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Home » लोग रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं : पंकज चतुर्वेदी

लोग रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं : पंकज चतुर्वेदी

ठीक है आप कवि कर्म को महिमा मंडित नहीं करना चाहते. उसे ‘ब्रह्म सहोदर’ नहीं मानते कोई बात नहीं. पर कविता में जो असाधारणता है उसे कवि से आप अलग नहीं कर सकते. दिक्कत यह है कि आप कवि से सामाजिक नैतिकता का आग्रह करने लगते हैं और उसके ‘टुच्चेपन’ से आहत हो जाते हैं. संत और कवि में फ़र्क होता है. उसकी मनुष्योचित कमज़ोरी में ही उसकी कविता के बीज छुपे हैं. कोरोना काल में कविता को लेकर मचे हाहाकार के बीच कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी का यह सुचिंतित आलेख मुझे अच्छा लगा. आप भी पढ़े. 

by arun dev
June 29, 2020
in आलेख
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लोग रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं : पंकज चतुर्वेदी
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लोग रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं       
पंकज चतुर्वेदी

 

कविता से लोग अपने वक़्त और मनुष्यता  की हालत जानना चाहते हैं, उसके आईने  में अपना अक्स देखना और उसकी वाणी में अपनी आत्मा की पुकार सुनना चाहते हैं. जैसा कि ग़ालिब  ने कहा है, बयान का लुत्फ़ ही लोगों के इस एहसास में है कि उनके दिल की बात कही गयी है ; मगर ऐसे अनूठे अंदाज़ में कि उन्हें मालूम हो कि अपनी आत्मा के इस सौन्दर्य से वे अब तक नावाक़िफ़ थे. इस मानी में कविता लिखना ही नहीं, उसे पढ़ना भी अपने को नये सिरे से जानना या ‘डिस्कवर’ करना है :

“देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है.”

इसके अलावा लोग कवियों से उनकी कविता की ही मानिंद एक निश्छल, संवेदनशील, मूल्यनिष्ठ और उदात्त ज़िंदगी की उम्मीद रखते हैं. यह नहीं हो सकता कि आपके शब्द कुछ और कह रहे हों और आचरण कुछ और. अगर ऐसा अंतराल है, तो उसमें अँधेरा होगा, रौशनी नहीं. लोग एक अँधेरे बर्बर समय में रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं और वे महज़ उससे नहीं, उसके रचनाकार से भी प्रेम करना चाहते हैं. जब यह नहीं हो पाता, तो उन्हें अपनी तलाश किसी हद तक अधूरी, व्यर्थ और निष्फल लग सकती है. यह स्वाभाविक है. फिर भी मुझे लगता है कि रचनाकारों को आत्मीयता और सहानुभूति से देखे जाने की ज़रूरत है, न कि उपेक्षा और संदेह के भाव से ; क्योंकि वे भी आख़िर इंसान हैं और उनके संघर्ष भी आम इंसानों के-से ही होते हैं.

चूँकि वे ‘टॉर्चबियरर’  या पथ-प्रदर्शक की भूमिका में रहते हैं, उनके लिए कसौटी सख़्त रखी जाती  है. लिहाज़ा कभी-कभी कवि-लेखकों की यह शिकायत सुनने में आती है कि वे जीवन-व्यवहार में उतने अच्छे नहीं होते, जितने कि रचना में. इसकी वजह यह हो सकती है कि लिखते समय वे अपनी सर्वोत्तम मन:स्थिति को व्यक्त करते हों और ज़िंदगी की जद्दोजेहद के बीच उतने उदात्त न रह पाते हों. कमज़ोर क्षणों में उन्हें देखकर मूल्यांकन करना वैसा ही है, जैसे रंगमंच पर कलाकार की प्रस्तुति की तुलना ग्रीन रूम  में उसकी अस्त-व्यस्तता और तनाव से की गयी हो.

