियाँ चकनाचूर हो गईँ.
क्यूबा के खुशमिजाज़ स्वयं-सेवकों ने वहाँ के दमकल विभाग की मदद से छह घंटों से भी कम समय में पूरा मलबा हटा दिया. उस पूरे इलाक़े को बंद करके वहाँ मरम्मत का काम चालू कर दिया गया और जल्दी ही स्थिति सामान्य हो गई. सुबह कोई भी होटल की दीवार में धँसी कार को देखकर चिंतित नहीं हुआ क्योंकि सबने यही सोचा कि यह सड़क के किनारे खड़ी कारों में से एक होगी. लेकिन जब क्रेन ने आ कर उस धँसी हुई कार को दीवार में से बाहर निकाला तो उन्हें चालक की सीट पर सीट-बेल्ट में बँधी एक महिला का शव मिला. उस विराट् लहर का धक्का इतना ज़ोरदार था कि उस महिला के शरीर की एक भी हड्डी साबुत नहीं बची थी और उसके कपड़े चिथड़े-चिथड़े हो गए थे. उसने अपनी उँगली में सोने की सर्पाकार अँगूठी पहन रखी थी जिसकी आँखें पन्ने की थीं.
तहक़ीक़ात करके पुलिस ने यह पता लगा लिया कि वह महिला नए पुर्तगाली राजदूत और उनकी पत्नी के रहने वाले घर की देख-भाल करती थी. वह दो हफ़्ते पहले ही उनके साथ हवाना आई थी और उस सुबह एक नई कार में बाज़ार जाने के लिए निकली थी. जब मैंने समाचार-पत्र में उसका नाम पढ़ा तो मुझे कुछ भी याद नहीं आया. लेकिन पन्ने की आँखों वाली उस सर्पाकार अँगूठी ने मुझमें जिज्ञासा और कुतूहल उत्पन्न कर दी. हालाँकि मैं यह नहीं जान पाया कि उस महिला ने वह अँगूठी अपनी किस उँगली में पहनी थी.
यह एक महत्वपूर्ण जानकारी थी क्योंकि मुझे लगा कि यह वही न भुलाई जा सकने वाली महिला थी जिसका वास्तविक नाम मैं कभी नहीं जान पाया. वह महिला अपने दाएँ हाथ की तर्जनी में वैसी ही अँगूठी पहनती थी. उस ज़माने में यह आज से भी अधिक विरली बात थी. उससे मेरी मुलाक़ात चौंतीस वर्ष पहले विएना में हुई थी. वह एक ऐसे शराबखाने में बीयर पी रही थी और गुलमा और उबले हुए आलू खा रही थी, जहाँ लातिन अमेरिकी छात्र-छात्राएँ अक्सर आया-जाया करते थे. मैं उसी सुबह रोम से लौटा था और मुझे उसके उठे हुई उरोज , उसके कोट के कॉलर पर लटके उसके घने , नुकीले , अलसाए बाल और उसकी मिस्र की वह सर्पाकार अँगूठी आज भी याद है.
वह बिना साँस लेने के लिए रुके एक धात्विक लहज़े में कामचलाऊ स्पेनी भाषा बोल रही थी. मुझे लगा कि काठ की लम्बी मेज के साथ मौजूद कुर्सी पर बैठी वह वहाँ एकमात्र आस्ट्रियाई महिला थी. किंतु नहीं. उसका जन्म कोलम्बिया में हुआ था और वह विश्व-युद्धों के बीच के वर्षों में आस्ट्रिया आई थी. तब वह किशोरावस्था में थी और वह यहाँ संगीत की शिक्षा प्राप्त करती रही थी. अब वह तीस साल की हो गई थी लेकिन उसने अपने रूप-रंग की ज़्यादा देख-भाल नहीं की थी. वह कभी भी पारम्परिक रूप से खूबसूरत नहीं रही थी , और अब उसकी उम्र समय से पहले ढलने लगी थी. लेकिन वह फिर भी एक आकर्षक महिला थी. और वह आपको पूरी तरह विस्मित कर देने वाली महिलाओं में से एक थी.
