‘असल में जब इतिहास में स्वप्न, यथार्थ में कल्पना, तथ्य में फैंटेसी और अतीत में भविष्य को मिलाया जाता है तो आख्यान में लीला शुरू होती है और एक ऐसी माया का जन्म होता है, जिसका साक्षात्कार सत्य की खोज की ओर एक यात्रा ही है. इसीलिए हर लीला और प्रत्येक माया उतनी ही सच होती है जितना स्वयं इतिहास.’
उदय प्रकाश का कथा-साहित्य जितना संश्लिष्ट है उतना ही विचारोत्तेजक भी है. समकालीन हिन्दी-कथा-साहित्य में उदय प्रकाश का आविर्भाव एक परिवर्तनकारी घटना है. उन्होंने शिल्प तथा भाषा-शैली के स्तरों पर अपने आपको बेजोड़ तो साबित किया ही साथ ही साथ उनके साहित्य का वैचारिक और संवेदनात्मक रूप विरल और नए प्रतिमानों को स्थापित करने वाला है. उन्होंने अपने समय की नब्ज़ को बहुत ही बारीक़ी से देख-सुन–अनुभव कर समझा और अपने गतिशील रचना-कर्म से उसे गढ़ा है. उनकी रचनाधर्मिता हिंदी कथा-साहित्य के लिए वरदान सिद्ध हुई. उनका कथा-साहित्य हिन्दी कथा-साहित्य की परंपरा में आधिकारिक और ऐतिहासिक महत्व रखता है. पिछले दो-तीन दशकों में दुनिया में जो परिवर्तन हुए उनकी गति इतनी अधिक थी कि साहित्य को उसके साथ दौड़ पाने में बहुत मुश्किल हुई और वह पीछे छूट गया. केवल साहित्य ही नहीं परिवर्तन की इस गति के परस्पर न चल पाने के कारण बहुत सारे नैतिक, सांस्कृतिक मूल्य भी पीछे छूट गए. इस आँधी में समाज की चूलें हिल गईं और उसका रूढ़ ढाँचा छिन्न-भिन्न हो गया. इन हालातों में हिंदी कथा-साहित्य के सामने जो चुनौतियाँ आईं वे पिछले समय की अपेक्षा अधिक कड़ी थीं. बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक इस संबंध में अत्यंत महत्वपूर्ण था. समकालीन कहानी की चुनौतियों व उसके गतिरोध के संदर्भ में शंभु गुप्त लिखते हैं-
“अकहानी और समांतर नाम के कहानी-आंदोलनों में अनेकानेक नाम ऐसे थे जो उस समय बड़ी प्रमुखता से उछले थे और जिन्होंने सारे आकाश को छा दिया था; आज उन नामों का कहीं कोई अता-पता नहीं है. कौन काल के किस गाल में समा गया, पता नहीं ! गतिरोध उनको खा गया. वे पुनर्यौवन न प्राप्त कर सके. अतः गतिरोध की समस्या कोई मामूली समस्या नहीं है. यह लेखक की न केवल प्रतिभा या लेखकीय क्षमता से जुड़ी हुई है बल्कि प्रकारांतर से यह उसकी जीवन-दृष्टि (विज़न) और उसके व्यक्तिगत जीवन-व्यवहार से भी गहरे सम्बद्ध होती है. दिल्ली में ऐसे अनेकानेक लेखक हैं जो शुरू-शुरू में बड़ी तेज़ी से उभरकर सामने आए लेकिन बाद में या तो, उनकी शक्ति चुक गई या फिर उन्हें मीडिया खा गया या फिर दिल्ली उन्हें चट कर गई ! तो, गतिरोध की समस्या इस तरह बहुआयामी और बहुस्तरीय है. गतिरोध के संदर्भ में बात करना इसलिए और भी ज़रूरी है कि ऐसा अधिकतर कहानीकारों के साथ ही होता है.”1
उदय प्रकाश ने इस गतिरोध को परे हटाते हुए हिन्दी-कहानी को गत्यात्मकता प्रदान की. उन्होंने अपने सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक यथार्थबोध को अपनी कहानियों में फलीभूत किया जिसने हिन्दी कहानी के मेयार को और बुलंद किया तथा उसे सार्वभौमिकता प्रदान की.
