स्वप्निल श्रीवास्तव
जन्म ५ अक्टूबर १९५४ को पूर्वी उ.प्र. के जनपद सिद्धार्थनगर के सुदूर गांव मेंहनौना में.
शिक्षा और जीवन की दीक्षा गोरखुपर में.
पूर्व में उ.प्र. सरकार में जिला मनोरंजन कर अधिकारी के पद पर सूबे के अनेक शहरों में चाकरी.
ईश्वर एक लाठी है(1982), ताख पर दियासलाई(1992), मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए(2004) एवंजिन्दगी का मुकदमा(2010) कविता पुस्तक प्रकाशित
1986 में कविता का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार एवं 2005 में फिराक सम्मान.
फुटकर समीक्षायें, अनुवाद एवं कुछ कहानियां भी लिखी हैं
कविताओं के अनुवाद भारतीय भाषाओं में प्रकाशित
कवि स्वप्निल श्रीवास्तव को इस वर्ष का रूस का अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान दिए जाने की घोषणा की गई है. रूस के भारत-मित्र समाज द्वारा प्रतिवर्ष हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि या लेखक को मास्को में हिन्दी-साहित्य का यह महत्त्वपूर्ण सम्मान दिया जाता है . इस अवसर पर कुमार आशीष से स्वप्निल श्रीवास्तव की बातचीत.
सबसे पहले मैं आपसे एक पारम्परिक सवाल पूछना चाहता हूँ कि आप क्यों लिखते हैं. दुनिया में बहुत सारे काम हैं आपने लिखने का चुनाव क्यों किया?
वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव से कुमार आशीष की बातचीत
सबसे पहले मैं आपसे एक पारम्परिक सवाल पूछना चाहता हूँ कि आप क्यों लिखते हैं. दुनिया में बहुत सारे काम हैं आपने लिखने का चुनाव क्यों किया?
मेरे लिए लिखना एक जरूरी काम की तरह है. लिखना एक तरह से प्रतिरोध भी है और मुक्ति भी. मुझे पाब्लो नेरूदा का एक कथन याद आता है जिसमें उन्होंने कहा है कि लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा है. लिखने के बिना मैं जीवित नहीं रह सकता- इस तरह हम देखते हैं कि कवि और कविता के बीच में एक तादात्म्य आवश्यक है. कविता लिखना एक तरह से शब्द साधना है(इसे कैजुअल काम कतई नहीं माना जाना चाहिए. कवि के लिए कविता के उपकरणों मसलन भाषा बिंब और संरचना के बारे में जानकारी होनी चाहिए.
आपको कब लगा था कि आप कविताएं लिख सकते हैं. कविता के बीज आपके भीतर कब अंकुरित हुए?
दरअसल कविता के संस्कार मुझे अपनी मां से मिले. मैं उनकी कापी से चुपके-चुपके लोकगीत पढ़ा करता था. ये गीत बड़े मार्मिक थे. फिर मैं मां के साथ तुकबंदी करने लगा और मुझे इस काम में रस आने लगा. मेरा बचपन बहुत समृद्ध था. इसमें परिंदे, जंगल, नदियां, हाट और बाजार थे, उन्हीं के बीच में कविता लिखने की ललक पैदा हुई. सबसे पहले मैंने चिडि़या पर कविता लिखी और मां को सुनाया. मां बहुत प्रसन्न हुई. मां एक दिन छोड़कर चली गयीं, मैं बमुश्किल से सोलह-सत्रह साल का था. यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा आघात था जिससे मैं अबतक उबर नहीं पाया. फिर मैंने उदास कविताएं लिखनी शुरू कीं, और बाकी चीजें मैंने अपनी जिन्दगी से सीखीं.
आप अपनी कविता-यात्रा के बारे में कुछ बताइए. आपकी निर्मिति में किन लोगों की भूमिका है?
मैंने हाईस्कूल, इंटर देवरिया जनपद के कस्बे से किया और बाद की शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय से हुई. गोरखपुर शहर से मैंने शिक्षा ही नहीं प्राप्त की बल्कि जीवन के बहुत सारे अनुभव इस शहर ने दिए. मेरे जीवन का हर रास्ता गोरखपुर से होकर जाता है. यहां प्रेम और अ-प्रेम दोनो साथ-साथ मिला. परमानन्द श्रीवास्तव से बहुत कुछ सीखने को मिला. उन दिनों वे विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में थे और मैं एम.ए. हिन्दी का विद्यार्थी था. इसके अलावा देवेन्द्र कुमार, बादशाह हुसैन रिजवी, सुरेन्द्र काले, मदनमोहन जैसे कवि, लेखकों की संगति बहुत काम आयी. उस समय गोरखपुर शहर का साहित्यिक माहौल बहुत समृद्ध था. बहुत सारी गोष्ठियां और नाटक हुआ करते थे. अब गोरखपुर पहले जैसा शहर नहीं है. वह इतना आधुनिक हो गया है कि उसे पहचानना कठिन हो गया है. शहर से हमारे पांव के निशान गायब हो चुके हैं.
आप आठवें दशक के कवि हैं. यह दशक हिन्दी कविता का प्रस्थान-बिंदु था. यह हलचल भरा समय से इस समय को आप कैसे देखते है?
दरअसल यह कविता की दुनिया का अद्भुत समय था. कविता की भाषा जटिल मुहावरों से मुक्त हो रही थी. काव्य विषय और बिंब बदल रहे थे. तीन बड़े कवियों जैसे नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन के कविता संग्रह बीस साल बाद प्रकाशित हो रहे थे. इन संग्रहों के नाम क्रमश: खिचड़ी विप्लव देखा हमने, बात बोलेगी, ताप के ताये हुए दिन थे. कविता में सहज मुहावरों और नयी भाषा की धमक दिखायी देती है. कविता के इस परिदृश्य में केदारनाथ सिंह, कुमार विकल, बिजेन्द्र जैसे कवि भी सक्रिय थे. केदारनाथ सिंह का संग्रह \’जमीन पक रही है\’, कुमार विकल का संग्रह \’एक छोटी सी लड़ाई युवा कवियों के लिए रोल माडल का काम कर रही थी. आठवें दशक के एकदम नये कवि राजेश जोशी, उदय प्रकाश, अरुण कमल जैसे कवि समकालीन कविता का नया मुहावरा निर्मित कर रहे थे. जब हम आठवें दशक की कविता की बात करते हैं तो हमें ज्ञानेन्द्रपति, मंगलेश डबराल, विजय कुमार जैसे कवियों की भूमिका को याद रखना चाहिए. कहने को आज भी कविता की तीन पीढि़यां सक्रिय हैं लेकिन 1980 के आसपास कविता के जनतंत्र में जो ऐतिहासिकता थी वह आज की कविता में अपेक्षाकृत कम दिखायी देती है. मैं उस समय का उपभोक्ता रहा हूं और यह बात एक पाठक की हैसियत से कह रहा हूं, सम्भव है मेरे इस विचार से बहुत सारे आलोचक सहमत न हों.
इन कवियों में आपको कौन से कवि पसन्द हैं और क्यों?
मुझे उस दौर के बहुत सारे कवि पसन्द हैं लेकिन मुझे नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, कुमार विकल, राजेश जोशी जैसे कवियों की कविताएं पसन्द हैं. मैं उन्हें अपने मिजाज के अनुरूप पाता हूं. नागार्जुन की कविता के विभिन्न स्तर हैं, उनके भीतर विरल लोकचेतना और राजनीतिक आवेग है और उन्हें अभिजात्य के विरुद्ध का कवि कहा जाता है. इसी तरह त्रिलोचन की कविताओं में अवध के इलाके के सुख-दुख, संघर्ष और लोकबिम्ब दिखायी देते हैं. 1980 के आसपास प्रकाशित कवियों के संग्रह को पढ़ने के बाद उस दौर के समकालीन यथार्थ का नया रूप हमारे सामने आता है. खासतौर से कविता की भाषा में एक निर्णायक बदलाव दिखायी देता है जो उसके बाद की कविताओं में हमें सहज रूप से दिखायी देता है. दरअसल आठवें दशक की कविता ने हमें जड़ों की तरफ लौटाया है.
आपके पहले दो संग्रहों \’ईश्वर एक लाठी है\’, \’ताख पर दियासलाई\’ के बाद \’मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए\’ संग्रह में लोकजीवन वाली कविताएं गैरहाजिर हैं, इस परिवर्तन का क्या कारण है?
दरअसल, हर एक कवि को अपने शुरूआती बिम्ब से धीरे-धीरे मुक्त होना चाहिए और समय के सवालों के साथ सार्थक संवाद करना चाहिए. सन 1992 में बाबरी मस्जिद का टूटना, सन 2002 में गुजरात का नरसंहार और फासीवाद का बर्बरता से उदय ने मेरी काव्य संवेदना को आघात पहुंचाया. यह हमारे इतिहास की ऐसी घटनाएं हैं जिसे आप आंख मूंदकर नहीं देख सकते. इसी दौर में मैंने ईश्वर का जन्मस्थान, बादशाह हुसैन रिजवी का दुख, कबाडि़ए और अयोध्या व गुजरात को लेकर बहुत सारी कविताएं लिखीं जो मेरे चौथे संग्रह \’जिन्दगी का मुकदमा\’ में संकलित हैं. हम सब एक बर्बर समय में रह रहे हैं जिसमें कविता और कवि की भूमिका को अपेक्षाकृत आक्रामक होना चाहिए. कठिन यथार्थ के सामने कोमलकान्त पदावली वाली कविताएं नहीं ठहर सकतीं.
कविता और आलोचना के रिश्ते के बारे में आप क्या कहेंगे जबकि दोनों को लेकर संदेह किया जाता है?
मुझे लगता है आलोचना को तीक्ष्ण और संतुलित होना चाहिए और कवि में आलोचना सहने का धैर्य आना चाहिए. आलोचना को सकारात्मकता और नकारात्मकता के बीच स्पेस की खोज करनी चाहिए. इस दोनों संस्थाओं के बीच सहज संवाद की जरूरत है. हमारे समय में अभिव्यक्ति के खतरे उठाने वाले बहुत कम लोग रह गये हैं. सृजन की केन्द्रीयता नहीं रह गयी है. सृजन से इतर चर्चा में बने रहने के उद्यम किए जा रहे हैं. नयी पीढ़ी का यह उत्तरदायित्व है कि इस पर्यावरण को बदलें और नयी रचनाशीलता की तरफ विकासमान हों. हमारी पीढ़ी बड़ी प्रतिभाशाली है उसमें बहुत सारे कवि हैं जिनके भीतर कविता के व्याकरण को बदलने की क्षमता है.
इधर जो संचार माध्यमों का घटाटोप और इलेक्ट्रानिक मीडिया का हाहाकार है, क्या उसमें हमारे शब्द बचे रहेंगे?
शब्द का कोई विकल्प नहीं है. वह हजारों साल से हमारे भीतर जिन्दा हैं. जो शब्द के विरोधी है व जिन्हें शब्दों से डर लगता है, वे इस तरह का दुष्प्रचार करते हैं. हम सब जानते हैं कि मीडिया और संचार माध्यमों के पीछे पूंजी की भूमिका है इसलिए हमें बेहतर साहित्य पढ़ने को नहीं मिलता और न सही खबरें ही हमारे पास आती हैं. हमें लगता है हमारा साहित्य एक चित्र में कैद कर लिया गया है और हमें उसकी भयावहता को दिखाया जा रहा है. शब्द की अपनी शक्ति है, वह हमारे जीवन में किसी न किसी रूप में मोजूद है अत: उसे लेकर किसी तरह की चिन्ता की जरूरत नहीं है बशर्ते हम शब्द में अपनी आस्था प्रकट करें और उसे व्यक्त करने के लिए साहस दिखाएं. कविता की दुनिया में साहस एक जरूरी शब्द है जिसके जरिए हम प्रतिरोध कर सकते हें.
अभी हाल में आपको पुश्किन सम्मान मिला है. आपकी क्या प्रतिक्रिया है, आप यह भी बताएं कि पुरस्कारों को लेकर हमारी दुनिया में एक संदेह का भाव है?
किसी लेखक के जीवन में पुरस्कारों की एक सीमित भूमिका होती है. पुरस्कार रचनाकार की रचना को सत्यापित नहीं करते हैं. असली पुरस्कार लेखक का बेहतर लेखन है. इसलिए पुरस्कार को लेकर किसी तरह का प्रलोभन नहीं होना चाहिए. मिल गया तो ठीक है, नहीं मिला तो उससे कोई नुकसान नहीं है. जहां तक संदेह की बात है नोबुल प्राइज जैसे पुरस्कार संदेह से परे नहीं रह गए हैं, उनके लिए भी लाबीइंग की जाती है. पुरस्कार कुछ समय के लिए हमें जरूर प्रसन्न करते हैं लेकिन यह प्रसन्नता रचनात्मकता से बड़ी नहीं होनी चाहिए.
क्या आप पीछे मुड़कर देखना चाहते हैं, आपको किसी बात का पछतावा तो नहीं है?
आप अपनी जिन्दगी को तय नहीं कर सकते हैं, उसकी अपनी गति है. यह सोचना कि ऐसा होता तो कितना अच्छा होता- यह एक काल्पनिक सवाल है. मुझे चेखव का एक कथन याद आता है जिसमें उसने लिखा है काश हमने जो जिया था, जिया है वह जिन्दगी का सिर्फ रफ ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का एक अवसर मिल जाता. हम जिन्दगी और लेखन के बारे में बहुत सारी चीजें सोचते हैं और न लिखने के तर्क सामने रखते हैं, इस तरह हम अपने आलस्य का बचाव करते हैं. मैं यह जरूर कह सकता हूं कि कविता ने मेरे जीवन को बचाया है और कठिन से कठिन परिस्थितियों में मुझे मुक्त किया है. मेरे भीतर थोड़ा बहुत जो मनुष्य बचा हुआ है वह कविता के कारण ही है वरना जिस तरह की सरकारी नौकरी में मैं था उसमें अपने वजूद को बचाना बहुत मुश्किल काम हो जाता.
स्वप्निल श्रीवास्तव
510, अवधपुरी कालोनी,
मो. 09415332326/email: swapnilsri.510@gmail.com
_____________________________
कुमार आशीष
कुमार आशीष
8/1/7, स्टेशन रोड,फैजाबाद.