रघुवीर सहाय (9 दिसंबर,1929 -30 दिसंबर,1990) भारतीय लोकतंत्र की ख़ामियों, निर्बाध सत्ता की ताकत की छुपी हिंसा, और साधारण जन की यातना और विवशता के कवि हैं. उनकी कविताएँ निम्न मध्यवर्ग का अंतहीन शोक गीत हैं. उसकी असहमति का लम्बा पत्र. वे भाषा को इस तरह बरतते हैं कि वह संवेदना की पर्त को छीलती चलती है.
आज रघुवीर सहाय का जन्म दिन है. कल रज़ा फाउंडेशन की योजना के अंतर्गत विष्णु नागर की लिखी उनकी जीवनी ‘असहमति में उठा एक हाथ’ पर चर्चा का भी आयोजन हुआ, जिसका प्रकाशन राजकमल ने किया है.
उनकी कविता ‘मेरा जीवन’ और कवि विमल कुमार की टिप्पणी आपके लिये.
मेरा जीवन
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मेरा एक जीवन है
उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं
उसमें कोई मेरा अनन्यतम भी है
पर मेरा एक और जीवन है
जिसमें मैं अकेला हूँ
जिस नगर के गलियारों, फुटपाथ, मैदानों में घूमा हूँ
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(१९६०) |
हँसा खेला हूँ
उसके अनेक हैं नागर, सेठ, म्युनिस्पलम कमिश्नर, नेता
और सैलानी, शतरंजबाज और आवारे
पर मैं इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूँ
देह पर जो लता-सी लिपटी
आँखों में जिसने कामना से निहारा
दुख में जो साथ आए
अपने वक्त पर जिन्होंने पुकारा
जिनके विश्वास पर वचन दिए, पालन किया
जिनका अंतरंग हो कर उनके किसी भी क्षण में मैं जिया
वे सब सुहृद हैं, सर्वत्र हैं, सर्वदा हैं
पर मैं अकेला हूँ
सारे संसार में फैल जाएगा एक दिन मेरा संसार
सभी मुझे करेंगे – दो चार को छोड़ – कभी न कभी प्यार
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(१९६७) |
मेरे सृजन, कर्म-कर्तव्य, मेरे आश्वासन, मेरी स्थापनाएँ
और मेरे उपार्जन, दान-व्यय, मेरे उधार
एक दिन मेरे जीवन को छा लेंगे – ये मेरे महत्व
डूब जाएगा तंत्रीनाद कवित्त रस में, राग में रंग में
मेरा यह ममत्व
जिससे मैं जीवित हूँ
मुझ परितप्त को तब आ कर वरेगी मृत्यु – मैं प्रतिकृत हूँ
पर मैं फिर भी जियुँगा
इसी नगरी में रहूँगा
रूखी रोटी खाउँगा और ठंड़ा पानी पियूँगा
क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूँ.
मुक्तिबोध के बाद एक नया काव्य प्रतीक
विमल कुमार
क्या रघुवीर सहाय आजादी के बाद हिंदी कविता में मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़े प्रतीक बन कर उभरे है? मुक्तिबोध तार सप्तक के कवि थे और घोषित रूप से मार्क्सवादी थे. तब नेमिचन्द्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल तथा गिरिजा कुमार भी मार्क्सवादी कवि थे लेकिन बाद में सबके रास्ते अलग होते गए. रघुवीर सहाय दूसरे सप्तक के कवि थे और बच्चन, रामकुमार वर्मा से प्रभावित थे तथा गिरिजा कुमार माथुर का भी उनपर असर रहा.
