अ प ना रास्ता
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1.
हम शुरू करें.
अंधेरे में छिपी जड़ें या चीज़ें स्वाभाविक रूप से प्रकाश में चली आती हैं जब चित्र बनता है: चित्र बनने के दौरान या चित्र पूरा होने पर. चित्र-प्रक्रिया को जानने में ऐसा कोई नया अनुभव नहीं है: चित्र अनवरत है, एक प्रकार से. एक चित्र जहां पूरा होता है, दूसरा वहीं से शुरू हो जाता है. चित्र का पूरा होना ऐसे ख़त्म हो जाना नहीं है कि उसको हमेशा के लिए हटा दीजिए कि अब दूसरा शुरू करें! मानों दोनों में कोई तालमेल या सम्बन्ध न हो. ऐसा नहीं होता. सभी चित्रों में एक तार बंधा रहता है जो कि समान-सा रहता है.
2.
आज के कैनवास को लें.
एक अकेला कैनवास अकेले खड़ा नहीं रहता. कैनवास के पीछे भी उसका अपना इतिहास है, अपना अतीत है. कैनवास के अतीत में जाने की कोशिश करना पीछे लौटना है: उसके बारे में और पता चलने लगता है, उसके सम्बन्धों के बारे में. तब ऐसी कुछ चीज़ों का पता लगा सकते हैं जो शायद उस समय (पहले) प्रगट नहीं हुई और अब प्रकट होती हैं. क्योंकि कलाकार की यात्रा के दौरान–पिछले बरसों में–उसके दिल-दिमाग-जीवन में अनेकानेक चीजें आईं होंगी. कलाकार के अनुभव नये हुए होंगे. वह अपने नये अनुभवों के आधार पर अपने पुराने अतीत को भी देखता है. ऐसे कुछ बातें जो पहले के समय में नहीं मालूम थीं वे अब पता चलने लगती हैं. कैनवास पर प्रकट होती हैं.
3.
कैनवास एक माध्यम है.
कैनवास पर कलाकार अपने को प्रकट करता है. अपने अन्तिम दिनों में गायतोण्डे ने एक बार मुझसे कहा कि मैं चित्र बनाता रहता हूं–किन्तु कैनवास पर नहीं, दिमाग में–हवा में बनाता रहता हूं. कैनवास पर आने से ही चित्र (पूरा) नहीं हो जाता. कलाकार बहुत सी चीजें दिमाग के अन्दर रखते हैं और वे वहीं पूरी भी हो जाती हैं. दूसरे को पता नहीं चलता. कलाकार को मालूम है कि उसने आज (अदृश्य) चित्र बनाया, लेकिन क्या यह ज़रूरी है कि उसे काग़़ज़ या कैनवास पर उतारा ही जाय? यह अपने में एक प्रश्न हो सकता है.
4.
कैनवास की अपनी भूमिका रहस्यमयी नहीं है. ऐसा कुछ नहीं है कि उस पर अलग से सोचा जाय. कलाकार स्वभावतः एक ख़ाली, सफ़ेद कैनवास पर अपना काम शुरू करता है. हो सकता है कैनवास की सफ़ेदी पर रेखांकन से आरम्भ करे. वहीं से कैनवास के साथ कलाकार का पहला सम्बन्ध धीरे धीरे जुड़ने लगता है. बहुत सी चीज़ें धीरे धीरे कैनवास के अन्दर काम करते करते ही पता चलती हैं. यह बाहर से ऐसे पता नहीं चलतीं. कैनवास तब ख़त्म हो जाता है जब कलाकार का उसके साथ बन रहा सम्बन्ध पूरा हो जाता है.
कैनवास कलाकार की अपनी भावनाओं को प्रकट करने का एक माध्यम है. कलाकार क्या (चीज़) प्रकट करना चाहता है? किस प्रकार के रंगों का इस्तेमाल करना चाहता है? यह कहना भी बड़ा मुश्किल है. यह बदलता रहता है. जब वह सुबह में कैनवास पर आता है तब दिमाग़ में कुछ और चीज़ें होती हैं जो दिन बीतने के साथ साथ, काम करने के साथ साथ लगातार बदलती रहती हैं. कलाकार बदलाव को भी ध्यान में रखता है. काम करने की प्रक्रिया सतत जारी रहती है: चाहे कैनवास पर हो, चाहे कलाकार के दिमाग़ में. यह ज़रूरी नहीं है कि जब वह सीधा चित्रांकन करने लगे तभी रचना-प्रक्रिया सक्रिय हो. कलाकार बहुत सी चीज़ों के साथ मिल कर जोड़ने की कोशिश करता है; जुड़ कर सम्बन्ध बनते हैं. एक अलग से कुछ नहीं होता. कलाकार के अपने मानवीय सम्बन्ध हैं. अपने अन्दर के अनुभव हैं–जि़ंदगी के, समाज के साथ, समय के साथ. वे सब अपने आप में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं, कलात्मकता को उजागर करने के लिए.
5.
