संदीप सिंह
बहुत लम्बे समय तक मुझे नहीं पता था हिंदुस्तान के लोग सलमान खान की फिल्में क्यों देखते हैं. अब हल्का-हल्का अंदाज़ा है. पहले से बनी कई मान्यताओं के चलते ‘सल्मानादि’(सलमान आदि) की फिल्में न के बराबर देखीं. कईयों की तरह मुझे भी कुछेक बार लगा कि एक ख़ास ‘लुम्पेन दर्शक वर्ग’ ही इन फिल्मों को देखता है. आज मैं काफी भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि सलमान हिन्दी सिनेमा के दर्शकों की जरूरत हैं.
जुल्फिकार और मनोज मेरे मोहल्ले में बाल काटने की एक साझा दुकान चलाते हैं. दोनों को अपने नामों का अर्थ भी नहीं पता लेकिन वे ‘भाई’ के बारे में जितना जाना जा सकता है, जानते हैं और उसे चाहते हैं. निम्न मध्य-वर्ग और मजदूर वर्ग से आये ये दोनों रामपुरिया लड़के इस बन्दे में खुद को, और खुद में इस बन्दे को देखना चाहते हैं. उन्हें सलमान की फिल्में समझ आ जाती हैं. अनुराग कश्यप की नहीं आती तो दोष उनका नहीं. मेरा इरादा न इन दोनों को न सलमान को अंतर्विरोधों से ऊपर रखने का है. पर मैं अभी उनकी बात करना चाहता हूँ.
कुछ सरल सूत्रीकरण पेश करता हूँ. अच्छा लगे या बुरा, लेकिन यदि आपको आज के हिन्दुस्तान की राजनीति समझनी है, उससे जुड़ी जनभावना समझनी है तो मोदी को समझना पड़ेगा. साहित्य समझना है तो प्रेमचंद, शिवानी, रेणु के साथ नंदा, ओम प्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक को समझना पड़ेगा. उसी तरह अगर कोई हिंदुस्तान को, इसके युवाओं को, इसके वंचितों को, ‘लुम्पेनों’ को, उनके सिनेमा को समझना चाहता है उसे सलमान खान की फिल्मों को समझना पड़ेगा.
क्या मैं कुछ ज्यादा ही उदार हो रहा हूँ और एक ‘पॉपुलर सिनेमा’ में दूर की कौड़ी खोजना चाहता हूँ? मुझे नहीं पता. जो हो.
हालाँकि इस ‘सलमानी फार्मूले’ में बहुत नया नहीं है. पहले अमिताभ और साऊथ में रजनीकांत ऐसा कर चुके हैं. रजनीकांत ने तो ज्यादातर खुद को ‘क्लीन’ रखा पर अभिताभ ने अपने ‘बनाने वालों’ को धोखा दिया. जिस मजदूर वर्ग और निम्न/मध्य-वर्ग की आकांक्षाओं को उन्होंने रुपहले पर्दे पर जीवंत किया, असल जिन्दगी में अमिताभ उसे ही बेच आये. यह देखने की बात होगी कि सलमान क्या करते हैं. नशे में धुत्त होकर फुटपाथी लोगों पर गाड़ी चढ़ा देने से लेकर ‘being human’ तक उनका वास्तविक जीवन काफी अंतर्विरोधों से भरा है. सिनेमा का यह सुल्तान सिर्फ सिनेमा में ‘सलमानी फार्मूले’ पर चलेगा या जीवन में भी, अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है.
उम्र का अर्धशतक लगा चुके सलमान और उनके लेखक/निर्देशक यह जानते हैं कि अब वह सिर्फ हीरो नहीं बल्कि एक ‘परिघटना’ बन चुके है. 2010 से बनी उनकी ज्यादातर फिल्में बार-बार उनके इसी ‘कल्ट’ की तस्दीक करती चलती हैं. यह व्यक्ति सिनेमा में रोल पुलिस का कर रहा हो, जासूस हो या पहलवान – एक जीवन दर्शन देता चलता है. आमतौर से यह दर्शन गहरे, बेपनाह, बेपरवाह इश्क, मानवीय भावनाओं और किसिम-किसिम के अनगढ़पन में डूबा रहता है. अब इसके साथ मिलने वाले मेलोड्रामा की शिकायत कर आप कुछ साबित नहीं कर पायेंगे. उसका तर्कशास्त्र अलग अर्थशास्त्र अलग.
