नीतू तिवारी
17 जून की सुबह जब मैं फिल्म का पहला शो देखने के लिए घर से निकली तो मेट्रो में मेरी बगलवाली सीट पर बैठा लड़का अपने फोन पर फिल्म देख रहा था. मैंने सीट छोड़ दी. स्पोइलर्स से चिढ़ है. इसलिए फिल्म का कोई रिव्यू फिल्म देखने से पहले पढ़ना बेकार लगता है. समीक्षा सिर्फ फिल्म की कहानी को चुगली की तरह दर्शकों के कान में कह देना ही तो नहीं है, जैसा हिन्दी फिल्म-समीक्षाओं में प्रायः हुआ करता है. ये ठीक-ठीक वैसा हुआ जैसे किसी पेंटिंग को देखकर उसके भाव,उसकी छवियों पर बात करने की बजाए उसमें इस्तेमाल किए गए रंगों की कंपनियों के नाम बताना. फिल्म की भी अपनी पूरी डिटेल्ड राजनीति हुआ करती है और ज़िंदा इंसान सरीखी एक आत्मा भी. जिसे छू-भर लेना दर्शक के रूप में अपने रोल का एक-तिहाई निभा देना है. दर्शकों में लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद ख़ासी सक्रियता नज़र आई. लोगों ने जमकर बीते हफ़्ते भर सोशल नेटवर्किंग पर लिखा कि फ़िल्म ने कैसे सभी की उम्मीदें पानी-पानी कर दीं हैं.
‘उड़ता पंजाब’ के कैरेक्टर पोस्टेर्स रिलीज़ होने के साथ ही एक खास तरह की हवा फिल्म को लेकर बनना शुरू हो गई थी. ट्रेलर और संगीत ने उम्मीदें और भी बढ़ा दीं थीं. फिर फिल्म सेंसर बोर्ड के पास अटकी और फिल्म को लेकर पूरा फिल्मोद्योग अपने धंधे में कहने-रचने की छूट पाने के लिए कुलबुला उठा. पहले भी कई बार हुआ है. फिल्म देखी. जैसी हिन्दी फ़िल्में होती है – वैसी ही थी. बल्कि कई गुना बेहतर थी. पर फिर भी सबके पेट ख़राब कर गई. क्यूंकि हँगामा हो गया है इसलिए अब फिल्म को ‘अच्छा होना ही चाहिए’. उसमें ये तो वो तो न जाने क्या-क्या भी ‘होना ही चाहिए’. अब इस बात का मलाल है कि फिल्म में ‘वैसा कुछ’ नहीं निकला जिस पर इतना बवाल हो. फिल्म में जैसा जो कुछ है उस पर भी बात इसी नज़रिए से शुरू की जा रही है और नज़रिए का फ़र्क किसी भी रचना के अर्थग्रहण में ज़रूरी बल्कि निहायत ज़रूरी तत्व है.
‘उड़ता पंजाब’ फिल्म के साथ वही हुआ. कुत्ते के नाम से लेकर, गालियों और गानों के बोल बहुत कुछ अभद्र लगा सेंसर बोर्ड को. नहीं लगा तो हमें फिल्म देखकर कुछ नहीं लगा. हम माने वो दर्शक जो ठानकर गए थे कि ‘ए’ सर्टिफिकेट वाली फिल्म देखने जा रहे हैं. इतना बवाल मचा है, ‘कुछ तो’ होगा. ये जो सनसनी युग में रहने की आदत हमारी पड़ गई है दरअसल उसने हमें इस निष्कर्ष पर ला पटका है कि फिल्म ही बोगस है. बै…चो – मा…चो जैसे शब्द तो रोज़मर्रा की ज़िंदगियों में शामिल हैं. लड़ाई-झगड़े में ही नहीं हँसी-ठट्ठे में भी शामिल है. ए.आई.बी.से प्रेरणा–प्राप्त पीढ़ी तो इसकी आदि थी ही पर लगता है रिटायर हो चुकी पीढ़ी भी इससे ज़्यादा कुछ की उम्मीद लेकर सिनेमाघर के अंदर गई थी.
