प्रचण्ड प्रवीर
“पिछले दिनों मुझे मातृसंस्था भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली में स्नातक विद्यार्थियों के दर्शनशास्त्र की कक्षा में मेरी पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा : रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय’ पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया. विषय को रुचिकर बनाने के लिए मैंने रस सिद्धांत को प्रख्यात आस्ट्रियाई-जर्मन निर्देशक फ्रिट्ज लैंग (1890-1976) की सिनेमाई कृतियों के संदर्भ में रखा. व्याख्यान का संक्षिप्त हिन्दी रूपांतर इस आलेख में हैं.”
इस परिचर्चा में यह आवश्यक है कि कुछ मूलभूत बातों को परिचित हुआ जाय. सर्वप्रथम फ्रिट्ज लैंग के बारे में – आस्ट्रियाई जर्मन निर्देशक सिनेमा के सर्वकालिक महान निर्देशकों में गिने जाते हैं. इन्होंने सिनेमा के इतिहास के तीन महत्त्वपूर्ण दौर -मूक फ़िल्म, बोलती श्वेत-श्याम फ़िल्म और रंगीन फ़िल्म में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया. इन्हें नुआर फ़िल्मों का जनक माना जाता है. इनकी महत्त्वपूर्ण फ़िल्में हैं- – मेट्रोपोलिस (1927), एम (1931), द टेस्टामेंट आफ डा. माबुस (1933) आदि. इनकी फ़िल्म ‘द टेस्टामेंट आफ डा. माबुस’ को नाज़ी पार्टी ने प्रतिबंधित कर दिया था, जिसके बाद वे जर्मनी से भाग कर अमरीका चले गए. हालीवुड में इन्होंने थ्रिलर नुआर फ़िल्में बनायी. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ये वापस जर्मनी गए और वहाँ फ्रांस और इटली प्रशंसकों की मदद से आखिरी तीन फ़िल्में बनायी.
सिनेमा और नाट्य–
क्या भारतीय दर्शन परम्परा से हम सिनेमा कला और उस के सौन्दर्य को समझ सकते हैं? फ्रांसिसी निर्देशक गोदार और राबर्ट ब्रेसों सिनेमा को चलती फिरती तस्वीरों वाली ‘मूवीज़’ और फिल्माये गए ड्रामा से अलग कर के देखते हैं. उनके अनुसार सिनेमा कुछ हद तक यथार्थ के करीब है, कुछ हद तक कला की तरह. भारतीय दर्शन परम्परा में नाटक और नाट्य पर गहन चिंतन हुआ है. नाट्यशास्त्र, जिसे पंचम वेद कहते हैं, करीब ढ़ाई हज़ार साल पुराना माना जाता है. मेरी प्रस्तावना है कि सिनेमा और नाट्य में साम्य है. सिनेमा कुछ और नहीं बल्कि तकनीक के साथ उभरा हुआ नाट्य ही है.
नाट्यशास्त्र – कवियों और नटों के लिए बना यह शास्त्र एक सफल नाटक के मंचन के लिए ३६ अध्यायों में हैं. इसके रचियता भरतमुनि माने जाते हैं. इस पर दसवीं सदी के शैव दार्शनिक आचार्य अभिनवगुप्त की टीका ‘अभिनवभारती’ महत्त्वपूर्ण है. भरतमुनि के नाट्यशास्त्र और अभिनवभारती ने सम्पूर्ण भारतीय नाट्यपरम्परा, संगीत, गायन आदि को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया.
हमारे समक्ष प्रश्न
1.क्या सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम है? हम मनोरंजन से क्या समझते हैं?
2. हमारे पास सब प्रचुर मात्रा में विश्व का बेहतरीन सिनेमा बिना किसी विशेष मूल्य के उपलब्ध है, फिर भी हम खराब और बहुप्रचारित फ़िल्में क्यों देखते हैं?
3.क्या सिनेमा के अध्ययन से हम बेहतर सिनेमा के अध्येता, दर्शक और बेहतर मनुष्य बन सकते हैं?
4.सिनेमा कला पर समाज का और समाज का सिनेमा पर प्रभाव में निर्देशक की भूमिका क्या है?
5.क्या नाट्य की अवधारणा सिनेमा पर लागू हो सकती है? क्या हर सिनेमा रस से सम्बन्धित होता है?
नाट्यशास्त्र – नाट्य को मोटे तौर पर नृत्य, गीत और वाद्य का समूह समझा जाता है. हालांकि नाट्यशास्त्र में नाटक की उत्पत्ति के विषय में कथा है कि जिसमें इन्द्र ब्रह्मा से कहते हैं कि वह क्रीड़ा के लिए कुछ ऐसा चाहते हैं जो दृश्य और श्रव्य हो. यही क्रीड़ायोग्य दृश्य-श्रव्य वस्तु ही नाट्य है. नाट्य शब्द नट् धातु से बना है, जिसे नृत, नृत्य और नाट्य बनते हैं.
• नृत – नृत का अर्थ अंगों को संचालन, जिसे हम आम तौर पर बालीवुड फ़िल्मों में दर्शाये गये नाच में देखते हैं. बहुधा इनमें कोई विशेष अर्थ नहीं होता है.
• नृत्य – वहीं शास्त्रीय नृत्यों में विभिन्न मुद्राओं से कुछ अर्थ संप्रेषित किए जाते हैं. आपने देखा होगा कि भरतनाट्यं में नर्तकी हाथों से फूल, राजा और तरह तरह के अर्थों को अभिनय के माध्यम से बताती है.
• नाट्य – नट के द्वारा प्रस्तुत अभिनय के प्रभाव से प्रत्यक्ष के समान प्रतीत होने वाला, एकाग्र मन की निश्चलता के कारण अनुभव किए जाने वाला और नाटक एवं काव्यविशेष से प्रकाशित अर्थ \’नाट्य\’ कहा जाता है.नाट्य में अर्थ को रस से संप्रेषित किया जाता है, जिसमें सभी तरह के कलाएँ अंतर्निहित हो जाती हैं.
• नाट्य के ग्यारह अंग होते हैं – रस, भाव, अभिनय, धर्मी, वृत्ति, प्रवृत्ति, सिद्धि, स्वर, आतोद्य, गान और रंग. चूँकि रस एक अद्वितीय दार्शनिक अवधारणा है, हम इसकी चर्चा करेंगे.
सिनेमा के महत्त्वपूर्ण निर्देशक
सिनेमा का अध्ययन इसके महत्त्वपूर्ण कृतियों से ही हो सकता है. हर विषय की तरह इसका भी अध्ययन इसके क्रमिक विकास से समझना चाहिए. कुछ सर्वकालिक महान फ़िल्म निर्देशकों को इस तरह देख सकते हैं:-
पहली पीढ़ी (मूक फ़िल्में, श्वेत श्याम फ़िल्में और रंगीन फ़िल्में)–डेविड ग्रिफिथ (David W. Griffith: 1875-1948) एफ. डब्ल्यू. मुर्नाउ ( F. W. Murnau:1888-1931),चार्ली चैप्लिन(Charlie Chaplin:1889-1977),कार्ल ड्रेयर(Carl Dreyer:1889-1968), फ्रिट्ज लैंग(Fritz Lang :1890-1976), अर्नस्ट लुबिच (Ernst Lubitsch: 1892- 1947), जॉन फोर्ड(John Ford: 1894-1973), ज्याँ रेन्वां ( Jean Renoir: 1894- 1979), अलेक्संदर डॉवज़ेन्को ( Alexander Dovzhenko:1894- 1956), हावर्ड हॉक्स (Howard Hawks: 1896- 1977), सर्गेइ आइजेंसन्टिन( Sergei Eisenstein:1898-1948), केंजी मिजोगुजी (Kenji Mizoguchi: 1898- 1956), अल्फ्रेड हिचकॉक (Alfred Hitchcock: 1899-1980), लुईस बुनुएल(Luis Buñuel:1900-1983), विलिअम वाइलर( William Wyler: 1902-1981), यासुजिरो ओजु (Yasijuro Ozu:1903-1963)
(नोट: मुर्नाउ ने केवल मूक फ़िल्में ही बनायीं. ग्रिफिथ ने केवल एक बोलती फ़िल्म बनायी थी. कार्ल ड्रेयर ने रंगीन फ़िल्में नहीं बनायीं.)
दूसरी पीढ़ी (श्वेत श्याम और रंगीन फ़िल्में) – जार्ज कुकोर (George Cukor: 1899-1983), राबर्ट ब्रेसों(Robert Bresson: 1900-1999), विट्टोरियो डे सिका (Vittorio De Sica: 1901- 1974), मैक्स ओफुल्स (Max Ophüls: 1902-1957), बिली वाइल्डर(Billy Wilder: 1906-2002), जाक ताती (Jacques Tati: 1907-1982), डेविड लीन (David Lean: 1908-1991), अकिरा कुरोसावा (Akira Kurosawa: 1910-1998), माइकलएंजेलो अंतोनियोनी(Michelangelo Antonioni: 1912- 2007), ओर्सन वेल्ज (Orson Welles:1915-1985), इंगमार बर्गमैन(Ingmar Bergman: 1918-2007), फेडेरिको फेलिनी(Federico Fellini: 1920-1993), पाइर पाओलो पसोलिनी (Pier Paolo Pasolini: 1922-1975)
तीसरी पीढ़ी (दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात – श्वेत श्याम और रंगीन फ़िल्में) – सत्यजित राय (Satyajit Ray: 1921-1992), सर्गेइ पाराजनोव(Sergei Parajanov: 1924-1990), स्टैनले कूब्रिक (Stanley Kubrick:1928- 1999), ज्यां लुक गोदार (Jean Luc Godard: b. 1930), आंद्रेइ तारकोवस्की (Andrei Tarkovsky: 1932- 1986), क्रिजिस्तोफ किओस्लोवस्की (Krzysztof Kieślowski :1941 – 1996) आदि.
यह विचित्र संयोग है कि पहली पीढ़ी के मास्टरों ने पहले मूक से बोलती फ़िल्मों में जाने से अनिच्छुक रहे, बाद में शानदार बोलती फ़िल्में बनायी. इसी तरह वे रंगीन फ़िल्मों से भी परहेज करते रहे, लेकिन जब रंगीन फ़िल्में बनायी तो महान रंगीन फ़िल्में उनके नाम कही जा सकती हैं. ऐसा करने वालों मे प्रमुख थे चार्ली चैप्लिन, जापानी निर्देशक यासुजिरो ओजु, अमरीकी जॉन फोर्ड और फ्रिट्ज लैंग.
हम देख सकते हैं कि फ्रिट्ज लैंग सिनेमा विधा के शुरुआती मास्टरों में से एक हैं, जिन्होंने सन 1916 से सन 1963 तक सिनेमा में अपना योगदान दिया. इनकी मूक फ़िल्म डेस्टिनी (Der müde Tod: ein deutsches volkslied in 6 versen/ Weary Death: A German Folk Story in Six Verses- 1921) ने सिनेमा के महत्त्वपूर्ण मास्टरों- लुईस बुनुएल, अल्फ्रेड हिचकॉक, कार्ल ड्रेयर व माइकल पावेल– को गहरे तौर पर प्रभावित किया.
यह दिलचस्प बात है कि जर्मन निर्देशक अर्न्स्ट लुबिच, आस्ट्रेयाई फ्रिट्ज लैंग और अंग्रेज अल्फ्रेड हिचकॉक तीनों ही अपने देश को छोड़ कर हॉलीवुड गए और वहाँ जा कर कामयाब फ़िल्में बनायीं. हालीवुड को सँवारने का श्रेय इन तीन महान निर्देशकों को दिया अक्सर दिया जाता है.
फ्रिट्ज लैंग की कृतियों का सिनेमा जगत पर प्रभाव –
किसी व्यक्ति को उसके काम के लिए याद किया जाता है. किसी व्यक्ति की महत्ता इस बात से समझी जा सकती है कि उसके काम से कितने लोग प्रभावित हुए.
डेस्टिनी (Destiny -1921) – जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा जैसी लगने वाली इस फ़िल्म में यमराज/ मृत्यु के चित्रण ने कई महत्त्वपूर्ण निर्देशकों को प्रभावित किया.
मेट्रोपोलिस (Metropolis -1927) –सन 2026 में स्थित महनगर में,आने वाले सौ साल के भविष्य की परिकल्पना में तत्कालीन साम्यवादी आंदोलन, मशीन और मानव श्रम के बीच समझौता, महत्त्वाकांक्षी सनकी वैज्ञानिक और उसकी आविष्कार महिला रॉबोट को दर्शाती इस कहानी को अक्सर महानतम मूक फ़िल्मों में गिना जाता है. स्टैनले कूब्रिक के फ़िल्म डॉ. स्ट्रेंजलव (Dr. Strangelove or: How I Learned to Stop Worrying and Love the Bomb – 1964) में सनकी वैज्ञानिक के दाहिने हाथ पर काला दस्ताना इस फ़िल्म से प्रेरित था.
वुमैन इन द मून (Woman in the Moon -1929) –यह जान कर आश्चर्य होगा रॉकेट लौंच पर उल्टी गिनती का श्रेय फ्रिट्ज लैंग को जाता है. स्टैनले कूब्रिक की ‘2001: अ स्पेस ओडिसी (1968)’ से चालीस साल पहले सिनेमा के परदे पर रॉकेट प्रक्षेपण और कुछ वैज्ञानिकों का चांद पर जाना दर्शाया गया. इसके उस समय के अग्रणी वैज्ञानिकों की मदद ली गयी थी.
एम (M- 1931) –बच्चियों के मनोरोगी हत्यारे को पकड़ने के लिए न केवल पुलिस परेशान है बल्कि अपने धंधे को चौपट होने से बचाने के लिए शहर के अपराधियों का गुट भी. अपनी पहली बोलती फ़िल्म में फ्रिट्ज लैंग ने ध्वनि का विभावों और अनुभावों में बेहतरीन प्रयोग किया, जो बाद की फ़िल्मों के लिए मार्गदर्शक बनी. यह फ़िल्म अक्सर दुनिया की महानतम फ़िल्मों में गिनी जाती है.
द टेस्टामेंट आफ डॉ. माबुस (The Testament of Dr. Mabuse -1933)–जिन्होंने भी द डार्क नाइट (2008) देखी हों, उन्हें जान कर आश्चर्य होगा कि नोलन बंधुओं ने खलनायक जोकर के किरदार के लिए, अफरातफरी के दृश्यों की परिकल्पना के लिए यह क्राइम थ्रिलर का आभार प्रकट किया है. इस फ़िल्म से आतंकित हो कर इसे समाज के लिए खतरा बताते हुए नाज़ी पार्टी ने इसे जर्मनी में बैन कर दिया गया. इसके बाद शीर्ष नाजी अधिकारियों ने फ्रिट्ज लैंग से प्रोपेगैंडा फ़िल्में बनाने के लिए अनुरोध किया, जिससे बचते हुए फ्रिट्ज लैंग जर्मनी छोड़ कर चले गए.
