गूगल से आभार सहित
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इब्तिदा फिर उस कहानी की
आलोचक राकेश बिहारी ने समकालीन हिंदी कथा युवा पीढ़ी की कहानियों को ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ नाम दिया है. क्यों दिया है, इसकी पर्याप्त चर्चा इस आलेख में है. दरअसल यह आलेख समालोचन में शुरू हो रहे हिंदी कथा युवा पीढ़ी की कहानियों पर एकाग्र श्रृंखला का आमुख है जिसमें किसी एक कथाकार की किसी चुनी हुई कहानी की विवेचना और आलोचना के माध्यम से उस कथाकार और कथा जगत की प्रवृतियों पर चर्चा होनी है. इसी आलेख में पत्रिकाओं के कथा – विशेष – अंकों की पड़ताल करते हुए राकेश बिहारी ने ज़िम्मेदारी से इस ‘भूमंडलोत्तर पीढ़ी’ के कथाकारों की पहचान भी की है.
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भूमंडलोत्तर कहानी
(अतिक्रमण से उत्पन्न समय-सत्यों का अन्वेषण)
राकेश बिहारी
उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर नब्बे के दशक में जिन संरचनात्मक समायोजन वाले आर्थिक बदलावों की शुरुआत हुई थी, उसका स्पष्ट और मुखर प्रभाव आज जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है. अधुनातन सुविधाओं और अभूतपूर्व चुनौतियों की अभिसंधि पर खड़ा यह कालखंड हिन्दी कहानी में एक नई कथा-पीढ़ी, जिसे संपादकों-आलोचकों ने बहुधा ‘युवा पीढ़ी’ के नाम से पुकारा है, के आने और स्थापित हो जाने का भी गवाह है. चूंकि युवा शब्द अंतत: एक खास उम्र का ही द्योतक होता है और अब यह कथा-पीढ़ी एक महत्वपूर्ण आकार भी ग्रहण कर चुकी है, यह जरूरी हो गया है कि इसे एक ऐसा नाम दिया जाय जो उम्र और वय की परिसीमा से बाहर, इस कालावधि की विशिष्टताओं को भी अभिव्यंजित करे. भूमंडलीकरण जो एक राजनैतिक-आर्थिक एजेंडे के रूप में चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा रहा है, की शुरुआत के बाद की कालावधि को अभिव्यक्त करने के लिये ही मैने अपनी किताब ‘केंद्र मे कहानी’में ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द का प्रयोग किया है.
‘भूमंडलोत्तर’ शब्द अब तक किसी शब्द कोष का हिस्सा नहीं है, लिहाजा इस शब्द के प्रयोग पर आपत्तियाँ होनी ही थी. ऐसा नहीं है कि इसे गढ़ते हुये मैं किसी मुगालते या खुशफहमी में था कि इस पर होने वाली संभावित आपत्तियों के बारे में सोचा ही नहीं. सच तो यह है कि इस संदर्भ में कई मित्रों और वारिष्ठों से लंबी अनौपचारिक बातचीत में ‘भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद’ की कालावधि को अभिव्यक्त करने के लिए कोई एक शब्द या पद न मिलने पर ही अपनी उन आशंकाओं के साथ मैंने ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द प्रस्तावित किया था. जिन लोगों ने मेरी वह किताब अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर पढ़ी है, उनकी नज़र मेरी उन आशंकाओं पर भी गई होगी. इस मुद्दे पर एक रचनात्मक बहस की शुरुआत कथाकार–आलोचक और मेरे प्रिय मित्र संजीव कुमार ने परिकथाके जनवरी-फरवरी 2014 अंक में की है. वे \’उत्तर-छायावाद\’ और \’छायावादोत्तर\’ शब्द का उदाहरण देते हुये ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द के प्रयोग में और सावधानी बरतने की बात करते हैं. अपनी आपत्तियों के बावजूद संजीव कुमार नए शब्दों की गढ़ंत में शुद्धतावाद किस हद तक बरता जाये को लेकर खुद को संभ्रम की स्थिति में पाते हैं और ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द के प्रयोज्य अर्थ पर सर्वानुमति की संभावनाओं की बात भी करते हैं. खुद को संभ्रम की स्थिति में कहने की उनकी विनम्रता को मैं नए शब्द के निर्माण और उसकी अर्थ-स्वीकृति की प्रक्रिया के संदर्भ मे उनका बौद्धिक और रचनात्मक खुलापन मानता हूँ.