फिल्म में जो खामियाँ हैं उनमें सबसे बड़ी और पॉपुलर वाली यह है कि फिल्म ने नशे की समस्या का ज़िक्र तो छेड़ा पर कोई ‘समाधान’ नहीं सुझाया. अब इन सब से कोई ये पूछे कि फिल्म देखने गए थे या शर्तिया इलाज वाले किसी हक़ीम/वैद से इलाज कराने गए थे? आखिर दर्शक समाज के तौर पर जब हम यह शिकायत करते हैं कि भारतीय फिल्म-निर्देशक गिन के चार फोर्मूलों पर ही फिल्में बनाता है, लेखकों के पास नई कहानियाँ नहीं हैं वगैरह वगैरह. तो फिर अक्सर प्रयोगात्मक कहानियों को देखने के बाद सीना क्यूँ पीटते हैं?
समस्या के साथ जीते-जूझते लोगों की कहानी क्या फिल्म नहीं हो सकती ? भारतीय सिनेमा का एक मिथ है उसका सुखांत प्रिय होना. दर्शक की कुर्सी पर बैठे लोगों में इसके लिए इतना आग्रह है कि कथा के अंतिम चरण में त्रासदी, अनिश्चितता या अंत से पहले वाला अंत उनके लिए फिल्म को अर्थहीन कहने का पहला मानक है. यहाँ तो बल्कि जानबूझकर फिल्म के अंत के साथ खेला गया है. फिल्म के दो अंत है. डबल एंडिंग. एक जहाँ पगलिया (आलिया) ने गोवा में गोता लगाया और दर्शक अपने-अपने गीले मन के साथ घर को लौटे. लेकिन यह दूसरा अंत है पहला नहीं. इसके आने के ठीक पहले पैसा,पावर और पॉलिटिक्स से ऊपजे पारिवारिक क्लेश में अनगिनत हत्याओं के बाद अपने ही परिवार वालों की लाशों से सटे दो भाई आमने-सामने बैठे हैं निरुत्तर और सुन्न आँखों के साथ. उन्हे नहीं पता अब वे अपने जीवन और एक-दूसरे की ज़िंदगियों के साथ क्या करें! नशे की लत से टूटते घरों का सच है यह. जिसे किसी हीरोई क़िस्म का मोड ना देते हुए निर्देशक ने वहीं एक झटके से समाप्त कर दिया है. दर्शक खीझ उठे थे, इतने कि हॉल शोर से गूँज उठा था. वो खीझ और गुस्सा किस पर था पता नहीं, पर इतना ज़्यादा था कि लगभग 30 सेकंड के बाद जब फिल्म दोबारा गोवा के तट पर मिली तो बहुत से लोग रुके ही नहीं. कुछ छवियाँ मन को अस्थिर कर देती हैं.
फ़िल्में सामाजिक परिवर्तन नहीं लाती. व्यावहारिक परिवर्तन शायद ले आती हैं अपने आप. सिनेमा केवल स्याह – सफ़ेद दोनों रंगों का नंगा और खरा रूप आपके सामने रख सकता है. जिनमें चुनने वाले अपनी सुविधा से अपने रँग चुन लिया करते हैं. जबरन उस पर अपनी समस्याओं के निराकरण का बोझ डालना यानी अपनी कहानी के साथ किसी भी ओर निकल जाने की लेखक की आज़ादी छिनना. कल्पना और फेंटेसी को ख़त्म करते हुये उसे खींचकर वहाँ ला पटकना जहाँ आदर्शवाद से यथार्थ का पुराना बैर निकले.
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निर्देशक अभिषेक चौबे |
फिल्म के निर्देशक यानी अभिषेक चौबे ‘भारद्वाज फिल्म स्कूल’ के स्टूडेंट हैं. अकादमिक पढ़ाई के दौरान भी और फिल्म-निर्माण कला के सीखने के दौर में भी. हिन्दू कॉलेज से निकले अभिषेक को मुंबई पहुँचकर डार्क ह्यूमर नाम की ततैया ने तब से डंक मारा हुआ है जब वो विशाल भारद्वाज के यहाँ बतौर सहायक निर्देशक ‘मकड़ी,मक़बूल,कमीने और ओमकारा’ फिल्मों पर काम कर रहे थे. “डार्क ह्यूमर” यानी हँसने के पीछे किसी लम्बी तड़पती चीख़ की चुभन. हास्य-दृश्यों का वह संयोजन जो पर्दे पर घटित होता हुआ दर्शकों को गुदगुदा देगा. लेकिन अगले क्षण वापस संज्ञान में लौटता दर्शक उस सीन को याद करते हुये खुद से अपनी खोखली हँसी का कारण पूछे. आत्म-संवाद की ऐसी स्थितियों से हिन्दी-सिनेमा का अभी बहुत लंबा और सुखद नाता नहीं बना है.