ऐसा होना स्वाभाविक है कि कलाकार के मन में एक चित्र आकार ले रहा हो और एक को वह कैनवास पर प्रकट करे. गायतोण्डे का वाक्य मैंने पहले कहा है. (ऊपर उद्धृत किया है.) उन्होंने एक चरम अवस्था बताई है. अपने अन्तिम दिनों में उन्होंने चित्र बनाना बंद कर दिया था. पहले जब उनके दिमाग़ में चित्र आता था तब वे कैनवास पर भी जाते थे और अपने आप को प्रकट करते थे. यह तो ज़रूरी है. इस सब का सम्बन्ध चित्रकार के चिन्तन के साथ भी है. उसके मन में समस्याएं उठती रहती हैं–चित्र के सम्बन्ध में या painting construction के बारे में या कुछ अन्य चीज़ों को लेकर. अपने अन्दर की प्रक्रिया के साथ कलाकार के सम्बन्ध जुड़ते रहते हैं–कि वह कौन सी अनुभूति है जिसे वह अपने रंगों में इस समय प्रकट कर रहा है?
6.
कलारम्भ के अनुभव याद आते हैं.
अपने कलाकार जीवन के शुरुआती दिनों में मैं बहुत अलग तरह का था, एकदम, काम के प्रति एक नशा-सा रहता था. सोचना कम होता और काम अधिक होता. कर्म अधिक रहता, विचार कम. रात-दिन काम करता रहता, बहुत ज़्यादा. जब जैसे जो कुछ भी सूझता उस सब पर. तब मेरे लिए ऐसा कम होता था कि मैं ठहर कर देखूं, बैठ कर सोचूं कि मैं क्या कर रहा हूं? उन दिनों जो दिमाग़ में आता उसे तुरन्त ही कर लेता. धीरे धीरे मैं यह देखने के लिए काफ़ी समय देने लगा कि मैंने क्या किया है. जो किया है उसका क्या तुक है, (उसमें) क्या कमज़ोरी है या मैं किस दिशा से चला जा रहा हूं. ये सब बातें वक़्त के साथ साथ घटती व खुलती हैं.
पचास साल पहले जो बात थी वह अब नहीं है. अब बहुत सी नयी चीज़ों के बारे में सोचता हूं. अपनी अस्मिता है, अपने भारतीय होने का जो एक एहसास है वह मैं किस तरह से अलग कर सकता हूं या करना चाहूंगा या मैं उसको सचेतन रूप में समझने की कोशिश करता हूं: ये बातें उस वक़्त दिमाग़ में नहीं आतीं थीं, लेकिन इस समय आती हैं. सबकुछ का कलाकार के साथ सम्बन्ध रहता है और उसके चित्रों पर भी इस सबसे फ़र्क पड़ता है. उसके काम में फ़र्क पड़ेगा ही और पड़ता रहता है.
7.
मुझे नहीं लगता कि कैनवास के आकार/size का कोई महत्व है. अगर कोई बड़ी चीज़ मेरे दिमाग़ में है और मैं उसे प्रकट करना चाहता हूं तब मैं बड़ा कैनवास लेता हूं. जब एक छोटा experiment ही करना चाहता हूं तब छोटा कैनवास लेता हूं. कभी-कभी मैं छोटी चीज़ों को बना कर बड़ी चीज़ों के प्रति उसका रास्ता बनाता हूं और तभी अपने आप में छोटी चीज़ का भी महत्व होता है. आकार का महत्व इतना नहीं है कि उसे अलग से समझा जाय. सेज़ां ने बहुत बड़े कैनवास नहीं बनाए. वे चाहते थे कि छोटे कैनवास में ही वे पूरी तरह से काम कर सकें. बड़े कैनवास पर स्वभावतः उतना समय, उतना दिमाग़ नहीं लग पाता जितना कि छोटे कैनवास में लगता है. हालांकि इस बात की हरेक कलाकार अलग तरह से व्याख्या करेगा. सब का अपना अलग ढंग होता है. मेरे लिए size के महत्व का, उसे चुनने का अधिक अर्थ नहीं है.
मैं छोटा या बड़ा कैनवास लेता हूं. क्यों लेता हूं? यह ऐसा नहीं है कि जो मैं प्रकट करना चाहता हूं वह किसी एक खास आकार में ही होगा. तब तो दिमाग़ में इतनी ज़्यादा mathematical calculation रखनी होगी कि…
मैं कैनवास अपने सामने रखता हूं. वह बड़ा हो या छोटा, जो भी हो. उसे देख कर मन में भावनाएं उठती हैं. या जब अपने सामने एक कैनवास रखता हूं तब भी वे भावनाएं मन में होती हैं. इन्हीं से संचरित मैं कैनवास का size चुन लेता हूं. स्वभावतः जो मन में है, जिसे मैं व्यक्त करना चाहता हूं, उसकी अभिव्यक्ति के लिए उतना आकार/ size ज़रूरी था. मेरे ख़याल में छोटे आकार में मैं इसलिए काम करता हूं–जहां तक मेरा अपना अनुभव है–कि मुझे किसी चीज़ के लिए कुछ कर के देखना है कि इसका क्या नतीजा निकलेगा तो मैं कहां देखूंगा ? जब तक रंग नहीं लगाऊंगा तब तक पता नहीं चलता कि क्या है. यह मैं छोटे कैनवास पर लगा कर देख सकता हूं और फिर इसका इस्तेमाल बड़े तरीक़े से कर सकता हूं.