इस बीच हमारे अग्रज कथाकार और \’भूमंडलीय यथार्थ\’ के विचारक रमेश उपाध्याय जी ने भी फेसबुक पर इस शब्द के प्रयोग को लेकर अपनी आपत्ति जताई है. संजीव कुमारकी तरह किसी नए शब्द के गढ़ंत को लेकर एक रचनात्मक बहस करने की बजाय तथाकथित जिज्ञासा की चाशनी में लपेटकर इसका लगभग उपहास करते हुये वे कहते हैं- ‘यह “भूमंडलोत्तर” क्या है? यह किस भाषा का शब्द है? अगर हिन्दी का है, तो कोई हमें बताए कि यह शब्द कैसे बना और इसका अर्थ क्या है!’
\’भूमंडलोत्तर\’ शब्द के प्रयोग पर संजीव जी की तार्किक आपत्तियों तथा उनके बौद्धिक व रचनात्मक खुलेपन और रमेश उपाध्याय जी की उपहासपरक जिज्ञासाओं के बीच यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि शब्द हमेशा व्याकरण की कोख से ही पैदा नहीं होते. यह भी जरूरी नहीं कि नए शब्द हर बार कहीं से कोई पूर्वस्वीकृत अर्थ धरण करके ही प्रकट हों. बल्कि सच तो यह है कि नए शब्दों पर एक खास तरह के अर्थ का स्वीकृति बोध आरोपित करके उन्हें दैनंदिनी का हिस्सा बना लिया जाता है. चूंकि शब्दों का सिर्फ अर्थ संदर्भ ही नहीं उनका एक काल और भाव संदर्भ भी होता है, मैं शब्द निर्माण की प्रक्रिया को किसी तयशुदा खांचे या शुद्धतावाद के चश्मे से देखने का आग्रही भी नहीं हूँ.
जहां तक \’भूमंडलोत्तर\’शब्द का प्रश्न है, इसको लेकर की जाने वाली आपत्तियों के दो मुख्य कारण हैं- एक भूमंडल शब्द में भूमंडलीकरण के उत्तरार्ध \’करण\’ के भाव-लोप का, तथा दूसरा- अँग्रेजी के \’पोस्ट\’ का हिंदी अनुवाद \’उत्तर\’ के प्रचलित अर्थ \’के बाद\’ के हवाले से भूमंडलीकरण के दौर के समाप्त न होने के भाव-बोध का. \’आधुनिकोत्तर\’, \’उत्तर आधुनिक\’, \’छायावादोत्तर\’ या \’उत्तर छायावाद\’ जैसे शब्दों/पदों के उदाहरण इन्हीं संदर्भों में दिये जाते हैं. नए शब्द, पद या शब्द- युग्म के निर्माण की प्रक्रिया पर बात करते हुये इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि शब्दों की संधि के क्रम में किसी पद का विलोप कोई नई बात नहीं है. इस तरह के पद-विलोपों को स्वीकार कर न जाने कितने शब्दों को उनके प्रयोज्य अर्थ के साथ स्वीकृति मिलती रही है. यहाँ ‘स्वातंत्रयोत्तर’ शब्द का संदर्भ लिया जाना चाहिए जिसका प्रयोग ‘स्वतन्त्रता के बाद’ नहीं ‘स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद’ के समय का अर्थ संप्रेषित करने के लिए किया जाता है. कहने की जरूरत नहीं कि `स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद\’ के अर्थ में स्वातंत्रयोत्तर शब्द की स्वीकार्यता भाषा या व्याकरण के बने-बनाए या कि रटे–रटाए नियमों से नही बल्कि आम बोलचाल में उसके प्रयोज्य अर्थ के स्वीकृति-बोध से मिली है. इसलिए यदि स्वातंत्रयोत्तर का अर्थ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का समय हो सकता है तो भूमंडलोत्तर का अर्थ भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद का कालखंड क्यों नहीं हो सकता? ‘भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद’ की कालावधि को अभिव्यक्त करने के लिए एक निश्चित शब्द खोजते हुये मेरे जेहन में ‘भूमंडलीकरणोत्तर’ भी आया था लेकिन उसके रुखड़ेपन के मुक़ाबले \’भूमंडलोत्तर\’ की संक्षिप्तता और लयात्मकता मुझे ज्यादा पसंद आई और \’स्वातंत्रयोत्तर\’ के उदाहरण ने मुझे इसका प्रयोग करने के लिए जरूरी आत्मविश्वास भी दिया.
किसी नए शब्द के उसके प्रयोज्य अर्थ के साथ स्वीकारने में होने वाली दिक्कतों का एक कारण यह भी है कि हम अपनी भाषा में नया शब्द गढ़ने की जरूरत पर ध्यान देने से ज्यादा अँग्रेजी शब्दों के सीधे-सीधे शाब्दिक अनुवाद खोजने में उलझ जाते हैं. \’पोस्ट ग्लोबलाइज़ेशन\’ का शाब्दिक अनुवाद \’भूमंडलीकरण के बाद\’ होगा, इससे किसको इंकार हो सकता है, लेकिन भूमंडलीकरण के बाद के समय के लिए एक शब्द, पद या शब्द-युग्म की खोज करते हुये उसके प्रयोज्य अर्थ बोध पर सामान्य सहमति की बात करना शाब्दिक अनुवाद की यांत्रिक प्रक्रिया से कहीं आगे की बात है, जिसे किसी लीक विशेष से बंध कर चलने वाली ठस अध्यापकीय वृत्ति या गुरुजी टाइप संटी का भय दिखाकर नहीं समझा जा सकता. किसी की भावना आहत हो इससे पहले यहाँ यह स्पष्ट कर देना मैं जरूरी समझता हूँ कि ऐसा कहते हुये अध्यापन पेशा या इससे जुड़े लोगों के प्रति मेरे मन में किसी तरह की अवमानना का कोई भाव नहीं है. मतलब यह कि नए शब्दों की गढ़ंत पर बात करते हुये हमें अपनी संवेदना-चक्षुओं पर लगे आचार-संहिताओं के जंग लगे तालों के भार से मुक्त होकर खुले मन से विचार करना होगा.
बचपन में हिन्दी व्याकरण की कक्षा में \’योगरूढ़ि\’ पढ़ाते हुये शब्दों का अपना मूल अर्थ छोडकर विशेष अर्थ धारण कर लेने की बात भी बताई गई थी. आज \’भूमंडलीकरण\’, \’बाजारीकरण\’, \’उदारीकरण\’ जैसे शब्दों को उनके मूल अर्थ संदर्भों तक सीमित कर के देखा जाना कितना हास्यास्पद या अर्थहीन हो सकता है, अलग से बताने की जरूरत नहीं है. एक अर्थ में `वसुधेव कुटुंबकम, और कार्ल मार्क्स की उक्ति \’दुनिया के मजदूरों एक हो\’ के पीछे भी एक तरह के भूमंडलीकरण की अवधारणा ही है. लेकिन आज \’भूमंडलीकरण\’ शब्द से सिर्फ और सिर्फ नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत एक ऐसे आर्थिक परिवेश के निर्माण की प्रक्रिया का बोध होता है जहां पूंजी बेरोक टोक आ-जा सके. और तो और, \’भूमंडलीकरण\’, \’वैश्वीकरण\’, \’बाजारीकरण\’ आदि के समानार्थी प्रयोगों को भी किसी शुद्धतावाद के चश्मे से देखने या शब्द कोश में उसकी पूर्व उपस्थिति के मानकों से जाँचने-परखने की कोशिश करें तो हमारे हाथ कुछ नहीं लगेगा.
ठीक इसी तरह यदि \’साठोत्तरी\’ शब्द के शाब्दिक अर्थ पर जाएँ तो मेरा कोई सहकर्मी जिसका हिन्दी कहानी के इतिहास से कोई रिश्ता नहीं, मुझे और खुद को उसी पीढ़ी में शामिल मान लेगा. लेकिन \’साठोत्तरी\’ शब्द के भाव और इतिहास-संदर्भों को देखते हुये यह कितना हास्यास्पद हो सकता है, सब समझते हैं. इसी क्रम में रमेश उपाध्याय जी द्वारा बहुप्रयुक्त पद \’भूमंडलीय यथार्थ\’ या फिर पंकज राग की कविता \’यह भूमण्डल की रात है\’ के ठीक-ठीक भाव को पकड़ने के लिए हम शब्द कोश में दिये गए भूमंडल शब्द के अर्थ का मुखापेक्षी भी नहीं हो सकते. मतलब यह कि शब्द जीवन में स्वीकृत होने के बाद ही शब्दकोशों में स्थान पाते हैं. इसलिए किसी नए शब्द के प्रयोग पर चौंकने या उसका उपहास करते हुये उसे शब्दकोशों में खोजने की बजाय उसके अर्थ-बोध की स्वीकृति की संभावनाओं पर एक रचनात्मक बहस की जरूरत है.