इन स्थितियों के बावजूद श्रेष्ठ रचनाकार की पहचान यह भी है कि वह अपनी एक ख़ास ‘रीडरशिप’  या पाठक-समाज निर्मित कर लेता है. उसकी रचना इन्हीं पाठकों के संवेदना-जगत् का हिस्सा बनकर लोकप्रिय और दीर्घायु होती है. लोगों के प्यार के अलावा अमरत्व का कोई आश्वासन साहित्य के पास नहीं है. फिर भी साहित्यकार भटककर सत्ता  के सहारे इस दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहते हैं. नतीजतन  रचनाकार दो क़िस्म के होते हैं. एक वे, जो अपने चाहनेवाले पाठकों की बदौलत प्रसिद्ध होते हैं. दूसरे वे, जिन्हें तरह-तरह की सत्ता-संरचनाएँ प्रासंगिक बनाये रखने की चेष्टा करती रहती हैं. नियुक्तियों, साहित्य-उत्सवों, पुरस्कारों वग़ैरह के ज़रिए. हालाँकि दूसरी कोटि में एक अच्छे रचनाकार की आवाजाही अपने आप में कोई बुरी बात नहीं, एक मानी में यह उसके रचना-कर्म की स्वीकृति का ही सबूत है ; मगर ज़िंदगी के किसी दौर में चर्चा में बने रहने के लिए वे उत्कृष्ट लेखन की बजाए प्रमुख तौर पर शक्ति-संरचनाओं पर ही निर्भर हो जाएँ, तो मानना चाहिए कि उनका समय ख़राब चल रहा है.

दुनिया में तमाम स्तरों पर सक्रिय सत्ता-संरचनाओं और उनकी दुरभिसंधियों से टकराने का साहस किये बग़ैर कविता न्याय की हिमायत नहीं कर सकती. वैसी स्थिति में वह जीवन्त, सुन्दर और मूल्यवान् नहीं रह जायेगी. लेकिन कविता अंधा साहस नहीं करती, विवेक की आधारशिला से अन्याय की शक्तियों पर चोट करती है. आक्रोश अनिवार्य है, मगर उसे आप क़ाबू नहीं करते, तो रचना नहीं कर सकते. निरा साहस व्यक्ति को  जटायु का भाई, सम्पाती बना सकता है ; जो सूर्य से ऊँचा उठने की महत्त्वाकांक्षा में अपने पंख जला बैठा था. नतीजतन शेष जीवन उसे अपंग अवस्था में समुद्र के किनारे बिताना पड़ा. इसलिए  सुचिंतित साहस श्रेयस्कर है. यह किसी क़िस्म की आत्मरक्षा का तर्क नहीं, बल्कि इस बात का इसरार है कि आत्मवत्ता के अभाव में संघर्ष का सारगर्भित, सशक्त और कारगर होना संभव नहीं.

कवि के लिए कुंठा और दुस्साहस नहीं, एक समुज्ज्वल साहस वरेण्य है. उस रास्ते पर उसे निर्भय चल सकने का जोखिम उठाना ज़रूरी है, जबकि यह तय है कि वहाँ भौतिक स्तर पर पराभव ही नसीब होगा. जिसमें त्याग और अपरिग्रह का माद्दा नहीं है, उसका न व्यक्तित्व समृद्ध हो सकता है, न कविता. हरिशंकर परसाई  का एक व्यंग्य है,

जिसमें एक अफ़सर कवि सरकार के विरुद्ध धारदार कविता लिखते हैं. मुख्यमंत्री नाराज़ हो जाते हैं. इससे चिंतित कवि मुख्यमंत्री के नज़दीकी एक प्रभावशाली नेता के ज़रिए उनसे मिलकर क्षमा-याचना करना चाहते हैं. किसी तरह इस मुलाक़ात का इंतिज़ाम करवाया जाता है. मिलने पर जैसे ही परिचय दिया गया, कविवर मुख्यमंत्री के चरणों पर सिर रख देते हैं. मुख्यमंत्री माजरा समझने के बाद प्रभावशाली नेता से मुख़ातब होकर कहते हैं : “यह वह कवि नहीं हो सकते, जिन्होंने वह कविता लिखी है !”

कोई कवि अपने पूर्वज एवं समकालीन कवियों के बौद्धिक और संवेदनात्मक सान्निध्य में ही रचनारत रहता है. दुख-सुख वग़ैरह के अनुभव तो कमोबेश सबके पास होते हैं, मगर सवाल यह उठता है कि किसी कवि के अनुभवों की अद्वितीयता किस बात में है ? यह अनूठापन  ही शिल्प की बुनियाद है. इसके इज़हार की तमीज़ हम अपनी परम्परा और परिवेश से सीखते हैं. इसलिए जिसे हम विशिष्टता समझते हैं, उस पर हमारे समाज और संस्कृति का ऋण रहता है. चारों ओर बिखरे  हुए जीवन-वास्तव को निरे सामान्य और निरायास ढंग से भाषा में बयान कर देना कविता नहीं है. कविता में विचार का वैभव, अर्थ की सान्द्रता, मार्मिकता, व्यंग्य, आत्मीयता, परिहास, विरक्ति, आक्रोश, विस्मय और विनय, सब कुछ  का आना काम्य है. यानी मनोभावों का वह पूरा समारोह, जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और इस दुनिया में निरन्तर प्रेम और संघर्ष का कारण है. उसकी बदौलत ही कविता दिलचस्प और प्रभावी  होती है और लोग सच को सारभूत ढंग से जानने के लिए उसकी ओर आकृष्ट होते हैं. वे वाचाल कविता को पसंद नहीं करते, क्योंकि वह कम शब्दों में अधिक को कह सकने की कला है.