विएना तब भी एक शानदार और प्रतापी शहर था. द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद उत्पन्न दो परस्पर विरोधी धड़ों के बीच अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण विएना काला-बाज़ारी और अंतरराष्ट्रीय जासूसी का स्वर्ग बन चुका था. मैं अपनी भगोड़ी हमवतन के लिए इससे उपयुक्त किसी जगह की कल्पना भी नहीं कर सकता था. वह अब भी अपने उद्भव के प्रति वफ़ादारी की वजह से सड़क के कोने पर मौजूद उस शराबखाने में ही भोजन करती थी जहाँ विद्यार्थी आया-ज़ाया करते थे. दरअसल वह इतनी धनी थी कि वहाँ मौजूद सभी साथियों के भोजन का भुगतान वह आसानी से कर सकती थी. उस महिला ने हमें कभी अपना वास्तविक नाम नहीं बताया. हम सभी लातिन अमेरिकी छात्र-छात्राएँ उसे कठिनाई से बोले जा सकने वाली जर्मन भाषा के उस नाम से बुलाते थे , जिसे हमने गढ़ा था — फ़्राउ फ़्रिएडा. उस महिला से मेरा परिचय हाल ही में करवाया गया था. तब मैं उससे यह पूछने की सुखद धृष्टता कर बैठा कि क्विनडाओ की तूफ़ानी खड़ी चट्टानों से बिल्कुल अलग इस दुनिया में वह कैसे चली आई. और उसने इसका बड़ा विध्वंसक उत्तर दिया — “ मैं अपने सपने बेचती हूँ. “
असल में यही उसका पेशा था. वह पुराने कैल्डास में रहने वाले एक धनी दुकानदार के ग्यारह बच्चों में से तीसरी संतान थी. बचपन में जैसे ही उसने बोलना शुरू किया, उसने अपने परिवार में मौजूद एक बढ़िया प्रथा को अपना लिया. उस प्रथा के तहत वे सब सुबह के नाश्ते से पहले अपने सपनों के बारे में चर्चा करते थे और उनके अर्थ बताते थे. उनके मुताबिक़ यह वह समय था जब उनके भविष्य-सूचक गुण अपने शुद्धतम रूप में उनमें मौजूद होते थे. जब वह महिला सात साल की थी तो उसे सपना आया जिसमें उसके भाई को बाढ़ का पानी अपने साथ बहा कर ले गया. धार्मिक अंधविश्वास के कारण उसकी माँ ने खड्ड में उस लड़के के तैरने पर प्रतिबंध लगा दिया. तैरना उस लड़के का पसंदीदा मनोरंजन था. किंतु फ़्राउ फ़्रिएडा का भविष्यवाणी करने का अपना अलग ही हिसाब-किताब था.
“मेरे सपने का अर्थ यह नहीं है कि भाई डूब जाने वाला है. दरअसल उसे मिठाई नहीं खानी चाहिए क्योंकि उसे मिठाई से ख़तरा है.”
उसकी यह व्याख्या एक पाँच वर्ष के बच्चे के मामले में दुष्टता थी , विशेषकर तब जब वह बच्चा हर रविवार को मिठाई खाने का मज़ा लूटे बिना नहीं रह पाता था. लेकिन उसकी माँ को अपनी बेटी के सही भविष्यवाणी करने के गुण पर पूरा भरोसा था. इसलिए उसने भाई के प्रति बहन की चेतावनी को गम्भीरता से लिया और बेटे को मिठाई खाने से पूरी तरह वंचित कर दिया. लेकिन लापरवाही के अपने पहले पलों में छिप कर मिठाई का एक बहुत बड़ा टुकड़ा खाते समय उस लड़के का दम घुट गया और उसे बचाया नहीं जा सका.
