कुछ कवि हमेशा ऐसे होते हैं जो आपको विचलित कर देते हैं, यह विचलन बहुत गहरा होता है, चुप्पा-आत्म और मुखर-अस्तित्व दोनों को झकझोर देते हैं. यह विस्मित ही करता है कि रुस्तम जैसा कवि हिंदी में पिछले कई दशकों से लिख रहा है और लगभग ओझल है. इन कविताओं में मनुष्यता की सादगी है जिसे जीवन की गरिमा की तरह पढ़ा जाना चहिए. नश्वरता जैसी चीज जो निश्चित एकमात्र है, लगभग स्थायी टेक की तरह सभी कविताओं के पार्श्व में धीमे-धीमे सुलग रही है.
ये कविताओं आपको कहीं अंदर लेकर जाती हैं. यह तलघर जो सबका है जिधर अब हम जाना बिसरा चुके हैं. क्या ये एक दार्शनिक की भी कविताएँ हैं.
रुस्तम की पन्द्रह नई कविताएँ और साथ में उनके पेंटिग और फोटोग्राफ भी.
रुस्तम की कुछ और कविताएँ
पूरा विश्व जल रहा है
पूरा विश्व जल रहा है.
जल रहा है मेरा हिया.
भीतर, बाहर
आग ही आग है.
और धुआँ.
वो जो आग में से निकला था
वह जल रहा है.
वो जो बर्फ़ जैसा ठण्डा था
वह जल रहा है.
आग सुलग रही है.
आग भभक रही है.
उठ रहा है धुआँ.
जुट रहा है धुआँ.
नदियाँ.
जंगल.
समुद्र.
पर्वत.
हर चीज़ में से
आग निकल रही है.
जल रही है हवा.
पानी जल रहा है.
बुझ रहा है दिया.
यह तुमने क्या किया?
यह तुमने क्या किया?
न तो मैं कुछ कह रहा था
न तो मैं कुछ कह रहा था,
न वे मुझे सुन रहे थे.
हालाँकि होंठ मेरे हिल रहे थे
और कान उनके खुले थे,
पर हम
दो भिन्न
नक्षत्रों पर खड़े थे
और एक अजब बेगानापन
हमारे बीच था
जिससे कि हम डर रहे थे.
इस डर को लिए हुए ही
मैं मंच से उतरा,
वे खड़े हुए.
मेरी आँखें झुकी हुई थीं,
उनके चेहरे मुड़े हुए थे
एक अन्य दिशा में
जब हम
हॉल से निकले
वहाँ जहाँ रात थी.
एक लम्बी साँस
मेरे फेफड़ों में चली गयी.
मेरे सामने
किस चीज़ को देखूँ? किस चीज़ पर सोचूँ? किस चीज़ पर मनन करूँ?
इस वक्त एक झाड़ू मेरे सामने है. वह दीवार के सहारे खड़ा है. एक पाईप है ज़मीन पर लेटी हुई, एक सोंटी उस पर पड़ी है. एक सरिया भी है उनको छू रहा : वह बीच में से मुड़ा हुआ है. लोहे की एक पत्ती सोंटी से सटी है, बस सटी हुई है, हिल नहीं रही, जैसे सटी रहना चाहती हो. और अन्य सब भी शान्त हैं, स्थिर हैं अपनी जगह, जैसे यही उनकी जगह हो — जैसे कि वे सदियों से यहाँ पड़े हों, बिना हिले, बिना काँपे, बिना किसी चिन्ता के.
इस दौरान, यहीं मेरे सामने, एक खोपरे में, पानी हिल रहा है, हिल रहा है.
सब चाहते थे
सब चाहते थे
कि मैं अपना मुँह नहीं खोलूँ.
सब चाहते थे
कि वे खुद तो बोलें
पर मैं नहीं बोलूँ.
उस वाचाल ज़माने में वे सब मुझे सिर्फ अपनी बात बताना चाहते थे.
तुमने उसे पैगम्बर कहा और उसे एक काली कोठड़ी में डाल दिया.
तुमने उसे
एक अन्धे कुएँ में धकेल दिया
क्योंकि उसका स्वर
कर्कश था
और वह
केवल सच बोलता था.
धीरे-धीरे उन्होंने
मेरे होंठ सिल दिए.
हर वस्तु भारी होती जा रही है
हर वस्तु भारी होती जा रही है
दूरियाँ बढ़ रही हैं मेरे और स्थानों के बीच.