कविता की दीर्घायु के लिए दो चीज़ें ख़ास तौर पर ज़रूरी हैं : कहानी और  नाटक सरीखी दूसरी विधाओं की रचनात्मक विशेषताओं के समावेश की क्षमता और भाषा के अन्तःसलिल संगीत की समझ. शब्द पर चिंतन एवं अध्यवसाय और श्रेष्ठ कवियों से सजग एवं  निश्छल लगाव  के बिना अच्छी कविता मुमकिन नहीं है. कविता के लिए शिल्प की अनिवार्यता पर इसरार करते हुए शमशेर बहादुर सिंह  ने जो अनूठी और शायद उत्कृष्टतम बात कही है, उसके संदर्भ के तौर पर अपने साथी कवि त्रिलोचन  के प्रति कितना गहरा प्रेम और आदर एक साथ है ; जबकि वह स्वयं ‘कवियों के कवि’  माने गये थे. मूल्यों की पहचान के बग़ैर न यह विनयशीलता आ सकती है, न उन्हें धारण और विकसित करने का औदात्य ही :

“शब्द का परिष्कार
स्वयं दिशा है
वही मेरी आत्मा हो
आधी दूर तक
तब भी
तू बहुत दूर है बहुत आगे
त्रिलोचन.”

कविता ब्रह्मांड जितनी ही व्यापक है. कोई विषय ऐसा नहीं, जिस पर श्रेष्ठ कविता संभव न हो. इसके बरअक्स यह भी सच है कि  ऐसा कोई विषय  नहीं है, जिस पर कविता लिखना सुगम, सुविधाजनक या ‘सुरक्षित’  हो. सबसे बड़ा सवाल यह है कि विषय का हम करते क्या हैं ? कवि की आत्मा के कारख़ाने में विषय क्या रूप धारण करता है, यानी इन दोनों की अंतःक्रिया का नतीजा क्या निकलता है ? यह शिल्प का ही मामला नहीं, अंतर्वस्तु का भी उतना ही है. ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ’–यह कहना जितना मुश्किल  और आसान है, कविता लिखना भी उतना ही मुश्किल और आसान है ; क्योंकि वह लिखी चाहे जिस विषय पर गयी हो, कहीं गहरे में वृहत् विश्व से प्रेम की ही अभिव्यक्ति है और उसकी प्रक्रिया इतनी गतिशील, द्वंद्वात्मक, अपरिहार्य और जादुई होती है कि उसके मद्देनज़र फ़ैज़ अहमद फ़ैज़   का यह शे’र याद आता है :

“दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम
कहने में उनके सामने, बात बदल बदल गयी.”

यह जीवन हमें टुकड़ों में नहीं मिला है. इसलिए  विषय अलग-अलग होते नहीं, वे कविता में उसी तरह परस्पर संश्लिष्ट रहते हैं, जैसे कि ज़िंदगी में. अच्छी कविता किसी भी संदर्भ में लिखी जाए, एक ज़्यादा बड़े संदर्भ में अपनी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता हासिल कर लेती है. प्रेम के कवि को भी शायद यह अंदाज़ा न रहा हो कि वह राजनीति के कहीं अधिक उदास सच को बयान कर रहा है. इससे साबित होता है कि अनुभूति की गहनता में ही  व्यापक होने की पात्रता निहित  है. नज़ीर है  परवीन शाकिर  का यह शे’र :

“मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूट बोलेगा और लाजवाब कर देगा.”

इस सिलसिले में नासिर काज़मी  का एक शे’र ग़ौरतलब है, जो यों तो प्रेम के संदर्भ में लिखा गया होगा ; मगर कैसी विडम्बना है कि विद्वेष, विभाजन, विध्वंस और ख़ून-ख़राबे की राजनीति के वर्चस्व के मौजूदा  दौर में अक्सर ही याद आ जाता है. समय के साथ संजीदा कविता के अर्थ-विस्तार की यह प्रक्रिया सचमुच विस्मयजनक है :

“कुछ तो नाज़ुकमिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नयी है अभी !”

प्रेम कविता भी वही अच्छी या श्रेष्ठ होती है, जिसमें निज का साधारणीकरण हो पाता है. अन्यथा वह भी निजी जीवन को सार्वजनिक स्पेस में ले आने की एक अवांछनीय चेष्टा है. मुख़्तलिफ़ रचनाओं में ज़ाहिर किया गया प्रेम अगर निजी ही रह जायेगा, तो दूसरों के किस काम का होगा ? उसमें दूसरों का भी निजी हो सकने की लियाक़त होनी चाहिए.