आमतौर से विराट मेलोड्रामा रचने के लिए लोग इतिहास में चले जाते हैं. अंगरेजी हिन्दी में इसके ‘ट्रॉय’, ‘बाहुबली’ ‘जोधा-अकबर’ जैसे कई सफल उदाहरण हैं. सलमान की फिल्में आज की दुनिया में, आज के हिन्दुस्तान में खड़े होकर मेलोड्रामा रचती हैं. अच्छा बन पड़ा हो या बुरा, सलमान की फिल्मों को यह श्रेय दिया जा सकता है कि वे ‘आज के जीवन’ का मेलोड्रामा रच रही हैं.
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(अभिनेत्री अनुष्का शर्मा के साथ सलमान खान सुल्तान में )
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इस कड़ी में उनकी ताज़ा फिल्म सुल्तान अलहदा साबित होगी. मेरा अनुमान है कि यह बॉलीवुड में अब तक बने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ देगी. ऐसा मैं इसकी ईद पर रिलीज, स्टारकॉस्ट, प्रमोशन इत्यादि में किये जाने वाले लटकों-झटकों और तिकड़मों को ध्यान में रखकर नहीं कह रहा हूँ. बल्कि ऐसा इसलिए होगा क्योंकि सुल्तान वह फिल्म है जिसका देश को इंतज़ार था. आज का हिन्दुस्तान सुल्तान की कहानी सुनना पसंद करेगा. उसे ऐसी कहानियों की आज बहुत जरूरत है. दर्शक को यह कहानी अपनी लगे या न लगे, वह अपनी जिन्दगी में इस कहानी को घटते देखना चाहेगा. यह फिल्म उसे ‘रिलीज’ करेगी. भले ही लम्हे भर के लिए. सिनेमा हॉल से निकलते वक़्त उसे महसूस होगा कि उसकी छाती चौड़ी हो गयी है और वह भी ‘मिट्टी झाड़ के उठ खड़ा होने’ के लिए तैयार है.
इस फिल्म में आप दबंग, एक था टाइगर या बजरंगी भाईजान वाला सलमान न पायेंगे. सही है कि सुल्तान में भी एक ख़ास किस्म की स्पष्टवादिता, गंवारपन और सादगी है पर यह हरियाणे का सुल्तान है जो इश्क के चक्कर में खुद में छुपे पहलवान की खोज करता है. दुनिया को चित करने वाला सुल्तान अपने ‘गुरूर/घमंड’ के हाथों पिट जाता है. अस्पताल में मौके पर जिस खून के न मिल पाने से वह अपने बेटे का मुंह तक नहीं देख पाया, अब उसी खून के लिए ‘ब्लड बैंक’ बनवाने के चक्कर में वह चंदे और राजनीतिक ‘चौधरियों’ के सामने हाथ फैलाता एक टूटी हुई जिन्दगी जी रहा है. इस जिन्दगी की डोर गाँव के मज़ार से जुड़ी हुई है जहाँ इसकी ‘आरफा’ (अनुष्का शर्मा) हर शाम उम्मीद का एक धागा बाँध आती है.
बेआवाज दोनों एक दूसरे को देख लेते हैं और अनदेखा कर देते हैं. सादा और उदास जीवन इंतजारी का रेलवे फाटक पार कर चलता जाता है. ‘आज और बीते हुए कल’ में चलती हुई फिल्म शुरू में ही बेहतरीन तरीके से कहानी को साध लेती है. जहाँ दिवालिया होने की कगार पर खड़े एक युवा उद्यमी द्वारा ‘ऑफर’ किये गए मौके की अहमियत सुल्तान को समझ आ जाती है और वह पहलवानी की किट पर जमी धूल झाड़ दिल्ली पहुँच जाता है. आईपीएल की तर्ज़ पर बने कुश्ती के नए अवतार ‘प्रो टेकडाउन’ (फ्री स्टाइल कुश्ती और बॉक्सिंग का ‘कॉकटेल’) के लिए इसे तैयार करता है फ़तेह सिंह (रणदीप हुड्डा). फ़तेह सिंह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का फाइटर रह चुका है. लेकिन ड्रग्स के चक्कर में बर्बाद होकर अब नए-नए लड़कों को फाइटिंग के गुर सिखाता है. सुल्तान में वो अपने बिखर गए सपने देख लेता है, खुद को देख लेता है. अगर सुल्तान की मुक्ति रिंग में दुबारा उतरने में थी तो फिल्म कहती है फ़तेह सिंह की मुक्ति सुल्तान में थी. जाहिर है सुल्तान को जीतकर आना है. जीतने के लिए की गयी जद्दोजहद दरअसल जिन्दगी की जद्दोदजहद है, जिद है. जिन्दगी की यह साधारण सी साध ही असाधारण है.