फ़्राउ फ़्रिएडा स्वयं यह नहीं समझती थी कि अपनी इस योग्यता को वह अपनी आजीविका का माध्यम बना सकती थी. लेकिन विएना की क्रूर सर्दियों में उसका जीवन बेहद कठिन हो गया और खुद के प्रति उसे अपनी राय बदलनी पड़ी. तब जिस घर में वह रहना चाहती थी , उसने उस पहले मकान में काम की तलाश शुरू कर दी. जब उससे पूछा गया कि वह क्या कर सकती थी , उसने केवल सच्चाई बयान कर दी :
“मैं सपने देखती हूँ.“ उसे घर की महिला को अपने काम के बारे में संक्षेप में बताना भर पड़ा और उसे उतने वेतन पर काम पर रख लिया गया जितने में उसका गुज़ारा हो जाता था. रहने के लिए उसे एक बढ़िया कमरा दे दिया गया. उसे तीन वक़्त का खाना भी मिल जाता था, विशेष रूप से सुबह का नाश्ता, जब वह पूरा परिवार अपना तात्कालिक भविष्य जानने के लिए उसके इर्द-गिर्द जमा हो जाता था. उस परिवार में पिता एक सेवानिवृत्त पूँजीपति थे, माँ रोम के संगीत के प्रति समर्पित एक ख़ुशमिज़ाज महिला थी और ग्यारह और नौ वर्ष के उनके दो बच्चे थे. वे सभी धार्मिक प्रवृत्ति वाले थे और पुरातन अंधविश्वासों में आस्था रखते थे. इसलिए फ़्राउ फ़्रिएडा को नौकरी पर रखने में उन्हें ख़ुशी हुई. अपने देखे गए सपनों के आधार पर परिवार के सभी सदस्यों के क़िस्मत की व्याख्या करना ही फ़्राउ फ़्रिएडा की एकमात्र ज़िम्मेदारी थी.
वह अपना काम बख़ूबी करती रही, ख़ास करके बहुत समय तक युद्ध के दिनों में , जब वास्तविकता दु:स्वप्न से भी अधिक डरावनी होती थी. परिवार के हर सदस्य को किसी भी दिन क्या करना है और कैसे करना है, इसका निर्णय केवल वही लेती थी. धीरे -धीरे उसकी भविष्यवाणी को उस घर में एकमात्र अधिकार मिल गया. उस पूरे परिवार पर उसे परम-नियंत्रण प्राप्त हो गया. हल्की-सी साँस भी उसकी अनुमति से ही ली जाती थी. जब मैं विएना में था , तभी उस घर के मालिक का देहांत हो गया. वह इतना सुशिष्ट था कि वह अपनी जायदाद का एक हिस्सा उस महिला के नाम छोड़ गया. शर्त केवल यह थी कि वह उसके परिवार के लिए तब तक सपने देखने का काम करती रहेगी जब तक उसके सपने ख़त्म नहीं हो जाते.
मैं एक महीने से अधिक अवधि तक विएना में रहा और अन्य विद्यार्थियों की तरह दुखद परिस्थितियों का सामना करता रहा. दरअसल मैं घर से रुपए-पैसे आने की अंतहीन प्रतीक्षा कर रहा था. फ़्राउ फ़्रिएडा का अप्रत्याशित रूप से हमसे मिलने शराबखाने में आना उनकी उदारता का परिचायक था. हमारी ग़रीबी की हालत में उनका वहाँ आना किसी पर्व-त्योहार का आनंद देता था. एक रात बीयर के सुखा-भास में उस महिला ने बिना देर किए दृढ़ धारणा के साथ मेरे कान में फुसफुसा कर कुछ कहा.
“मैं केवल तुम्हें यह बताने आई हूँ कि कल रात मुझे तुम्हारे बारे में सपना आया ,” उसने कहा. “तुम्हें यहाँ से अभी ही चले जाना चाहिए , और अगले पाँच वर्षों तक तुम्हें लौट कर विएना नहीं आना चाहिए.”
उसका दृढ़ विश्वास इतना वास्तविक लग रहा था कि मैं उसी रात रोम जाने वाली अंतिम रेल-गाड़ी में सवार हो गया. जहाँ तक मेरी बात है, मैं उस महिला की बात से इतना प्रभावित हुआ कि उस समय से मैं खुद को किसी अघटित महा-विपत्ति के अनुभव से जीवित बच गया व्यक्ति मानने लगा. मैं आज तक दोबारा विएना नहीं गया.
