समालोचन ने प्रतिभा सिंह की पेंटिग की प्रदर्शनी लगाई है. इन चित्रों का विषय मनुष्य और मशीन है. किस तरह से मनुष्य में यांत्रिकता का दबाव बढा है इसे यहाँ बखूबी देखा जा सकता है.
युवा वैज्ञानिक लेखक मनीष मोहन गोरे ने विज्ञान के नजरिये से इसपर एक टिप्पणी लिखी है और एक बातचीत भी की है. इस कला वीथिका में आपका स्वागत है.
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मनीष मोहन गोरे ::
करोड़ों साल पहले जब हमारी नीली पृथ्वी वीरान थी और फिर धीरे-धीरे अनेक भौतिक-जैविक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए यहाँ का पर्यावरण जीवंत हुआ, तब कहीं जाकर किसी सूक्ष्म रूप में जीवन का संगीत यहां बज पाया. इसके बाद, समय के साथ बदलते वातावरण ने पृथ्वी पर जीवों के विविध रूप-आकार गढे. विज्ञानियों ने इसे जीव विकास (Evolution) नाम दिया है.
पृथ्वी पर सभी प्रकार के जीवों, भौतिक पदार्थों और वातावरण के बीच एक प्राकृतिक तालमेल बना हुआ है और दरअसल इसी तालमेल के कारण पृथ्वी पर जीवन पनप पाया है.
विज्ञान प्रकृति के संचलन विधियों को समझने में हमारी मदद करता है और प्रौद्योगिकी वह शिल्प है, जो विज्ञान के ज्ञात सिद्धांतों पर काम करता है और मानव जीवन को सहूलियत देता है. मगर आज के समय में हर क्षेत्र में कृत्रिमता प्रभावी होती जा रही है. दैनिक जीवन में अनेक उपकरणों पर हमारी निर्भरता ने हमें मशीनी बना दिया है. संवेदनशीलता का निरंतर ह्रास हो रहा है. आधुनिक मानवों के आगे चलकर साइबोर्ग (मशीनी मानव) में ढलने का पूर्वानुमान विज्ञान कथाकार कर रहे हैं. वास्तव में ऐसे उपक्रम शुरू भी हो गए हैं. जयपुर फुट, पेसमेकर और रिप्लेश्मेंट हिप आखिरकार हम मनुष्यों को आंशिक तौर पर साइबोर्ग तो बना ही रहे हैं. निकट भविष्य में मोबाईल और कंप्यूटर को हमारी त्वचा में चिप के रूप में प्रत्यारोपित करने की जुगत लगाने में वैज्ञानिक जुटे हुए हैं. अभी पिछले दिनों एक अमेरिकी अपंग महिला ने अपने मन के विचारों से अपनी रोबोटिक भुजा को संचालित किया. 15 सालों बाद, पहली बार वह अपने हाथ से काफी का कप उठा पाने में कामयाब रही. दरअसल वैज्ञानिकों ने उस महिला के मस्तिष्क में एक ब्रेनगेट इम्प्लांट लगाया था और इस सेंसर ने आखिरकार मस्तिष्क के सिग्नलों को ग्रहण किया. अब इस कामयाबी से वैज्ञानिकों में यह उम्मीद जगी है कि यांत्रिक/मशीनी सेंसरों की मदद से मरीज एक दिन अपने हाथ-पैर भी संचालित कर सकेंगे और उन्हें किसी रोबोटिक भुजा या पैर की मदद नहीं लेनी पड़ेगी.
मशहूर इतालवी वैज्ञानिक, चित्रकार और दार्शनिक लियोनार्डो दा विंसी ने अपनी कल्पना को पंख देकर बर्ड मशीन नामक एक चित्र का नक्शा बनाया था और जिसके माध्यम से उन्होंने मनुष्यों द्वारा चिड़ियों की तरह आकाश में उड़ान भरने की कल्पना की थी. इसी से आगे चलकर राइट बंधुओं को हवाई जहाज बनाने में प्रेरणा मिली. चित्रकला और विज्ञान व तकनीक का रिश्ता पुराना है.
यहां पर हम एक ऐसे भारतीय चितेरे से रूबरू होने जा रहे हैं जिसने मनुष्य और मशीन को साथ रखकर अपना ब्रश चलाने का एक अभिनव प्रयोग चित्रकारी में किया है. दिल्लीवासी प्रतिभा सिंह के चित्र दर्शकों को एक बिलकुल अलग दुनिया में लेकर चले जाते हैं. कहते हैं कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है और प्रतिभा जी के चित्रों को देखकर यह बात सहज ही सच साबित होती हुई दिखती है. प्रतिभा जी के चित्र उनके दैनिक अनुभवों पर केंद्रित उनकी नायाब विजुअलाइजेशन को बयां करते हैं. आइये, प्रतिभा जी से ही जानते हैं उनके चित्रों, रंगों और कल्पनाओं के संसार के बारे में.
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मनीष : प्रतिभा जी, आपको चित्रकारी की प्रेरणा कहां से मिली ? वैसे तो यह बहुत परम्परागत सवाल है मगर जरुरी भी है, क्योंकि कला क्षेत्र में इसके जवाब से चित्रकार विशेष के चित्रों के मायने समझ आते हैं.
प्रतिभा : आपने सही फरमाया मनीष जी. मेरे चित्रों की कुछ ऐसी ही आत्मकथा है. मैं बनारस, उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखती हूं और वहां के मंदिरों की सुन्दर और सुगढ़ नक्काशी ने ही सबसे पहले मेरे बचपन के चित्रकार को बाहर निकाला और बड़े होने के बाद मैं जब दिल्ली में आकर बसी तब मेरे मन में छिपा यह हुनर जवान हुआ.
