पहली कविता बहेलिये की तरफ से नहीं पक्षी की तरफ से चीख़ बनकर उठी थी हालाँकि बहेलिये का भी कोई सच हो सकता है. कविता सच और सच में फ़र्क करती है, इतनी नैतिकता उसमें है, होनी चाहिए. वह किसी की भी कैसी भी सत्ता हो उसके दरबार में डफली नहीं बजाती वह तो उनसे जूझ रहे, मिट और टूट रहे लोगों की आवाज़ में रहती है. ऐश्वर्य, अहंकार और शोर से परे किसी एकाकी स्त्री के बालों में फूल की तरह सजना चाहती है.
कवि राहुल राजेश की कविताएँ सच को हर तरफ से टटोलने की कोशिश करती हैं उनमें एक तीखा विडम्बना बोध है.
उनकी कुछ नई कविताएँ पढ़ें.
राहुल राजेश की कविताएँ
गवैये
पहले वे कतार में खड़े हो जाते हैं
बाद में नियम और शर्तें पढ़ते हैं
और स्वादानुसार
अपनी आवाज गढ़ते हैं
उन्हें मालूम है
आवाज में कितना नमक मिलाएँ
कि जूरी का मुँह मीठा हो जाए
और बख्शीश
झोली में आ जाए !
संदिग्ध
जब स्वर
कोरस में बदल जाए
तो समझिए
स्वर को अवकाश है
क्योंकि कोरस में
स्वर की बंदिश नहीं
और कोई भी अभी
कोरस के बाहर जाकर
संदिग्ध होना नहीं चाहता !
रुख़
वे हवा का रुख़ पहचानते नहीं
मोड़ लेते हैं
अपनी तरफ
कुछ इस तरह
कि रुख़ की हवा निकल जाए
और उनके रुख़ पर
कोई उँगली भी न उठा पाए !
स्वांग
विरोध-प्रतिरोध के स्वर
अभी इतने स्वांगपूर्ण हैं
कि विरोध के असली स्वर
अक्सर अनसुने रह जा रहे
अभिनय करने वाले सभी
अभी मंच पर हैं
और असली प्रतिपक्ष
नेपथ्य में ।
साथी
जहाँ सबसे अधिक ज़रूरत थी
उनकी आवाज़ की
वहाँ वे चुप्प रहे
जब कभी
उनसे हाथ माँगा
कहा उन्होंने
मेरे हाथ बँधे हैं
जब भी बात हुई
मुझे दाद दी
तुम बहुत हिम्मत की
लड़ाई लड़ रहे हो
इन स्साल्लों को बेनकाब करना
बहुत ज़रूरी है !
मैंने जब कभी टोका
आप कभी कुछ खुलकर नहीं कहते ?
उन्होंने कहा
यार, मैं इन पचड़ों में नहीं पड़ता !
वे सब के सब
यशस्वी कवि थे.
फाँक
वे संतरे की तरह
सुंदर और रसदार थे
बाहर से बहुत
सुडौल और गोल
उतार कर देखा जो
छिलका तो पाया
वे कई-कई
फाँक थे !
सच
देखो भाई,
तुझे भी अपना सच पता है
मुझे भी अपना सच पता है
और यह जो तीसरा है
उसे हम दोनों का सच पता है !
इसलिए वह
न तेरे कहे सच पर यकीन करता है
न मेरे कहे सच पर !
हम लिखकर, पढ़कर, बोलकर
रंग कर, पोत कर, घंघोल कर
जो सच दिखाना चाहते हैं
वह हरगिज यकीन नहीं करता
उस सच पर !
वह जीवन की किताब बाँचता है
हमारी-तुम्हारी नहीं !
और यह जो चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ
आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ या सौवाँ है
वह भी कतई यकीन नहीं करता
क्योंकि उसके लिए
सिर्फ़ और सिर्फ़ वही सच है
जिसे खुद उसने
अपनी नंगी आँखों से देखा है !
काफ़िर
जिस मिट्टी से लिया नमक
जिस हवा से ली नमी
जिस पानी से पायी चमक
उसी मिट्टी को मारी लात
उसी हवा में लहराया खंजर
उसी पानी में मिलाया ज़हर
उफ्फ !
मैं काफ़िर कैसे हो गया ?
न होगा !
आप हाँक लगाएँ
और मैं भी दौड़ा चला आऊँ
न होगा !
आप दिन को कह दें रात
तो मैं भी कह दूँ रात
न होगा !
आप कह दें क्रांति
और मैं लिख दूँ क्रांति
न होगा !
आप जिधर मुड़ें
मैं भी उधर मुड़ जाऊँ
न होगा !
भेड़ चाल आपको मुबारक हो
यश ख्याति मंच पुरस्कार
आपको मुबारक हो !
अकेले पड़ जाने के भय से
अपनी ही नज़रों में गिर जाऊँ
अभिव्यक्ति के ख़तरे न उठाऊँ
मुझसे न होगा !
झूठ की मूठ पकड़कर
मैं कवि कहलाऊँ
मुझसे न होगा !!
सेकुलर
वह मुसलमान होकर भी
रामलीला में नाचता है !
इस बात को कुछ इस तरह
और इतनी बार दुहराया गया
मानो सेकुलर होने के लिए
इससे अधिक और क्या चाहिए ?
मैं हिंदू होकर भी
हर साल अज़मेर शरीफ़ जाता हूँ
हर हफ्ते
झटका नहीं, हलाल खाता हूँ !
मुझसे बड़ा सेकुलर
कोई हो तो बताओ कॉमरेड !!
मैं मारा जाऊँगा
मैं मारा जाऊँगा एक दिन
किसी भीड़ में
किसी रात के अँधेरे में
किसी अविश्वसनीय हादसे में
मैं मारा जाऊँगा एक दिन
बचाते हुए आदमी पर से
आदमी का उठता विश्वास…
मेरे मारे जाने से
किसी को क्या फ़र्क पड़ेगा ?
इस थाने की पुलिस
उस थाने का मामला बताएगी
उस थाने की पुलिस इस थाने का
और मरने के बाद भी
मैं थाने-पुलिस के चक्कर लगाता फिरूँगा !
मेरी लाश को घेर कर
कोई सड़क जाम नहीं करेगा
मेरी लाश पर
न लाल झंडा लहराएगा, न भगवा
मेरी लाश पर
कोई तिरंगा भी नहीं लपेटेगा
मैं न तो शहीद हूँ
न कोई नामचीन नेता !
मैं तो फ़कत एक नामालूम नागरिक हूँ
इस देश का !!
कवियों में
हाँ भाई,
मैं मानुष थका-मांदा हूँ
कवियों में
पस्मांदा हूँ !!
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राहुल राजेश
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गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063.
मो. 9429608159.
ईमेल: rahulrajesh2006@gmail.com