\’भूमंडलोत्तर\’ शब्द के प्रयोग पर अपना पक्ष रखते हुये मैं व्यापक हिन्दी समाज से इस शब्द को इसके प्रयोज्य अर्थ संदर्भों (जिसमें निश्चय ही काल और भाव का संदर्भ भी जुड़ा हुआ है) के साथ स्वीकार करने की संभावनाओं पर विचार करने की अपील भी करता हूँ.
ठीक इसी तरह यदि \’साठोत्तरी\’ शब्द के शाब्दिक अर्थ पर जाएँ तो मेरा कोई सहकर्मी जिसका हिन्दी कहानी के इतिहास से कोई रिश्ता नहीं, मुझे और खुद को उसी पीढ़ी में शामिल मान लेगा. लेकिन \’साठोत्तरी\’ शब्द के भाव और इतिहास-संदर्भों को देखते हुये यह कितना हास्यास्पद हो सकता है, सब समझते हैं. इसी क्रम में रमेश उपाध्याय जी द्वारा बहुप्रयुक्त पद \’भूमंडलीय यथार्थ\’ या फिर पंकज राग की कविता \’यह भूमण्डल की रात है\’ के ठीक-ठीक भाव को पकड़ने के लिए हम शब्द कोश में दिये गए भूमंडल शब्द के अर्थ का मुखापेक्षी भी नहीं हो सकते. मतलब यह कि शब्द जीवन में स्वीकृत होने के बाद ही शब्दकोशों में स्थान पाते हैं. इसलिए किसी नए शब्द के प्रयोग पर चौंकने या उसका उपहास करते हुये उसे शब्दकोशों में खोजने की बजाय उसके अर्थ-बोध की स्वीकृति की संभावनाओं पर एक रचनात्मक बहस की जरूरत है.
\’भूमंडलोत्तर\’ शब्द के प्रयोग पर अपना पक्ष रखते हुये मैं व्यापक हिन्दी समाज से इस शब्द को इसके प्रयोज्य अर्थ संदर्भों (जिसमें निश्चय ही काल और भाव का संदर्भ भी जुड़ा हुआ है) के साथ स्वीकार करने की संभावनाओं पर विचार करने की अपील भी करता हूँ.
दूसरा प्रश्न इस कथा-पीढ़ी के काल निर्धारण का भी है. पुरानी पीढ़ी का शिथिल होना, नई पीढ़ी का आना और इस दौरान पीढ़ियों के बीच एक व्यावहारिक अंतराल की उपस्थिति एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के नवलेखन और युवा अंकों के माध्यम से नई प्रतिभाओं को पहचानने की हिन्दी में एक लंबी परंपरा रही है. भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी के कालक्रम पर विचार करते हुये मुझे पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में आये विभिन्न पत्रिकाओं के नवलेखन और युवा विशेषांकों पर एक नज़र डालना जरूरी लगता है. इस शृंखला में जो सबसे पहला विशेषांक मेरी स्मृति में है, वह है – ‘आजकल’ (मई-जून 1995) का विशेषांक – ‘संभावनाओं और सामर्थ्य का जायजा’. इस अंक में जो कथाकार शामिल थे उनमें प्रमुख हैं – अलका सरावगी, आनंद संगीत, जयनंदन, मीरा कांत, प्रेमपाल शर्मा, संजय सहाय, प्रियदर्शन आदि. उल्लेखनीय है कि प्रियदर्शन को छोड़कर इस अंक में शामिल सभी कथाकार पूर्ववर्ती कथा-पीढ़ी के हैं. इस तरह हम आजकल के इस विशेषांक को इस पीढ़ी से ठीक पहले के कथाकारों पर केन्द्रित आखिरी युवा विशेषंकों की श्रेणी में रख सकते हैं. हां, प्रियदर्शन उन कथाकारों में से जरूर हैं जिनका विकास 1997 के बाद हुआ. लिहाजा उन्हें पिछली पीढ़ी से जोड़ने वाली कड़ी या भूमंडलोत्तर कथा-पीढ़ी के शुरुआती कथाकार के रूप में देखा जाना चाहिये.
आजकल के उक्त विशेषांक के बाद 1997 में प्रकाशित इंडिया टुडेकी साहित्य वार्षिकी – ‘शब्द रहेंगे साक्षी’ में पहली बार दिखे थे – पंकज मित्र, ‘पड़ताल’ शीर्षक कहानी के साथ, जिसे युवा कथाकार प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था. उल्लेखनीय है कि यही कहानी इसके दो-एक महीने बाद ‘हंस’ में भी प्रकाशित हुई थी. तत्पश्चात फरवरी 2001 में प्रकाशित हंस की विशेष प्रस्तुति – ‘नई सदी का पहला बसंत’ में प्रकाशित कथाकार हैं – नीलाक्षी सिंह, जयंती और निलय उपाध्याय. इसके तुरंत बाद जून 2001 में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक – ‘ताजा पीढ़ी : बहुलता का वृतांत’ में शामिल महत्वपूर्ण कथाकारों में हैं – रवि बुले, शशिभूषण द्विवेदी, अल्पना मिश्र, सुभाषचन्द्र कुशवाहा, महुआ माजी, कमल आदि. उल्लेखनीय है कि उसके बाद 2002 में प्रकाशित इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी – ‘संभावनाओं के साक्ष्य’ भी तब तक प्रकाश में आ चुके इन्हीं नये कथाकारों – नीलाक्षी सिंह, रवि बुले, प्रियदर्शन, सुभाषचंद्र कुशवाहा और अल्पना मिश्र को ही संभावनाशील काथाकारों के रूप में रेखांकित करती है. इसके बाद जुलाई 2003 में प्रकाशित ‘उत्तर प्रदेश’ के संभावना विशेषांक में जो नये कथाकार दिखे थे, उनमें प्रमुख हैं – अभिषेक कश्यप, चरण सिंह पथिक, कविता, अंजली काजल, तरुण भटनागर आदि. इस बीच 2004 के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रीय सहारा द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर प्रभात रंजनअपनी कहानी ‘जानकी पुल’ के साथ कथा परिदृश्य पर उपस्थित हो जाते हैं. जुलाई 2004 में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक में जो महत्वपूर्ण कथाकार सामने आये, उनमें अजय नावरिया और अरविन्द शेष का नाम प्रमुख हैं. उल्लेखनीय है कि अलग-अलग पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों में प्रकाशित इन कथाकारों में से कई कथाकारों की दो-एक कहानियां दूसरी पत्रिकाओं के सामान्य अंकों में छपकर पहले भी चर्चित हो चुकी थीं. अलग-अलग पत्रिकाओं के सामान्य अंक से अपनी पहचान बनानेवाले अन्य कथाकारों में वंदना राग, पंखुरी सिन्हा आदि को शुमार किया जा सकता है. नवलेखन अंकों की सुदीर्घ परंपरा से चुन-छनकर आये इन्हीं कथाकारों से परत-दर-परत बनती है भूमंडलोत्तर समय की यह कथा पीढ़ी. अक्टूबर 2004 में प्रकाशित ‘वागर्थ’ के नवलेखन अंक के माध्यम से आये कथाकारों की नई खेप इसी पीढ़ी की अगली परत थी जिसके महत्वपूर्ण नामों में मनोज कुमार पांडेय, मो. आरिफ, कुणाल सिंह, पंकज सुबीर, राकेश मिश्रा, विमल चंद्र पांडेय, चंदन पांडेय, विमलेश त्रिपाठी, दीपक श्रीवास्तव, आदि शामिल थे.
उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश की यह पहली कहानी नहीं थी, यानी उनकी अन्य कहानियाँ पहले किसी न किसी पत्रिका (वागर्थ के ही किसी पूर्व अंक सहित) में प्रकाशित हो चुकी थी. नये कथाकारों को पहचानने और प्रकाश में लाने का यह समवेत और सहयोगी सिलसिला लगातार जारी है. इस क्रम में ‘परिकथा’ के नवलेखन अंकों और युवा कहानी विशेषांकों के अतिरिक्त ‘प्रगतिशील वसुधा’ का युवा कहानी अंक तथा ‘हंस’ और ‘कथाक्रम’ जैसी पत्रिकाओं के ‘मुबारक पहला कदम’ और ‘कथा दस्तक’ जैसे स्तंभों की भूमिका भी उल्लेखनीय है. पत्रिकाओं के सामान्य अंक तो चुपचाप इस खोज यात्रा को हमेशा ही आगे बढाते रहे हैं. मिथिलेश प्रियदर्शी, गीत चतुर्वेदी, कैलाश वानखेड़े, जयश्री रॉय, सोनाली सिंह, गीताश्री, उमाशंकर चौधरी, गौरव सोलंकी, राजीव कुमार, आशुतोष कुमार, राकेश दूबे, ज्योति कुमारी, सुशांत सुप्रिय, आकांक्षा पारे, इंदिरा दांगी आदि कथाकार इसी सतत शोध यात्रा की उपलब्धियां हैं. चूंकि इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य इस पीढ़ी के महत्वपूर्ण लेखकों की कोई मुकम्मल सूची तैयार करना नहीं बल्कि भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी की निर्माण प्रक्रिया पर एक निगाह डालना है, इसलिए इसमें बहुत से कथाकारों का नाम छूट जाना भी स्वाभाविक है. हाँ निर्मिति की इस प्रक्रिया में कई नाम शुरुआती चमक के बाद आज कहाँ गुम हो गए यह भी पता नहीं चलता. चमकने और ओझल हो जाने की यह प्रक्रिया भी कोई नई नहीं है. हर पीढ़ी का कथा-इतिहास इस तरह की घटनाओं से ही विनिर्मित होता रहा है. कहने का मतलब यह कि पीढियां किसी खास पत्रिका के अंक विशेष से किसी खास तारीख को पैदा नहीं होती बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जिसे अपने समय की सभी पत्रिकायें एक समवेत प्रयास के तहत पहचानती और प्रकाश में लाती हैं.
आजकल के उक्त विशेषांक के बाद 1997 में प्रकाशित इंडिया टुडेकी साहित्य वार्षिकी – ‘शब्द रहेंगे साक्षी’ में पहली बार दिखे थे – पंकज मित्र, ‘पड़ताल’ शीर्षक कहानी के साथ, जिसे युवा कथाकार प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था. उल्लेखनीय है कि यही कहानी इसके दो-एक महीने बाद ‘हंस’ में भी प्रकाशित हुई थी. तत्पश्चात फरवरी 2001 में प्रकाशित हंस की विशेष प्रस्तुति – ‘नई सदी का पहला बसंत’ में प्रकाशित कथाकार हैं – नीलाक्षी सिंह, जयंती और निलय उपाध्याय. इसके तुरंत बाद जून 2001 में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक – ‘ताजा पीढ़ी : बहुलता का वृतांत’ में शामिल महत्वपूर्ण कथाकारों में हैं – रवि बुले, शशिभूषण द्विवेदी, अल्पना मिश्र, सुभाषचन्द्र कुशवाहा, महुआ माजी, कमल आदि. उल्लेखनीय है कि उसके बाद 2002 में प्रकाशित इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी – ‘संभावनाओं के साक्ष्य’ भी तब तक प्रकाश में आ चुके इन्हीं नये कथाकारों – नीलाक्षी सिंह, रवि बुले, प्रियदर्शन, सुभाषचंद्र कुशवाहा और अल्पना मिश्र को ही संभावनाशील काथाकारों के रूप में रेखांकित करती है. इसके बाद जुलाई 2003 में प्रकाशित ‘उत्तर प्रदेश’ के संभावना विशेषांक में जो नये कथाकार दिखे थे, उनमें प्रमुख हैं – अभिषेक कश्यप, चरण सिंह पथिक, कविता, अंजली काजल, तरुण भटनागर आदि. इस बीच 2004 के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रीय सहारा द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर प्रभात रंजनअपनी कहानी ‘जानकी पुल’ के साथ कथा परिदृश्य पर उपस्थित हो जाते हैं. जुलाई 2004 में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक में जो महत्वपूर्ण कथाकार सामने आये, उनमें अजय नावरिया और अरविन्द शेष का नाम प्रमुख हैं. उल्लेखनीय है कि अलग-अलग पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों में प्रकाशित इन कथाकारों में से कई कथाकारों की दो-एक कहानियां दूसरी पत्रिकाओं के सामान्य अंकों में छपकर पहले भी चर्चित हो चुकी थीं. अलग-अलग पत्रिकाओं के सामान्य अंक से अपनी पहचान बनानेवाले अन्य कथाकारों में वंदना राग, पंखुरी सिन्हा आदि को शुमार किया जा सकता है. नवलेखन अंकों की सुदीर्घ परंपरा से चुन-छनकर आये इन्हीं कथाकारों से परत-दर-परत बनती है भूमंडलोत्तर समय की यह कथा पीढ़ी. अक्टूबर 2004 में प्रकाशित ‘वागर्थ’ के नवलेखन अंक के माध्यम से आये कथाकारों की नई खेप इसी पीढ़ी की अगली परत थी जिसके महत्वपूर्ण नामों में मनोज कुमार पांडेय, मो. आरिफ, कुणाल सिंह, पंकज सुबीर, राकेश मिश्रा, विमल चंद्र पांडेय, चंदन पांडेय, विमलेश त्रिपाठी, दीपक श्रीवास्तव, आदि शामिल थे.
उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश की यह पहली कहानी नहीं थी, यानी उनकी अन्य कहानियाँ पहले किसी न किसी पत्रिका (वागर्थ के ही किसी पूर्व अंक सहित) में प्रकाशित हो चुकी थी. नये कथाकारों को पहचानने और प्रकाश में लाने का यह समवेत और सहयोगी सिलसिला लगातार जारी है. इस क्रम में ‘परिकथा’ के नवलेखन अंकों और युवा कहानी विशेषांकों के अतिरिक्त ‘प्रगतिशील वसुधा’ का युवा कहानी अंक तथा ‘हंस’ और ‘कथाक्रम’ जैसी पत्रिकाओं के ‘मुबारक पहला कदम’ और ‘कथा दस्तक’ जैसे स्तंभों की भूमिका भी उल्लेखनीय है. पत्रिकाओं के सामान्य अंक तो चुपचाप इस खोज यात्रा को हमेशा ही आगे बढाते रहे हैं. मिथिलेश प्रियदर्शी, गीत चतुर्वेदी, कैलाश वानखेड़े, जयश्री रॉय, सोनाली सिंह, गीताश्री, उमाशंकर चौधरी, गौरव सोलंकी, राजीव कुमार, आशुतोष कुमार, राकेश दूबे, ज्योति कुमारी, सुशांत सुप्रिय, आकांक्षा पारे, इंदिरा दांगी आदि कथाकार इसी सतत शोध यात्रा की उपलब्धियां हैं. चूंकि इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य इस पीढ़ी के महत्वपूर्ण लेखकों की कोई मुकम्मल सूची तैयार करना नहीं बल्कि भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी की निर्माण प्रक्रिया पर एक निगाह डालना है, इसलिए इसमें बहुत से कथाकारों का नाम छूट जाना भी स्वाभाविक है. हाँ निर्मिति की इस प्रक्रिया में कई नाम शुरुआती चमक के बाद आज कहाँ गुम हो गए यह भी पता नहीं चलता. चमकने और ओझल हो जाने की यह प्रक्रिया भी कोई नई नहीं है. हर पीढ़ी का कथा-इतिहास इस तरह की घटनाओं से ही विनिर्मित होता रहा है. कहने का मतलब यह कि पीढियां किसी खास पत्रिका के अंक विशेष से किसी खास तारीख को पैदा नहीं होती बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जिसे अपने समय की सभी पत्रिकायें एक समवेत प्रयास के तहत पहचानती और प्रकाश में लाती हैं.
अपनी भयावहता और खूबसूरती दोनों ही अर्थों में अभूतपूर्व होने के कारण पिछले दो दशकों के बीच फैले समय का भूगोल खासा जटिल है. बाज़ारवादी शक्तियों का नवोत्कर्ष और हमेशा से हाशिये पर जीने को मजबूर समाज और समूहों का अस्मिता बोध दोनों ही इस समय की विशेषताएँ हैं. मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि तेज़ रफ्तार चलते समय के विविधवर्णी और बहुपरतीय यथार्थ और उसकी विडंबनाओं को दर्ज करती आज की कहानियों से कहानी विधा लगातार समृद्ध हो रही है. लेकिन कहानी में बदलते समय की इस धमक को कुछेक शुरुआती प्रयासों के बाद आलोचना ठीक-ठीक पकड़ने मे सफल रही है यह उसी आश्वस्ति के साथ नहीं कहा जा सकता.
