• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मीमांसा : सूफी और इश्क की इबारत : संजय जोठे

मीमांसा : सूफी और इश्क की इबारत : संजय जोठे

बशीर फारुक का एक शेर है – मिरी नमाज़ मिरी बंदगी मिरा इमांl तिरा ख्याल तिरी याद आरज़ू तेरीll इस देश में तमाम तरह की आस्थाओं के साथ हजारों सालों से लोग एक साथ रहते रहे हैं. उदारता और एक दूसरे को सहने का सलीका इस महाद्वीप से अधिक और कहाँ मिलेगा?  दरअसल सूफी इस्लाम […]

by arun dev
March 26, 2016
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

बशीर फारुक का एक शेर है –
मिरी नमाज़ मिरी बंदगी मिरा इमांl
तिरा ख्याल तिरी याद आरज़ू तेरीll
इस देश में तमाम तरह की आस्थाओं के साथ हजारों सालों से लोग एक साथ रहते रहे हैं. उदारता और एक दूसरे को सहने का सलीका इस महाद्वीप से अधिक और कहाँ मिलेगा? 
दरअसल सूफी इस्लाम का जो उदारवादी और लचीला चेहरा लेकर हिदुस्तान में आये और खुद यहाँ उसका जो एक हसीं रूप विकसित हुआ, वह इस्लाम की शुद्धतावादी और कट्टर पुनरुत्थान की आंधी में धूल-धुसरित हो गया है. उन्हें गैर इस्लामिक कहकर अब  लज्जित किया जाता है. कई जगह  सूफियों के मजार भी शहीद कर दिए गए हैं. अब जबकि धर्मो के ‘रेडिकलाइजेशन’ से पूरी मानवता आहत है ऐसे में सुफिज्म को क्या एक उम्मीद की तरह देखा जाना चाहिए?
समाजशास्त्री और दार्शनिक विषयों पर पकड़ रखने वाले संजय जोठे ने इस विषय के तमाम पहलुओं पर रोचक ढंग से लिखा है.  
सूफी और इश्क की इबारत                                         

संजय जोठे

सूफियों की बात करनी बहुत जरूरी है. इसलिए नहीं कि आस्तिक या ईश्वर अल्लाह को मानने वाली जमातों में ईश्वर और ईश्वरीय आज्ञा के नाम पर फ़ैली धुंध को छांटने में सूफी काम आ सकते हैं, बल्कि इसलिए भी कि स्वयं ईश्वर, रूह और रूहानियत की धारणाओं को संशोधित किया जा सकता है. बहुत नए नजरिये से सूफियों को देखने की जरूरत है. सूफी बहुत-बहुत पुराने लगते हैं, अरब और पर्शिया के ऐतिहासिक और भौगोलिक विस्तार में जिस तरह की गहराई सूफियों ने ली है वह अनोखी है. यह बात भी जाननी जरुरी है कि सूफी मत के सबसे गहरे, प्रगतिशील और क्रांतिकारी आचार्य पर्शिया या फारस या आज के ईरान आये हैं. इसी ईरान में जरथुस्त्रका पारसी धर्म और बुद्ध का बौद्ध धर्म भी कभी मौजूद रहे हैं. ऐतिहासिक रूप से बौद्ध धर्म की उपस्थिति के प्रमाण ईरान ईराक तक बहुत बड़ी मात्रा में नहीं मिलते हैं लेकिन अफगानिस्तान के बामियान से बड़ा सबूत मिलता है. भाषाशास्त्रीय विश्लेषणों में “बुत” शब्द की व्युत्पत्ति “बुद्ध” में बतलाई गयी है. बुतपरस्ती यानी मूर्तिपूजा के खिलाफ मूर्तियों को जो बुत का नाम दिया गया है वो बुद्ध से आया है.