अभिषेक चौबे बतौर निर्देशक इससे पहले भी अपने सीमित दायरे में प्रयोग कर रहे थे और उन्होने इस बार भी वैसा ही किया है. जिसके लिए उन्होने इस बार उत्तर-प्रदेश की बजाए पंजाब को चुना. तीन साल फिल्म के लेखक सुदीप शर्मा के साथ रिसर्च और रेकी की. इन तीन सालों में ज़ाहिर सी बात है कि उन्होने शुद्ध रूप से सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्मों का टिकट खिड़की वाला रेवेन्यू जोड़ा-गाँठा ही होगा. जिसके बाद सुदीप शर्मा और चौबे जी ने जो कुछ पन्नों पर स्क्रीनप्ले के नाम पर उतारा वो अब फिल्म की शक्ल में पर्दे पर है. लोग देख रहे हैं. इंटरनेट पर लीक होने के कारण रिलीज़ के दो-दिन पहले से ही देख रहे हैं.
‘उड़ता पंजाब’ के हिस्से आई अनगिनत बुराइयों में एक यह भी है कि इसमें कोई मुकम्मल कहानी नहीं है. या यूं कहिए ये अलग-अलग कहानियों के भिन्न-भिन्न दृश्यों का कोलाज-सा है. नायक और नायिका का प्रेम > बीच में कोई देशप्रेम/जात-पात/अमीरी-गरीबी टाइप का टिपिकल सा व्यवधान > संघर्ष और फिर नायक की जीत और कहानी के दोनों केन्द्रीय पात्रों का “हैप्पीली एवर आफ्टर” वाला अंत देखकर लौटे दर्शक के आगे कहानियों को नए मोड भी तो दिए जा सकते हैं! जहां परंपरागत कहानी नहीं होगी तो उसका ट्रीटमेंट कैसे ट्रेडीशनल होगा. अभिनय से लेकर संवादों तक में वह टटकापन आना तय है जो अपरम्परागत व्यवहार में होता है. जिसके पूर्वाभ्यस्त हम ना हों. ये दरअसल कन्डीशनिंग को तोड़ने वाला मामला है और अक्सर नई चीजों को लेकर हम असहज हो जाते हैं. और असहजता को नापसंदगी का एक गुण-लक्षण या तत्व मान लिया जाता है. लेकिन क्या असहजता वास्तव में इतनी अपरिहार्य वस्तु है? अगर है, तो यह सिनेमा के साथ-साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सुरक्षित और सुविधाभोगी नज़रिया है.
बीते दिनों गोरखपुरजैसे नॉन-ग्लेमरस शहर में एक सिने-फिल्मोत्सव ने लगातार अपने 11 वर्षों की श्रंखला पूरी की. नॉन-स्पोनसरशिप के ऊसूल के साथ यह एक बड़ी उपलब्धि है. वहाँ जाकर फिल्म देखने की सबसे मज़ेदार बात यह रही कि आदर्श दर्शक-समाज कितना सहनशील और कितना संवेदनशील होना चाहिए यह मैंने पहली बार महसूस किया. सुना था कि केरल और मुंबई के दर्शक सबसे सिने-साक्षर दर्शक होते हैं. लेकिन अप्रत्याशित रूप से यह अनुभव चटकीले शहरों के बाहर मिला. इसके मिलने की घटना से जब मैं ‘उड़ता पंजाब’ देखकर लौटे दर्शकों की प्रतिक्रियाओं की तुलना करती हूँ तो दिल्ली ख़ासी अनपढ़ मालूम हो रही है. दिल्ली ही क्या अन्य शहरों के लोग भी इस जमात में शामिल हैं जिन्हे फिल्में देखने का शुद्धतावादी नज़रिया ही जँचता है. जिनके हिसाब से आदि > मध्य > अंत की सिलसिलेवार कड़ी ही आदर्श कहानी है.