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(१९७५) |
शुरू में वे मार्क्सवादी थे लेकिन उनका वामपंथियों से मोहभंग हुआ तो वे लोहिया के सम्पर्क में आकर समाजवादी हो गए और अंत तक समाजवादी रहे. हिंदी साहित्य में समाजवादी लेखकों राम बृक्ष बेनीपुरी, रेणु, विजय देव नारायण साही को वामपंथी आलोचकों ने महत्व नही दिया .रघुवीर सहाय के साथ भी शुरू में ऐसा ही हुआ पर बाद में उनके निधन के बाद उनके योगदान को वाम आलोचना ने रेखंकित करना शुरू किया और इसमे उनके वामपंथी शिष्यों का भी हाथ रहा. रघुवीर सहाय लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष कविता के नायक बनते गए जो अपने समय की सत्ता का क्रिटिक था. मुक्तिबोध नेहरू युग से मोह भंग और आत्मसंघर्ष के कवि थे तो रघुवीर सहाय उस दुविधा और अंधेरे से निकल चुके थे. लोहिया जी के प्रभाव के कारण उन्हें नेहरू युग और तत्कालीन सत्ता के चरित्र से बहुत शिकायतें थी और उसकी सीमा से वे वाकिफ भी थे. शायद यह कारण रहा कि वह जे पी आंदोलन के समर्थक बने और इंदिरा गांधी के विरोधी थे. अगर हिंदी कविता के इतिहास को देख जाए तो निराला, नागर्जुन, मुक्तिबोध सभी नेहरू के क्रिटिक थे.
रघुवीर सहाय को प्रतीक में अज्ञेय ने नौकरी दी और दिनमान में भी वह उनके सहयोगी बने पर अज्ञेय से भी उनकी असहमतियां रहीं जिनका प्रकटीकरण उन्होंने संकेतों में कई स्थानों पर किया. अज्ञेय उनके लिए भाई जी नही थे जैसा विद्यानिवास मिश्र कहते थे. विद्यानिवास जी ने रघुवीर सहाय की ‘हमारी हिंदी कविता’ का मुखर विरोध किया था. विद्यानिवास मिश्र और अज्ञेय एक धरातल पर मिलते थे लेकिन सहाय जी उनके धरातल से अलग थे. प्रतीक में नौकरी देने के कारण अज्ञेय का एहसान उन पर जरूर था मगर उनका रास्ता अलग था यद्यपि दोनो जे पी के समर्थक थे. सहाय जी अगर आज जीवित होते तो 9 दिसम्बर को 90 वर्ष के होते. लेकिन आज से तीस साल पहले ही उनका निधन हो गया था. एक लेखक के रूप में उनकी यह उम्र बहुत कम थी जबकि उनके कई समकालीन लेखक 90 वर्ष तक जीवित रहे.
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(१९८२) |
रघुवीर सहाय ने अल्प आयु में ही दिनमान जैसी पत्रिका का सम्पादन कर एक आदर्श प्रस्तुत किया यद्यपि उसकी नींव अज्ञेय ने रखी थी पर हिंदी पत्रकारिता की दुनिया मे दिनमान का स्मरण रघुवीर सहाय के कारण ही होता है. वह हिंदी की अंतिम वैचारिक पत्रिका थी जिसने अपने पाठकों को दृष्टिवान बनाया था. आज के नेता नीतीश और लालू भी कभी उसमें पाठक के रूप में पत्र लिखते थे. रेणु और निर्मल वर्मा तथा श्रीकांत वर्मा जैसे प्रखर लेखक तो जुड़े ही थे मनोहरश्याम जोशी जैसे अनेक लोग लिखने वालों में से थे. दिनमान ने एक युग को आवाज़ दी एक आंदोलन को भी स्वर दिया.
उनके निधन के 30 वर्ष बाद उनकी जीवनी विष्णु नागर ने लिखी है जो 1970 में रघुवीर से एक नए लेखक के रूप में जुड़े थे. गणेश शंकर विद्यार्थी के बाद वह सम्भवत पहले ऐसे हिंदी संपादक हैं ज़िनकी जीवनी छप कर आई है. महावीरप्रसाद द्विवेदी, बनारसी दास चतुर्वेदी, शिवपूजन साहाय, रामबृक्ष बेनीपुरी जैसे अनेक सम्पादकों की कोई बाकायदा जीवनी अभी तक नही आई है. यह जीवनी ऐसे समय मे आई है जब हिंदी पत्रकारिता से विचारों की विदाई हो गई है. सम्पादक नाम की संस्था का अवमूल्यन हो चुका है और हिंदी पत्रकारिता बाजार के जाल में बुरी तरह फंस गई है. चैनल पत्रकारिता ने पत्रकारिता का एजेंडा ही बदल दिया है. वैसे उस जमाने में प्रबंधन ने दिनमान को रविवार तथा इंडिया टुडे की तरहः बनाने पर दवाब डालना शुरू कर दिया था पर रघुवीर सहाय ने घुटने नही टेके. उन्होंने अपनी पत्रिका में अंग्रेजी के विज्ञापनों को भी छापने से मना कर दिया था.
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(१९८९) |
आज इन दशकों में आई पत्रकारों की पीढ़ी के लिए भले ही रघुवीर साहित्य एक रोल मॉडल न हो क्योंकि उनके लिए एंकर ही रोल मॉडल बन गए है. लेकिन इस से रघुवीर सहाय का महत्व कम नही हो जाता.
सच तो यह है कि रघुवीर सहाय जैसे पत्रकारों की अधिक जरूरत पड़ गयी है. उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना आवश्यक है क्योंकि पत्रकार को दृष्टि सम्पन्न होने जरूरी है. उसे भारतीय समाज की गहरी समझ हो. वह केवल सत्ता विमर्श को ही पत्रकारिता का ध्येय न बनाये. इसलिए उनकी जीवनी केवल नए पत्रकारों के लिए पथ प्रदर्शन का काम करेगी और आपातकाल में पत्रकारिता की हालत से यह रूबरू भी कराएगी. यह सच है कि रघुवीर सहाय आपातकाल के खुल कर विरोध नहीं कर पाए थे लेकिन उनकी छवि एक कॉंग्रेस विरोधी पत्रकार की रही जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा. जेपी ने 74 में उनकी नौकरी बचाई नहीं होती तो वे सड़क पर आ जाते. उनके सहयोगी श्रीकांत वर्मा उन्हें दिनमान है हटवाने की फिराक में थे क्योंकि वह आपातकाल में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बनने पर काफी ताकतवर हो गए थे.
सहाय जी 1951 में जब वह दिल्ली आए तो उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. एक निम्न मध्यवर्गीय परिवर से आने के कारण उन्हें अपना परिवार भी पालना था. इसलिए उन्होंने एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया लेकिन वे अपनी कविताओं में इसका विरोध करते रहे. उनकी कई कविताओं में आपातकाल की छवियाँ तो हैं ही उसके खतरे की घण्टी भी है. उनकी चर्चित कविता ‘रामदास’ आज के दौर की माब लिनचिंग की तस्वीर को पहले ही दिखा देती है. वे भारतीय लोकतंत्र के क्रिटिक के रूप में नजर आते है. इस रूप में वे मुक्तिबोध के अगले चरण और उनका विस्तार है. मुक्तिबोध नेहरू युग के मोहभंग के कवि है तो रघुवीर सहाय भारतीय लोकतंत्र के सड़ने की भविष्यवाणी करने वाले कवि हैं. वे खतरों से हमें आगाह करने वाले कवि हैं.
पत्रकारिता में भी वे यही काम करते हैं और तब के युवा पत्रकारों से कई तरह के काम लेते है जिन पर आज कोई अखबार स्टोरी नहीं छापता. भारत भूषण अग्रवाल के निधन पर कवर स्टोरी दी जबकि आज भारत जी की जन्मशती पर दो पंक्ति खबर के रूप में भी नहीं छपती. यह सच है कि नई आर्थिक नीति के बाद से भारतीय पत्रकारिता बहुत बदल गयी है. खबरों की परिभाषा और प्रस्तुति एवम् उसका एजेंडा तक बदल गया है. ऐसे में यह जीवनी युवा पीढ़ी के पत्रकारों और लेखकों को कितना बदल पाएगी यह कहना मुश्किल है लेकिन उस दौर की पत्रकारिता की थोड़ी झांकी जरूर मिलेगी और थोड़ा इतिहास भी पता चल सकेगा.
रघुवीर सहाय का स्मरण उस इतिहास का स्मरण है जिसके आईने में हम देश के परिवर्तनों को रेखांकित कर सकेंगे. रघुवीर सहाय की परंपरा कबीर, निराला, मुक्तिबोध की चली आ रही परम्परा की अगली कड़ी है हिन्दी साहित्य ने सत्ता के खिलाफ हमेशा एक प्रतिरोध रचा है जिसको बचाये रखना बहुत जरूरी है. यह जीवनी भी वही सन्देश देती है. क्या हिंदी साहित्य में यह किताब कोई हस्तक्षेप कर पायेगी और कलम का सिपाही की तरह कोई उल्लेखनीय कृति बन पाएगी ?
विमल कुमार
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