याद आता है कि रोथको अपने आप को उसी आकार में प्रकट कर सकते थे जिस आकार में उन्होंने काम किया. छोटे आकार में वह कभी नहीं आ सकता था जो वे प्रकट करना चाहते थे. उनके मन में जो भावनाएं थीं या जिन चीज़ों को वे प्रकट करना चाहते थे उसके लिए उन्होंने वे आकार चुने. वे आकार ही उनकी प्रकृति के अनुकूल थे– क्षैतिज नहीं, लम्बवत् तरह के. हरेक कलाकार का अपना चुनाव हो सकता है.
8.
Scale को लेकर मैं बड़ी महत्वाकांक्षी योजना नहीं बनाता हूं. मुझे छोटा स्केल ही ठीक लगता है. दो कैनवासों को मिला कर भी बड़ा स्केल बन सकता है. मैं बड़े स्केल को conceive करूं इसमें मुझे ज़्यादा सहज महसूस नहीं होता. बड़े स्केल की ज़रूरत महसूस नहीं होती. मेरे लिए बेहतर वह लेना रहता है जिसमें मैं अपने आप को control कर सकूं, अपने आप.
ऐसे बहुत से कलाकार हैं जो अपने को बड़े कैनवास पर ही व्यक्त कर सकते हैं; छोटा कैनवास उनके मुआफि़क नहीं बैठेगा. मेरे साथ ऐसा नहीं है. मैंने कभी बड़े कैनवास बनाए ही नहीं हैं: बहुत बड़ा कैनवास. जैसे (एम. एफ़) हुसेन को बहुत बड़ा कैनवास बनाने की आदत है. एक बार हम लोग म्यूरल बना रहे थे, दोनों ही साथ में. प्रगति मैदान में. अवकाश/ space काफ़ी बड़ा था. वे कहने लगे कि अभी समय है, क्या जल्दी है इसको बनाने की. मैंने कहा कि तुम रेखांकन वगै़रह तो बना लो, थोड़ा-सा करो. उन्होंने कहा–\”नहीं, हो जाएगा.’’जब मैं सुबह में पहुंचा, मैंने देखा कि उन्होंने रात में आ कर पूरा रेखांकन वगै़रह बना दिया था. कहने लगे कि अब रंग लगा देते हैं, रेखांकन तो बन गया. उनको आदत है. उन्होंने सिनेमा-हार्डिंग बनाए थे. उनका हाथ बहुत ज़्यादा…उनको मालूम था कि यह हाथ कहां तक जाएगा, कितने बड़े कैनवास पर…हम लोगों को आदत नहीं थी. ….कभी बनाए ही नहीं, कभी इतने लम्बे व बड़े कैनवास!
बहुत सारी बातें होतीं हैं जिन्हें कलाकार को चुनना व करना होता है. रास्ते दस निकलते हैं, लेकिन उन दस में से कलाकार चुनता एक ही रास्ता है. बाक़ी नौ को वह छोड़ देता है: चाहे वह छोड़ना गलत हो, चाहे सही.
मुझे इतने बड़े स्केल पर काम करने की कभी ज़रूरत महसूस नहीं हुई.
9.
जब एक blank कैनवास शुरू करता हूं तब मन में कुछ भी नहीं होता. धीरे धीरे कुछ रेखाएं खींचने लगता हूं. कुछ रंग ले लेता हूं. थोड़ा हिस्सा शुरू होने से शुरुआत हो जाती है. अपने आप. मन में अभी कोई बात शुरू भी नहीं हुई है. धीरे धीरे एक सम्बन्ध जुड़ने लगता है, कैनवास के साथ. अन्त तक आते आते सम्बन्ध पूरा हो जाता है. मैं कैनवास ख़त्म कर देता हूं.
पहले से कुछ भी तैयार नहीं रहता. पता नहीं होता कि कैनवास किस तरह का रूप लेगा. बिलकुल blankness रहती है, कैनवास के सामने. मन में क्या विचार है, रात में क्या सोचा है कि कल क्या बनाऊंगा, किन नये तत्वों/ elements को लाना चाहूंगा इत्यादि सभी बातें स्वाभाविक रूप से मन में उठती हैं. कभी उनको ध्यान में रखता हूं, कभी वे अपने आप चली आती हैं.
रचना-प्रक्रिया अपने आप में ही हो जाती है.
10.
जब अपने बन रहे चित्र को देखता हूं तब बनते समय भी और पूरा होने के बाद भी उस चित्र के साथ सम्बन्ध बना रहता है. यह सम्बन्ध ऐसा भी बना रहता है कि अभी चित्र पूरा नहीं हुआ है, उसे पूरा करने की कोशिश करूं. चित्र में छिपे रास्तों को पहचानूं. अभी मंजि़ल तक नहीं पहुंचा हूं, वापिस दो कदम लौट कर फिर जाने की कोशिश करूं. यह प्रक्रिया तब तक बनी रहती है जब तक कि कैनवास को उठा कर अलग नहीं रख देता. और यह मान लेता हूं कि यह ख़त्म हो गया, अब दूसरे की तरफ़ जाया जा सकता है.