सूफी अब बहुत महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं.  पूरे इस्लामिक जगत में ही नहीं बल्कि उसके बाहर भी ईश्वरवादी अनुशासनों में सूफियों का अनुशासन सबसे गहरा और महत्वपूर्ण है. सूफी असल में मुहब्बत से मुहब्बत के लिए जीने वाले लोग हैं. प्रेम उनका मार्ग भी है, मंजिल भी है और यात्रा का ढंग भी है. बौद्ध और पारसी रहस्यवाद की भूमि पर बाद में जो दार्शनिक और रहस्यवादी विकास हुआ है उसे सूफियों ने आगे बढाया है. धर्म दर्शन, राजनीतिक दर्शन और राजनितिक व सामरिक उठा पटक के बीच सूफियों ने उस इलाके की प्राचीतम रहस्यवादी परम्पराओं को और उंचाइयां दी हैं. यहाँ नोट करना जरुरी है कि सूफी किसी “एक धर्म” के नहीं बल्कि कई “संस्कृतियों के वाहक” हैं.  पर्शिया और आसपास के इलाकों में सूफियों ने जिस प्रगतिशील आंदोलनों की रचना की वे बहुत सारी संस्कृतियों की प्रेरणा से समृद्ध है. इसमें पारसी और बौद्ध रहस्यवाद भी शामिल हैं और उनके साथ सूफियों का अपना स्वयं का प्रेम का संसार जोड़ दिया है.

सूफी शब्द की उत्पत्ति के संबंध में दो प्रमुख तर्क उभरते हैं. एक तर्क बतलाता है कि सूफी शब्द “सफा” या पवित्रता से बना है दूसरा दावा करता है कि यह “सूफ” यानी ऊन से बना है. पहले तर्क से सूफी सफा यानीं पवित्रता से जीने वाले लोग हैं और दुसरे तर्क से सूफी उनी कपड़े पहनने वाले लोग हैं. दोनों को साथ रखकर देखें तो अन्तरंग में रूहानी पवित्रता और बहिरंग में ऊन पहनकर जीने वाले लोग हैं. इन दोनों तर्कों को अगर एक नयी दृष्टि से देखें तो सूफियों की काम करने की शैली और स्वयं को छुपाये रखने की मज़बूरी में झाँकने का मौक़ा मिलता है. यह एक जाहिर सी बात है कि सूफी प्रयासपूर्वक खुद को छुपाते हैं और अपनी रूहानियत के राज बहुत ही बंद समूहों में “सीना-ब-सीना” और “सिलसिलों” में चलाते रहे हैं. इस विवशता का सीधा संबंध उस समाज की हिंसक और असहिष्णु जीवन शैली से जुड़ता है. अरब का समाज बहुत खुलकर सूफियों को न तो अपना सका है न ही समझ सका है. यह सूफियों और उनके जैसे अन्य लोगों का सनातन दुर्भाग्य है भारत में भी बुद्ध, कबीर, गोरख, रविदास जैसे लोग समझे कम और सताए अधिक गए हैं.

पैगंबर मुहम्मद की प्रेरणाओं को भी सूफियों ने बहुत उंचाई तक विकसित किया है, जो सूत्र मूहम्मद के वक्तव्यों में आते हैं उन्हें फैलाकर सूफियों ने एक पूरा अनुशासन निर्मित कर लिया है. यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि मुहम्मद जिस सद्गुण को इबादत की तरह लेते हैं और सूफी जिसे प्रेम की तरह लेते हैं वो आसमानी नहीं बल्कि इसी जमीन से जुडी बात नजर आती है. इबादत और प्रेम दोनों का जो लक्ष्य या पात्र है वो उनसे आमने सामने बात कर रहा है. वह कोई पारलौकिक अर्थ की अतिभौतिक सत्ता नहीं है जो एक बार प्रकट होकर गायब हो गयी है. सूफियों में प्रेम जिक्र और तसव्वुफ़ की बुनाई जिस सत्ता के इर्द गिर्द की गई है वह इंसानी प्रेम के अर्थ में की गयी है. यही बिंदु सबसे महत्वपूर्ण है और इसीलिये सूफियों से बहुत उम्मीद बंधती है.  इस्लाम की तरफ से खुदी खुदा और खिद्र की जो धारणा आती है उसमे पूरी दुनिया की उन्नत रहस्यवादी परम्पराओं की सारी श्रेष्ठताएँ शामिल हो जाती हैं. थियोसोफी ने दावा किया है कि इस्लाम का खिद्र असल में बौद्धों का मैत्रेय है जो सबका मार्गदर्शन करता है. 

सूफी इसमें फना को भी जोड़ देते हैं. इस्लाम में खुदी के खुदा में खो जाने की जो धारणा है उसी को सूफी फना या “स्व के पूर्ण निषेध” के रूप में लेते हैं. यहाँ आकर सूफियों, पारसियों और बौद्दों के रहस्यवाद में बहुत गहरी एकता नजर आती है. पारसियों के लिए अग्नि की जो धारणा है वो इसीलिये महत्वपूर्ण है कि अग्नि सबको फना करते हुए खुद भी फना हो जाती है. बौद्ध जिसे निर्वाण कहते हैं उसमे प्रतीयमान स्व – जिसे भूल से आत्मा या रूह मान लिया जाता है – उसकी पूर्ण निर्जरा. इसे यूँ भी कहा सकते हैं कि व्यक्तित्व सहित स्व के समस्त घटकों और उसे आकार देने वाले समय और स्थान का भी सम्पूर्ण विनाश. यही शून्यता है. इस अर्थ में सूफियों की फना और बौद्धों का शून्य और इस्लाम की तौहीद और कई अर्थों में उपनिषदों का अद्वैत भी एक जैसे अर्थ रखते हैं. इसके बावजूद सूफियों का फना इन सबमे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वह प्रेम में फना की बात करता है. उस फना या शून्य को वे प्रेम में विलीन होने के अर्थ में लेते हैं इसलिए उनकी धारणा या अनुभव इंसानी जिन्दगी के बहुत नजदीक से गुजरता है.

सूफियों के अनुशासन और उस अनुशासन की संभावनाओं पर गौर करते हैं. अन्य धर्म और सम्प्रदाय जहाँ ईश्वर या परम् तत्व को पिता, माता, बेटा, सृष्टिकर्ता, संहारक या पालक की तरह देखते हैं वहीं सूफी उसे महबूबा की तरह देखते हैं. ये एकदम नया दृष्टिकोण है, इसमें न सिर्फ प्रेम की तड़प और गहराई है बल्कि इसमें बराबरी का भाव भी है. सूफी अपनी महबूबा या महबूब खुदा से आमने सामने मुखातिब होता है. वहां उनके संबंधों में एक नया ही लोकतन्त्र होता है जो अन्य किसी परम्परा में नहीं मिलेगा. इसीलिये सूफियों ने जिस तरह का साहित्य और जैसे रूपक रचे हैं वे प्रेम और प्रेम की पीड़ा, विरह, विछोह, मिलन, सुमिरन या जिक्र इत्यादि के अर्थ में इतने मानवीय होते हुए भी इतने पवित्र या दिव्य लगते हैं. पवित्रता को दिव्य और पारलौकिक पहचान दिए बिना वे इस प्रेम को बहुत जमीनी बनाये रखते हैं, यही उनकी खूबी है. उनका पूरा अनुशासन शरीयत, तरीकत और हकीकत नाम के तीन चरणों में सिमट आता है. ये प्रेम के तीन पग हैं. आश्चर्यजनक रूप से हकीकत की उपलब्धि वही है जो बुद्ध के शून्य की है. सूफियों ने अंतिम घटना या उपलब्धि को \”फना\” का नाम दिया है. फना असल में शून्य ही है. फना के बाद ईश्वर और रूह दोनों नकार दिए जाते हैं. लेकिन सूफी इसे जाहिर तौर पर बतलाते नहीं हैं. प्रेम के अर्थ में शून्य समझ में भी आता है. जब गहरे प्रेम में मिलन होता है तो न महबूब बचता है न महबूबा बचती है, एक फना की अनन्त लहर पूरे अस्तित्व और अनस्तित्व को एकसाथ उड़ा ले जाती है. इंसानी प्रेम में भी यही अनुभव होता है. जिन लोगों को प्रेम की टीस सताती है उन्हें असल में फना का यही क्षण बार बार बुलाता है, ये हर उस इंसान का अनुभव है जिसने अपनी प्रेमिका या प्रेमी में खुद को फना होते हुए देखा है. ब्रह्मचर्य या कौमार्य की मूर्खता के सताये पुरुष और स्त्रियां या परम्पराएँ इसे कभी नहीं समझ सकते.