उदारीकरण के पहले तक का समय जहां एक खास तरह के मूल्यों और मानदंडों की स्थापना का समय था वहीं उसके बाद का कालखंड उन मूल्यों और मान्यताओं के अतिक्रमण और विखंडन का काल है. स्थापना के विरुद्ध अतिक्रमण के इस दौर को सबकुछ लुट जाने या तहस-नहस हो जाने के सतही और एकरैखिक टिप्पणियों से नहीं समझा जा सकता. नए दौर के इस विखंडन और अतिक्रमण में बहुत तरह की पुनर्संरचना के बीज भी छिपे हैं. अतिक्रमण और पुनर्गठन के इन्हीं द्वन्द्वों से टकराकर आलोचना के नए टूल्स विकसित होंगे. अन्यथा अबतक के स्थापित मूल्यों-मानदंडों के आधार पर इतिहास की किसी कहानी को ही सर्वश्रेष्ठता का आखिरी पैमाना मानकर की जानेवाली कथालोचना नई सदी की कहानियों से प्रतिबद्धता, विचारधारा और वैचारिकता के खत्म होने और कहानियों के लड़खड़ा जाने के स्वीपिंग रिमार्क्स तक ही सिमट कर रह जाएगी और हम आलोचना के संकट को रचना का संकट मानते हुये एक छद्म शोकाकुल चिंता का शिकार होते रहेंगे.
उदारीकरण के पहले तक का समय जहां एक खास तरह के मूल्यों और मानदंडों की स्थापना का समय था वहीं उसके बाद का कालखंड उन मूल्यों और मान्यताओं के अतिक्रमण और विखंडन का काल है. स्थापना के विरुद्ध अतिक्रमण के इस दौर को सबकुछ लुट जाने या तहस-नहस हो जाने के सतही और एकरैखिक टिप्पणियों से नहीं समझा जा सकता. नए दौर के इस विखंडन और अतिक्रमण में बहुत तरह की पुनर्संरचना के बीज भी छिपे हैं. अतिक्रमण और पुनर्गठन के इन्हीं द्वन्द्वों से टकराकर आलोचना के नए टूल्स विकसित होंगे. अन्यथा अबतक के स्थापित मूल्यों-मानदंडों के आधार पर इतिहास की किसी कहानी को ही सर्वश्रेष्ठता का आखिरी पैमाना मानकर की जानेवाली कथालोचना नई सदी की कहानियों से प्रतिबद्धता, विचारधारा और वैचारिकता के खत्म होने और कहानियों के लड़खड़ा जाने के स्वीपिंग रिमार्क्स तक ही सिमट कर रह जाएगी और हम आलोचना के संकट को रचना का संकट मानते हुये एक छद्म शोकाकुल चिंता का शिकार होते रहेंगे.
कहानियाँ रूप, कथ्य और लेखकीय दृष्टि का एक ऐसा कलात्मक और संतुलित समुच्चय होती हैं जो मूल्य, परंपरा, नैतिकता, आदर्श, अभाव, विकल्प और सपनों की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुये अपने समय का भाष्य रचती हैं. कथालोचना का काम कहानियों में छिपे उसी काल-भाष्य को पहचानना और उसका मूल्यांकन करना है.
‘समालोचन’ पर शुरू हो रही इस श्रृंखला में मैं अपनी पसंद की कुछ महत्वपूर्ण भूमंडलोत्तर कहानियों के पाठ के बहाने इस कथा-समय के मूल्यांकन की एक विनम्र कोशिश करना चाहता हूँ. हाँ, यह कहना भी मुझे जरूरी लगता है कि किसी कथाकार की एक कहानी से उसके पूरे कथा-व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं हो सकता न ही यह इस आयोजन का उद्देश्य है. इसे इन लेखकों के सर्वश्रेष्ठ की तरह भी नहीं पढ़ा जाना चाहिए. कारण कि इस आयोजन का उद्देश्य कथाकारों का मूल्यांकन नहीं बल्कि इन कहानियों के बहाने अपने समय की समीक्षा करना है.
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१.लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले)
२.शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट =डिलीट(आकांक्षा पारे)
३.नाकोहस(पुरुषोत्तम अग्रवाल)
४. अँगुरी में डसले बिया नगिनिया (अनुज)
५. पानी (मनोज कुमार पांडेय)
६. कायांतर (जयश्री रॉय)
७. उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय)
८. नीला घर (अपर्णा मनोज)
६. कायांतर (जयश्री रॉय)
७. उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय)
८. नीला घर (अपर्णा मनोज)
(11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउन्टेंसी), एम. बी. ए. (फाइनान्स)
प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह)
केन्द्र में कहानी (आलोचना)
भूमंडलोत्तर समय में उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य आलोचना पुस्तक)
(सम्पादन) स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियाँ)
अंतस के अनेकांत (स्त्री कथाकारों की कहानियाँ; शीघ्र प्रकाश्य)
पहली कहानी : पीढ़ियाँ साथ-साथ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक)
समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)
संप्रति: एनटीपीसी लि. में कार्यरत
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