11.
हां, कुछ तय/ planed नहीं होता कभी भी. अज्ञात में ही क़दम रखने होते हैं. हर बार, बिलकुल. जैसे चित्र पहली बार बना रहा हूं, ऐसा ही महसूस होता है: कुछ ज्ञान भी नहीं है: कहां से शुरू कर रहा हूं, कैसे शुरू कर रहा हूं. जैसे बिलकुल कोरा होता है कि मुझे ककहरा भी नहीं मालूम चित्र का.
धीरे धीरे कुछ रेखाएं खींचने में, stroke लगाने में चित्र निकलने/प्रगट होने लगता है, क्रमशः. महसूस होता है कि चित्र/कैनवास में कुछ दिखाई देने लगा है.
अज्ञात में, लेकिन ऐसे नहीं कि किसी नये प्रदेश में दाखि़ल हो रहा होऊं या कोई नया कदम उठा रहा होऊं. अज्ञात इस मायने में कि यहां पहले नहीं आया था, यह रास्ता नया है. कभी इस तरह भी कि ऐसे रास्तों पर चल चुका हूं. ऐसे नया नहीं लगता कि बिलकुल अज्ञात में जा रहा होऊं. चित्र में कोई चीज़ अज्ञात नहीं … क्योंकि इतने बरसों बाद मेरे लिए अज्ञात क्या रह गया? अज्ञात तब रहा होगा जब मैंने जीवन में चित्र बनाने की बिलकुल शुरुआत की थी. आरम्भिक दिनों में समझ में नहीं आता था कि क्या करें, क्या करना है: चित्र में जो रंग लगाया उसमें कुछ चित्र सफल हो गये, कुछ असफल हो गये. अब यह सब जानकारी की तरह पीछे रहता है. जब चित्र बनाता हूं तब उसका एक logic रहता ही है. बिना logic के ऐसे अज्ञात में काम नहीं करता.
12.
चित्र में एक stroke तक का लगना पूरी जीवन-यात्रा के सुफल जैसा है. उम्र जैसे जैसे बढ़ रही है वैसे वैसे चित्र में प्रज्ञा ज़्यादा प्रकाशमान, ज़्यादा सशक्त होती चली गयी है.
बहुत दफा लगता है कि यही समय है, चित्र बनाने का. जितने पुराने अनुभव हैं उनके सहारे काम में पूर्ण रूप से एकाग्र हो कर काम करते रहना चाहिए. जितना कर सकता हूं, करना चाहिए. कुछ नयी चीज़ें पता नहीं चलती हैं तब भी कोई बात नहीं. लेकिन यही समय है जब अपने को पूर्ण रूप से चित्र में लाया जा सकता है. total involvement हो सकता है.
पहले और भी चिन्ताएं होतीं थीं. दसियों तरह की चिन्ताएं. आर्थिक चिन्ताएं रहती थीं, अनेक तरह की अन्य समस्याएं भी. अब उस तरह की कोई समस्याएं नहीं हैं. महसूस होता है कि चित्र के साथ अब जितना total involvement हो सकता है उतना पहले नहीं हो सका था.
13.
इस अवस्था पर आ कर, अपनी कला के इतने अनुभवों के आधार पर, अपनी कला को (अपने को) नये मोड़ देना अब सम्भव नहीं लगता है या नयी दिशाओं को पकड़ना, नयी दिशाओं को जानना. मैं उसी को बेहतर बना सकता हूं जो है. कि वह देखने में ज़्यादा मजबूत मालूम पड़े, ज़्यादा सशक्त मालूम पड़े. एक solidity आती है काम में, वही सम्भव है. अपने लिए मुझे लगता है कि वह ही कर सकूं तो बहुत है. यह अपने लिए एक ज़रूरी चीज़ है कि मैं अपनी दीवार को थोड़ा और मजबूत कर सकूं. ठोस शक्ल दे सकूं अपने नये चित्रों में. तभी यह दूसरों को विश्वास दिलाएगी कि यही सम्भव है.
बिलकुल नया मुश्किल है.
कभी कभी नयी चीज़ें आ जाती हैं. कभी strong रंग avoid किये, लेकिन अभी देखना चाहूं तो कर सकता हूं.
14.
अब चित्रों की प्रदर्शनी करने, चित्रों को दिखाने वग़ैरह का मन नहीं है. वह मैंने छोड़ भी दिया है. अब मैं प्रदर्शनी वगै़रह नहीं कर रहा हूं. यह ज़रूर है कि नया काम किया है तो कभी तय करके–एक हफ्ते के लिए–चन्द लोगों को, जिन्हें रुचि है उन्हें, बुला कर दिखा दें. सिर्फ़ इतना ही वरना यह भी कोई ऐसा ज़रूरी नहीं है.
15.