हवाना में घटी दुर्घटना से पहले मेरी मुलाक़ात बार्सीलोना में फ़्राउ फ़्रिएडा से ऐसी अप्रत्याशित और आकस्मिक परिस्थितियों में हुई कि मुझे वह रहस्यमय लगी. यह घटना उस दिन हुई जब गृह-युद्ध के बाद पहली बार पाब्लो नेरूदा ने स्पेन की सरज़मीं पर अपने कदम रखे. वे वालपरीसो तक की लम्बी समुद्री-यात्रा के बीच में यहाँ रुके थे. उन्होंने एक सुबह हमारे साथ बिताई , जब वे पुरानी पुस्तकें बेचने वाली किताबों की एक दुकान में शिकार करने से सम्बन्धित पुस्तकें तलाशते रहे. पोर्टर में उन्होंने एक फटी हुई पुरानी किताब ख़रीदी. उस किताब के लिए उन्होंने दुकानदार को इतनी रक़म दी जो रंगून के दूतावास की उनकी नौकरी के दो महीने के वेतन जितनी थी. नेरूदा भीड़ में किसी बीमार हाथी की तरह चल रहे थे. हर काम के होने के अंदरूनी तौर-तरीक़े को वे एक बाल-सुलभ कुतूहल से देख रहे थे. पूरा विश्व उन्हें एक ऐसे चाभी भरे खिलौने-सा लग रहा था जिससे जीवन का आविष्कार हुआ हो.
मैंने इससे पहले और किसी को पुनर्जागरण काल के पोप की कल्पना जितना क़रीब नहीं पाया था. वे पेटू होने के साथ-साथ सुसंस्कृत भी थे. उनकी इच्छा नहीं होती तो भी वे हर चीज़ का संचालन करते थे और खाने की मेज़ पर भी प्रमुख भूमिका निभाते थे. उनकी पत्नी मैटिल्डे उनके गले के चारो ओर एक छोटा कपड़ा बाँध देती थी ताकि खाते समय उनकी पोशाक ख़राब न हो जाए. वह कपड़ा भोजन-कक्ष की नहीं , किसी नाई की दुकान की याद दिलाता था. किंतु उन्हें सॉस में नहाने से बचाने का यही एकमात्र तरीक़ा था. कार्वालेरास में वह दिन विशिष्ट था. उन्होंने तीन पूरे समुद्री झींगे खा लिए. वे किसी शल्य-चिकित्सक की तरह उनकी चीर-फाड़ कर रहे थे. साथ ही वे बाक़ी सभी लोगों की थालियों में मौजूद भोजन को भी अपनी भूखी निगाहों से चखते जा रहे थे. वे यह काम बेहद ख़ुश हो कर कर रहे थे, जो भोजन करने की इच्छा को संक्रामक बना रहा था.
वहाँ खाने के लिए गैलिशिया और कैन्टब्रिया की अलग-अलग क़िस्म की सीपियाँ , अलिकांते के झींगे, और कोस्टा ब्रैवा के समुद्री घोंघे उपलब्ध थे. इस बीच फ़्रांसीसी लोगों की तरह वे केवल अन्य स्वादिष्ट खाद्य-पकवानों की बातें करते रहे. उन्होंने विशेष रूप से चिले की प्रागैतिहासिक शंख-मीन का ज़िक्र किया जो उन्हें बहुत प्रिय थी. अचानक उन्होंने खाना बंद कर दिया और वे समुद्री झींगे की स्पर्श-श्रृंगिका को छूते हुए धीमे स्वर में मुझसे बोले , “मेरे पीछे कोई बैठा है जो लगातार मुझे घूरे जा रहा है. “
मैंने उनके कंधों के पीछे देखा और उनकी बात सही निकली. तीन मेज़ों की दूरी पर एक निर्भीक महिला पुराने प्रचलन की टोपी और बैंगनी रंग का दुपट्टा पहने आराम से खाती हुई उन्हीं को घूर रही थी. मैं देखते ही उसे पहचान गया. वह थोड़ी बूढ़ी और मोटी हो गई थी , किंतु वह फ़्राउ फ़्रिएडा ही थी और उसने अपनी तर्जनी में वही सर्पाकार अँगूठी पहन रखी थी.
वह नेप्ल्स से उसी समुद्री जहाज़ में लौट रही थी जिसमें नेरूदा और उनकी पत्नी यात्रा कर रहे थे , हालाँकि जहाज़ पर उनकी मुलाक़ात नहीं हुई थी. हमने साथ में कॉफ़ी पीने के लिए फ़्राउ फ़्रिएडा को भी आमंत्रित कर लिया. मैं उसे अपने सपनों के बारे में बात करने के लिए प्रोत्साहित करता रहा क्योंकि मैं नेरूदा को विस्मित करना चाहता था. लेकिन नेरूदा ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया. दरअसल उन्होंने शुरू में ही कह दिया था कि भविष्यवाणी करने वाले सपनों में उन्हें कोई यक़ीन नहीं था.
“केवल कविता ही परोक्ष-दर्शी होती है.” उन्होंने कहा.
दोपहर के भोजन के बाद जब हम रैम्ब्लास पर टहल रहे थे , मैं जान-बूझ कर धीमी गति से चलने लगा ताकि मैं अकेले में फ़्राउ फ़्रिएडा के साथ अपनी पुरानी यादें ताज़ा कर सकूँ. उसने मुझे बताया कि उसने आस्ट्रिया में मौजूद अपनी सारी सम्पत्ति बेच दी थी और अब वह ओपोर्टो , पुर्तगाल में रह रही थी. वहाँ के अपने मकान को उसने पहाड़ पर बने एक नक़ली दुर्ग की संज्ञा दी. उसने बताया कि वहाँ से वह समुद्र के उस पार अमेरिका तक देख सकती थी. हालाँकि उसने यह कहा नहीं , किंतु उसकी बातचीत से यह स्पष्ट हो गया कि अपने सपनों की व्याख्या करते हुए धीरे-धीरे उसने विएना में मौजूद अपने प्रशंसातीत संरक्षक की पूरी जायदाद पर क़ब्ज़ा कर लिया था. मैं इस बात से हैरान नहीं हुआ क्योंकि मुझे हमेशा से यह लगता था कि उसके स्वप्न अपनी आजीविका चलाने की उसकी चतुर नीति मात्र थी. और मैंने उसे यह बता दिया.
वह अपनी अत्यंत सम्मोहक हँसी हँसी. “तुम अब भी पहले जैसे ग़ुस्ताख़ हो ,” उसने कहा. इसके बाद वह चुप हो गई. दल के बाक़ी सदस्य श्री नेरूदा की रैम्ब्ला दे लोस पैजारोस पर मौजूद तोतों से चिले की ख़ास भाषा में हो रही बातचीत के ख़त्म होने की प्रतीक्षा करने लगे. जब हमने दोबारा बातचीत शुरू की तो फ़्राउ फ़्रिएडा ने विषयांतर कर दिया.
“अब तुम विएना जा सकते हो ,” उसने कहा. तब जा कर मुझे याद आया कि हमारी पहली मुलाकात से अब तक तेरह वर्ष बीत चुके थे.
“यदि तुम्हारे सपने झूठे हों तब भी मैं वहाँ कभी नहीं जाऊँगा. क्या पता ,क्या हो जाए.” मैंने कहा.
हम तीन बजे उससे अलग हो गए. दरअसल नेरूदा के दोपहर के पावन आराम का समय हो गया था. हमारे घर में सोने से पहले नेरूदा ने विधिवत तैयारी की. यह तैयारी पारम्परिक जापानी चाय-समारोह जैसी थी. कुछ खिड़कियों को खोला गया और कुछ अन्य को बंद कर दिया गया ताकि कमरे का तापमान सही हो जाए. उस कमरे में किसी ख़ास दिशा से ख़ास तरह की रोशनी होनी ज़रूरी थी. और वहाँ परम शांति की आवश्यकता थी. नेरूदा को जल्दी ही नींद आ गई और ठीक दस मिनट के बाद वे जग गए. बच्चे अक्सर ऐसा करते हैं , जब हमें इसका बिल्कुल अंदेशा नहीं होता. वे बिल्कुल तरो-ताज़ा हो कर बैठक में नज़र आए. उनके गाल पर तकिये का गुम्फाक्षर छपा हुआ था.
“मुझे सपने देखने वाली उस महिला के बारे में सपना आया. “ उन्होंने कहा.
मैटिल्डे उनके सपने के बारे में और जानना चाहती थी.
“मुझे उसके बारे में यह सपना आया कि वह अपने सपने में मुझे देख रही थी.” वे बोले.
“यह तो ठीक बोर्गेस की कहानी का अंश लग रहा है.” मैंने कहा. उन्होंने निराशा से भर कर मुझे देखा.
“क्या बोर्गेस ने यह बात पहले ही लिख दी है ?”
“यदि उन्होंने अब तक यह बात नहीं लिखी है तो कभी-न-कभी वे इसे ज़रूर लिख देंगे. यह उनकी ‘ भूलभुलैया ‘ नामक दूसरी रचना का अंश होगा. “
शाम के छह बजे जैसे ही नेरूदा जहाज़ पर चढ़े , उन्होंने हमसे विदा ले ली. वे एकांत में पड़ी एक मेज़ के साथ रखी कुर्सी पर बैठ गए और हरी स्याही वाली कलम से धाराप्रवाह कविताएँ लिखने लगे. इसी हरी स्याही से वे तब फूलों , मछलियों और चिड़ियों के चित्र बनाया करते थे जब उन्हें अपनी किताबों को किसी को समर्पित करना होता था. साथ आए लोगों के लौट जाने पर मैंने फ़्राउ फ़्रिएडा की ओर देखा जो जहाज़ की छत पर पर्यटकों के लिए बनी जगह पर मौजूद थी. हम बिना एक-दूसरे से औपचारिक विदा लिए ही लौट जाने वाले थे. वह भी आराम करके यहाँ आई थी.
“ मुझे उस कवि के बारे में सपना आया. “ वह बोली. विस्मित हो कर मैंने उससे उसके सपने के बारे में पूछा.
“मुझे सपना आया कि कवि महोदय मेरे बारे में सपना देख रहे थे.“ उसने कहा. मेरे चेहरे पर मौजूद चकित होने के भाव ने उसे क्षुब्ध कर दिया.
“तुम्हें किस बात की उम्मीद थी ? इतने सपनों के बावजूद कभी-कभी ऐसा कोई सपना भी आ जाता है जिसका वास्तविक जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता है. “
इसके बाद मैं न कभी उस महिला से मिला, न ही कभी मैंने उसके बारे में सोचा. जब हवाना रिविएरा की दुर्घटना में मैंने सर्पाकार अँगूठी पहने एक महिला की मृत्यु का समाचार सुना तब मुझे उसकी याद दोबारा आ गई. कुछ महीने के बाद जब एक राजनयिक स्वागत-समारोह में मेरी मुलाक़ात पुर्तगाल के राजदूत से हुई तो मैं उस महिला के बारे में उनसे पूछताछ करने से स्वयं को नहीं रोक सका. राजदूत ने बड़े उत्साह और प्रशंसा से उसका ज़िक्र किया.
“आप सोच भी नहीं सकते कि वह कितनी असाधारण महिला थी.“ वे बोले. यदि आप उन्हें जानते तो आप उनके बारे में कहानी लिखने से स्वयं को नहीं रोक पाते.“ और राजदूत महोदय उसी स्वर में अद्भुत विस्तार से उस महिला के बारे में बातें करते रहे. किंतु उनकी बातों से मुझे कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला कि क्या यह वही महिला थी जिसे मैं जानता था.
“असल में वह क्या काम करती थी ? अंत में मैंने पूछा.
“ वह कुछ नहीं करती थी ,“ वे मोह-भंग होने वाले अंदाज़ में बोले , “वह केवल सपने देखती थी. “
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सुशांत सुप्रिय
(जन्म : 28 मार्च, 1968)
(जन्म : 28 मार्च, 1968)
हत्यारे ( 2010 ), हे राम ( 2013 ), दलदल ( 2015 ), ग़ौरतलब कहानियाँ (2017), पिता के नाम (2017), मैं कैसे हँसूँ (2019), पाँचवीं दिशा (2020)
कविता संग्रह
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं (2015) , अयोध्या से गुजरात तक (2017) , कुछ समुदाय हुआ करते हैं (2019) .
अनुवाद
विश्व की चर्चित कहानियाँ ( 2017) , विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ( 2017) , विश्व की कालजयी कहानियाँ (2017), विश्व की अप्रतिम कहानियाँ ( 2019) , श्रेष्ठ लातिन अमेरिकी कहानियाँ (2019), इस छोर से उस छोर तक (2020).
अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन
अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ‘ इन गाँधीज़ कंट्री‘ प्रकाशित तथा अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ‘द फ़िफ़्थ डायरेक्शन‘ प्रकाशनाधीन.
संप्रति : लोक सभा सचिवालय , नई दिल्ली में अधिकारी.
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
मोबाइल : 8512070086