मनीष : मानव-मशीन का एकीकरण आपके चित्रों का मुख्य विषय है. आखिर, ऐसा अनोखा विषय ही आपने अपने ब्रश के जिम्मे क्यों दिया ?
प्रतिभा : मेरे रिहायश के आस-पास बच्चे और युवा सुबह-शाम अपनी बाइकों पर करतब करते रहते हैं और सच कहूँ, मेरे ब्रश को यह नया विषय दिया. मैं देखती थी कि कुछ बाईकर आराम से लेटी हुई मुद्रा में इस प्रकार बाइक को चलाते थे, जैसे कि वे उस पर सो गए हों. मेरी slumber (नींद) नामक कलाकृति इसी बात को दर्शाती है, जिसे मैंने साल 2011 में बनाया था.
मनीष : आपके एक चित्र में मैंने देखा कि टेबल के नीचे मानव पैर लगे हैं. आपकी इस कल्पनाप्रसूत चित्र के पीछे की सोच क्या रही है ?
प्रतिभा : एक चित्रकार अक्सर घंटों अपने हाथ में ब्रश लेकर एक स्थान पर बैठकर या खड़े रहकर चित्र बनाने में मशगूल रहता है और ऐसे में, वहां से हिलना-डुलना असंभव होता है क्योंकि एक बार हिलने का मतलब विचारों और ब्रश के बीच का तारतम्य खंडित होना है. Deep Seated शीर्षक वाले मेरे इस चित्र की कल्पना का सूत्र मेरे मस्तिष्क में ऎसी ही परिस्थितियों में आया. मैंने सोचा कि अगर दूर पड़े टेबल के अगर पैर होते तो वह चलकर मेरे करीब आ जाता और उस पर रखे फल या मिठाई को मैं बिना हिले-डुले खा लेती.
मनीष : वाकई, एक चित्रकार की कल्पनाशक्ति किसी वैज्ञानिक से कम नहीं होती. आपके चित्रों से एक ही मूल बात के दो पहलू मुखर होते हैं– पहला यह कि वर्तमान परिदृश्य में या तो मनुष्य संवेदनहीन होते जा रहे हैं या फिर मशीनों में संवेदना आ रही है. आपकी क्या राय है ?
प्रतिभा : यह बात मेरे दिमाग को भी अक्सर झकझोरती है. मशीनों के सहारे हमारा जीवन चल रहा है और प्रकृति से दूर होकर नगरीय जीवन शैली के दबाव में आज हम भीड़ में भी तनहा हैं. शायद आज की तमाम परिस्थितियां हमें संवेदनहीन बना रही हैं.
मनीष : क्या आपकी Transformers नामक कलाकृतियां मशीनों के जीवंत हो उठने की ओर इशारा करती हैं ?
प्रतिभा : दरअसल मशीनों के मानव अंगों में रूपांतरण को दर्शाते मेरे चित्रों के लिए यह ‘Transformers’ नाम जाने-माने कला समीक्षक जानी एम एल ने दिया था. कभी-कभी मुझे लगता है कि हम मशीनों से अलग नहीं हो सकते और यह हमारे जीवन में अभिन्न हो गए हैं. मानव जीवन को सरल-सुगम बनाने वाली आज की प्रौद्योगिकियां वास्तव में, हमारी पीढ़ी और समाज का सेलिब्रेशन हैं. विज्ञान और तकनीक को अब हम छोड़ नहीं सकते और इसी नजरिये को सकारात्मकता के साथ मैंने अपने चित्रों में उकेरा है.
मनीष : आपकी एक पेंटिंग में मानव खोपड़ी मेटैलिक है. इसे बनाने के पीछे आखिर क्या तर्क काम कर रहा है?
प्रतिभा : एक दिन मेरे मन में विचार आया कि अगर खिलाड़ियों के सिर मेटैलिक हों तो उन्हें चोट और आघात से बचाया जा सकता है. बस इस सोच को विस्तार देकर मैंने बास्केटबाल के खिलाड़ियों के सिर को मेटैलिक बनाया जो निडर होकर खेलते हैं .
मनीष : आपके चित्रों के विषय विज्ञान कथात्मक हैं, जो हमें भावी आविष्कार की पृष्ठभूमि उपलब्ध कराते हैं . अब आगे और किस विषय पर अपना ब्रश चलाने वाली हैं आप ?
प्रतिभा : मनीष जी, आप जानते हैं कि एक चित्रकार सपने देखता है और उन्हीं सपनों के कुछ सूत्र पकड़कर उन्हें अपने कैनवास पर उतारता है. मैं पिछले महीने लेह की यात्रा पर थी और मैंने हवाई जहाज की खिड़की से आकाश में अठखेलियां करते बादलों को बहुत देर तक निहारा और मेरे मन में एक विषय आया . इन बादलों पर कुर्सी लगाकर क्यों न चाय पी जाए और बादल पर हम चलें या इनके ऊपर लेटकर आराम फरमाएं. बस इसी तरह की कुछ कल्पनाएं मेरे जहन में हैं, जिन पर मैं जल्द ही ब्रश उठाऊंगी.
मनीष : बहुत खूब. बादलों पर पैर रखकर आसमान की सैर ! आप हमें ये बताएं कि समालोचन के पाठक आपके कला संसार से कैसे जुड़ सकते हैं .
मनीष : मैं ई-पत्रिका समालोचन की ओर से आपको शुभकामनाएं देता हूं कि चित्रों और रंगों का आपका यह सफर नई ऊंचाईयों को छुए.
प्रतिभा : बहुत-बहुत शुक्रिया !
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