आज के कर्म में उन पुरानी जड़ों को ही ज़्यादा मजबूत बनाने की कोशिश है जिनका आभास है, जिनके साथ रहा हूं. पहले वे उतनी मजबूत नहीं थीं, उन्हें और ज़्यादा मजबूत करने का प्रयास है. कभी-कभी एक नयी दृष्टि से देखने का भी अवसर मिलता है. बिलकुल नयी दिशाओं में जाने का न समय है न उतनी क्षमता.
16.
अब भीतर बाहर में संघर्ष या उस तरह की कोई बात या टकराव नहीं है. बिलकुल शांत और स्पेस की कोई समस्या नहीं है. खुली छूट है करने की. अब कलाकार पर निर्भर करता है कि वह कितना सजग, कितना सचेत हो कर, कितनी लगन के साथ काम करना चाहता है या कर सकता है या करने की क्षमता है. यह बहुत कुछ अपने पर निर्भर करता है.
पहले होता था कि चित्र बनाएंगे तो चित्र-प्रदर्शनी करेंगे. चित्र- प्रदर्शनी की बात अलग ध्यान खींचती थी. लोग देखेंगे. तारीफ करेंगे या निन्दा करेंगे या खरीदेंगे. अब वह सब नहीं है. अब यह है कि अपने लिए, सिर्फ़ अपने लिए काम कर रहा हूं, दूसरों के लिए का सवाल ही नहीं उठता. अपने लिए काम कर रहा हूं. अपने लिए थोड़ी freedomरख रहा हूं. मुझे किसी को दिखाना नहीं है इसलिए कोई समस्या नहीं है. अब ज़्यादा निर्बन्धता के साथ काम करना चाहिए. ऐसा लगभग होता नहीं है, इतना हो नहीं पाता है. मैं कोशिश करता हूं कि काम में पूरी उन्मुक्तता हो, कोई बाधाएं नहीं हों, कोई दीवारें नहीं रहें. किसी तरह की रोकटोक नहीं है. जो मर्ज़ी चाहे वह करिए. लेकिन मैं सत्तर साल के इतिहास से अपने आप को बिलकुल काट नहीं सकता हूं. क्या काट सकता हूं? वह मनोवृत्ति है जो हाथ पांव चलते हैं, वे एक ढंग से चलने का सीखें हैं तो वे वैसे ही चलते हैं: उनको ज़बरदस्ती हटायें तब भी वे नहीं हट पाते. जहां कहीं गुंजाईश होती है वहां कर लेता हूं. जहां नहीं हो पाती वहां नहीं हो पाती.
आसान नहीं है.
ऐसे totalharmony ही रहती है. किसी तरह की conditions नहीं हैं न अन्य ऐसी चीजें जो काम में किसी प्रकार की बाधा डाले.
17.
मुझे कुदरती रोशनी ज़्यादा अच्छी लगती है. पहले कुदरती रोशनी में ही काम किया. इधर क्या हुआ है कि घर के तलघर में ज़्यादा स्पेस मिलती है इसलिए यहां काम करने लगा हूं. तलघर में प्राकृतिक प्रकाश ज़्यादा नहीं है इसलिए बिजली का उपयोग करना पड़ता है. सर्दियों में मैं ऊपर काम करता हूं जहां कुदरती रोशनी रहती है: उस रोशनी में ज़्यादा real लगता है.
संग्रहालयों वगैरह में बिजली की रोशनी में चीज़ें देखी जाती हैं.
कुदरती और कृत्रिम प्रकाश में फर्क सिर्फ़ रंगों का है. इस रोशनी में रंग थोड़े से अलग तरह के हो जाते हैं. ज़रा सा अलग हो जाते हैं. वैसे इस बात की ज़्यादा महत्ता नहीं है कि मैं कौन सी रोशनी में काम करता हूं. जहां रहता हूं वहां दिन मेघाच्छन हो जाए तो बिजली की रोशनी का सहारा लेना पड़ेगा. वान गॉगवगैरह खुले में जा कर काम करते थे, धूप में जा कर. वहां धूप ज़रूरी हो जाती थी.
18.
कई चरणों में बनता है चित्र. एक में मुझसे नहीं बनता. चित्र निर्मिति के विभिन्न चरणों में एक के बाद दूसरे चरण में चुनौतियां आती ही हैं. उन सब चुनौतियों का सामना करना होता है, उन्हें देखना पड़ता है कि उनका क्या और कैसे हल निकल सकता है. चित्र अनेक अवस्थाओं में ही बनता है–कई कदम होते हैं जब रुक कर देखना पड़ता है. बन रहे चित्र के बारे में कुछ हल निकालने पड़ते हैं.
कभी blankness सी आ जाती है: समझ में नहीं आता कि क्या कर सकते हैं. चित्र के किसी हिस्से को देखकर लगता है कि यह ठीक नहीं है, लेकिन उसका हल सूझ नहीं पाता. मैं सोचने की कोशिश करता हूं, bestpossible solution निकालने के लिए, कम से कम उस चित्र को पूरा करने के लिए.
19.
चित्र बनाते समय इस प्रकार के अवसर आते हैं जब आपको कुछ निर्णय लेने पड़ते हैं–महत्वपूर्ण निर्णय. जो भी समझ में आता है वह निर्णय मैं ले लेता हूं. चित्र-निर्मिति में समस्याएं रहती ही हैं, उन समस्याओं का हल निकालना होता है. क्रमषः, समय बीतने के साथ साथ.
बहुत दफा यह किसी काम पर भी तय करता है. कुछ काम आसानी से निकल आता है, कुछ में कहीं न कहीं कोई रुकावट या stumblingbloke से आ जाते हैं. हर चरण पर इन रुकावटों का हल निकालना पड़ता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. कभी कोई चित्र एकदम फटाक से निकल आएगा–सब चीज़ एकदम फिट. कहीं पर काफ़ी मेहनत करनी पड़ती है, रुकना पड़ता है. रास्ते ढूंढ़ने पड़ते हैं.
20.
मैं ऐसा नहीं करता कि किसी कृति में कोई बड़ी रुकावट आ जाने पर उसे वैसे ही छोड़ कर दूसरा कैनवास ले लूं. नहीं, मैं ऐसा नहीं करता. उस समस्या का हल वहीं पर निकाल लेना चाहता हूं, भले जैसे-कैसे निकले. उससे पहले मैं दूसरा कैनवास शुरू नहीं करता. चाहे उसमें कुछ दिन लगे, ज़्यादा समय लगे तब भी. ऐसा नहीं करता कि उस कैनवास को वहीं छोड़ कर कुछ दिनों बाद फिर से उठाऊं. अगर समस्या का हल आज नहीं निकला तब छः महीने बाद भी नहीं निकल सकेगा. तब और भी कठिन हो जाएगा.
मैं अधूरी कृतियों को अधूरी छोड़ कर .. या तो उनको नष्ट ही कर देता हूं कि ख़त्म, यह कृति नहीं बन सकी, असफल रहा मैं. या उसी को पूरा करने के प्रयास में संलग्न रहता हूं. हो सकता है बहुत अच्छी कृति न बन पाये लेकिन पहली को अधूरी छोड़ कर मैं दूसरी कृति को ऐसे शुरू नहीं कर सकता.
21.
एक वक़्त में मैं हमेशा एक कैनवास पर ही काम करता हूं. शुरू से. जब तक वह पूरा नहीं हो जाता तब तक दूसरे का इस्तेमाल नहीं करता. ऐसा करना शायद मेरे स्वभाव में होगा. मुझे ऐसा महसूस नहीं होता कि एक को ख़त्म किये बगै़र मैं दूसरा काम शुरू करूं. एक काम में असफल हो कर दूसरे काम में सफल हो जाऊंगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. वह असफलता ही गहरा विषाद ले आती है और नये कैनवास को उठाने का मन नहीं करता. कि एक कैनवास पर असफल हुआ, लेकिन दूसरे पर कुछ करूं: तब उसमें भी असफल ही होने वाला हूं. मैं पहले के साथ ही कोशिश करता हूं. न सही उतना पूर्ण रूप, लेकिन असफल भी ना रहूं.
22.
जो सुलभ होता है उसके साथ आप काम करते हैं. ब्रश हो या कैनवास या रंग. मूलतः मैं form पर ध्यान देता हूं. material कैसा भी हो, रूप तो वही लग सकता है. कैनवास के कारण टेक्सचर अलग आ सकते हैं. टेक्सचर बहुत बाहर की चीज़ है. अन्दर की ठोस चीज़ form है जिसे कलाकार निकालता है. उसे कहीं भी निकाल दीजिए, कैनवास कैसा भी हो.
23.
ऐसे दिन मेरे जीवन में कभी नहीं आए जब लगा हो कि मैं अब चित्र नहीं बना सकूंगा. मेरे चित्रों में एक नैरन्तर्य रहता है. कभी लम्बा अन्तराल नहीं आया. सफ़र वग़ैरह की बात अलग है. बहुत से लोग कहते हैं कि अभी काम करने का मूड नहीं है, लेकिन ऐसा मेरे साथ नहीं है. मैं बोलता हूं कि स्टूडियो में जाइए, मूड का सवाल ही नहीं है. जब सुबह में अपने स्टूडियो आते हैं तो मूड आ ही जाता है– बैठिए आराम से, कैनवास को देखिए. जो काम किया है वह देखिए. ख़ाली कैनवास देखिए.
24.
मैं रोज़ सुबह सात बजे अपने स्टूडियो में आ जाता हूं– काम करना हो चाहे ना करना हो. अमूमन रहता स्टूडियो में ही हूं, कैनवासों से घिरा हुआ. और कोई काम नहीं करता.
ख़ाली बैठ कर देखता हूं.
सारे दिन में कोई लगभग छः आठ घंटे स्टूडियो में गुज़र जाते हैं. शाम के समय में क़रीब दो घंटा. अब स्टूडियो और घर एक ही सा है. यह सुविधा रहती है. पहले होता था कि स्टूडियो घर से बाहर दूर है तो बार बार आ-जा नहीं सकता था. एक वक़्त में स्टूडियो में आये तो वहीं रह गये या घर पर हैं तो घर पर हैं. दो जगह तो काम नहीं कर सकते. अब ऐसा नहीं है.
स्टूडियो घर में ही है.
25.
मेरे अन्दर एक तरह का नैरन्तर्य (रहता) है.
एक चित्र से दूसरे चित्र में जाना बहुत आसान रहता है–जहां ख़त्म किया, अगले चित्र में वहीं से शुरू किया: ख़त्म/finish होने को मैं ख़त्म नहीं कहता. प्रक्रिया जारी ही रहती है, कम से कम कुछ चित्रों तक. फिर कहीं वह कि़स्सा पूरा हो जाता है. जिन चीज़ों को मैं व्यक्त करना चाहता हूं वे एक चित्र में पूरी तरह से व्यक्त नहीं हो पातीं. कम से कम पांच छः चित्रों की ज़रूरत पड़ती है. अगर एक period के चित्र एकसाथ देखें तो वे एक दूसरे से बहुत मिलते जुलते नज़र आएंगे. colour scheme और forms
मुझे लगता है कि नैरन्तर्य रहा है, छूट जाता अधूरापन नहीं. यह अधूरापन नहीं है– बहुत सी चीज़ें रहती हैं. यह नहीं कह सकते कि उन के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है या दो कहानियों के बीच: एक कहानी ख़त्म होने पर उससे अलग हो गये या आ गये, लेकिन कुछ चीज़ें continue कर जाती हैं: चित्र में.
26.
One line donne.—Paul Valery. And from this one line a whole poem is constructed. From the first stroke on an empty canvas is determined the fate of a painting which emerges from that one stroke.
(नोटबुक से)
यह कहना बड़ा मुश्किल है कि पहला stroke कौन-सा stroke है, कहां से आएगा. एक आदत भी होती है: कुछ कलाकार कैनवास को ऊपर से शुरू करते हैं और नीचे तक आते हैं. जब चित्र बनाता हूं तब ऐसा होता है कि बायें से दायें की तरफ़ ही stroke लगते हैं. दूसरों के लिए दूसरी तरह से लगते होंगे. यह हरेक कलाकार का अपना मसला है, उस पर तय करता है.
हो सकता है कैनवास पर पहला कर्म पेंसिल की लाइनों से हो: कोयले से रेखांकन शुरू हो. उन शुरू की लाइनों से ही शुरुआत हो जाती है, कि आगे क्या आने वाला है. रचने का काम वहीं से शुरू हो जाता है. stroke बाद में लगेगा, लेकिन पहले लाइनें आ जातीं हैं. शुरुआत के बाद बन रहा चित्र बदलता रहता है. यह एक stroke final नहीं है. हो सकता है आखि़र तक वह ख़त्म हो गया हो. उसने पहला stroke लग कर अपना काम शुरू कर दिया. और काम ख़त्म होने पर वह वहां से हट गया.
अक्सर यह होता है कि मैं पहले-पहल चन्द लाइनें खींचता हूं. कैनवास के थोड़ा-सा क़रीब आने की कोशिश करता हूं, उसका अपनापन महसूस करने की कोशिश करता हूं. कि एक कैनवास के साथ अब मेरे सम्बन्ध बनने वाले हैं. यह रंगों से न हो कर रेखाओं से होता है. रंग तो final सा होता है न. एक बार रंग लग गया तब रंग हटाना मुश्किल है. कोयले की लाइन को तो रगड दीजिए, वह हट जाएगी. मैं लाइनों के साथ ज़्यादा उन्मुक्तता के साथ चित्र का अनुमान करने लगता हूं: ऐसे यह प्रक्रिया जारी रहती है. जब यह महसूस होता है कि अब कुछ ढांचा बना है तब रंग से शुरुआत कर लेता हूं.
27.
चित्र-निर्मिति में अनेक तरह के विकल्प सामने आते रहते हैं. अपने अनुभवों के आधार पर उन के बारे में सोचता हूं या उन को रास्ता देना पड़ता है. हो सकता है वह ग़लत रास्ता हो. यह नहीं कह सकते कि हर बार सही रास्ता हो. एक बार मैंने हुसेन से कहा कि बड़ी मुश्किल आ गयी है, अब क्या करें? वे कहने लगे, अरे! दस हल हैं, तुम तो एक ही लोगे. एक ले लो और ख़त्म करो. हल दस निकलते हैं, कौन-सा चुनते हैं यह कलाकार पर निर्भर करता है. दसियों तो नहीं कर सकते–लाल लाइन लगाना है तब लाल ही लगाएंगे. यह कलाकार पर निर्भर करता है. मैं समझता हूं कि यह सब बहुत ही नामालूम/अचेतन ढंग से होता है– अपना पुराना है, अतीत है. कलाकार अपने अनुभवों के आधार पर निर्णय लेता है.
28.