यहाँ गोदार्दके उस प्रसिद्द कथन की याद आती है कि, “हर कहानी का एक आरंभ, एक मध्यांतर और एक अंत होना चाहिए. लेकिन यह बिलकुल भी ज़रूरी नहीं कि वे इसी क्रम में हों.” गोदार्द ने यह कथन फिल्म की पटकथा के संदर्भ में कहा था. मेरे लिए ‘उड़ता पंजाब’ बिलकुल वैसा ही जीवन के अलग-अलग क़िस्सों का एक धागा है. जिसमें कोई भी एक सूत कम या ज़्यादा हो सकता था. पर कहानी को उसके इधर-उधर हो जाने से ज़्यादा अपने कहने के ढ़ंग पर भरोसा है. पटकथा में ऐसे कुछ संयोग भी हैं जहाँ सभी कहानियाँ एक दृश्य में अब आई कि तब आई मालूम पड़ती है. लेकिन वे कभी एक फ्रेम में नहीं आती. कहन का ढ़ंग उसी तरह बेतरतीब था जैसे फिल्म के किरदार. जितने भी पात्र हैं सभी का कैरेक्टर उतार-चढ़ाव भरा है.
“मैं टॉमी” (शाहिद)
“कऊन टॉमी….कुत्ता?” (आलिया)
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आलिया भट्ट |
आदतन नायक-नायिका के बीच ऐसे साक्षात्कार हमारे लिए नॉर्मल नहीं हैं. याद आ रहा है मनोहर श्याम जोशी का एक उपन्यास बी.ए. के दौरान पढ़ा था “कसप”. प्रेम-कहानियों का जैसा प्रयोग उसमें देखा-पढ़ा वैसा कहीं नहीं मिला था. सारे प्रचलित दृश्यों को तोड़-पीसकर जोशी जी ने अपनी कथा के लिए ज़रा मुश्किल से हज़म होने वाली नई रेसिपी बनाई. अक्सर स्वभाव के प्रतिकूल जाने वाले दृश्य बेचैनी को जन्म देते हैं. कुलबुलाते दर्शकों का वह बहु-प्रतीक्षित क्षण इस फिल्म में दो समानान्तर प्रेम-कहानियों के होने के बावजूद नहीं ही आया और फिल्म समाप्त हो गई. आलिया ने गहरे पानी में डुबकी ली और इसी के साथ सारी उम्मीदें बह गईं. एक धराशाई होता पंजाबी ‘रॉकस्टार’ जो अपने जीवन भर के अनरगल कृत्यों के बदले एक जीवन संभाल लेना चाहता है. अपने प्रशंसकों में माँ के हत्यारे बेटों को देखने के बाद वो जैसे खुद को देख सकने की हिम्मत बटोरना चाहता है. गिर कर उठ सकने की हिम्मत मिलती है उस लड़की से जो अक्सर सपने में बहुत गहरे गिरती-धँसती जा रही है. अपने-अपने पीछे पड़े राक्षसों से भागकर एक खंडहर में छिपे दो पात्रों के बीच एक संवाद है टॉमी और बिहारिन लड़की के बीच. टॉमी सवाल करता है :
“मेरे साथ सुसाइड करेगी”
लड़की उस सुपरस्टार को झिड़क कर भगा देती है. वो लड़की जो एक विस्थापित है, मजदूर है, बंधक है, शारीरिक हिंसा और नशे की लत से भागी हुई अकेली असुरक्षित लड़की है. जो एक स्थापित, सुरक्षित और सुविधासम्पन्न जीवन जी रहे लेकिन अचानक उसी के बराबर एक भगोड़े की स्थिति में मौजूद पंजाबी पॉपस्टार को उसकी सही जगह दिखा रही है. ये सारा उलझाव विसंगतियों में भी ‘एट्टीट्यूड’ ले आने वाली पीढ़ी का जीवन-दर्शन है. जिन्होने ‘मेलोड्रमेटिक’ होने से साफ़ इंकार किया है. इसलिए गैर-ज़रूरी पौज़, भावनाओं को खींचना, संवादों में भाषणबाजी से यह फ़िल्म हर ज़रूरी सीन में बचकर निकल आई है. “साड्डे मुंडे ठीक, होरां दे ख़राब” – डॉ. प्रीत का यह एक वाक्य पंजाब के अलावा पूरे भारतीय समाज में परिवार के लाडलों पर डाला जाने वाला पर्दा उतार कर रख देता है.
इस फ़िल्म के कई दृश्य मेरे लिए अब तक के सबसे प्यारे सिनेमाई अनुभव हुए. इसका कारण पटकथा,अभिनय और निर्देशन के अलावा कैमरा और साउण्ड टीम का ‘एक्सपेरिमेंटल बिहेवियर’ है. एक दृश्य है जहाँ नायिका है जिसकी आँखें गहरे अँधेरे में उजास की ओर बढ़ती जाना चाह रही हैं, सीधी वह किरण जिन दूसरी आँखों में जाकर चुभती है वह नायक है. यह एक द्र्श्य उन दोनों के किरदार को समझने का बीज दृश्य है. गोवा के बिलबोर्ड को देखकर बंधक लड़की ‘अच्छे टाइम’ का इंतज़ार कर रही है. जबकि रॉकस्टार का अच्छा टाइम निकलने के बाद अब केवल उसकी आँखों में बीते हुए समय की चुभन है. इस फ़िल्म में दो विपरीत जीवन धाराएँ हैं – एक छटपटाती हुई और दूसरी धीरज के साथ पेट पर कपड़ा बाँधती, कभी उल्टियाँ करती और कभी अकेले दम सबसे भीड़ जाने की हिम्मत बटोरती हुई. वहीं फ़िल्म की जितनी भी ध्वनियाँ हैं वह अपने लोकल स्वाद को बरक़रार रखे हुए हैं. साउण्डस्केप किसी भी क्षेत्रीय कथा को घनापन देता है. फ़िल्म में अनगिनत बार सुने गए हॉर्न, जो खासकर पंजाबी प्रान्तों के ट्रकों में मिला करते हैं. यहाँ खेतों में दिन-रात की अलग तस्वीरें ही नहीं हैं बल्कि अलग आवाज़ें भी हैं. ड़र, संघर्ष, उम्मीद और प्यार की आवाज़ें फ़िल्म में संवादों के खालीपन को भर देती हैं. ध्वनियों से अर्थ-ग्रहण के लिए भी ‘उड़ता पंजाब’ के कई दृश्य याद किए जाएंगे.
पंजाब की राज्यसत्ता और जन-आंदोलनों के बीच वहाँ लगातार संघर्ष का पुराना इतिहास साँसें लेता है. जिसने उस धरती को बिखराव के क्षणों में भी ज़िंदगी से उम्मीद और लगाव बनाए रखने का सलीका सिखाया है. हो सकता था कि यह फ़िल्म सरसों के खेतों में लहराती हुई अपने नायक और नायिका को महिमण्डित करती हुई ख़त्म हो जाती. तब सब मनचाहा होता. लेकिन यह जीवन को यकायक समाप्त कर सकने वाली नशीली लतों का व्यवस्थित, सुगढ़ और सुखांत सपना होता. लेकिन ‘उड़ता पंजाब’ ऐसी किसी भी संभावना के जीवन में ना होने की अधिक वास्तविक, अनगढ़ और अधूरी-अनकही सी कहानी है.
जिसे असल ज़िंदगी के हर उस इंसान से जोड़ा जा सके जिसके क़िस्से को पूरा होना अभी बाकी है और उसके पूरे होने की शर्त उसका ज़िंदगी पर भरोसा है. नसों को सुन्न करने वाले समय के बिल्कुल बीचोबीच खड़े रहते हुए इमोशनली कुछ बचा लेने की चाह है. अपने नज़दीक गुम मुहब्बतों को तलाशने का इश्तहार और ‘डिह्यूमनाइज़’ होने से बचे रहने की अपील है. मुझे लगता है फिल्म को उसके हिसाब से नहीं बल्कि उसके साथ जुड़े विवाद और उसकी हवा से तोलकर आँका जा रहा है. किसी ने नहीं कहा था कि वो मास्टरपीस होने वाली है. लेकिन आपने ऐसा सुना था. तो वो आपकी खामी है, फिल्म की नहीं.
‘उड़ता पंजाब’ मेरे लिए DDLJ और सन ऑफ सरदार मार्का पंजाबी फ़िल्मों का विलोम है. बल्कि यह माचिस और क़िस्सा सरीखी फ़िल्मों का एक हिस्सा है. डॉक्युमेंट्री फ़िल्मकार अजय भारद्वाज द्वारा निर्देशित पंजाब ट्रीलॉजी (रब्बा हूण की करिए, मिलांगे बाब्बे रत्न दे मेले ते, कित्थे मिले वे माही) में गूँजते सूफ़ीस्म की खनक है यहाँ. यह कार, और कुड़ी के ककहरे के बाहर वाले पंजाब की तस्वीर है. अपराधबोध और उम्मीद की साझी कथा जो लगातार सुनने वालों में अवसाद भरती है.
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मो – 9999054384/ ई-मेल:neeroop@hotmail.co
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उड़ता पंजाब के सदर्भ में विष्णु खरे का यह आलेख किल्क करके यहाँ पढ़ सकते हैं-