‘अच्छे दिनों’ में बुरा टाइम काट रहे लोग इस फिल्म को खूब पसंद करेंगे. क्षणिक ही सही उन्हें इससे प्रेरणा मिलेगी और वे अपनी कठिन जीवन स्थितियों से लड़ने के लिए फिर से तैयार होंगे. यह फिल्म उनके लिए क्षणिक नशे का काम करेगी जो धीरे-धीरे चढ़ेगा. धीरे-धीरे ही फिल्म की कमाई भी बढ़ती जायेगी. सिंगल स्क्रीन थिएटर्स में गौर से देखिएगा तो इस फिल्म के दौरान आप लोगों को रोते हुए पायेंगे. हँसेंगे तो बहुत ही. आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक पश्ती के दौर में जब नफरत और अविश्वास का उत्पादन चौगुनी गति से हो रहा हो और अधिकाँश लोगों की जीवन स्थितियां कठिन होती जा रही हों – सुल्तान जैसी फिल्म के दर्शकों का बड़ा हिस्सा उसकी हार कर जीतने की, गिर कर फिर उठा खड़ा होने की कहानी में खुद को देखना चाहेंगे. मनोवैज्ञानिक स्तर पर फिल्म उनमें ‘पोजिटिविटी’ भरेगी. जैसा कि 2014 में ‘अच्छे दिन आयेंगे’ के नारे ने भरा था. नारा तो पिटता दिख रहा है पर फिल्म नहीं पिटेगी. राजनीति और सिनेमा/कला में यही फर्क है. एक सालों के लिए वादा करती है दूसरे का वादा ढ़ाई घंटे का होता है. सुल्तान अपना वादा पूरा करती है. ‘पहलवानी अखाड़े में नहीं, जिन्दगी में होवे’. यह सूत्रवाक्य है, दर्शन भी.
फिल्म में सुल्तान अजेय लड़ाका बनकर निकलता है. पटखनियाँ उसने खाईं पर चित तो उसे जिन्दगी से मिली. मर्द और युवा सुल्तान से ज्यादा एसोसिएट करेंगे. लड़कियों को भी फिल्म अच्छी लगेगी. नारीवादी समझ से जरा सा भी लैस और संजीदा लोग फिल्म के प्रति ‘क्रिटिकल’ होंगे. जो जरूरी भी है. कमोबेश उनकी हर फिल्म में (या इस तरह की पॉपुलर फिल्मों में) आप कभी छुपे कभी खुले रूप में पितृसत्तात्मक रूपों/प्रतीकों की झलक पा जायेंगे.
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सुल्तान में अभिनेता सलमान खान |
यह संरचनाएं उसमें काम करती साफ़ दिखती हैं. ऐसा न होता तो यह फिल्म सुल्तान नहीं ‘दंगल’ होती. यह हमारे समाज के सच की तरह ही सच है. ओलम्पिक में गोल्ड मेडल का सपना पालने वाली आरफा सुल्तान को ही अपना गोल्ड मेडल क्यों मान लेती है? जबकि उसे एक ऐसे अब्बा मिले तो न पर्दादारी मानते हैं न लड़कियों को कमतर. बेटी को पहलवान बनाते हैं. ओलम्पिक लायक बनाते हैं. पर बेटी के फैसलों का सम्मान भी करते हैं. आरफा के मां बनने पर भी और बाद में सुल्तान को ‘माफ़’ कर देने के मसले पर भी – वे ही सबसे संतुलित और मानवीय समझ पर खड़े दिखते हैं. ऐसे अब्बा सबको मिलें.
तकरीबन सभी कलाकारों ने जबरदस्त अभिनय किया है. जाहिर है अन्य सारे चरित्र सुल्तान की रचना करने के लिए ही ‘इस्तेमाल’ हुए हैं. सलमान की फिल्में अपने अन्य चरित्रों की कहानी ज्यादा नहीं बताती हैं. थोडा-बहुत अभिनेत्री की कहानी के सिवाय. इस फिल्म में भी ऐसा है. हरियाणवी आंचलिकता का ‘बम्बईया सिनेमा’ की भाषा से खूब मेल बना है. संगीत वैसा ही है जैसा सलमान की फिल्मों में होता है. कहीं ठसक और मारक तो कहीं भावुक और मादक.
सुल्तान तो मिट्टी झाड़ के उठ खड़ा हुआ. क्या आप होंगे?
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लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं
एम. ए. (हिंदी), एम. फिल./ पीएच. डी. (दर्शन शास्त्र).
जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष और छात्र संगठन आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं.