• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » अनावृत उरोज: इतैलो कैलविनो: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

अनावृत उरोज: इतैलो कैलविनो: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

इटली के मशहूर कथाकार Italo Calvino (15 October 1923 – 19 September 1985) के अंतिम उपन्यास Mr. Palomar (1983, tr. William Weaver 1985) के एक अंश ‘the naked bosom’ का यह हिंदी अनुवाद इसके अंग्रेजी अनुवाद से सुशांत सुप्रिय ने किया है. सुशांत सुप्रिय के अनुवादों की किताब ‘विश्व कि चर्चित कहानियाँ’ इस वर्ष ‘अंतिका’ […]

by arun dev
March 16, 2017
in अनुवाद
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें


इटली के मशहूर कथाकार Italo Calvino (15 October 1923 – 19 September 1985) के अंतिम उपन्यास Mr. Palomar (1983, tr. William Weaver 1985) के एक अंश ‘the naked bosom’ का यह हिंदी अनुवाद इसके अंग्रेजी अनुवाद से सुशांत सुप्रिय ने किया है.
सुशांत सुप्रिय के अनुवादों की किताब ‘विश्व कि चर्चित कहानियाँ’ इस वर्ष ‘अंतिका’ से प्रकाशित हुई है.   
समुद्र तट पर अकेले टहलते हुए श्रीमान पालोमर रेत पर लेटी एक युवा स्त्री के अनावृत उरोजों को देखकर दुविधा में पड़ जाते हैं कि देखें कि नहीं.
अगर नहीं देखते हैं तो यह नग्नता पर उनकी प्रतिक्रियावादी सोच कही जायेगी. अगर देखते हैं तो?
वह एक दार्शनिक की तरह अपने देखने, पुरुष दृष्टि और स्त्री के वस्तुकरण पर सोचते हैं.   
यह दिलचस्प उधेड़बुन अब आपके समक्ष है. 
इतालवी कहानी
अनावृत उरोज                                                    
इतैलो कैलविनो
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

श्री पालोमर एक लगभग सुनसान समुद्र-तट पर चले जा रहे हैं. उन्हें वहाँ इक्के-दुक्के स्नान करने वाले ही दिखते हैं. तट की रेत पर अनावृत उरोजों वाली एक युवती धूप सेंकती हुई लेटी है. श्री पालोमर स्वभाव से ही एक सतर्क व्यक्ति हैं. वे समुद्र और क्षितिज की ओर देखने लगते हैं. वे जानते हैं कि ऐसे अवसर पर किसी अजनबी के अचानक क़रीब आ जाने पर स्त्रियाँ जल्दी से स्वयं को ढँक लेती हैं. पर उन्हें यह बात इसलिए सही नहीं लगती क्योंकि यह शांति से धूप सेंक रही स्त्री के लिए एक मुसीबत होती है, जबकि वहाँ से गुज़र रहा पुरुष यह महसूस करता है जैसे वह वहाँ एक घुसपैठिया हो. और नग्नता के विरुद्ध जो वर्जना है, अप्रत्यक्ष रूप से उसकी पुष्टि हो जाती है. किसी भी परिपाटी का अधूरा सम्मान करने से आज़ादी और स्पष्टवादिता की बजाए असुरक्षा और व्यवहार की असंगतता को बल मिलता  है.

इसलिए जैसे ही श्री पालोमर कुछ दूरी पर युवती के नग्न धड़ की धुँधली कांस्य-गुलाबी रूप-रेखा देखते हैं, वे जल्दी से अपना सिर इस तरह मोड़ लेते हैं कि उनकी दृष्टि का कोण शून्य में लटका हुआ दिखे. इस तरह वे लोगों के गिर्द मौजूद अदृश्य सीमा के प्रति शिष्ट सम्मान की गारंटी देते हुए लगते हैं.

अब क्षितिज साफ़ दिख रहा है. श्री पालोमर अब बिना हिचके अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमा सकते हैं. जब वे आगे बढ़ना शुरू करते हैं तो वे सोचते हैं कि इस तरह का अभिनय करके वे अनावृत उरोजों को देखने की अपनी अनिच्छा का प्रदर्शन कर रहे हैं. पर दूसरे शब्दों में वे अंतत: उसी परिपाटी को सुदृढ़ कर रहे हैं जो अनावृत उरोजों के किसी भी दृश्य को निषिद्ध क़रार देती है. यानी वे उरोजों और अपनी आँखों के बीच एक तरह की लटकी हुई मानसिक चोली की सृष्टि कर लेते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि के घेरे के किनारे तक जो चमक पहुँची थी, वह उनकी आँखों को हरी-भरी और सुखकर लगी थी. दूसरे शब्दों में कहें तो उनका अनावृत उरोजों को न देखने का प्रयत्न करना पहले से यह मान लेना है कि दरअसल वे उसी नग्नता के बारे में सोच रहे हैं और उससे आक्रांत हैं. यह एक अविवेकी और प्रतिगामी रवैया है.

सैर करके लौटते समय श्री पालोमर धूप-स्नान कर रही अनावृत उरोजों वाली युवती के बगल से दोबारा गुज़रते हैं. इस बार वे अपनी दृष्टि बिल्कुल सीधी रखते हैं. इसलिए उनकी निगाह एक निष्पक्ष एकरूपता के साथ तट से टकरा कर लौटती हुई लहरों के झाग पर, किनारे पर लगी नावों पर, रेत पर बिछे बड़े-से तौलिये पर, हल्की त्वचा के चंद्राकार उभार और कुचाग्रों के गहरे प्रभा-मंडल पर, तथा हल्की धुँध में आकाश की पृष्ठभूमि में तट की धूसर रूप-रेखा पर पड़ती है.
हाँ, यह ठीक है — टहलते-टहलते अपने कृत्य से प्रसन्न हो कर श्री पालोमर सोचते हैं : उरोजों को पूरे परिदृश्य में समाहित कर देने में मैं सफल हो गया हूँ. इसलिए मेरी टकटकी किसी समुद्री पक्षी की टकटकी से अधिक कुछ भी नहीं.
पर क्या यह तरीका सही है — वे आगे सोचते हैं. क्या यह ऐसा नहीं है जैसे किसी मनुष्य को वस्तु के स्तर पर ला दिया गया हो, उसे महज़ सामान बना दिया गया हो ? और उससे भी बुरी बात यह कि किसी महिला के विशिष्ट अंग को वस्तु का दर्ज़ा दे दिया गया हो. क्या शायद मैं पुरुष श्रेष्ठता-मनोग्रंथि की पुरानी आदत को ही क़ायम नहीं रख रहा, उस मनोग्रंथि को जो सैकड़ों-हज़ारों बरसों से गुस्ताख़ी की आदत में रूढ़ हो गई है — वे सोचते हैं.
श्री पालोमर मुड़ते हैं और धूप-स्नान कर रही उस युवती की ओर दोबारा चल पड़ते हैं. वे अपनी निगाह को समूचे समुद्र-तट पर एक तटस्थ निष्पक्षता के साथ डालते हैं. वे अपनी निगाह को इस तरह सँवारते हैं कि जैसे ही युवती के उरोज उनकी दृष्टि के क्षेत्र में आते हैं, उनकी निगाह में एक विचलन स्पष्ट हो जाता है. जैसे निगाह उस दृश्य से थोड़ा हट गई हो. जैसे दृष्टि लगभग झपट कर खिसक गई हो. वह निगाह नग्न युवती की कसी हुई त्वचा को छूती है, फिर लौट आती है, गोया एक विशेष गरिमा प्राप्त कर लेने वाली दृष्टि को वह थोड़ा चौंक कर सराह रही हो. कुछ पलों के लिए वह सरसरी दृष्टि बीच हवा में मँडराती है, फिर एक निश्चित दूरी से उरोजों की उभरी गोलाई के साथ मुड़ जाती है. एहतियात के साथ बच कर निकलती हुई वह दृष्टि फिर अपने रास्ते पर ऐसे चल पड़ती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो.
मुझे लगता है कि इस तरह से मेरी स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो गई है और अब कोई संभावित ग़लतफ़हमी नहीं होगी — श्री पालोमर सोचते हैं. लेकिन क्या अनावृत युवती के उरोजों के चंद्राकार उभार को छू कर लौटने वाली निगाहों को अंतत: श्रेष्ठता-मनोग्रंथि का परिचायक ही नहीं माना जाएगा ? एक ऐसी मनोग्रंथि जो उरोजों के अस्तित्व और उनके अर्थ को कम करके आँक रही है ? उन्हें हाशिए पर या कोष्ठक में रख रही है ? यानी उन उरोजों को मैं दोबारा उस नीम-अँधेरे के सुपुर्द कर रहा हूँ जहाँ यौन-सनक से भरी सदियों की अतिनैतिकता ने कामना को पाप का दर्ज़ा दे कर रख छोड़ा है ..
यह व्याख्या श्री पालोमर के सर्वोत्तम इरादे के विरुद्ध जाती है. हालाँकि वे मनुष्यों की उस पीढ़ी से आते हैं जिसके लिए नारी के उरोजों की नग्नता का संबंध कामुक आत्मीयता के विचार से जुड़ा है, किंतु फिर भी वे रिवाजों में आए इस परिवर्तन का स्वागत करते हैं और इसे सराहते हैं. यह एक अधिक उदारवादी समाज का प्रतिबिम्ब है, उसका सूचक है. इसके अलावा उनके लिए यह दृश्य विशेष रूप से सुखकर है. यही वह तटस्थ प्रोत्साहन है जो वे अपनी दृष्टि के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं.
अचानक श्री पालोमर अपना रंग बदलते हैं. वे धूप सेंक रही अनावृत उरोजों वाली लेटी हुई युवती की ओर दोबारा दृढ़ क़दमों से चल पड़ते हैं. अब उनकी दृष्टि भू-दृश्य पर एक सरसरी चपल निगाह डाल कर युवती के अनावृत उरोजों पर विशेष सम्मान के साथ देर तक ठहरेगी. किंतु वह निगाह जल्दी से अनावृत उरोजों को सद्भाव और कृतज्ञता के आवेग के साथ सम्पूर्ण परिदृश्य में समाहित कर लेगी. उस परिदृश्य में जिसमें सूर्य और आकाश होंगे, चीड़ और देवदार के झुके हुए दरख़्त होंगे, रेत का टीला होगा, समुद्र-तट होगा, पत्थर होंगे, बादल होंगे, समुद्री शैवाल होंगे, और वह ब्रह्मांड होगा जो उन कुचाग्रों के प्रभा-मंडल के गिर्द परिक्रमा करेगा.
यह क़दम उस अकेली धूप सेंकने वाली युवती को स्थायी रूप से आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए और सभी पतित पूर्व-धारणाओं का क्षरण हो जाना चाहिए. किंतु जैसे ही श्री पालोमर अनावृत उरोजों वाली उस युवती के क़रीब पहुँचते हैं, वह अचानक चिहुँक कर उठती है, एक बेचैन झुँझलाहट के साथ खुद को ढँक लेती है और अपने कंधे उचका कर चिढ़ी हुई हालत में वहाँ से चलती बनती है, गोया वह किसी लम्पट के कष्टकर दुराग्रह से बचने का प्रयत्न कर रही हो.
असहिष्णु परम्परा का महाभार सबसे प्रबुद्ध इरादों को भी समझने की योग्यता के मार्ग में बाधक होता है — अंतत: श्री पालोमर कड़वाहट के साथ इस नतीजे पर पहुँचते हैं.
_______________________________

सुशांत सुप्रिय
A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड,
इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद – 201014(उ.प्र.)
मो : 8512070086 
ई-मेल : sushant1968@gmail.com 

 

Tags: इतैलो कैलविनोसुशांत सुप्रिय
ShareTweetSend
Previous Post

मंगलाचार : घनश्याम कुमार देवांश

Next Post

कथा – गाथा : राजा जी का बाजा ग़ुम : नीलाक्षी सिंह

Related Posts

मार्खेज़: अगस्त के प्रेत: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय
अनुवाद

मार्खेज़: अगस्त के प्रेत: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

दीवार: ज़्याँ पॉल सार्त्र: सुशांत सुप्रिय
अनुवाद

दीवार: ज़्याँ पॉल सार्त्र: सुशांत सुप्रिय

मार्खेज़: मौंतिएल की विधवा: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय
अनुवाद

मार्खेज़: मौंतिएल की विधवा: अनुवाद: सुशांत सुप्रिय

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक