‘क्या तुम सारे तर्क छोड़ कर सिर्फ़ उतने दिख सकते हो जितने हो… मतलब न एक इंच ज़्यादा, न एक इंच कम?
उस दिन मैं तुम्हें कोई मोहलत नहीं देना चाहती थी. तनाव के पलों में अक्सर आदमी की पलकें झपझपाने लगती हैं, लेकिन तुम मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे कोई प्रतिमा दर्शक को देखती है.
मैं जिद पर अड़ी थी : इस तरह कुछ नहीं होगा. जैसा है वैसा ही चलता रहेगा… और तुम इसी तरह अपने आप से घटते रहोगे.. देखो, चौपाए की तरह चलने के कारण तुम्हारे नितंब गोरिल्ले की तरह हो गए हैं. तुम खड़े तो हो सकते हो, लेकिन बहुत दूर तक नहीं चल सकते. आखि़र में तुम्हें अपने हाथ ज़मीन पर टिकाने पड़ते है … मतलब तुम्हें एक बार वह सब याद करना होगा कि तुम गोरिल्ला बनना कब शुरू हुए थे…
मैं तुम्हें पिछला बहुत कुछ याद दिलाना चाहती थी… सौरभ तुम्हें शाम को घर बुलाता था. अच्छी व्हिस्की पिलवाता था. फिर अपने परिवार की पुरानी हवेली, ज़मीदारीं के किस्से सुनाता था. तुम्हारा काम उसकी कही हर बात को ध्यान से सुनना होता था. मट्टू मुझसे कहा करता था कि तुम सौरभ के पग की तरह व्यवहार करते हो. कि वह जैसा चाहता है तुम वैसा नाचते हो….
तुम्हें याद है नए साल की पार्टी में मट्टू सौरभ से भिड़ गया था : यार, तुम्हारे ये कि़स्से सुन-सुनकर मुझे मीनोपॉज हो गया है…. तेरे पास कोई और बात क्यों नहीं होती…. उस दिन तुम्हारे पास मौक़ा था. तुम सौरभ की गिरफ़्त से छूट सकते थे. लेकिन नहीं, तुम अपना गिलास लेकर दूर्वा के साथ बाल्कनी में चले गए थे सिगरेट पीने. मुझे पता था कि दूर्वा पर तुम्हारा क्रश था. यह बात सौरभ जानता था और उसकी प्रोग्रामिंग इसी बात से शुरू होती थी.
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दरअसल, जिसे तुम अपनी जीत मान रहे थे, वह एक बेमतलब का वॉकऑवर था. हक़ीक़त ये थी कि उन दिनों सौरभ किसी शर्मिष्ठा के चक्कर में था. वह दूर्वा से लगातार झूठ बोल रहा था. वह परेशान थी. उसे कोई हमदर्द चाहिए था. उन दिनों दूर्वा तुमसे फ़ोन पर लंबी बात किया करती थी. तुम्हें हफ़्ते में दो-तीन बार क्नॉट प्लेस बुला लिया करती थी. तुम्हें उसकी आंखें और आवाज़ पसंद थी. वैसे तुम्हें उसका कुछ भी पसंद न होता तब भी तुम उसे इसी तरह चाहते रहते क्योंकि वह तुम्हें पसंद करती थी. उन दिनों तुम मुझसे कई बात छिपा जाते थे. पर मैं तब भी जानती थी कि ग़र्क होते संबंधों में किसी को कुछ नहीं मिलता. देह तक पहुंच भी लिया जाए तो लिजलिजी ग्लानि के सिवा कुछ हाथ नहीं आता.
मुझे नहीं पता कि तुम उस ग्लानि में लिथड़े या पहले ही लौट आए. पता नहीं तुम्हें याद है कि नहीं पर मैंने इशारा किया था कि
अगर विवाह दुर्घटना बन जाए तो उसके बाद स्त्री अपनी देह से परे चली जाती है. फिर वह जो कुछ भी करती है अभ्यास, मजबूरी और आदत के अधीन हो कर करती है. तब उसकी आंखें कितनी भी बड़ी-बड़ी और काजल से भरी हों, उनमें प्यास की चमक नहीं होती. वह अपने दुख, बीयर के नशे और सिगरेट के धुंए में उलझा कर बेशक तुम्हारा हाथ चूम ले, लेकिन उसके स्पर्श में आगे का कोई सपना नहीं होता.
और जैसा कि अक्सर होता है, बच्चों के भविष्य और दोस्तों की सलाह के बाद सौरभ और दूर्वा एक दूसरे के पास लौट आए. इस मेलमिलाप के बाद मुझे लगा था कि अब शायद तुम अपने बारे में सोचना शुरू करोगे. लेकिन फिर तुम साल भर मिले ही नहीं. फ़ोन करो तो फ़ोन का जवाब नहीं. तुम्हारे बारे में कभी-कभी कोई ख़बर मिलती थी. एक बार सुना कि तुम हैदराबाद चले गए हो, फिर सुना कि हिमाचल में रिसर्च एसोसिएट हो गए हो. मैं ख़ुश थी कि चलो तुम अंतत: अपनी जगह लौट रहे हो.
लेकिन तुम तो जैसे किसी गुफा में रहने लगे थे. उस दिन जब तुम्हारे कैंपस में हम अमलतास के नीचे खड़े सिगरेट पी रहे थे. तभी अचानक पिछली दीवार से एक बिल्ली कूदी और उसने दाना चुगती गुरसल पर झपट्टा मारा. तुम बहुत तेज़ी से उछल कर बिल्ली की तरफ लपके और तुम्हारा पांव सीधे बिल्ली के मुंह पर पड़ा. और गुरसल उसके पंजों से छूट गयी. लेकिन उसके पंख अस्तव्यस्त हो गए थे. उसके पंजों में चोट आई थी. वह निढाल हो गयी थी. तब किसी ने पास के बर्ड हॉस्पिटल के बारे में बताया था और हम तुरंत बाइक पर बैठकर वहां के लिए रवाना हो गए थे. तुमने गुरसल को एक डिब्बे में रखा हुआ था. खैरियत थी कि वह बच गयी थी. उसी दोपहर वापस लौटते हुए तुमने वर्षा के बारे में बताया था.
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जब तुम कॉलबेल बजाकर सीढि़यों की चक्कर खाती गहराई में झांक रहे थे तो तुम्हें देखकर लगा था जैसे तुम किसी उजड़े हुए शहर से चलकर आए हो. मेरे ज़ेहन में अचानक रेन शैडो एरिया का ख़याल आया था. धूप से महरूम रह जाने वाली जगह! और जब उसे धूप नहीं मिलती तो पेड़-पौधों का संसार भी नहीं पनपता इसलिए हर तरफ़ सुखाड़ और बंजर सा दिखाई देता है. मैं जानना चाहती थी कि तुमने यह सब अपने साथ जान-बूझ कर किया है या बस उसे हो जाने दिया है.
फिर, तुम्हें देखा… जैसे किसी ने तुम्हें अपने जबड़े में लेकर अधखाया छोड़ दिया है. आखि़र तुम बहुत कोशिशों के बाद मेरे यहां आए थे. सही बात तो यह थी कि मुझे उस दिन तुम्हारे साथ पच्चीस साल पहले की उस हंसी में शामिल होना चाहिए था जो कॉलेज से लौटते हुए अचानक शुरू हुई उस आंधी और बारिश में हम सबके पोरों से फूट कर आसपास बिखर गयी थी… वही हंसी जब हम सब महावीर वाटिका के गजेबो रेस्त्रां में धडधड़ाते हुए घुसे थे. बाहर हवा के थपेड़े थे और झांय-झांय करती बारिश. और तुम प्लास्टिक की मेजों की गिर्द खड़ी भीड़ के बीच मुझे चाय का गिलास पकड़ा कर बेसाख़्ता ‘आधे अधूरे’ के संवाद बोलने लगे थे :
हाँ…छोटी-सी बात ही तो है यह. अधिकार, रुतबा, इज्जत यह सब बाहर के लोगों से मिल सकता है इस घर को. इस घर का आज तक कुछ बना है, या आगे बन सकता है, तो सिर्फ बाहर के लोगों के भरोसे. मेरे भरोसे तो सब-कुछ बिगड़ता आया है और आगे बिगड़-ही-बिगड़ सकता है. यह आज तक बेकार क्यों घूम रहा है ? मेरी वजह से. यह बिना बताए एक रात घर से क्यों भाग गई थी ? मेरी वजह से. और तुम भी…तुम भी इतने सालों से क्यों चाहती रही हो कि… ?
तुमने लड़के की जगह मेरी तरफ़, लड़की के रूप में सामने खड़ी वर्षा और हमारी सामने बैठी एक अधेड़ महिला की ओर इशारा करके हमें भी नाटक का पात्र बना दिया था. हमें तो ख़ैर तुम्हारे खिंलदड़ अंदाज़ का पता था, लेकिन वह महिला घबरा गयी थी. लेकिन तुमने अप्रत्याशित आत्मविश्वास के साथ उनके सामने न केवल क्षण भर में पूरी बात स्पष्ट कर दी, बल्कि उनसे उसी क्षण में यह रिक्वेस्ट भी कर डाली थी कि ‘मैम, प्लीज़ बस यह बोल दीजिये: सुन रहे हो तुम लोग ?
और अपने आसपास मुस्कुराते, हैरत से भरे लोगों पर नज़र फेंकते हुए तुम फ़ौरन अगले डायलॉग पर आ गए थे: अपनी जिंदगी चौपट करने का जिम्मेदार मैं हूँ. इन सबकी जिंदगियाँ चौपट करने का जिम्मेदार मैं हूँ. फिर भी मैं इस घर से चिपका हूँ क्योंकि अंदर से मैं आराम-तलब हूँ, घरघुसरा हूँ, मेरी हड्डियों में जंग लगा है.
वह हंसी मुझे कभी-कभी आज भी सुनाई देती है. कभी लाल बत्ती पर खड़ी हूं कि अचानक छनक जाती है, दरवाज़े में चाबी घुमा रही हूं… कपड़ों के बैग से कोई पुराना कार्डीगन निकल आया है तो उसके स्पर्श से छलक आती है… आज सोचती हूं कि वह क्या था कि हमने दस-पंद्रह मिनट की उस परफॉरमेंस में रेस्त्रां को मंच बना दिया था. जब तुमने संवाद ख़त्म करके मंचासीन अभिनेता की तरह सिर झुकाया था तो रेस्त्रां में देर तक तालियां बजती रही थी. रेस्त्रां के मालिक ने तुम्हें दौड़ कर गले लगा लिया था. वह विस्मित था : मुझे यक़ीन नहीं हो रहा कि मेरे शहर में ऐसे बच्चे भी रहते हैं. और तो और तुमने जिस अधेड़ महिला को अचानक अपने नाटक में खींच लिया था उसने मेरे गाल पर थपकी देते हुए कहा था : मैंने आज तक जिंदगी में ऐसा जादू नहीं देखा !
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मुझे बस पच्चीस साल पहले की उस हंसी को तुम्हारे साथ दुबारा हंसना चाहिए था लेकिन, मैं तुम्हारी बरसों की चुप्पी, तुम्हारे कवच को छिन्न–भिन्न कर देना चाहती थी, और इस आवेग में मेरी हर बात अधूरी छूट जा रही थी. मैं तुम्हारे और वर्षा के संबंधों की तफ़सील में जाना चाहती थी लेकिन तुमने तो एक वाक्य में पूरी घटना ही ख़त्म कर दी थी.
तीसरे ड्रिंक के बाद तुमने ख़ुद को जैसे बुहारते हुए कहा था : वर्षा को मेरी नहीं अपने पिता के कारोबार के लिए एक एकाउंटेंट की ज़रूरत थी.
‘अब आगे क्या सोचा है?’
और तुमने मेज से गिलास उठाते हुए पूछा था : बताओ, भविष्य की कथा सुनना चाहती हो या सच? नहीं… चलो, स्टार्टर के तौर पर पहले तुम्हें एक दिलचस्प कि़स्सा सुनाता हूं… उन दिनों दिल्ली में मेट्रो की खुदाई चल रही थी. मैं शायद तीन साल बाद वापस लौटा था लेकिन सड़कों का परिचित विन्यास इस तरह बदल गया था कि बस से उतरते ही जैसे बुद्धि चकरा गयी. जहां सड़क हुआ करती थी वहां जैसे एक गहरी नहर बन गयी थी. हर तरफ़ ऊंचे-ऊंचे बैरियर लगे थे. मैं एक बंद दुकान के आगे खड़ा देर तक अनुमान लगाता रहा कि माल रोड किस तरफ़ होगी. एक बार मन में आया कि किसी से रास्ता पूछ लूं लेकिन मैं अजीब शर्म से घिर गया था कि आखिर मैं इस शहर में दस बरस रहा हूं, कि किसी शहर से कुछ वक़्त के लिए चले जाने का मतलब उसके रास्तों और जगहों को भूल जाना नहीं होता. मैं इस दबाव में आगे चलता रहा कि अगर इसी तरह खड़ा रहा तो कहीं लोगबाग यह न मान बैठें कि मैं रास्ता भूल गया हूं. अजीब एहसास था वह… अपने ही शहर में रास्ता भूल जाने की शर्म !
तुमने शायद एक उड़ते हुए क्षण की छाया में मेरी ओर देखा. और फिर शुरु हो गए :
तनाव, ख़ौफ, बेचारगी और ट्रैफिक के शोर में पुरानी घटनाएं, बातें और आवाज़ें घनघनाने लगी थी… मैं घबराहट में फुटपाथ से कूदकर मिट्टी के ढेर पर बैठ गया. मैं डर गया था कि कहीं ये नर्वस ब्रेकडाउन के लक्षण तो नहीं हैं. उस मटमैले शोर में वर्षा कह रही थी :
‘तुम इतने अनसर्टेन क्यों रहते हो? लगता है जैसे इस दुनिया की कोई भी चीज़ तुम्हारी नहीं है’.
मेरे सामने ड्रिलिंग मशीन का शाफ़्ट ज़मीन के भीतर धड़ धड़ करते उतर रहा था. उसका कंपन मेरे पैरों तक आ रहा था. किनारे पर खड़ी भीड़ में एक आदमी बुदबुदा रहा था : ये साले इस शहर को इतने नीचे तक खोद डालेंगे कि सब कुछ भुरभुरा हो जाएगा… किसी दिन ये शहर उसी में गरक हो जाएगा.
भीड़ के पीछे से वर्षा फिर आवाज़ को मसलते हुए बोल रही थी : ‘सुनो, कुछ भी टेकन फ़ॉर ग्रांटेड नहीं होता… हम कुछ भी चाहते रहें लेकिन जिंदगी कुछ और होती है… तुम कहीं जाना नहीं चाहते… तुम फॉसिल बन गए हो… पता नहीं तुम्हें इसमें क्या मज़ा आता है… हर चीज़ धीमी आंच पर नहीं पकाई जाती पर…पर.. तुम इंपॉसिबल आदमी हो…. और फिर घृणा और बेबसी में उसने अपना चेहरा दूसरी तरफ़ कर लिया था.
मैं उसकी बात का जवाब देना चाहता था, लेकिन मेरा वाक्य बाहर आने से पहले ही फूट जाता था.
तभी लगा कि इस कोलाहल में कहीं पिता की आवाज़ भी है : ‘तुम किसी परम्परा, किसी रिवाज़ को मानते ही कहां हो… ऐसे व्यवहार करते हो जैसे संसार में ख़ुद ही पैदा होकर आ गए थे’. और मैंने पलट कर सर्पीली नज़र से कहा था : ‘मैं आपके पास रोने नहीं आया हूं… जिस आदमी को पूरी जिंदगी अपने मुनक्का, बादाम और दूध के अलावा किसी और बात की चिंता नहीं रही वह…’
‘तुम्हारी इसी बदतमीजी ने ही तो तुम्हारा विनाश किया है’. शोर बढ़ता जा रहा था. बस के इंजन की भारी घर्रघर्र.. कारों के कान चीरते हॉर्न और ड्रिलिंग मशीन की थड़थड़.
मैं डर रहा था कि कहीं ढूह से फिसल कर नीचे गड्ढे में न गिर पड़ूं. मेरी टांगे लड़खड़ा रही थी. रीढ़ की हड्डी में दर्द की झनझनाहट शुरू हो गयी थी. कहीं कोई अदृश्य बम टिकटिक कर रहा था. और मैं उसकी बदहवासी में किसी भी परिचित चीज़ का सुराग ढूंढ़ लेना चाहता था. लेकिन पहले की देखी कोई भी जगह पकड़ में नहीं आ रही थी. सड़क की बत्तियां और दुकानों के सार्इनबोर्ड दमकने लगे तो डर और नुकीला हो गया. फिर एक बुझा सा ख़याल आया है कि अगर मैं सड़क के दूसरी ओर चला जाऊं तो शायद यह दिशा-भ्रम टूट जाए, लेकिन मुझमें सड़क पार करने की हिम्मत नहीं बची थी. मैं अपनी पिंडलियों को धीरे-धीरे भींच रहा था. तभी सोमेश की आवाज़ कानों में पड़ी :
‘दरअसल हम जैसे लोगों का मर्ज यह है कि हम हमेशा भावुकता में जीते हैं, अपनी अच्छाई को इतनी बार सिद्ध करना चाहते हैं अंत में वह एक कातरता बन जाती है… अच्छा बताओ, सारे इलीट इंक़लाब के लिए भी काम करते रहे और अपनी नॉर्मल जिंदगी भी जीते रहे. प्यार किया, बच्चे पैदा किए, उन्हें पढ़ाया लिखाया और ख़ुद भी मज़े में रहे और एक हम हैं— किसी ने कह दिया कि क्रांति नुक्कड पर खड़ी है और हमने यकीन कर लिया. सब छोड़ छाड़ कर उसकी तैयारी में लग गए…’
मैं सोमेश को डपटना चाहता था. लेकिन वह हर बार मेरी पीठ के पीछे छिप जाता था. आगे-आगे सड़क संकरी होती जा रही थी, इसलिए किनारे चलने वाले लोग भी फुटपाथ पर आ गए थे. मैं आसपास की इमारतों पर नज़र गड़ाए रखना चाहता, लेकिन सोमेश कहीं से भी बोल पड़ता था :
‘यह कोरी भावुकता है, हम जिस शहर से प्यार करते हैं उसकी नियति हमारे हाथों में नहीं होती और यह सब कुछ घटने के बाद पता चलता है कि दरअसल यह शहर नये पुराने सेठों, हाकिमों, व्यापारियों का था… वे जब चाहते हैं इसका नक्शा बदल देते हैं, जब चाहते हैं सड़कों और इमारतों के नाम बदल देते हैं’.
मैं इस उम्मीद में दोनों तरफ़ देखता जा रहा था कि अगर एक बार बायोटेक्नॉलजी की बिल्डिंग दिखाई दे जाए तो यह यातना भक्क से ख़त्म हो जाए. लेकिन जब बहुत देर चलने के बावजूद वह बिल्डिंग नहीं आई तो मैं फुटपाथ से उतर कर सड़क से अंदर की ओर जाते एक बरामदे की दीवार से सटकर खड़ हो गया. मेरी कमर दीवार से चिपकी थी और दोनों हाथ आंखों के सामने. दरअसल, मैं तैयार होना चाहता था कि अगर किसी वक़्त रूलाई फूटने लगे तो अपनी आंखें हथेलियों से ढक लूं.
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मैं अगला ड्रिंक बना कर वॉशरूम तक गयी थी. सोच रही थी कि तुमसे लौटकर पूछूंगी कि मुझे यह कहानी क्यूं सुना रहे हो? लेकिन वापस आई तो देखा कि तुम कुर्सी के बाएं हत्थे पर सिर टिका कर सो चुके हो. तुम्हारे आने से लेकर अब तक मैं बस सवाल तैयार करती रही थी. अब तुम सामने थे और मैं स्तब्ध खड़ी थी. मुझे डर लग रहा था कि कहीं खड़े-खड़े गिर न पडूं. जैसे-तैसे दरवाज़े का हैंडिल हाथ आया. और आंखों के सामने तिरमिरे उड़ने लगे… मैं पापा के साथ उनके स्कूल में थी. घर में शायद कोई नहीं था इसलिए पापा मुझे अपने साथ स्कूल ले गए थे. वहां इंस्पेक्शन जैसा कुछ चल रहा था. मैं एक बरामदे में पापा के पीछे-पीछे चल रही थी. उनके साथ दो तीन लोग और थे. बरामदे के आखिर में वे एक जगह रुके. उन्होंने चपरासी से कुछ कहा. और वह एक कमरे का ताला खोलने लगा. वह कह रहा था: मास्साहब, दूर रहो अंदर भभका होगा. पापा ने मुझे हाथ लगाकर पीछे हटने के लिए कहा. मैं वहीं से देख रही थी. अंदर टूटी-फूटी कुर्सियों, मेजों, चॉक के डिब्बों, फट्टों, बेंच, दरियों, सीमेंट लगे गाटरों, दरवाजों, खिड़कियों, एस्बेस्टस की चादरों का अंबार लगा था. जैसे कोई उन चीज़ों को वहां फेंक कर चला गया है.
दोपहर बाद घर लौटते हुए जब मैं साइकिल के डंडे पर बंधी छोटी गद्दी पर बैठी हुई था तो मैंने पापा से पूछा कि उस कमरे में इतनी चीज़ें क्यों भरी थीं. शायद उन्हें मेरा सवाल अटपटा लगा होगा और उन्होंने यूंही टरकाने के लिए कह दिया था: मन्नू, वह स्कूल का स्टोर रूम है… उसमें ऐसी ही टूटी-फूटी चीज़ें रखी जाती हैं.
और तब यकायक दरवाजे़ के उस पुराने पेंट की क्षीण सी गंध से माथा हटाकर मैंने तुम्हारी तरफ़ देखा— वहां सिर्फ़ धूल, नींद और टूटे हुए सामानों का एक ढेर पड़ा था.
उस रात का खाना स्लैब पर रखे-रखे बर्फ हो गया था.
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