एक तरह से कह सकते हैं कि चित्र बनाने से पहले कुछ तैयारी करनी ही पड़ती है, बिलकुल blankness नहीं होती. तैयारी के लिए, दिमाग़ के अन्दर या कैनवास के ऊपर, रेखाएं खींच कर थोड़ा-सा आरम्भिक ढांचा तैयार करता हूं. लेकिन सब से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि कैनवास पर आने से पहले ख़ाली क्षणों में भी बैठा सोच सकता हूं कि मैं किस प्रकार से अपने नये चित्र की रचना करूंगा. यह सोचना करने में मदद करता है हालांकि ज़रूरी नहीं है कि जैसा सोचा वैसा हो. बनते बनते–एक बार चित्र शुरू होने पर–चित्र का अपना एक सवहपब भी हो जाता है: construction का अपना काम शुरू होने पर हो सकता है अलग ही ढांचा बने. वह ढांचा वैसा न हो जो पहले सोचा हो, यह भी सम्भव है.
अनपेक्षित अनिश्चितताएं लगातार रहती ही हैं. चाहे कितनी तैयारी कर लो. चित्र बनाते समय बहुत से ऐसे तत्व आते हैं जिनके बारे में सचेत नहीं थे. मेरा खयाल है कि हर चित्रकार के सामने यह समस्या आती ही है. वह अपनी तरह से उनका हल निकालता है, इस्तेमाल करता है. यह सिर्फ़ मेरे लिए ही नहीं है.
अपने लिए जो रास्ता मुझे ठीक लगता है वह मैं अपना लेता हूं.
चित्र का बनना एक composition की तरह ही है. जब चित्र बनाते हैं तब compose होता ही जाता है, उस का कोई अलग से स्थान नहीं है.
29.
कुछ समय के बाद पुरानी चीज़ों को देख कर उससे बहुत सी चीज़ों का अंदाज़ लगता है कि चालीस-पचास साल पहले किस तरह के चित्र बनाए थे, उनमें क्या कमी-सी रह गयी थी, क्या गलतियां थीं जो अब के चित्रों में उतनी नहीं है या उनमें कुछ इस तरह के तत्व हैं जो कि नये चित्रों में दिखाई नहीं देते हैं. …
(ताज़गी व गहराई तो ख़ैर है ही–भले चित्र नये हो या पुराने)
प्रयास यह रहता है कि पुराने रास्तों से भी कुछ नया सीख सकता हूं तो सीखूं, कोशिश करूं.
30.
PHOTO S.SUBRAMANIUM |
कलाकार जिन रास्तों पर चला है उन्हें उस के पुराने रास्ते कहा जा सकता है. वह पुराने रास्तों पर चला है. जब चला होगा तब उस का अपना logic भी रहा होगा. वह आंखें बन्द कर के नहीं चला होता. हो सकता है वह इस बात को ले कर जागरूक हो कि यह रास्ता उस ने अपने लिए चुना है. ऐसे रास्ते अनेक रहे होंगे …
उस समय उस प्रकार से उसने अपने लिए एक खोज की. शुरू में जिस खोज के लिए उस ने कोशिश की थी वह खोज अब वह दूसरी तरह से करना चाहता है. वह खोज…. अभी उसे कुछ मिला तो नहीं है, लेकिन खोज के दौरान उस ने बहुत से नये तत्वों को महसूस किया है, उन्हें पाया है जिन से आगे के रास्ते पर चलने के लिए, आगे जाने के लिए मदद मिलेगी या आगे के रास्ते की खोज में सहायता मिलेगी.
इन सब बातों को परिभाषित नहीं कर सकते. थोड़ा थोड़ा संकेत भर शायद दिया जा सकता है. यह chance की बात है कि मैंने इस तरह के चित्र बनाये हैं. इस से पहले और उस से पहले के चित्र कितने अलग हैं. एक चित्र जो अभी छः महीने पहले का बना हुआ है वह उस से कितना अलग दिखता है जो उस से पहले का बना हुआ है. feeling में भी. दोनों के बीच forms और रंगों का बहुत contrast है: कहीं समानता भी है, थोड़ी-सी.
एक चित्र अभी अभी बना है. एक चित्र इस से पहले बना था. उस से पहले कोई और बना होगा जो दूसरी तरह का था. इन को पूर्ण रूप से परिभाषित कैसे करेंगे?–मेरी समझ में नहीं आता.
31.
एक कलाकृति को पूर्ण रूप से शब्दों में realize करना ठीक नहीं है (न वह सम्भव है) और ठीक कर भी नहीं पाते हम. वह कहां तक उचित है कहां तक नहीं यह तय कर पाना भी मुश्किल है. यह भी कि कहां तक उस की आवश्यकता है या कितनी आवश्यकता है.
32.
चित्र में अचम्भे–आश्चर्य–का तत्व रहता ही है. यह आश्चर्य ही है जो चित्रकार को चित्र निकाल कर देता है, उसे प्रेरणा देता है. यह बहुत स्वाभाविक ढंग से आता है. उस के लिए कोशिश नहीं करनी पड़ती. रंग लगाना ही आश्चर्य का एक तत्व है.
किसी भी कला में आश्चर्य-तत्व कला का सारभूत अंश ही है.
(सभी पेंटिग रामकुमार के हैं : गूगल से साभार)
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पीयूष दईया
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