इसी तरह राजनीतिक कविता लिखना जितना आसान, उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल काम है. इसलिए कि हमारी समूची ज़िंदगी जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे राजनीति की ज़द में आती है और उससे बुरी तरह प्रभावित रहती है. लिहाज़ा एक क़िस्म का राजनीतिक विमर्श- जो अक्सर दलगत होता है- सार्वजनिक जीवन में अहर्निश जारी रहता है. मगर कविता को किसी दल या पार्टी की  बजाए सत्यनिष्ठ एवं मूल्यनिष्ठ होना होता है. इसके अलावा उसे मौन और मुखरता, अंतर्मुख और बहिर्मुख के बीच के संतुलन की तनी हुई रस्सी पर चलना होता है.

दूसरी ओर राजनीतिक दल अक्सर बहिर्मुख होते हैं और उनका ध्यान अपनी  बजाए दूसरों के ही आचरण की आलोचना पर एकाग्र  रहता है. निहित स्वार्थों में मुब्तला रहने के नतीजे में सत्य और मूल्य उनकी पकड़ से छूटते रहते हैं. शायद ऐसी यथास्थिति क़ायम रखने में वे सुविधा महसूस करते हैं, जबकि कविता को इस सूरतेहाल में घुटन ही हो सकती है. इस सबके मद्देनज़र ख़तरा यह है कि राजनीति से प्रभावित नहीं, बल्कि आक्रांत होने की स्थिति में कविता रोज़मर्रा की चालू राजनीतिक गपशप में रिड्यूस हो जाए. मुक्तिबोध  ने ऐसी सतही, वाचाल और कविता न बन पाती हुई ‘कविता’  से ख़ुद को और दूसरों को भी आगाह किया होगा, जब अपनी बाद में क्लासिक मानी गयी कविता ‘अँधेरे में’  में उन्होंने लिखा :

“कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ,
वर्तमान समाज चल नहीं सकता.”

हमारे वक़्त में उदास करनेवाली घटनाएँ बेशुमार हो रही हैं और ढाड़सबँधानेवाली बहुत कम. लेकिन सचाई, संवेदना और समर्पण से हम आम लोगों एवं विद्यार्थियों के बीच जाकर समकालीन कविता की बाबत विचार और रचना, दोनों ही स्तरों पर कुछ प्रयोग करें, तो कामयाबी ज़रूर मिलेगी. दिल्ली के वातानुकूलित सभागारों में–जहाँ प्रायः जाने-पहचाने साहित्यकार और बुद्धिजीवी ही रहते हैं–होने वाले शिष्ट और सम्भ्रान्त कार्यक्रमों की बनिस्बत भारत के हिन्दीभाषी शहरों-क़स्बों में होनेवाले आयोजनों को मैं कहीं अधिक अहम मानता हूँ, क्योंकि इनके ज़रिए हम उस समाज से संबोधित हो पाते और किसी हद तक उसे अपनी अंतर्वस्तु से मुत्मइन कर पाते हैं, जो राजधानियों के ‘शिष्ट’  दायरे से बाहर है.

 कविता के भविष्य की उम्मीद शायद हम वहीं अधिक कर सकते हैं, क्योंकि वहाँ संघर्षों का दबाव या असुरक्षा भी ज़्यादा है और उसी अनुपात में कविता से सच्चा, अनगढ़, अदम्य क़िस्म का लगाव भी. ऐसे प्रयोगों की संख्या हमें बढ़ानी चाहिए और उन्हें शहर-शहर आयोजित करने की कोशिशें करनी चाहिए. अन्यथा सचमुच संजीदा और ज़रूरी कविता से व्यापक समाज का अजनबीपन दुखद ढंग से बढ़ता जाएगा. ‘कवि-सम्मेलन’  नाम की संस्था लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है और वैसे मंचों से कोई उम्मीद करना या उनसे न जुड़ पाने का सवाल उठाना अप्रासंगिक और बेकार है ; क्योंकि वहाँ तो अब अपेक्षाकृत बेहतर कवि-सम्मेलनी कवियों के लिए ही जगह नहीं बची है.

इसलिए हमें जनसाधारण के बीच अपने नये और अलग तरह के मंच स्वयं निर्मित करने और काव्य-आवृत्तियों के अवसर बढ़ाने होंगे.


पंकज चतुर्वेदी
pankajgauri2013@gmail.com
Tags: कवितापंकज चतुर्वेदी
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