“डॉक्टर वाकणकर को कई बार संदेह होने लगता है कि क्या सचमुच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण देश-भर में हिंदू धर्म के मतावलम्बियों के भीतर किसी सामुदायिक किस्म की कौटुंबिक भावना पैदा करने, उनमें नई जागृति लाने, अपनी रूढ़ियों को त्यागने तथा वेदों, उपनिषदों, पुराणों में वर्णित धर्म के मूल स्वरूप को अंगीकार करने की प्रवृत्ति पैदा करने के लिए हुआ है, या इसका कोई दूसरा मक़सद है, जिसे यह बख़ूबी पूरा कर रहा है. इस बात को सर संघ चालक और दूसरे अधिकारी जानते हैं, इसीलिए वे इतने में ही संतुष्ट हैं. डॉक्टर वाकणकर जितना सोचते, उनके भीतर बेचैनी और असंतोष उतना ही बढ़ता. वे संघ को अपना मानते थे, अपने जीवन के लगभग पच्चीस वर्ष उन्होंने इसे सौंपे थे, ऐसा हो कैसे सकता था कि वे उससे खुद को निस्संग और उदासीन बना पाते.”2
“इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि डॉक्टर वाकणकर की निगाह में सिद्धान्त और व्यवहार दो भिन्न स्थितियाँ नहीं हैं, वे पानी और लहर या कि शब्द और उसके अर्थ की तरह अभिन्न और एक हैं. इस लिहाज से थुकरा महराज की मौत उनके लिए और जैसे एक उज्ज्वल संभावनाशीलता की ही मौत थी. वे थुकरा महराज की निश्छलता, गरीबी, भावुकता, संघ के प्रति ग्रामीण निष्ठा इत्यादि पर फिदा थे तो दरअसल इसलिए कि उन्हें उम्मीद थी कि थुकरा महराज एक न एक दिन संघ का कार्यकर्ता बने रहने के बावज़ूद अपने ब्राह्मणवादी/नस्लवादी संस्कारों से मुक्ति पाकर उस रास्ते पर चल निकलेंगे जिस पर वे खुद चलते आ रहे हैं और जिसे ही वह सबसे उपयुक्त और मानवीय रास्ता समझते हैं. यह रास्ता चाहे संघ के फ़ासीवादी रवैये से मेल न खाता हो और उसकी खिलाफ़त करता हो; लेकिन संघ से जुड़े होते हुए भी उन्हें सिर्फ़ इसी रास्ते पर चलना है चाहे आगे चलकर वे दूध में मक्खी की तरह निचोड़कर बाहर कर दिये जाएँ.”3
“उदय प्रकाश यहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की महिमा का आख्यान करने में नहीं लगे थे; जैसा कि बहुत सारे लोगों ने उन पर आरोप मढ़ा था; बल्कि डॉक्टर वाकणकर की तरह बल्कि एक तरह से उनकी मार्फ़त इस तथाकथित सांस्कृतिक और गैर-राजनीतिक महासंगठन को, इसकी घोषित विचारधारा/सैद्धांतिकता को, इससे जुड़े लोगों की रोज़मर्रा की सारी की सारी गतिविधियों/आचरण को नियम और नैतिकता की कसौटी पर कस रहे थे. नियम और नैतिकता की इस व्यापक मानवीय और लोकतान्त्रिक कसौटी पर यह संगठन और इसके प्रतीक/प्रतिनिधि लोग खरे नहीं उतरे; उतर नहीं सकते थे; क्योंकि इस संगठन की नींव ही गड़बड़ और ग़लत थी; वह फ़ासीवादी क्रूर और हिंसक थी अतः अनुचित और अतार्किक थी-; यह इस कहानी का निष्कर्ष है.”4
भारतीय समाज की जातिवादी संरचना में ब्राह्मणवाद की भूमिका जातिवाद को बढ़ाने और लाभ के आर्थिक अवसरों को अन्य किसी के हाथ में न जाने देने की लामबंदी के रूप में रही है. ब्राह्मणवाद को एक ट्रान्सफोबिया भी रहा है और उसके भीतर का हिजड़त्व सदैव यह समझने लगता है कि ब्राह्मणवाद का विरोध ब्राह्मण जाति का विरोध है. यद्यपि ऐसा है नहीं ! ब्राह्मणवाद का विरोध स्वयं ब्राह्मणों ने भी किया है. स्वयं ब्राह्मण उसके शिकार भी हुए हैं. कोई गैर ब्राह्मण यदि ब्राह्मणवाद का विरोध करे तो वह ब्राह्मण जाति का शत्रु ही बन जाता है. ‘ग़ुलामगीरी’ की प्रस्तावना में महात्मा फूले ने लिखा है-
“अपनी इस चाल, विचारधारा को कामयाबी देने के लिए जातिभेद की फौलादी ज़हरीली दीवारें खड़ी करके उन्होंने इसके समर्थन में अपने जातीय स्वार्थ सिद्धि के कई ग्रंथ लिख डाले. कुछ लोग जो ब्राह्मणों के साथ बड़ी कड़ाई और ज़िद से लड़े उनका ब्राह्मणों ने एक वर्ग ही अलग कर दिया. परिणाम यह हुआ कि उनका आपसी मेल-मिलाप बंद हो गया और वे लोग अनाज के एक-एक दाने के लिए मुहताज हो गए. इसलिए इन लोगों को जीने के लिए मजबूर होकर मरे हुए जानवरों का माँस खाना पड़ा. उनके इस आचार-व्यवहार को देखकर आज के शूद्र जो बहुत ही अहंकार से अपने आपको माली, कुणवी, सुनार, दर्जी, लुहार, बढ़ाई, तेली, कुर्मी आदि बड़ी-बड़ी संज्ञाएँ लगाते हैं, क्योंकि वे लोग केवल इस प्रकार का व्यवसाय करते हैं और ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के बहकावे में आकर एक-दूसरे से घृणा करना सीख गए हैं. ये लोग भगवान की निगाह में कितने अपराधी हैं इन सबका आपस में इतना नजदीकी संबंध होने पर भी किसी तीज-त्यौहार को ये उनके दरवाजे पर दूर से ही पका-पकाया भोजन माँगने के लिए आ जाते हैं तो वे लोग इनको नफरत की निगाह से देखते हैं. इस तरह जिन-जिन लोगों ने ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों से जिस-जिस तरह से संघर्ष किया उनसे उन्होंने उसके अनुसार ही उनको जातियों में बाँटकर एक तरह से सजा सुना दी.”6
ब्राह्मणवाद के विरोध का यही तर्कानुमोदित और न्यायसंगत नुस्ख़ा उदय प्रकाश ने अपनाया है. ‘मोहन दास’ में मोहन दास की नौकरी हड़पकर उसे प्रताड़ित करने वाला ‘बिसनाथ’ ब्राह्मण जाति का ही है. वास्तव में ‘बिसनाथ’ भारतीय समाज में जड़ें जमाये हुए ब्राह्मणवाद का प्रतीक है. इन प्रतीकों, पात्रों से उदय प्रकाश अपने कथा-साहित्य में ब्राह्मणवाद के भयानक षड्यंत्रों को सामने लाते हैं. ‘मोहन दास’ में एक संवाद इस प्रकार है- “‘ये नन्द किशोर है तो भखार का ढीमर, लेकिन यहाँ बांभन बन के वैष्णव शाकाहारी शाकाहारी होटल चला रहा है. सजनपुर के चौबे घराने से बहू भी बियाह लाया है ससुर. ‘पंडिज्जी’ कहो तो भकभका के फूलकर गुप्पा हो जाता है.’
“डॉ. राजेन्द्र तिवारी का पीरियड ख़त्म हुआ. उन्होंने विद्यापति पढ़ाया था. पयोधर, कुच, कटि, रति, मदन जैसे शब्दों का रस ले लेकर, मिचमिची आँखों में छलकती कामुकता और लंपटता के साथ उन्होंने ‘अर्थ’ समझाया था. स्त्री उनके लिए कुच, कटि, पयोधर और त्रिबली थी. लड़कियों की गर्दनें नीची थीं. बलराम पांडे, विजय पचौरी, विमल शुक्ल, विभूति प्रसाद मिश्रा सब एक-दूसरे को कनखियों से देखकर मुस्करा रहे थे.”9
“और दूसरी बात यह है कि राहुल ने हिंदी विभाग में एडमीशन लेकर इसलिए भयानक गलती की है क्योंकि उस विभाग में चपरासी से लेकर हेड ऑफ दि डिपार्टमेन्ट तक सब के सब ब्राह्मण हैं. एम.ए. प्रीवियस में भी राहुल, शालिगराम और शैलेंद्र जॉर्ज के अलावा बाकी सभी.”10
केवल इतने से ही नहीं उदय प्रकाश ने ब्राह्मण जाति की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अवस्थिति की पड़ताल भी की है-
“लेकिन एक जाति ऐसी है, जिसने अपनी जगह ‘स्टेटिक’ बनाए रखी है. बिलकुल स्थिर. सबसे ऊपर. हजारों साल से…वह जाति है ब्राह्मण. शारीरिक श्रम से मुक्त. दूसरों के परिश्रम, बलिदान और संघर्ष को भोगने वाली संस्कृति की दुर्लभ प्रतिनिधि. इस जाति ने अपने लिए श्रम से अवकाश का एक ऐसा ‘स्वर्गलोक’ बनाया, जिसमें शताब्दियों से रहते हुए इसने भाषा, अंधविश्वासों, षडयंत्रों, सहिंताओं और मिथ्या के ऐसे माया लोक को जन्म दिया, जिसके ज़रिये वह अन्य जातियों की चेतना, उनके जीवन और इस तरह समूचे समाज पर शासन कर सके.”11
‘पीली छतरी वाली लड़की’ ब्राह्मणवाद से सीधे-सीधे लोहा लेने वाली रचना है. यह ब्राह्मणवाद की संगठित फासीवादी विचारधारा का अतिवादी स्तर तक विरोध करती है. भारत में जातिवाद की समस्या की जड़ों तक जाने पर यह पता चलता है कि ब्राह्मणवाद ने ही जाति व्यवस्था की स्थापना की. इस संरचना में उन्होंने स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरी जातियों को नीच माना. उन्होंने जाति के अतिरिक्त कुल एवं गोत्र नामक दो भेद और उत्पन्न किए. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों को हल की मूठ छूने की मनाही थी. ऐसे ही तमाम मिथक ब्राह्मण जाति में प्रचलित रहे हैं. डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद पर चोट करते हुए कहा है- “ब्राह्मणों की मूलभूत चिंता गैर-ब्राह्मणों से निहित हितों की रक्षा करना है.”12 केवल अपने हितों की रक्षा करने वाला किसी देश का वर्ग उस देश की संरचना को न केवल कमजोर करता है बल्कि द्वेष को भी जन्म देता है. इस तरह की जाति आधारित सामाजिक-संरचना से न कोई स्वस्थ समाज बन सकता है और न ही कोई राष्ट्र.
आख्यानपरक ब्यौरों का प्रयोग उदय प्रकाश की हिंदी कथा-साहित्य में अपनी अत्यंत मौलिक शैली है. कहानी के साथ-साथ, मध्य में ब्यौरों का प्रयोग एक अर्द्ध-विराम जैसा प्रतीत होता है. पाठक उन ब्यौरों को कहानी साथ मिलाकर पढ़ता है तो उसे यह ज्ञात होता है की देशकाल की स्थिति उस समय क्या थी. हालाँकि बाद में उदय प्रकाश की देखा-देखी कई कथाकारों ने इस आख्यान शैली को अपनाया लेकिन उनमें भाषा की वह अम्लीय तरलता नहीं है जो उदय प्रकाश में है. इसलिए वे केवल अपने कथानक में अवरोध उत्पन्न करके रह जाते हैं. कथानक की शार्पनेस इन ब्यौरों से और भी बढ़ जाती है. ‘मोहन दास’ में इसका बेहतरीन प्रयोग है. कुछ आलोचकों ने बेमन से इसे बोधगम्यता में बाधक बताया है. लेकिन मैं समझता हूँ कि कथा के समानांतर इन ब्यौरों को पढ़ने-समझने की प्रक्रिया एक प्रकार की संप्रेषणीयता पैदा करती है. भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाज़ारीकरण और उपभोक्तावाद को उदय प्रकाश अपनी विशिष्ट दृष्टि से देख कर प्रस्तुत करते हैं. ‘मोहन दास’ में यह पृथक रूप से है लेकिन उनकी अन्य कहानियों जैसे ‘पीली छतरी वाली लड़की’, ‘वारेन हेस्टिंग का साँड़’, ‘दिल्ली की दीवार’, ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’ और अन्य छोटी-छोटी कहानियों में भी है. यह ब्यौरे इतनी स्फूर्ति से भरे होते हैं कि पाठक को झकझोर देते हैं-
\”ध्यान दीजिए यह ब्यौरा उसी समय का है जब हिंदुओं का जगद्गुरू अपने मठ में बैठा हुआ, एक स्त्री के साथ वही सब कुछ कर रहा था, जो हजारों किलोमीटर दूर, कई समुद्र पार, व्हाइट हाउस की कुर्सी पर बैठा अमेरिका का राष्ट्रपति कर रहा था. जब दज़ला और फ़रात नदी के पास किसी गड्ढे में अपनी जान बचाने के लिए छिपे हुए गिलगमेश के एक वंशज को पुराने समुद्री डाकुओं के वंशज बाहर खींचकर उसके दाँत गिन रहे थे. ऐसा समय, जिसमें जिसके पास जितनी मात्रा में सत्ता थी, वह विलोमानुपात के नियम से, उतना ही अधिक निरंकुश, हिंस्र, बर्बर, अनैतिक और शैतान हो चुका था….और यह बात राष्ट्रों, राजनीतिक दलों, जातियों, धार्मिक समुदायों और व्यक्तियों तक एक जैसी लागू होती थी.”13
ऐतिहासिक ब्यौरों का प्रयोग भी उदय प्रकाश इसी प्रकार करते हैं. इससे क़िस्सागोई का लहजा प्रभावी होता है. लगता है कहानी सुनाई जा रही है. कहन प्रभावशाली हो जाती है. ‘दिल्ली की दीवार’ से एक उदाहरण इस प्रकार है–
“कहते हैं अंग्रेज़ों के जमाने में जब जार्ज पंचम या चार्ल्स, पता नहीं दोनों में से कौन, हिंदुस्तान आए थे, तो यहीं के देशी रियासतों के राजा-रजवाड़ों के कैंप इसी जगह पर लगे थे. वे विलायत के अपने सम्राट का स्वागत करने यहाँ इकट्ठा हुए थे. कहते हैं कि वह स्वागत कुछ-कुछ वैसा ही था, जैसा अभी कुछ साल पहले अमेरिका के प्रेसिडेंट बिल क्लिंटन का स्वागत था. इसी जगह पर देशी रियासतों के राजा-रजवाड़ों ने अपने अंग्रेज़ सम्राट का राज्याभिषेक किया था, जिसे अंग्रेज़ी में ‘कोरोनेशन’ कहते हैं और विलायती सम्राट ने यहाँ जो भाषण दिया था, उनके जाने के बाद उसे राष्ट्रीय अभिलेखागार में रख दिया गया था. भाषण की उस प्रति को हिंदुस्तान के इतिहास का एक अहम दस्तावेज़ माना जाता है.”14
बतकही शैली में प्रस्तुत किए जाने वाले ये ब्यौरे कहानी की रोचकता में इजाफ़ा तो करते ही हैं साथ ही पाठक को मूल कहानी के प्रति अधिक संवेदनशील और सजग बनाते हैं. उसमें इतिहासबोध पैदा होता है और वह वर्तमान को अतीत से प्रभावित होते हुए देख पाता है या उन दोनों के अंतर्संबंधों के प्रति कोई दृष्टि विकसित कर पाता है. इतिहासबोध की बहुत उत्कृष्ट रचना ‘वारेन हेस्टिंग का साँड़’ है. यह उदय प्रकाश के असाधारण और विलक्षण लेखन की मिसाल है.
ब्यौरों का प्रयोग एक ‘रेज़िस्टेंस’ उत्पन्न करता है. उदय प्रकाश का कथा साहित्य प्रतिरोध का कथा साहित्य है. इसलिए उसमें पैनापन विचार के प्रवाह से आता है.
“यही वह आदमी है, जिसके लिए संसार भर की औरतों के कपड़े उतारे जा रहे हैं. तमाम शहरों के पार्लर्स में स्त्रियों को लिटाकर उनकी त्वचा से मोम के द्वारा या एलेक्ट्रोलिसिस के ज़रिये रोएँ उखाड़े जा रहे हैं, जैसे पिछले समय में गड़रिये भेड़ों की खाल से ऊन उतारा करते थे. राहुल को साफ दिखाई देता कि तमाम शहरों और कस्बों के मध्य-निम्न मध्यवर्गीय घरों से निकल-निकल कर लड़कियाँ उन शहरों में कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह उगी ब्यूटी-पार्लर्स में मेमनों की तरह झुंड बनाकर घुसतीं और फिर चिकनी-चुपड़ी होकर उस आदमी की तोंद पर अपनी टाँगें छितरा कर बैठ जातीं. इन लड़कियों को टीवी ‘बोल्ड एंड ब्यूटीफुल’ कहता और वह लुजलुजा-सा तुंदियल बूढ़ा खुद ‘रिच एंड फ़ेमस’ था.”15
ऐसे ही तमाम आख्यान और ब्यौरे उनकी कहानियों में देखने को मिलते हैं. अपने समय की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने के लिए ऐसी प्रवाहमय प्रतिरोधात्मक शैली आवश्यक थी. उत्तर-आधुनिकता के सभी पहलू उनके कथा-साहित्य में मौजूद हैं. उदय प्रकाश ने अपने तमाम कथा साहित्य की रचना उस समय की जब दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही थी. भू-मंडलीकरण का सबसे अधिक प्रभाव तीसरी दुनिया के देशों पर पड़ा. यह प्रभाव नकारात्मक अधिक थे. यहाँ संस्कृति और अस्मिता के संकट उत्पन्न हो गए. यहाँ की आदिम जातियों का जीवन संकट में पड़ गया. मुनाफ़ाखोरी ने मनुष्यता को लील लिया. इन सब प्रभावों के अक्स उदय प्रकाश का कथा-साहित्य अपने भीतर समेटे है.
विचारधारा के प्रति उदय प्रकाश पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं. ऐतिहासिक भौतिकवाद को उन्होंने अपनी अंतःप्रेरणा से और भी अधिक सरल बनाया है. उनकी कहानियाँ इसका पुरज़ोर उदाहरण हैं. मार्क्सवाद की समझ उन्हें सतही रूप में नहीं है, बल्कि वे विचारधारा को अपनी कहानियों की संरचना में माँजते और चमकाते हुए चलते हैं. उदाहरण के लिए उनकी एक लघुकथा ‘श्रीमान भाववादी’ को लिया जा सकता है-
“श्रीमान भाववादी यह मानते थे कि पदार्थ और चेतना में, चेतना ही महत्वपूर्ण होती है. चेतना प्रधान है, पदार्थ गौण है. वह कहते थे कि मेज़ या दरवाज़े की चौखट या कार बनाने की प्रक्रिया में पहले मेज़, दरवाज़े की चौखट या कार की अवधारणा जन्म लेती है. इसके बाद, उसी के आधार पर मेज़, दरवाज़े की चौखट का निर्माण होता है……………लेकिन वे अपने इस भाववादी दर्शन के प्रति वास्तव में सच्चे मन से ईमानदार थे. इसका प्रमाण यह है कि जब उनका सिर किसी चौखट से या घुटना किसी मेज़ से टकराता था, तो वे अपने माथे या घुटने को नहीं, मेज़ या चौखट को सहलाते हुए कहते थे : “आयम रियली वेरी सॉरी. आपको कहीं चोट तो नहीं आई?” लेकिन दुर्भाग्य से एक बार दिल्ली की सड़क पर वे अस्सी कि॰मी॰ प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ती ब्लू लाइन बस से टकरा गए. इसके पहले कि वे ब्लू लाइन बस से यह पूछें कि, “बहन जी, आपको कहीं ठोकर तो नहीं लगी?” उनकी चेतना पदार्थ में बदल चुकी थी.”16
मार्क्सवादी ‘मटीरियलिज़्म’ अथवा भौतिकवाद को यह कहानी चुटीले और सहज-सरल रूप में प्रस्तुत करती है. मार्क्स द्वारा प्रस्तुत मनुष्य के ‘मिथ्या चेतना’ में रहने की अवधारणा को इसमें लक्षित किया जा सकता है. मार्क्सवादी कला-साहित्य सौंदर्यशास्त्र की व्यापक दृष्टि से उदय प्रकाश की कहानियों का अलग से विश्लेषण करने की आवश्यकता है. उदय प्रकाश स्वयं कहते हैं-
“मार्क्स ने तो विचारधारा (आइडियोलॉजी) को समाज की अधिरचना (सुपर-स्ट्रक्चर) का ही लगभग पर्याय माना था, जिसमें राजनीति, धर्म, दर्शन, ललित कलाएँ, संस्कृति, विज्ञान, मिथ्या चेतनाएँ, आदि अनेक तत्व सम्मिलित थे. ये सब एक-दूसरे से अंतः संबंधित होते हुए एक-दूसरे के साथ द्वन्द्वात्मक प्रतिक्रियाओं के साथ संश्लिष्ट होते हैं.”17
जादुई यथार्थवाद को लेकर भी उदय प्रकाश पर ख़ूब बहस हुई है. एक नया पाश्चात्य आलोचनात्मक संदर्भ जो उदय प्रकाश की कहानियों से जोड़ा गया वह है ‘जादुई यथार्थवाद’. हालाँकि लेखक स्वयं ऐसी किसी संभावना से इनकार करता है कि उसने अपनी कहानियों में जादुई यथार्थवाद को लक्षित किया है अथवा यह अनायास आ गया है. एक साक्षात्कार में जादुई यथार्थवाद पर प्रश्न किए जाने पर उदय प्रकाश उत्तर देते हुए कहते हैं- “लोग क्या कहते हैं, यह सुन-सुन कर मेरे कान पक चुके हैं. जादुई यथार्थवाद जैसी चीज़ से न मेरा पहले कोई संबंध था, न आज है. मेरी रचनाओं में इसे कुछ लोगों ने ढूँढा. लेकिन आप से मैं पहले भी कह चुका हूँ, ‘टेपचू’ मैंने लिखी 1976 में आपातकाल के दौर में. तब तो जादुई यथार्थवाद कोई नहीं जानता था, मेरे खयाल से नामवर सिंह भी नहीं जानते थे. तब कहीं इसका कोई हल्ला ही नहीं था.
‘टेपचू’ के बाद एक और कहानी लिखी गयी. मेरी कहानियों में कहीं कुछ ऐसा था जिसे पश्चिमी भाषा में मैजिकल कहा जा सकता है. और भारतीय संदर्भ में देखें तो हमारी जो पूरी परंपरा रही है आख्यान की, जिसमें जातक, पंचतंत्र, दादी-नानी की कहानियाँ, लोककथाएँ आती हैं, उसमें पहले से यह बात है. मैं तो जानता भी नहीं था कि कुछ अनोखा काम कर रहा हूँ. लेकिन मेरी कहानियों में जादुई यथार्थवाद ढूँढने का काम किया कुछ आलोचकों ने.”18 जादुई यथार्थवाद को लेकर जिन प्रमुख कहानियों पर बात होती है वह हैं, ‘तिरिछ’, ‘टेपचू’, और ‘हीरालाल का भूत’. कुछ आलोचक यह भी कहते हैं कि यथार्थवाद का यह जादुई रूप उदय प्रकाश ने ‘मार्केज़’ से ग्रहण किया है.
“जादुई यथार्थवाद एक परागामी शैली है; यह ठीक है किन्तु इसका आधार वास्तविक यथार्थ ही होता है. जादुई यथार्थवाद वास्तविक यथार्थ से परे जाने या कि उसका अतिक्रमण किए जाने की प्रक्रिया के तहत ही ईज़ाद हुआ था. ……….हिन्दी तथा विश्व-साहित्य के एक विज्ञ व तर्कशील पाठक अरुण माहेश्वरी की इस बात से असहमत होने का कोई कारण हमें नहीं दिखता- ‘लैटिन अमेरिकी जादुई यथार्थवाद की सारी शक्ति आदमी के भौतिक जगत और आत्मिक जगत – दोनों के ही विस्मयों के द्वंद्वात्मक सह-अस्तित्व को तलवार की धार पर चलने के संतुलन और रोमांच के साथ व्यक्त करने में निहित रही है. गोबर युग से लेकर रॉकेट युग, इलेक्ट्रानिक युग तक के यथार्थ के संश्लिष्ट जीवन को व्यक्त करने की जिस शक्ति का परिचय मार्क्वेज़ ने दिया है, वह शैली तीसरी दुनिया के सारे देशों के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिये कारगर हो सकती है.\”
(हंस; अर्द्धशती विशेषांक: खंड-1 अगस्त-सितंबर, 1997; पृ॰7).”19
राजेन्द्र यादव का यह कहना कि उदय प्रकाश ‘मार्केज़’ से प्रभावित हैं कोई बड़ी बहस की बात नहीं है. कोई भी लेखक किसी लेखक से प्रभावित अवश्य होता है. जादुई यथार्थवाद भी कोई ऐसी बुरी विषय-वस्तु नहीं है. यह भारतीय कथा साहित्य की परंपरा में विद्यमान रहा है. देश-विदेश की लोक-कथाओं में यह अपने विभिन्न रूपों में विद्यमान रहा है. प्रायः लैटिन अमेरिकी उपन्यासकारों ‘मार्केज़’, ‘बार्खेस’ से जोड़कर इसकी चर्चा की जाती है. किन्तु यह ऐसी कोई आसमानी वस्तु नहीं जिस पर विवाद उत्पन्न किया जाय.
“औपनिवेशिक काल में योरोपीय शासकों को अपने शासित देशों के समाज की जो परम्पराएँ, जो मान्यताएँ समझ में नहीं आयीं उसे उन्होंने जादू-टोने की संज्ञा दे दी. बजाय इसके कि उसकी जटिलताओं को समझते और उनके प्रति लोगों की आस्थाओं को समझते. तो यह वही जादुई यथार्थवाद है. इसे विरूद्धों के सामंजस्य की शैली में भी पढ़ा जा सकता है. यह सामंजस्य लौकिक-अलौकिक के सम्मिलन के रूप में दिखाई देता है तो शहरी और ग्रामीण परम्पराओं के सामंजस्य के रूप में भी दिखाई देता है जिसे हाइब्रिड कहा जाता है. कभी-कभी उसे हालत की भयावहता को दिखाने के लिए भी उपयोग में लाया जाता है. उदाहरण के लिए ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ में यह दिखाया गया है कि जब केला-बागान के मज़दूरों का क़त्लेआम हुआ तो मकोन्दो में पाँच साल तक बारिश होती रही और उस बारिश में उस नरसंहार के सारे निशान धुल गए.”20
‘मार्केज़’ से प्रभावित होने के कारण उदय प्रकाश की रचनाओं में जादुई यथार्थवाद आ गया है यह कहना अनुचित है. भारतीय समाज में ऐसे मिथक बहुत हैं जो जादुई यथार्थवाद जैसे ही हैं. जैसे गाँवों में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर वर्षा होना, किसी के मरने से पहले बिल्ली और कुत्तों का रोना आदि आदि. और यदि इसे जादुई यथार्थवाद मान लिया जाय तो परंपरागत भारतीय कथा-साहित्य जादुई यथार्थवाद का ख़जाना है. ‘हीरालाल का भूत’ में जो जादुई यथार्थवाद आया है वह उसी गँवई परिवेश के मिथकों पर आधारित है. वहाँ ठाकुर हरपाल सिंह के घर में जो घटित हो रहा है वह उसकी अपरोधबोधग्रस्त मानसिकता के कारण है.
“इतना ही नहीं, कभी-कभी ठाकुर हरपालसिंह संडासघर में टट्टी करने जाते तो बाहर से कोई साँकल चढ़ा जाता और उन्हें देर तक उसमें बंद होकर आवाज़ें लगानी पड़तीं. एक रात तो गजब ही हो गया. सरला बेबी को लगा कि रात में कोई उनकी छाती पर चढ़ गया और ऐसी-वैसी जगह हाथ डालने लगा. उन्होंने उठना चाहा, बोलना चाहा, चीखना चाहा, लेकिन सब बेकार. शरीर का कोई भी हिस्सा उनका साथ नहीं दे रहा था. सब सुन्न हो गया था. रात ज़्यादा भी नहीं हुई थी. किसी ने अचानक उसके ट्रांजिस्टर की आवाज़ ख़ूब ऊँची कर दी और इसके बाद सुबह उन्हें होश आया तो उनके शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था और रात में उनके साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती कर डाली गयी थी.”21
यहाँ पर घटनाएँ स्वाभाविक ढंग से घट रही हैं. इनमें जो रहस्यमयता है वह ग्रामीण जीवन की एक सहज और प्रचलित प्रवृत्ति भर है. हीरालाल के साथ हुए अन्याय को इन घटनाओं के माध्यम से शमित किया गया है. बुराई को उसके अपराधबोध के साथ उसका दंड भुगतने के लिए छोड़ दिया गया है. इस प्रकार हम पाते हैं कि उदय प्रकाश की कहानियों में जादुई यथार्थवाद लक्षित नहीं है वह स्वतः आ गया है और भारतीय कथा-साहित्य के लिए यह कोई नई बात नहीं है. पंचतंत्र से लेकर जातक कथाओं तक यही जादुई यथार्थवाद देखने को मिलता है. प्रेमचंद की कहानियों से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों तक जादुई यथार्थवाद व्याप्त है. इसके लिए उदय प्रकाश को विवादास्पद करना निकृष्ट, आलोचकीय दृष्टि होगी. क्योंकि यह उदय प्रकाश की कुछ कहानियों में आता भी है तो सकारात्मक रूप धारण करके.
तिरिछ अपने शिल्प और कथानक की दृष्टि से अनूठी रचना है. ग्रामीण मिथकीय जीवन के साथ इसमें उदय प्रकाश ने फैंटेसी का प्रयोग भी किया है. वे मूलतः कवि हैं और इस कहानी में उनका कवि रूप मुखर हुआ है. उनके पास गत्यात्मक गद्य है जो गीत की सी बोली बोलता है और कविता जैसा आभास पैदा करता है. यह गद्य का गीत उनकी आत्मकथात्मक कहानियों में भी देखा जा सकता है. ‘नेलकटर’ और ‘डिबिया’ इस दृष्टि से सघन अनुभूति और भावोद्रेक की कहानियाँ हैं . “क्योंकि चीज़ें कभी खोती नहीं है. वे तो रहती ही हैं. अपने पूरे अस्तित्व और वज़न के साथ. सिर्फ़ हम उनकी वह जगह भूल जाते हैं.”22 यह काव्यात्मकता उनकी ‘डिबिया’ आत्मकथा में भी है- “लेकिन जो नहीं है, उसके लिए, जो है, उसे दाँव पर लगाना क्या कोई समझदारी है !”23
‘तिरिछ’ पर यह आरोप लगाया गया कि वह ‘मार्केज़’ की ‘Chronicle of a Death Foretold’ की नकल है. यह कहने वालों ने निश्चय ही ‘मार्केज़’ की इस किताब को नहीं पढ़ा है. घट चुकी घटना को नरेटर के माध्यम से वर्णित करने की शैली का प्रयोग दोनों कहानियों में है, यह स्वीकार किया जा सकता है लेकिन सीधे-सीधे नकल कह देना अनुचित ही नहीं एक तरह का पूर्वग्रह और लांछन है. घटनाक्रम का वर्णन, स्वप्न और फैंटेसी दोनों कहानियों में है. ‘Chronicle of a Death Foretold’ की शुरुआत में ही बताया गया है कि ‘Santiago Nasar’ पेड़ों के स्वप्न देखता है. इसमें नरेटर को उसके विषय में सारी जानकारियाँ उसकी माँ से मिलती हैं. ‘तिरिछ’ में नरेटर स्वयं मृतक का पुत्र है जो अपने पिता की सभी प्रवृत्तियों से अवगत है. वह भी सपने में तिरिछ को बार-बार देखता है और भयाक्रांत होता है.
“मैं गोल-गोल चक्कर लगाता, जल्दी-जल्दी पास-पास डग भरकर अचानक खूब लंबी-लंबी छलाँगें लगाने लगता, उड़ने की कोशिश करता, किसी जगह पर चढ़ जाता, लेकिन मेरी हज़ार कोशिशों के बावजूद वह चकमा नहीं खाता था. वह मुझे बहुत घाघ, समझदार, चतुर और खतरनाक लगता. मुझे लगता कि वह मुझे खूब अच्छी तरह से जानता है. उसकी आँखों में मेरे लिए परिचय की जो चमक थी, उससे मुझे लगता कि वह मेरा ऐसा शत्रु है जिसे मेरे दिमाग में आने वाले हर विचार के बारे में पता है.”24
‘तिरिछ’ अपने रचना-विधान में अत्यंत मौलिक और हिन्दी की उत्कृष्ट कहानी है. इसका ग्रामीण भावबोध शहरी पूँजीवाद की स्थितियों का स्पष्ट पता देता है. फैंटेसी का प्रयोग कहानी को और भी यथार्थवादी आधार प्रदान करता है.
उदय प्रकाश का कथा साहित्य अपनी संवेदनात्मक संश्लिष्टता, शिल्प की नवीनता और कथानक की कसावट से अद्भुत प्रभाव पैदा करता है और पाठक के मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है. उसकी पक्षधरता स्पष्ट है. वह ‘टेपचू’ के साथ अंत तक खड़ा है और उसे मरने नहीं देता. उदय प्रकाश ने ग्रामीण यथार्थ के साथ शहरी यथार्थ को मिलाकर ऐसे अनूठे आख्यान तैयार किए हैं कि वह हमारे समय, समाज और देश की बदलती हुई तस्वीरों का दर्पण बन जाता है. ‘मोहन दास’ जैसी रचना सीधे-सीधे मनुष्य की अस्मिता के प्रश्न को उठाती है. वह सिद्ध करती है कि इस दौर में आपका हक़ तो छीना ही जाएगा साथ में आपकी अस्मिता को भी हड़प लिया जाएगा. ‘दत्तात्रेय के दु:ख’ दरअसल प्रत्येक श्रमशील और ईमानदार व्यक्ति के दु:ख हैं. उनका सम्पूर्ण कथा-साहित्य मनुष्यता को बचाने की क़वायद को लेकर चलता है और उसमें सफल भी होता है. भले ही वह अपने पाठक को आशावाद से छलते नहीं हैं.
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संतोष अर्श उदय जी के साथ.