फ्यूरी (Fury -1936) – हॉलीवुड में बनाई पहली फ़िल्म में फ्रिट्ज लैंग ने भीड़ तंत्र द्वारा न्याय देने की अवधारणा पर गहरा प्रहार किया.एक निर्दोष आदमी को भीड़ द्वारा मारने के प्रयास और बचने के बाद उस इंसान के बदले की प्रक्रिया को दर्शाने के क्रम में पहली बार कोर्ट में रिकार्ड की गयी फ़िल्म बतौर सबूत इस्तेमाल किया गया.
द वूमैन इन द विंडो (The Woman in the Window -1944) – इस क्राइम थ्रिलर को जब फ्रांस में प्रदर्शित किया गया, तब उस आलोचकों ने उसी समय प्रदर्शित अन्य थ्रिलर फ़िल्में जैसे द माल्टीज फैल्कन (The Maltese Falcon: 1941), डबल इनडेम्निटी (Double Indemnity: 1944) और लौरा (Laura: 1944) के साथ ‘फ़िल्म नुआर’ शब्द का प्रयोग किया. इस फ़िल्म को अक्सर नुआर फ़िल्मों में अग्रणी और श्रेष्ठ माना जाता है.
मूनफ्लीट (Moonfleet -1955) – वेस्टर्न फ़िल्मवेस्टर्न यूनियन (Western Union -1941) की तरह यह भी एक खूबसूरत रंगीन फ़िल्म है जो बच्चों के लिए मशहूर हमनाम उपन्यास पर बनी थी. यह फ़िल्म अमरीका में बहुत कामयाब नहीं हुयी पर फ्रांस में ‘जॉक रिवेट’ और ‘गोदार’ सरीखे आलोचकों और निर्देशकों ने इसे बहुत सराहा. यूरोपी देशों में यह फ्रिट्ज लैंग की सबसे महत्त्वपूर्ण फ़िल्म मानी जाती है.
यह भी विचित्र है कि जहाँ अमरीकी आलोचक फ्रिट्ज लैंग को उनके शुरुआती मूक फ़िल्मों के लिए याद करते हैं, वहीं यूरोपी आलोचक उनकी नुआर फ़िल्में और हॉलीवुड फ़िल्मों के लिए सराहते हैं. अल्फ्रेड हिचकॉक से कहीं पहले फ्रिट्ज लैंग अपराधी जीवन और उनकी मानसिकता पर महत्त्वपूर्ण फ़िल्म बनाते थे, और यही उनकी नुआर फ़िल्मों में उभर कर आया. यह फ्रिट्ज लैंग ही थे जो बेकार स्क्रिप्ट से शानदार थ्रिलर बनाने का माद्दा रखते थे. इसलिए मामूली उपन्यासों, समाचार पत्रों की कतरनों से बने कथानक से बनी उनकी फ़िल्में ‘द बिग हीट’(The Big Heat- 1953), ‘व्हाइल द सिटी स्लीप्स’ (While The City Sleeps – 1956) और ‘बेयोंड अ रिजनेबल डाउट’ (Beyond a Reasonable Doubt – 1956) यूरोपी आलोचकों में बहुप्रशंसित है. आर्सन वेल्ज ने ठीक ऐसा ही अपनी फ़िल्म ‘टच आफ इविल’ (Touch of Evil -1958) के लिए किया था, जब उन्होंने चुनौती के तौर बैज आफ इविल (Badge of Evil) जैसे रद्दी उपन्यास से शानदार फ़िल्म बनायी.
चार्ली चैप्लिन की ‘द ग्रेट डिक्टेटर’(The Great Dictator – 1940),अल्फ्रेड हिचकॉक की ‘फोरेन कोरोस्पौंडेन्ट’ (Foreign Correspondent – 1940) और अर्नस्ट लुबिच की ‘टू बी और नॉट टू बी’(To Be or Not to Be – 1942) की तरह फ्रिट्ज लैंग ने नाज़ियों के विरोध में चार थ्रिलर फ़िल्में बनायी. इसमें लैंग की तरह ही जर्मनी से भागे प्रसिद्ध कवि और नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की एकमात्र फ़िल्म पटकथा वाली हैंगमैन आल्सो डाय (Hangmen Also Die! – 1943) में तीखा राजनैतिक स्वर है, जिसमें नाजी पार्टी के अत्याचारों की भर्त्सना की गयी है.
दूरदर्शिता और समाज के प्रति प्रतिबद्धता के अतिरिक्त फ्रिट्ज लैंग ने सिनेमा कला के बहुत से नवोन्मेष के लिए याद किये और सराहे जाते हैं. क्लोज-अप, कैमरे के विशिष्ट कोण, छाया का कथानक के साथ सम्बन्ध, दृष्टिकोण की महत्ता, सिनेमाई आकाश, प्रेक्षक की परिकल्पना के लिए महत्त्वपूर्ण बिंदुओं में इनका योगदान सिनेमा के अध्ययन में महत्ता से देखा जाता है.
यह हम सबों ने अनुभव किया होगा कि नाट्य या सिनेमा के प्रेक्षण के दौरान कभी-कभी बहुत आनंद का अनुभव होता है. हम खुशी से हँसने लगते हैं, आँखों में आँसू आ जाते हैं, बहुत शोक का अनुभव होता है, कभी चित्त उत्साह से भर आता है. इस अलौकिक आनंद का हम आस्वाद लेते हैं, इसलिए इसे रस कहते हैं. इसे अलौकिक इसलिए कहते हैं क्योंकि यह निजी सुख दु:ख से सम्बन्धित नहीं है. नाटक में दर्शाया दृश्य न तो सत्य है, न ही असत्य, इसलिए अलौकिक है.
अभिनेता अपने अभिनय (इसका शाब्दिक आशय है अर्थ को समीप लाना) से रस का आस्वादन कराते हैं, इसलिए उन्हें पात्र कहते हैं. भरतमुनि के अनुसार रस आठ हैं, जो आठ प्रमुख मनोभाव (स्थायीभाव) से पहचाने जाते हैं:
• श्रृंगार रस – रति
• हास्य रस – हास
• करुण रस – शोक
• रौद्र रस – क्रोध
• वीर रस – उत्साह
• भयानक रस – भय
• वीभत्स रस – जुगुप्सा
• अद्भुत रस – विस्मय
हर मनुष्य के चित्त में हमेशा कोई न कोई भाव रहते हैं. नाटक का उद्देश्य कवि द्वारा प्रयोजित अर्थ नट के द्वारा मंचित हो कर सौन्दर्ययुक्त हो कर प्रेक्षक तक पहुँचना है. इस भावन व्यापार को समझने के लिए भाव तीन तरह के माने गए हैं:-
• स्थायीभाव- – उपरोक्त आठ प्रमुख मनोभाव स्थायीभाव कहे जाते हैं जो सभी सामाजिकों के चित्त में विद्यमान रहते हैं. इन्हीं से सम्बद्ध रसों की पहचान की जाती है.
• व्यभिचारीभाव या संचारीभाव – कुछ मनोभाव ऐसे होते हैं जो स्थायीभाव को पुष्ट करते हैं जैसे श्रम, ईर्ष्या, उद्वेग आदि. इनकी संख्या ३३ मानी जाती है, पर इन संख्या या सूची को विशेष महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं है.
• सात्त्विकभाव–- मन: शारीरिक संयोग से उत्पन्न होने वाले आठ भाव सात्त्विकभाव कहलाते हैं जैसे आँसू आ जाना, चेहरे का रंग उड़ जाना, आवाज़ का रूंध जाना, काँपना, जड़वत हो जाना, रोमांच आ जाना, पसीना आ जाना आदि.
भरतमुनि का रस सूत्र है – विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है. विभाव का अर्थ उन कारणों से है, जो भाव के समीप लाए. अनुभाव स्थायीभाव के साथ होने वाले उत्पन्न क्रियाएँ/ चेष्टाएँ हैं. नाटक में संयोजितविभाव, अभिनेताओं के द्वारा प्रदर्शित अनुभाव और विभिन्न नटों के द्वारा प्रदर्शित व्यभिचारीभाव हमें आश्रय के स्थायीभाव के पास ले जाते हैं. रस निष्पत्ति के दौरानस्थायीभाव से ही सम्बन्धित रस की पहचान की जाती है.
इन सबों को हम फ्रिट्ज लैंग के सिनेमा के उदाहरणों से समझेंगे. यह ध्यान देने योग्य है कि किस तरह कैमरे की दृष्टि, कैमरे की गति, क्लोज-अप, दृश्यों का संपादन विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभावों को अनोखे तरीकों से दिखाती हैं, जो कैमरे के आविष्कार से पहले सम्भव नहीं थे.
अभिनवगुप्त द्वारा रस सिद्धांत की व्याख्या –
सिनेमा और नाटक में दृश्यात्मक एवं श्रवणात्मक साम्य है. दोनों में सौन्दर्य का कारण शब्द, रूप और नाद की समवेत अभिव्यक्ति है.सिनेमा में भी अनन्त विभाव हैं, पर यहाँ अनुभाव विशेष अर्थों में निहित है. भरतमुनि के रस सूत्र की विशद व्याख्या हुयी और सदियों तक कई मत खण्डित मण्डित होते रहे. दसवी सदी के अंत में अभिनवभारती में वर्णित आचार्य अभिनवगुप्त का मत कई सदियों तक प्रभावी रहा. कालांतर में यह ग्रंथ लुप्त हो गया था और बीसवीं सदी के शुरुआत में यह केरल में पाया गया. उनका रस विवेचन पूर्ववर्ती कई दार्शनिकों के विचारों का समन्वय के साथ उनके मत की स्थापना है: –
रस का आस्वाद लिया जाता है जब कि कोई भाव (जो अर्थ हृदय को अभिभूत करने वाला हो, वह सूखे काठ में अग्नि के समान व्याप्त होने की क्षमता रखता हो)
• किसी नाटक में विशिष्ट अर्थ व्यंग्य (सुझाव) द्वारा अतिशय सौन्दर्य को प्राप्त कर
◦ विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारीभाव के संयोग से किसी आश्रय में
• किसी प्रेक्षक द्वारा अबाधित रूप में अनुव्यवसाय सहित प्रेक्षण किए जाने पर भाव का हृदय संवाद होने से
◦ निर्मल प्रतिभा से सम्पन्न सहृदय (कवि के जैसा हृदय रखने वाला) प्रेक्षक ही रस का अधिकारी होता है.
◦ तन्मयीभाव से लिप्त प्रेक्षक
◦ काव्य-वस्तु में निबद्ध और काव्य में निहित देश, काल और प्रमाता आदि नियामकहेतु के परस्पर प्रतिबन्ध के बल से (पारस्परिक सम्बन्ध से) अत्यन्त दूर हो जाने के कारणविभावों का साधारणीकरण हो जाने से
• अपने चित्त में स्थित अनादि वासना का स्वाद लेते हुए अपूर्व अर्थ का बोध करता है
◦ अनादि वासना से चित्रित चित्त वाले समस्त सामाजिक में समान रस की प्रतीति होती है.
◦ विघ्नरहित अलौकिक प्रतीति आनंदपूर्वक रसनात्मकता का स्वाद उठाते हुए ‘अर्थ क्रिया कारित्व’ समेत (हर्ष, पुलक, अश्रु, रोमांच आदि)
◦ यह प्रतीति आनन्दरूप चमत्कार है, जो पूर्ण रूप से तृप्त भोगावेश है.
◦ चमत्कृत मानस की साक्षत्कारात्मक अनुभूति मानस अध्यव्यवसाय, संकल्प या स्मृति के रूप में स्फुरित होती है .
फ्रिट्ज लैंग और थिया हार्बू की कुछ चुनिंदा फ़िल्मों से उद्धरण
रस सिद्धांत की व्याख्या के लिए मैं जिन पाँच फ़िल्मों की क्लिप का इस्तेमाल किया है, उन सारी फ़िल्मों की पटकथा फ्रिट्ज लैंग ने अपनी पत्नी थिया फौन हार्बू (Thea von Harbou: 1888- 1954) के साथ मिल कर लिखी थी. थिया नाजी पार्टी समर्थक थी और फ्रिट्ज लैंग के जर्मनी छोड़ने के बाद जर्मनी में ही रह गयीं. बाद में दोनों का तलाक हो गया, जिसके पश्चात थिया ने एक भारतीय आई तेंदुलकर के साथ गुप्त दाम्पत्य जीवन बिताया. इन पाँच फ़िल्मों में से चार यादगार मूक फ़िल्में हैं.
फ़िल्म की क्लिपों से रस का नाम ढूँढना बहुत ठीक नहीं होगा, क्योंकि इस छोटे टुकड़े में कई विभाव और अनुभाव पूरी तरह नहीं होंगे. रस की प्रक्रिया थोड़ी जटिलता लिए हुए है, इसलिए इनमें हम विभाव, अनुभाव, सात्त्विक भाव, व्यभिचारीभाव, स्थायीभाव और अभिनय सम्बन्धी चर्चा करेंगे.
डेस्टिनी (1921)
यह क्लिप इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बहुप्रशंसित स्पेनी निर्देशक लुईस बुनुएल ने इस फ़िल्म के संदर्भ में कहा था: –“जब मैंने ‘डेस्टिनी’ देखी, मैं अचानक समझ गया कि मैं फ़िल्में बनाना चाहता हूँ. ये वो तीन नैतिक कहानियाँ नहीं थे जिन्होंने मुझे झकझोर दिया, बल्कि मुख्य घटनाक्रम – जब काला हैट पहने आदमी गाँव में आता है, जिसे मैंने फौरन मृत्यु के रूप पहचान लिया, और फिर कब्रिस्तान का दृश्य. इस फ़िल्म में कुछ ऐसा था जिसने मुझे अंदर तक कुछ बात कही जिससे मुझे मेरी ज़िन्दगी का मकसद और संसार के प्रति मेरी दृष्टि मिली.”
पहले विश्वयुद्ध से मौत की विभीषिका जूझ रहे विश्व समुदाय पर यह फ़िल्म रुई के फाहे सी लगती है, जो मरहम की तरह असर करती है.
देखें : नीचे दिए गए लिंक में 7:00 से 11:00 तक मशहूर कब्रिस्तान का दृश्य
इस चार मिनट की क्लिप में आप अभिनय के विभिन्न प्रकार को देख सकते हैं. मृत्यु के अभिनय कर रहे अभिनेता के चेहरे पर सात्त्विक अभिनय, उसकी वेश-भूषा – जो आहार्य अभिनय का अंग है, उसका आंगिक अभिनय – मुखचेष्टा– कठोर चेहरे से कहना कि इस अभेद्य दीवार का रास्ता मैं जानता हूँ, आप लोग व्यर्थ में कोशिश कर रहे हैं.
इसके अलावा यमदूत कुछ ऐसे चिह्न बनाता है, जो ईसाई लोग के लिए समुचित विभाव का काम करते हैं, संस्कृतिजन्य होने के कारण साधारणीकृत हो जाते हैं. इसके अलावा अभेद्य सी दिखनी वाली दीवार भी भय के स्थायीभाव तक लाने में सहायक होती है.
डॉ. माबुस, द गैम्बलर(1922)
‘डॉ. माबुस’ नाम के उपन्यास पर बनी यह साढ़े चार घंटे लम्बी फिल्म दो भागों में थी. डॉ. माबुस आपराधिक प्रवृत्ति का मनोविज्ञान का अध्येता है, सम्मोहन और वशीकरण का उस्ताद है, बर्लिन में नकली नोट का धंधा करता है, जुआघर चलाता है, अपने तरकीबों से शेयर बाजार में घपला करता है, भेस बदलने में माहिर है. भीड़ को उकसाने में, लोग को अपने वश करने इसके बायें हाथ का खेल है. न भूली जा सकने वाली यह मूक फ़िल्म कालांतर में जेम्स बॉण्ड के फ़िल्मों के शक्तिशाली खलनायकों का प्रेरणास्रोत बना. सन 1933 में बनी ‘द टेस्टामेंट आफ डॉ. माबुस’ इस फ़िल्म का सीक्वेल (दूसरा भाग) थी.
देखें : नीचे दिए गए लिंक में 1:26:00 से 1:28:30 तक
इस ढ़ाई मिनट की क्लिप में आप देख सकते हैं कि किस तरह डॉ. माबुस की वेश भूषा, कैमरे की सहायता से विशिष्ट छायांकन सम्मोहन और वशीकरण के दृश्य को प्रभावशाली बना देता है. यही प्रभावशाली अर्थ रस आस्वादन में सहायक होते हैं.
मेट्रोपोलिस (1927)
किसी भी सिने-प्रेमी के लिए ‘मेट्रोपोलिस’ किसी परिचय की आकांक्षा नहीं रखता. भविष्य के महानगर में रोबोट का प्रयोग, धनी कारोबारी का लालच, श्रमिक जीवन की दारूण गाथा, गरीब बच्चों की दुर्दशा, नायक का ईसा मसीह की सलीब की तरह घड़ी की सुईयों से संघर्ष करना – जैसे अविस्मरणीय दृश्य इसे सिनेमा की पाठ्यपुस्तक बना देते हैं. अपने जमाने की सबसे मंहगी फ़िल्म बनाने में फ्रिट्ज लैंग वैचारिक आदर्श को पाने की कोशिश में अभिनेताओं से बड़ी क्रूरता से पेश आए थे. ऐसा ही उन्होंने एम (1931) में मुख्य अभिनेता के साथ भी किया था.
बहरहाल, हम वह दृश्य देखते हैं जहाँ सनकी वैज्ञानिक अपने धनी मालिक और दोस्त को पहली बार अपना आविष्कार महिला रोबोट दिखाता है.
देखें: नीचे दिए गए लिंक में 41:25 से 44:00 तक
गौरतलब बात है कि सौ साल बाद भी वैज्ञानिक अभी तक रोबोट में इंसानी चाल पैदा नहीं कर पाए हैं. इस दृश्य में मुखौटे के पीछे नायिका ने ही रोबोट का अभिनय किया है. इस विस्मय स्थायीभाव लाने के लिए कैसे कैसे व्यभिचारी भाव, जैसे उद्वेग, उत्सुकुता, उत्साह का प्रयोग किया गया है. दृश्य में रोशनी का संयोजन और रोबोट के पीछे सितारे का शैतानी चिह्न – ये सब विभाव हैं. कुछ संस्कृति के कारण आसानी से ग्रहण कर लिए जाते हैं. पार्श्व संगीत जन्य अनुभाव और विभाव काफी हद तक सार्वभौमिक होते हैं. कई बार रस संयोजन आसानी से पकड़ में नहीं आते. सिनेमा के बारीकी से अध्ययन करने में अध्येता जाने अनजाने विभाव, अनुभाव, व्यभिचारीभाव की बात करते हैं. और यह अविस्मरणीय दृश्य तो साफ तौर पर अद्भुत रस से सम्बन्धित है.
अब देखते हैं सिनेमा में मशहूर रॉकेट प्रक्षेपण के समय उल्टी गिनती का दृश्य. फ़िल्म में यह परिकल्पना है कि चंद्रमा के दूसरे हिस्से में (जो हम धरती से दूरबीन की सहायता से भी नहीं देख सकते) सोने के पर्वत हैं. वहाँ साँस लेने योग्य हवा भी है. एक वैज्ञानिक चंद्रमा पर जाने की पूरी योजना बनाता है, पर अपराधियों का गुट उन्हें अपने साथ चंद्रमा ले जाने के लिए मजबूर करता है. नवविवाहित प्रेमी युगल, युवा वैज्ञानिक, कॉमिक्स पढ़ने वाला नन्हा अमरीकी बच्चा और बदमाश – ये सभी चांद की यात्रा पर निकलते हैं. उस समय के अग्रणी वैज्ञानिकों ने जो सुझाया वह बहुत दिनों तक, शीत युद्ध के दौरान भी रॉकेट प्रक्षेपण में प्रयोग किया गया जैसे कि
• रॉकेट कहीं और बनाना फिर घसीट कर प्रक्षेपण के लिए लाना
• प्रक्षेपण के बाद निकली ऊर्जा को सोखने के लिए रॉकेट को पानी भरे गड्ढे से छोड़ना
• प्रक्षेपण के दौरान रॉकेट का विभिन्न चरणों में टूटना
• उड़ान के दौरान यात्रियों का क्षैतिज हो कर लेटना
• शून्य गुरुत्वाकर्षण से बचने के लिए फर्श पर पट्टियों में पैर फँसाना
• प्रक्षेपण के समय उल्टी गिनती का प्रयोग
देखें : नीचे दिए गए लिंक में 01:31:00 se 01:34:15
सर्वथा नयी अवधारणा होने से यह दृश्य विस्मय स्थायीभाव और अद्भुत रस की ओर ले जाता है.
एम (1931)एम का मतलब है मर्डरर या हत्यारा. यह नाम इसलिए रखा गया है क्योंकि बच्चियों के हत्यारे को अकेले पकड़ना मुश्किल था, इसलिए पहचानने वाले ने अपनी हथेली में खल्ली से एम (M) लिख कर उसके कोट पर हाथ मार देता है. इसके फलस्वरूप एम के बने निशान के कारण हत्यारे को भीड़ में भी पकड़ना आसान हो जाता है. फ्रिट्ज लैंगने फ़िल्म के प्रचार के लिए अखबार में इसका कामचलाउ नाम छपवाया गया था – हत्यारा हमारे बीच में हैं. नाज़ी पार्टी ने इसे अपने ऊपर आरोप समझ कर इसकी शूटिंग होनी मुश्किल करवा दी थी. बाद में फ़िल्म का नाम एम (M) रखा गया.
जिस तरह चार्ली चैप्लिन की पहली पूरी तरह बोलती फ़िल्म ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ (1940) ध्वनि के सुंदर प्रयोगों के लिए विख्यात है, यह फ़िल्म भी ध्वनि के विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभाव के प्रयोगों के लिए पहली मानक फ़िल्म है. एक महान निर्देशक कई आयामों में अनुपम होता है. न वह केवल दृश्य संयोजन, सिनेमेटोग्राफी, अभिनय, पटकथा पर पकड़ रखता है, बल्कि गीत, संगीत, नृत्य, दर्शन, राजनीति पर गहरी सजग दृष्टि रखता है.
इस फ़िल्म के अंतिम दृश्य को सबसे महत्त्वपूर्ण दृश्य समझना चाहिए. जब अपराधियों का समूह हत्यारे को पकड़ कर सजा-ए-मौत सुनाने जा रहा होता है तब पहली बार हत्यारा अपना पक्ष रखता है.
वह भीड़ तंत्र, न्याय के लिए आम बुद्धि पर प्रश्न करता है, अपने पक्ष में दलीलें देता है. इसके लिए उसका सात्त्विक अभिनय बहुचर्चित और प्रशंसनीय है. अपराधियों का उत्तर जो अनुभाव का काम करते हैं, सुन कर लगता है आज भी हम करीब-करीब वैसे ही समाज में जी रहे हैं जिस तरह के समाज में ऐसी फ़िल्में बनी.
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फ्रिट्ज लैंग पर चर्चा बहुत लम्बी और विशद हो सकती है. यह कई पुस्तकों में भी कही जा सकती है. फिलहाल व्याख्यान की सीमा को देखते हुए हम इसे यहाँ समाप्त कर सकते हैं.
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प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास \’अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले\’ ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, \’अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय\’, हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. सन् २०१६ में ही इनका पहला कथा संग्रह\’जाना नहीं दिल से दूर\’ प्रकाशित हुआ. इनका पहला अंग्रेजी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi (भूतनाथ मीट्स भैरवी )’सन् २०१७ में प्रकाशित हुआ. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक वित्त प्रौद्योगिकी संस्थान में काम करते हैं .