सूफियों के या आम आदमी/औरत के प्रेम की अंतिम ऊंचाई फना है, जब झूठे व्यक्तित्व आपस में घुलमिलकर वाष्पीभूत हो जाते हैं. कोई पुरुष या स्त्री उस अंतरंगता में जब तक फना की झलक नहीं देख पाता/पाती तब तक उसका प्रेम बचकाना ही बना रहता है, वह प्रेम प्रौढ़ होने के लिये बार बार उन्हें मिलाता है, बुलाता है, यही विरह के या मिलन के गीत की प्रेरणा है. और प्रेम प्रौढ़ तभी होता है जब वो प्रेमी और प्रेमिका दोनों को फना या शून्य न कर दे. दोनों के व्यक्तित्व, या स्व या रूहें जब तक वाष्पीभूत न हो जाएँ तब तक वे प्रेम की भट्टी में उबाले जाते हैं. जिन माओं ने बच्चों को पाला है वो जानतीं हैं इसका क्या अर्थ होता है. एक माँ का प्रेम भी कई अर्थों में सूफियाना फना का ही प्रितिबिंब है, इसीलिये स्त्री में माँ बनने का इतना आकर्षण होता है, एक मासूम बच्चा माँ को जितनी तीव्रता से चाहता है उतना कोई प्रेमी उसे नहीं चाह सकता इसीलिये वह स्त्री भी अपने बच्चे की चिंता में फना हो जाती है उसे तब अपना होश या स्मृति नहीं रहती और यही मातृत्व का आनन्द है. ऐसा ही स्त्री पुरुष के प्रेम में भी होता है. जिन्हें कभी प्रेम हुआ है वो जानते हैं अंतरंग क्षणों का एकमात्र आनन्द सिर्फ इसी बात में छिपा है कि उन क्षणों में आपका व्यक्तित्व खो जाता है. यही निर्वाण या फना है. यहां स्व या आत्म शून्य हो जाता है यहां अनत्ता या फना का अनन्त विस्तार शेष रहता है.

जिस बात को योग तन्त्र ब्रह्मचर्य और भक्ति के अनुशासन घुमा फिराकर दार्शनिक पहेली बनाकर पेश करते हैं उसे सूफी सीधे सीधे प्रेम की इबारत में पिरोकर एकदम सीधे दो टूक ढंग से रख देते हैं. यही उर्दू या फ़ारसी साहित्य में शेर या ग़ज़ल के सौंदर्य की प्रेरणा है. सूफी अनावश्यक विस्तार में नहीं जाते, एक प्रेमी अपने प्रेम की तड़प में या मिलन के बाद की खुमारी (जलाल) की अवस्था में अस्तित्व के विरोधाभास को बिना किसी दर्शनशास्त्र को बीच में लाये सीधे सीधे देखता है, इसीलिये वो दो लाइन में जिंदगी के सबसे बड़े विरोधाभासों को समेट देता है. यही शेर और गजल सहित चुटकुलों की प्रेरणा है, इसीलिये खैयाम या रूमी जैसे सूफियों की शायरी और मुल्ला नसरुद्दीनके चुटकुले इतने गहरे होते हैं. अन्य परम्पराएँ जहाँ ग्रंथों पर ग्रन्थ लिखती जाती हैं वहीं सूफी दो लाईने कहकर महफ़िल लूट लेते हैं. 

सूफियों ने हमेशा से ही बहुत व्यावहारिक अर्थ में प्रेम या फना की बात की है. इसीलिये उनका साहित्य और उनकी साहित्यिक प्रेरणाएं इंसानी जिन्दगी के बहुत करीब हैं. अद्वैत या शून्य बहुत आसमानी नजर आते हैं, उनमे दर्शन की उंचाई इतनी है कि उसका जिन्दगी से रिश्ता टूट सा जाता है. लेकिन सूफियों के लिए प्रेम में फना होना सहित उनकी इबादत और जिक्र के अनुशासन भी आसमानी कम और जमीनी ज्यादा रहे हैं. कई अन्य परम्पराएं जहां पवित्र नाम मन्त्र या ज्योति या चक्र पर धारणा करना सिखाती है वहीं सूफी अपने सद्गुरु के चेहरे को आधार बनाकर एकाग्रता और ध्यान सिखाते हैं. भारत के नक्शबंदी सम्प्रदाय में एक नया किस्म का विकास देखने को मिलता है. मालवा और आसपास के इलाकों में नक्श्बंदियों का जो अनुशासन है वो श्वास और होश पर आधारित है. और दम यानी श्वास कर यानी कर्म या शरीर की गतिविधि पर होश को टिकाकर वे इबादत करते हैं. यह बहुत कुछ बौद्धों की विपश्यना के और संचक्रमण जैसा है. इसमें इबादत के अर्थ में जिस जिक्र का वर्णन है वह कबीर और नानक के “सुमिरन” और बौद्धों की “सतत जागरूकता” और जैनों के “विवेक” से जुड़ता है.

अन्य परम्पराओं में सुमिरन, अवधान या विवेक जेंडर की दृष्टि से न्यूट्रल या अधिकार पुरुषवादी गुण हैं वहीं सूफियों का जिक्र और प्रेम स्त्रैण है. असल में यह फेमिनिन या स्त्री मार्ग है. सूफी पुरुष होते हुए भी अपनी महबूबा की महबूबा होता है. गजल और शायरी का पूरा ढांचा इस तरह नजर आता है जैसे कोई रूठी हुई माशुका अपने महबूब को ताना मार रही हो. अब ये ताना दस बीस पेज का नहीं हो सकता, दो लाइन का ही हो सकता है. यही शेर है यही गजल है यही लतीफा है. इसीलिये सूफियों ने साहित्य की या हास्यबोध की जो इबारत रची है वो बहुत ही अलग है. अपनी पूरी अप्रोच में सूफी अंत में फना और शून्य में पहुँचते हैं, और रूह और अल्लाह दोनों से परे निकल जाते हैं हालाँकि सुरक्षा के कारणों से वे इसकी खुली चर्चा नहीं करते. फना की यह अवस्था आस्तिकता और नास्तिकता दोनों से बहुत ऊपर निकल जाती है. यह समझ में आता है क्योंकि प्रेम ने फना हुए बिना प्रेम का स्वाद ही नहीं आता और उस स्वाद में जब खुदी ही नहीं बची तब खुदा भी कहाँ टिकेगा ?

प्रेम की पार्थिवता अध्यात्म की दिव्यता पर हमेशा ही बहुत भारी पड़ती रही है इसीलिये प्रेमी हमेशा ही पण्डितों मुल्लाओं का मुंह बन्द करते रहे हैं. इसीलिये नानक ने जब धर्मों में सबसे बड़ा संश्लेषण खोजा तब उन्होंने मुख्य धारा के शरीयतवादी इस्लामी मुल्लों और हिन्दू पण्डितों को नहीं चुना उन्होंने कबीर, फरीद और बुल्लेशाह जैसे दीवानों और प्रेमियों को चुना. सूफीयों की मस्ती और उनका प्रेम आने वाले समय के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है. न सिर्फ भटक गए मुस्लिमों के लिए बल्कि धर्म और अध्यात्म को एक नीरस और जड़ अनुशासन मानकर बैठ गए झूठे धार्मिकों के लिए भी. भारत में जिस तरह का अद्वैतवादी और रूखा सूखा अध्यात्म चलता है उसकी तुलना में सूफियों का प्रेम में भीगा हुआ और संगीत के साथ नाचता हुआ अध्यात्मिक ढंग कहीं अधिक कारगर है और जरुरी है. 
________________

संजय जोठे  university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

कथा – गाथा : मुख्यमंत्री और धरतीपुत्र : बटरोही

Next Post

विष्णु खरे : दो बड़े लेखक : दो अमर कृतियाँ : दो बड़ी फ़िल्में

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक