समय में मोड़
मैं आशाओं को अब दूध नहीं पिलाती.
केवल कोई थकी-हारी कविता पाती है मेरे स्तनों को हर रात.
मैं शायद फिर उस कक्ष में हो आई हूँ
जहाँ सड़क समय में मुडती है
छुपाने के लिए अपनी अनंत पीड़ा से बच कर भागते प्रेमियों कों,
और बारिश रुकने का नाम नहीं लेती.
मैं एक पहचानी-सी महक लेकर घर लौटी हूँ —
मेरे कपड़ों में कोई जून का महीना है और हो तुम.
गायब दांत
उसको कष्टपूर्वक उखड़वाने के हमारे पास कारण थे
और अब गायब दांत की खाली जगह
मुंह में एक शर्मनाक स्मृति है.
मगर जीभ बच्चा है
आदतन ढूंढती है एक दुनिया
जहाँ वह नहीं है.
मेरा जन्म हुआ
भय के जालरंध्रों में कहीं
फूटा था एक बीज. मेरा जन्म हुआ था.
मैं लिखी गयी थी उन नक्शों में
जो गए थे मेरे दादाजी के साथ पूर्वोत्तर सीमान्त एजेंसी,
उनकी ब्रीफकेस-खोपड़ी में छुपे हुए, उसका क्लर्क का अस्तित्व,
उसकी इमानदारी की कमाई
नागा विद्रोह के समय;
मैं उनके चुराए-गए चूल्हे की अर्धचेतन राख थी.
अपने पिता के कठिन जन्म में पैदा हुई थी मैं;
वह हबिगंज था जहाँ उन्होंने लात मार कर स्वयं को पहुंचाया था जीवन में,
जब दाई दबा रही थी हाथ से उसकी माँ के चीखते मुंह को
ताकि दंगाई न सुन लें.
मैं पैदा हुई थी एक ऐसी औरत के पैरों तले
जिसने पलाश के पेड़ पर नंगा लटकाए जाने
और जलाये जाने से पहले
अपने बेटे को ज़िंदा कटते हुए देखा था.
उस समय में थी मैं वहाँ, फेंके हुए पत्थरों में
और उन मिट्टी की आँखों में जो जम जाती थीं, जिन में से रिसते थे सपने,
वो हांडियां जिन में कुछ पकता था किसी मदद से,
वो कैम्प जहाँ जीवन खरीदा जाता था आखिरी सहेजे सोने से.
उसके और बाद, मेरा जन्म हुआ एक पहाड़ी पर
जहाँ का भूदृश्य भिक्षा देता था;
भ्रान्ति का आश्रय.
मैं थी वह लाल मिट्टी जिस में गिरते थे चेहरे,
स्मृति वापिस पाकर जिसमें पैर लड़खड़ाते थे,
हर दिन, हर पल.
मेरा जन्म हुआ पिटे-हुए व्यापारों में
और उन प्रतिभाओं में
जो सुदूर अनुकूल बाजारों की ओर
भाग जाने के लिए उगा लेती थी टांगें.
मेरा जन्म हुआ था,
भूगोल की चमड़े-सी खाल पर, इतिहास की लम्बी जीभ पर,
जो कुछ अपना है उसका, नए सिरे से, हिसाब लगाते रहने की आवश्यकता में.
और पूरे समय, वह अंतर रहा
उखाड़े जाने की वेदना में जन्म लेने का,
एक घटना, जैसे जंगली जानवर को
ले जाया जाता है अभयारण्य में, फिर चिड़ियाघर में.
मगर यह समानता एक पागलपन है जो धीमे-धीमे मारता है,
एक प्रतिग्रहण जो मुझे आज्ञा देता है
की पुनः जन्म लूँ तो किसी
सांप की बाम्बी या खरगोश के बिल में
साइरिल का पुरस्कार
क्या तुम मानते हो की
जो तुम्हारी आदत के धनुष को
सुरमा के मैदानों में छोड़ आया था
वह एक पेन्सिल थी कोई बाण नहीं?
वह क्या है फिर जो घूमता हुआ उठता है कहीं नीचे से
और उतार देता है हमारे दिलों में
विषैली नोक वाली कहानी,
जो काफी है जमाने के लिए
तुम्हारे चहेते यूरोप का भी खून?
बताओ क्या वह हिन्दू रात थी या मुसलमान रात
जब तुम झपट के ले गए थे मेरे दादा-दादी को पास की पहाड़ियों में…
और हमेशा के लिए नियत कर दी थी बेदखली?
वे लेकर गए थे केवल नाम
अपने घरों और आंगनों के अपने साथ
क्योंकि स्मृतियों से बनते हैं केवल नाम
और केवल स्मृतियों के साथ की जा सकती है छेड़खानी
एक उजड़े ताड़ों के देश में.
धूप में पकी भावनाएँ, नाक में आता गोबर से लिपा फर्श,
सुनहरी फूस का देश, अपनी बाड़ी और चूल्हे की रातें,
लल्लन फकीर का वह अनगढ़ गान, सब नाम हैं.
मगर चाँद के बाद सूरज मारा गया
ऐसा उन्होंने कहा होता अगर हमारी लाचारी देखने के लिए
वे जीवित रहते.
क्योंकि केवल मानचित्रण टपकता है हमारी पुराने ज़माने की छत से,
और हम छेद को बंद करने की कोशिश करते हैं एक चिपचिपी जीभ से,
और देखते है बीते-हुए साठ, सत्तर, नब्बे-वर्षीय तारों के चेहरे.
इतिहास धीमे-धीमे मारता है, मगर मार ज़रूर डालता है.
साइरिल तुम कौन हो?
मैं हूँ एक सत्ताईस बरस का बीता हुआ शरणार्थी कल
जिसमे किसी और को आरोपित करने की नहीं है क्षमता
और तुम्हारे परोपकार की कीमती चिकोटी से
जिसके गाल अभी भी लाल हैं.
शरणार्थी कालोनी
वह एक माथा है जो कोई पीटता है अपनी किस्मत को कोसते हुए,
एक बच्ची का आँख-फाड़ता आश्चर्य
जिसने पूछा अपने दादाजी से
की वह अलग भाषा क्यों बोलती है
और जिसे थप्पड़ मार कर चुप करा दिया गया.
वह स्थान प्रतिध्वनि है
एक अंतिम उत्तर की.
अगर हमारी स्मृतियों में न होता काँटा
हमारा रक्त कहीं और से बहता.
मगर स्थान वही होता;
सडकों पर सीधे लेटी शर्म,
गायब हो जाने को मरे जाते गुप्त घर,
उपहास करता सामुदायक केंद्र.
शर्मिंदा-से मंदिर में निष्क्रिय भगवान.
कभी-कभी वे पूछते हैं की वह कहाँ हैं.
और फिर वह प्रकट होता है शहर के चेहरे पर
छिपाए गए अपराध बोध की तरह,
जलता हैं शाम की धूप-बत्ती के सिरों पर,
शंखों के मुँह से हकलाता,
भय और अपरिचित प्रार्थनाओं को
बांधता है
बोली के एक अपरिष्कृत स्वर में.
तुम उसके आँखों में देख ही नहीं पाओगे
वह स्मृति का लगभग एक वर्ग किलोमीटर,
तुम नहीं ले पाओगे वह पापी नाम.
अपमान की गलियों में,
तुम बिलकुल नहीं लांघ सकते ड्योढ़ी
किसी जीर्ण असमिया मकान की
जहाँ इतिहास रहता है स्वयं की अस्वीकृति में
खोये हुए देश से पूर्ण,
एक पागल औरत के गीत सा, उपेक्षित.
वर्षा
छत के टीन गान के लिए,
पत्तों के उन्मत्त नृत्य,
तली हुई चाहों की मीठी सुगंध,
उन सरल चीज़ें के लिए जो मुझे सरलता से मारते हुए
मेरी वजह से मर गयीं….
इन सब के लिए गाया गीत
एक भोली कागज़ की नाव की तरह डूब जाता है,
और एक निर्जन द्वीप पर फंसा दिन नज़रें तिरछी करता है
ढूँढने के लिए चंचल सड़कों पर बहते इन्द्रधनुष.
सांझ के पास
मैं अंतर्मुखी हो जाती हूँ
और सोचती हूँ खोये मित्रों और छंदों के बारे में.
कोई क्रोध मेरे शब्दों को फुफकार के तरह फेंकता है.
समय का प्राचीन विलाप.
अब एक चोट इस आकाश में उभरती है
और असंख्य जीभें उतरती हैं
चाटने के लिए एकांत के पल.