सीढ़ियाँ उतरता हूँ तो पुट्ठे वज़न नहीं लेते.
बाहर निकलता हूँ तो चक्कर खाता हूँ.
पत्नी नींद की गोलियाँ लेती है.
मैं देर रात तक बैठता हूँ, फिर अनिच्छा से सोने जाता हूँ
और सोचता हूँ :
मैं कब जिया? कब जिया? कब जिया?
मैं मृत्युलोक में पैदा हुआ, मृत्युलोक में रहा, मृत्युलोक में ही
विलीन हो जाऊँगा.
जीवन
न कभी था, न है, न होगा.
तीन कविताएँ
1.
यहीं बैठता हूँ.
यह जगह मुझे यहीं बैठने को कह रही है.
2.
आओ,
यहाँ बैठो,
यहीं बैठे रहो.
चाहो तो कुछ भी नहीं कहो.
3.
न कहूँ
कुछ भी,
इसीलिए आया हूँ
यहाँ
इस जगह
जहाँ
कुछ भी नहीं कहना है.
तुम रह गये पीछे
तुम रह गये पीछे
इसीलिए हम मिल पाए.
वो निकल गये सब आगे,
इसीलिए है
यहाँ
यह एकान्त.
तुमने जो कहा,
था वह इतना शान्त
कि उस शोरगुल में
केवल उसी को मैंने सुना —
“यह वह समय है
जब कुछ न कहा जाए.”
किस-किस को सुनना होगा?
किस-किस को सुनना होगा?
अभी किस को सुनना बाकी है?
मत फटको
मेरे पास.
क्या है जो कहना चाहते हो —
जो किसी और ने नहीं कहा?
तम्हारी तरह,
तुम्हारे भान्ति ही,
वे भी लगातार बतियाते हैं,
बकते-झकते हैं.
इसीलिए
ईश्वर छोड़ गये हैं तुम्हें
और केवल मनुष्य तुम्हारे साथी हैं.
जब वह
जब वह
तुम्हारे पास आती है,
वह कैसे, कैसे,
कितना
तुम्हारे पास आती है.
जब वह तुम्हें छोड़ती है,
वह
और कहीं नहीं जाती है.
वह खण्डहर से भी कम है.
वह
किसी तरह भी
ख़ुद से
बच नहीं पाती है.
तुम जवान थीं और हँसमुख
तुम जवान थीं
और हँसमुख
और उस रेस्तराँ में काम करती थीं
जिसका नाम अब मुझे याद नहीं.
खुशकिस्मत था मैं
कि उस अजनबी शहर में
मैंने तुम्हें देखा.
सीवा था तुम्हारा नाम.
हालाँकि
मैं तुम्हें
दुबारा कभी नहीं देखूँगा,
पर तुम रहोगी
मेरे हृदय के बिल्कुल पास.
(ताल्लिन, इस्टोनिया, २०१४)
यह दुनिया मेरे लिए नहीं
यह दुनिया मेरे लिए नहीं.
मैं यहाँ वापिस नहीं आऊँगा.
सगे,
सम्बन्धी,
सब चले जाते हैं.
मैं यहाँ वापिस नहीं आऊँगा.
अब कौन है तुम्हारा?
अब किसलिए तुम ज़िन्दा हो?
अब चले जाना ही ठीक होगा.
वे कभी नहीं लौटेंगे.
कभी नहीं.
चहुँ ओर आँखें हैं
चहुँ ओर आँखें हैं.
मैं छिपता फिरता हूँ.
वे सब मुझे देख रही हैं.
चाहें तो
वे सड़क पर भी
मुझे नग्न कर सकती हैं,
झाँक सकती हैं
मेरी आत्मा में.
अब
घर में भी
मैं ढँका हुआ नहीं हूँ.
वे छत को चीर सकती हैं.
तीखी है उनकी नज़र
और उनकी पहुँच
लम्बी है.
ज्ञान क्या है
ज्ञान क्या है
यदि
जानते तुम होते,
कितना कम,
कितना कम
जानना तुम चाहते !
तुम जीते, मैं हारा
तुम जीते,
मैं हारा.
नीच,
तुम मुझसे बड़े हो,
मुझसे ज़्यादा.
कहते हो कि तुम कवि हो
कहते हो कि तुम कवि हो,
पर कितने खोखले हो !
मनुष्य नहीं,
ईश्वर ही लिख पाते हैं कविताएँ.
कवि और दार्शनिक, रुस्तम के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं.