रज़ा |
समाज में निरुद्यमी व्यसन मानी जाने वाली कविता इन दिनों परवान पर है. जबसे इंटरनेट, फेसबुक, बेवसाइट्स का प्रचलन बढ़ा है, हर आदमी बैठे ठाले नित्यकर्म की तरह कविताओं के उत्पादन में लग गया है. इसके लिए कवि होना जरूरी नहीं रहा. किसी शास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता नहीं रही. बस अपने विचारों और भावों को ज्यों का त्यों छाप देना है. अब संपादकों के सखेद पत्रों का कोई भय नहीं रहा. कोई दिलजला शख्स भले कहे कि यह भी कोई कविता हुई पर आप अविजित भाव से मुस्कराते रह सकते हैं क्योंकि इसी तथाकथित कविता को पसंद करने वालों और उस पर टिप्पणी जड़ने वालों की संख्या सैकड़ों में है. आपने चरम सीमा तक जाकर मित्र संख्या इसीलिए बढ़ाई है ताकि एकाधिक विसंवादी स्वरों पर लगाम लगाई जा सके. अकेले रहने वाले लोग यों ही कवि मुद्रा में रहते हैं. फेसबुक पर तमाम पेशों से जुड़े लोग, महिलाऍं लड़कियॉं सब कविता–कलरव में शामिल हैं. मैत्री अनुरोध स्वीकार करते हुए लगता है यह शख्स कदाचित कविता की व्याधियों से दूर हो. पर दूसरे ही दिन वाल पर कविताओं की टैगिंग से लगता है फिर एक अतिक्रमण हुआ है. फिर एक कवि का वाल पर इजाफा हुआ है. यह मैत्री का चस्का नहीं, यह कविता पढ़वाने और प्रशस्ति लिखवाने की ख्वाहिश है, आत्मश्लाघा है. ऐसी रद्दी और नकचढ़ी कविताऍं कि सिर भन्ना जाए लेकिन आप कुछ कर नहीं सकते. आप कुछ काम कर रहे हैं कि एक लिंक आपके चैट बाक्स में आ धमका है. नमस्कार की विनयी भंगिमा के साथ. पूछता हूँ यह क्या है. उत्तर मिलता है, कृपया अपनी वाल पर देखिए. वाल पर उनकी प्रस्तुति विराजमान है. टेढ़ी मेढ़ी सतरें जिन्हें वे कविता कह रहे हैं. सैकड़ों लोग रात भर में लाइक कर चुके हैं. अब मेरी बारी है. जल्दी से लाइक का बटन दबा कर टैग हटाता हूँ. यही आए दिन की कवायद है. हालॉंकि पल्प लिटरेचर को मात देता यह वेबलोक अच्छी और सुघर कविताओं का घर भी है.
एक वक्त था ब्लाग और बेवसाइट्स का बोलबाला था. लोग इन लिंक्स पर जाकर करीने से सँजोई रचनाऍं देखते पढ़ते थे. यह एक सामाजिक कार्यभार जैसा लगता था. अब यह पारस्परिक मैत्री और तुष्टीकरण का मंच लगने लगा है. हर ब्लाक संयोजक में भाईचारा और बहनापा है. हर संयोजक छोटा मोटा कवि है. वह कवियों को लुभावनी भाषा में लांच कर रहा है. उसे कोई और कर रहा है. हर संयोजक के पास अपने पाठक मित्र हैं जो घूम फिर कर अपनी टिप्पणियॉं दर्ज करने को इस महान कविता–समय में महान काम मानते हैं. आप नहीं दर्ज कर रहे हैं तो कविता–समय से कहीं पीछे चल रहे हैं. यद्यपि कुछ ब्लाग और बेव पत्रिकाऍ इस काम को एक अनुष्ठान की तरह सम्पन्न कर रही हैं और इन पर अच्छे कवियों की कविताऍं दिख जाती हैं. कवियों के सुसम्बद्ध चयन को लेकर इनका कोई एजेंडा नही होता. अधिकांश \’जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया\’ वाले भाव से आढतियागीरी करते हैं या कहीं किसी साइट आदि पर पहले से मौजूद कविताओं को उड़ा कर अपने वाल की शोभा बढ़ाते हैं.
ऐसे कवितानुकूल समय में जब कविताओं की बाढ आई हो, अपने पैसे से संग्रह छप रहे हों, स्तरीयता की सारी कसौटियॉं बेमानी हो चुकी हों, कविताओं के अम्बार से अच्छी कविताएं खोज पाना सहज नहीं रहा. एक इवेंट मैनेजमेंट की तरह पुस्तकें लांच हो रही हैं और उनके अपरिहार्य लोकार्पणों से कविता के देवताओं, आलोचकों ओर संपादकों को खुश करने की कार्रवाइयॉं चल रही हैं. मुद्रास्फीति के इस जमाने में शहर दर शहर सगे–संबंधियों, कवियों महाकवियों के नाम पर पुरस्कार स्थापित हैं और एक विनिमय के कारोबार की तरह इसे संपर्कवाद के रूप में भुनाया जा रहा है. \’संत को कहा सीकरी सो काम\’ कहते कहते संत संसदों में जा पहुंचे. इसी तरह खानकाहों में रह कर कविता लिखने को धर्म मानने वाले कवियों की संतानों ने शानदार नौकरियों के साथ यह पार्टटाइम शौक भी पाल लिया, जिससे समाज में एक रसूख हासिल हो सके जो कुर्सियों की बदौलत मिलता है कविताओं की बदौलत नहीं. वे संस्कृत की इस नीति का अनुधावन करते हैं: यस्यास्ति वित्त: स नर: कुलीन:. स पंडित स: श्रुतवान गुणज्ञ:. लिहाजा कविता की फसल हर वक्त सरसब्ज दिखती है. लगता है समाज कवितामय हो गया है. पर वास्तव में ऐसा नहीं है. आज भी अच्छी कविता विरल ही दिखती है. जीवन और समाज छंद–रस–लय–गति–हीन दिखता है.
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ऐसे कविता बहुल समय में अच्छी कविता का आकलन वास्तव में कठिन है. साल 2012 में अनेक संग्रह आए गए. कुछ की चर्चा हुई कुछ चर्चाकारों की बाट ही जोहते रहे. हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य है कि वह अपने कर्तव्य से इन दिनों विमुख सी है. आलोचना को विमर्श में बदलने का परिणाम यह हुआ है उसमें आलोचना की खरी खोटी सुनाने की गुंजाइश नहीं होती. सब विमर्श की समरसता में घुल मिल जाता है. कविताओं पर लिखी जा रही समीक्षाओं को पढ़ कर लगता है यह फलाहारी समीक्षा है. सब कुछ सुभाषित के अंदाज में कहा गया होता है. हर दूसरा कवि लीक तोड़ने वाला कवि होता है, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार की परंपरा से जुड़ने वाला.जैसे कहानियों में एक वक्त हर तीसरा कथाकार प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ता हुआ पाया जाता था. बेशक उसे अपनी परंपराओं का भान न हो. कविता–आलोचना का नुकसान कवियों ने अपने संपर्कवाद का वास्ता देकर भी खूब किया है.
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आज प्रकाशन के जो हालात हैं वे बहुत अच्छे नहीं हैं. पुस्तकों के प्रचार को जो नेटवर्क देश भर में होना चाहिए वह नही है. लिहाजा किसी भी पुस्तक की उपलबधता केवल प्रकाशक के यहॉं या दो–चार बड़े वितरकों तक ही है. पत्रिकाओं की हालत थोडी बेहतर हो सकती है. इसलिए कविता की पुस्तकें छप तो रही हैं पर वे पाठकों तक पहुँच नही पा रही हैं. अपने को लोक कवि कहलाने का दावा करने वालों को लोग पहचानते तक नहीं. लोक का ढिंढोरा केवल उनकी पारिभाषिकियों तक सीमित है. कया कारण है कि कवियों की आवाज आज दूर तक सुनाई नही देती? अच्छे से अच्छे कविता संग्रह अपने सीमित संस्करणों में सिमट कर रह जाते हैं. लोगों तक पहुंचते नहीं. कवि सम्मेलनों से गंभीर कविता ने पहले ही किनारा कर रखा है. इसके बावजूद अच्छी कविता के रसिक हैं और वे ऐसी कविताओं की टोह में रहते हैं जिनमें जीवन संसार को समझने का सलीका हो. कविता संसार पुस्तकों और पत्रिकाओं दोनों से बनता है.
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2012 में लगभग साठ सत्तर कविता संग्रह प्रकाशित हुए यानी विरल होते समाज में भी कविताऍं अप्रतिहत भाव से लिखी और छापी जा रही हैं. विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर राजकमल प्रकाशन से कई संग्रह एक साथ आए. विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल, प्रियदर्शन, सविता भार्गव, प्रज्ञा रावत, वर्तिका नंदा, निशांत व तजिन्दर सिंह लूथरा के संग्रह. बाद में प्रताप राव कदम और हरीश आनंद के संग्रह भी आए. साल के आखिरी दिनों में अष्टभुजा शुक्ल का बहुप्रतीक्षित बहु चर्चित पद कुपद भी आ गया. कविता का माहौल बनाने में इन संग्रहों का अपना योगदान रहा है. दूसरे बड़े प्रकाशन प्रतिष्ठान भारतीय ज्ञानपीठ से गौरव सोलंकी, प्रदीप जिलवाने, अंशुल त्रिपाठी, श्रीप्रकाश शुक्ल, उमेश चौहान और नरेश सक्सेना के संग्रह आए. एक वक्त कविता संग्रहों की झड़ी लगाने के बाद अब लगता है, ज्ञानपीठ ने अपने हाथ कविता संग्रहों से सिकोड़े हैं. यो संग्रहों की बारिश में औसत की बरसात ज्यादा होती है. लिहाजा, जो बात एक सीरीज में एक वक्त सात आठ कवियों के संग्रह निकले थे बोधिसत्व, प्रेमरंजन अनिमेष, निर्मला पुतुल, वसंत त्रिपाठी, अरुण देव, संजय कुंदन जैसे कवियों के, वैसी बात इधर साल–दो साल पहले निकले रविकांत, निशांत, वाजदा खान,नीलोत्पल आदि कवियों की सीरीज में न थी. यद्यपि इसमें नीलोत्पल ,रविकांत व वाजदा खान की कविताओं में एक उम्मीद भरी उठान दिखाई देती है पर इस सीरीज को वह गरिमा न मिल सकी.
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इधर गौरव सोलंकी जरूर अपने प्रतिरोध–प्रदर्शन के चलते विवादों में रहे, पर उनके संग्रह सौ साल फिदा पर भी कोई वाजिब समीक्षात्मक परिणति देखने में नहीं आई. श्रीप्रकाश शुक्ल के तीसरे संग्रह रेत पर आकृतियॉं ने भी अपने पिछले संग्रह बोली बात जैसी चर्चा हासिल नहीं की जो उनके जैसे कवि को मिलनी चाहिए थी. यह और बात है कि गंगातट को पूरी तरह ज्ञानेन्द्रपति के व्यवहृत करने के बाद खँखोरने के लिए रेत पर आकृतियों के सिवा अब शायद ही कुछ बचा हो जिस पर कविताऍं टांकी जा सकें. तिस पर ज्ञानेन्द्रपति के गंगा को लेकर ही एक और संभावित संग्रह के आ जाने के बाद तो गांगेय पृष्ठभूमि पर कविताएं लिखने की शायद ही जरूरत महसूस हो क्योंकि न तोज्ञानेन्द्र जैसा कोई कुलवक्ती कद्दावर कवि हमारे बीच है न वैसी चित्रकारिता और बिंब–संयोजन सबके वश का है. लिहाजा, श्रीप्रकाश शुक्ल या किसी भी बनारसी कवि को कविता के लिए गंगातट या तज्जन्य कथ्य के अलावा अन्य उपादान खोजने होंगे. हां, अंशुल त्रिपाठी का संग्रह आधी रात में देवसेना जरूर ध्यातव्य है. अपनी ताजगी और रागात्मकता के कारण अनेक अछूती कल्पनाऍं यहां मिलेंगी पर इसमें कविताओं के चयन में थोड़ी सख्ती बरती जाती तो कई कविताओं के यहां देने का कोई औचित्य न बनता. इसलिए पृथुलता के बावजूद वह बात इसमें नहीं दिखती जो साहित्य अकादेमी से प्रकाशित कुमार अनुपम के पहले संग्रह बारिश मेरा घर है में दिखती है. ऐसा नही कि ये कविताऍं सर्वथा निर्दोष हैं या हाल में भारत भूषण पुरस्कार पाने के कारण ऐसा कह रहा हूँ, बल्कि यह इस संग्रह से भी प्रमाणित है कि ज्ञानेन्द्रपति जैसे कवि ने इस संग्रह की अनेक मानीखेज कविताओं ओर उनके वेधक रेंज का जायज़ा लेते हुए आश्वस्ति व्यक्त की है. पुरस्कारों की आज जो हालत है उसमें भारतभूषण पुरस्कारसंदेह के दायरे से बाहर नही है. निर्णायक की अपनी रूचि से परिचालित होने के चलते इससे पुरस्कृत कई कवियों ने अपने कवि–कद से लुभाया है तो कई ने चौंकाया भी है. इस पुरस्कार समिति के ही एक सदस्य रहे विष्णु खरे जैसे कवि–आलोचक का पुरस्कृत कवियों के बारे में जारी तीखा बयान बेशक कई युवा कवियों की नींद उड़ाने वाला हो पर उसमें 25 प्रतिशत सचाई भी है. यही वजह है कि निंदक को नियरे न रखते हुए ‘उर्वरप्रदेश’ में समाविष्ट वक्तव्य को हटा कर उसकी जगह अशोक वाजपेयी की स्वस्तिकारी भूमिका लगायी गयी.
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कविता संग्रहों के प्रकाशन में तत्पर बोधि प्रकाशन जयपुर ने अल्पमोली किताबें छाप कर चकित तो किया ही है, उनके प्रस्तुतीकरण में भी एक सलीके का परिचय दिया है. 2012 में इस प्रकाशन से आए वरिष्ठ कवि हेमंत शेष के संग्रह खेद योग प्रदीप और सवाई सिंह शेखावत के संग्रह \’कितना कम जानते हैं हम ख्यातिहीनता के बारे में\’ के साथ दिनकर कुमार (क्षुधा मेरी जननी), अभिज्ञात (खुशी ठहरती है कितनी देर) ओर राघवेंद्र (एक चिट्ठी की आस में), के संग्रह उल्लेखनीय हैं. राजस्थान के कवियों में सवाई सिंह शेखावत ने बोधि प्रकाशन से आए अपने संग्रह ‘कितना कम जानते हैं हम ख्यातिहीनता के बारे में’ से एक बढ़त ली है. उनके कई संग्रह अब तक आ चुके हैं. हरीश करमचंदानी के रचना प्रकाशन से आए संग्रह ‘समय कैसा भी हो’ की कविताओं ने भी ध्यान खींचा है. राजस्थान के अन्य कवियों अनिरुद्ध उमट,प्रेमचंद गांधी व प्रभात जैसे कवियों से उम्मीद है कि वे अनुभव और संवेदना के तंतुओं से नई कसीदेकारी करते हुए कविता को और आगे ले जाऍंगे.
युवा कविता का क्षितिज
कहने की जरूरत नहीं कि मैथिलीभाषी इस कवि की कविता की मिट्टी इस भाषा की महक से सनी है जिसकी नींद सबसे अलग है, जिसका जगना सबसे अलग, जिसकी चाहत है एक अदद मनुष्य होने का सुख उठाना और मकई के दाने सा भुट्टे में पडे रहने का लुत्फ. मनोज से युवा कविता को काफी उम्मीदें हैं. प्रियदर्शन खबरों की दुनिया में रहने वाले इंसान हैं किन्तु नष्ट कुछ भी नहीं होता जैसे अपने पहले संग्रह से ही उम्मीदें जगा दी हैं. पहली ही नज़र में विष्णु खरे जैसी दिखने के बावजूद उनके नैरेटिव में उबाऊपन नहीं है न ही उनमें खरे जैसे मेगा नैरेटिव रचने की ख्वाहिश दिखती है. वे आस्थाओं, मूल्यों, विश्वासों के संशयग्रस्त समय में अच्छी कविता की गुंजाइश तलाश रहे हैं: फिर भी कई कोने हैं/कई सभाऍं/कई थकी हुई आवाजें/कई थमे हुए भरोसे/कई न खत्म होने वाली लड़ाइयॉं/ जिनमें बची हुई है एक अच्छी कविता की गुंजाइश. अचरज नहीं शब्दों के चाकचिक्य और वाचिक वैभव में जीने वाले प्रियदर्शन इस संग्रह की कई कविताओं में कविता लिखने की मुश्किलों का जायज़ा लेते हैं. मुझमें मेरी कविताऍं बनी रहें—के ख्वाहिशमंद प्रियदर्शन के इस फलसफे से शायद ही किसी युवा कवि को एतराज हो:
अनामिका प्रकाशन से आया अमिताभ मिश्र का संग्रह कुछ कम कविता भी कम ध्यातव्य नहीं है. उमेश चौहान के संग्रह जनतंत्र में अभिमन्यु में गद्य पद्य चम्पू जैसा काव्यास्वाद है तो ओम भारती के नए संग्रह ‘अब भी अशेष’ में प्रगतिशील चिंतन के कुछ और सबूत मिलते हैं जो उनकी कविताओं की आधार भित्ति का काम करते हैं. मुक्त छंद का अपना प्रवाह उनमें है. सुधीर सक्सेना का संग्रह किताबें दीवार नही होती मित्रों के लिए यादगार संग्रह होगा क्योंकि सारी की सारी कविताऍ मैत्री के नाम हैं. तजिन्दर सिंह लूथरा के पहले संग्रह ‘अस्सी घाट का बॉंसुरीवाला’ में नि:संकोच उनके कवित्व की दाद देनी होगी. उन्होंने यह सिद्ध किया है कि एक पुलिस अधिकारी के भीतर भी कवि का दिल धड़कता है. चाहे तनिक देर से कविता की देहरी पर यह पहला कदम हो, लूथरा ने यथार्थ का कचरा इकट्ठा करने की बजाय उस आवाज की परवाह की है जो उनके भीतर से निकलती है.
नरेन्द्र जैन की इस साल चौराहे पर लुहार संग्रह आधार प्रकाशन से आया किन्तु लगता है, उदाहरण के लिए और सराय में कुछ दिन व काला सफेद में प्रविष्ट होता हैवाले नरेन्द्र जैन अब वैसे नही रहे. कविताओं में अहसासे–कमतरी का बोध क्यों होता है उन्हें पढ कर समझ नही आता. उनका यह लिखना कि कविता को जिरह होना है अब एक फौरी जरूरत के तहत—कहीं उनकी कविता के मोटिव में तो शुमार नही हो चुका है. कदाचित ऐसा है तो यह कवि के लिए घातक है. हेमंत शेष कलावादी रुचियों को प्रश्रय देने वाले कवि हैं और दशाधिक संग्रहों से उन्होंने इतनी हैसियत कविता में जरूर बनायी है कि उन्हें याद रखा जा सके. किन्तु छोटी कविताओं के खुमार में निकाले गए शीर्षक हीन संग्रह खेद योग प्रदीप में खेद का ही योग ज्यादा बनता है क्योंकि कविता शिकायतों का पुलिंदा नही है न ही वह उपहास का मंच. लिहाजा हेमंत का निरीह व्यंग्य प्रगतिशीलों पर यों टूटता है: ‘प्रगतिशील कवि खुश है—पालतू होने के बाद/आकाशवाणी बिचारी यों दे दे कर मार्क्सवादियों को नौकरी / सोखती है न जाने कित्तों का जनवादी क्रोध.‘ अब यह शिकवा–शिकायत कुछ भी हो, कविता नही है. अब इसके बाद वे अमृततुल्य शब्द भी कहें मसलन: वृक्ष को ईर्ष्या है कि मेज को कोई दुख नहीं—तो भी उनके कवित्व पर मन नहीं टिकता. साल के आखिर में हिमाचल के वरिष्ठ कवि श्रीनिवास श्रीकांत का संग्रह चट्टान पर लड़की और प्रकाशन संस्थान से दिविक रमेश का संग्रह बॉंचो लिखी इबारत आया है. किताबघर से आया प्रताप सहगल का संग्रह मुक्तिद्वार के सामने एक नए भावबोध की कविताओं से संपन्न है.
यह एक जैसी त्रासदी का दो कवियों का जैसे साझा सा अनुभव है जब विनोद कमार शुक्ल लिखते हैं: ‘मेरा स्थायी पता मुझसे खो गया है/ मेरा पता कमानेखाने के लिए भागते एक एक लोगों के पीछे चला गया जिनमें जमाने भर के छत्तीसगढ़िया भी शामिल हैं. ‘ एक गहरी मानवीय और स्थानिक चिंता में यह कवि सोचता है: ‘इस साल का भी अंत हो गया/ परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार/ छोटे छोटे बच्चे नहीं दिखे/ कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का सिलसिला तो नहीं.‘ वह मनुष्य को बचाने मे तल्लीन रहता हुआ सोचता है : ‘मनुष्य का जन्म बड़ा है/ किसी भी कविता के जन्म से. और यद्यपि कविता मनुष्य को बड़ा बनाती है. उन्हें यह जीवन इतना अमूल्य लगता है कि वे इसे भूलना नही चाहते तथा मर कर खोना भी और जब कोई भी दुखी नहीं होगा—एक दिन ऐसा भी वे देखना चाहते हें.
यह साल कविता को लेकर कुछ प्रमुख घटनाओं के लिए भी स्मरण किया जाएगा. एक घटना फेसबुक की तथाकथित कवयित्रियों को लेकर लिखी गयी हेमंत शेष की कविता से जुड़ी है जिसे स्त्री–अवमान या उसे ठेस पहुंचाने के उपक्रम के रूप में देखा गया. किन्तु उत्तरोत्तर फेसबुक पर फूल–फल रहे चालू कविता–कारोबार को देखते हुए हेमंत शेष के साहस की दाद देनी होगी कि कुछ स्त्री–पुरुषों ने अपनी चालू काव्ययुक्तियों से कविता को चुटकुला बना देने की हद तक नीचे गिराया है जिसकी निंदा में लिखी कविता पर अनेक भद्र कवियों की भृकुटियॉं भी तनीं. दूसरी घटना थी अनामिका और पवन करण की दो ऐसी कविताओं पर विमर्श का ज्वार जिनमें वक्ष कैंसर से ग्रस्त स्त्री को लेकर कविता का स्वैराचार रचा गया था. अनामिका ख्यात कवयित्री हैं और पवन करण भी अच्छे कवियों में हैं पर बहन का प्रेमी और भाभी का प्रेमी जैसी कविताएं लिखने के लिए ख्यात और अतियथार्थवादी होने के उत्साह में यदा कदा कविता को दुस्साहसिक मोड़ देने वाले पवन करण की कैंसरग्रस्त स्त्री पर लिखी और अनामिका की कैंसरग्रस्त स्त्री की अनुभूति को परिहास में बदलने वाली विवादित कविताओं की शालिनी माथुर ने समाजशास्त्रीय व्याख्या कर उसकी धज्जियॉं उड़ा दीं और इन कविताओं को असामाजिक और अप्रकृत करार दिया. इस पर इन कवियों की सदाशयता के साथ खड़े कतिपय समर्थकों, आलोचकों ने एक बड़ी मुहिम चलाई पर इस विवाद पर जैसी कलम प्रभु जोशी की चली, उसने इन कविताओं के कदाशय व इनके रचयिताओं की काव्ययुक्तियों की कलई खोल कर रख दी और समर्थकों के आचार्यत्व को जबर्दस्त चुनौती दी .
\’फॉक\’, \’मास\’ और \’पब्लिक स्फियर\’ को लेकर बोधिसत्व, एकांत अलग सोचते हैं, अजय तिवारी अलग. पर ग्रामीण लोक की तरह शहरी लोक का भी अपना अस्तित्व और जद्दोजेहद है, इसे अजय तिवारी तथाकथित \’लोक\’ से बाहर मानते हैं. आठवें और नवें दशक के कवियों के बीच विभाजन रेखा खींचते हुए मदन कश्यप ने एक वर्गीकरण भी पेश किया है किन्तु मोटे तौर पर नक्सलवाद विरोध को आठवें दशक के और सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद विरोध को नवें दशक की कविता के वैशिष्ट्य के रूप में देखा गया है. किन्तु देखा जाए तो कविता देश, काल और परिस्थितियों की उपज होती है, आठवें दशक की कविता को गैर सामाजिक करार देने के पीछे एक सोची समझी रणनीति है. वह राजनैतिक चेतना से लैस है तो क्या बुरा है, और राजनीतिक रूप से सचेत पीढ़ी सामाजिक चेतना से च्युत कैसे मानी जा सकती है. क्या ऐसा नही है कि किसानों, आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों की चिंता की जमीन तैयार करने में राजनीतिक जागरूकता का हाथ रहा है? और सांप्रदायिकता का उभार \’92 के बाद जैसे जैसे प्रबल हुआ है न केवल नवें दशक बल्कि आठवें दशक के कवियों में भी इसे लेकर सक्रियता जागी है? आखिर सातवें दशक के विनोद कुमार शुक्ल और जैसे वरिष्ठ कवि भी तो आज आदिवासियों, दलितों के पक्ष में कविताएँ लिख रहे हैं या नक्सलवाद को अपने नजरिए से देख रहे हैं तो यह एक मात्र नवें दशक के कवियों की विशेषता नहीं है. युगीन मुद्दों से आठवें दशक और आगे के कवि समान रूप से प्रभावित हैं.
कहने को फेसबुक व इंटरनेट की लिखापढी को भले ही औसत नजरिये से देखा जाता हो पर कविता के प्रसार का यह भी एक त्वरित माध्यम है. नेट से जुड़े लोगों का एक ऐसा शरण्य जहॉं मन को बहलाने के सभी उपक्रम मौजूद हैं. वेब परिदृश्य में सबद ने जहॉं अनेक अच्छी कविताऍं दीं वहीं जानकीपुल ने नान्त से लौटने के बाद अशोक वाजपेयी की कुछ ताज़ा कविताऍं मुहैया करायीं. समालोचन भी कविता के प्रसार की मुहिम में संलग्न है. अनुनाद भी. कृत्या रति सक्सेना की सम्पूर्ण वेब पत्रिका है जिसका संयोजन वे काफी समय से कर रही हैं. कृत्या का संसर्ग विदेशी कवियों से भी है. इस दिशा में द्विभाषीय वेब पत्रिका प्रतिलिपि भी गिरिराज किराड़ू के संयोजन में कविताओं का विशेष ख्याल रखती है. कुमार अनुपम की भारतभूषण पुरस्कार से सम्मानित कविता कुछ न समझे खुदा करे कोईयहीं छपी और चर्चित हुई. \’खाकर वे सो रहे है जाग कर हम रो रहे हैं\’ शीर्षक से जानकीपुलमें आई अशोक वाजपेयी की कविताओं से अरसे बाद गुजरना हुआ. अशोक जी को पढ़ते हुए अक्सर लगता है कि हम कविता की किसी साफ सुथरी कालोनी से गुजर रहे हैं, जहॉं की आबोहवा हमारे निर्मल चित्त को एक नई आनुभूतिक बयार से भर रही है. उनकी एक कविता में यह कहना कि ‘मैने कविता से पूछा तो उसने कहा: तुम्हारी दुनिया में, अब थोड़ी सी रोशनी, बहुत सारे अँधेरे/ और थोड़े से विलाप के अलावा अब बचा क्या है?\’ कविता के सामने खड़े संकट का प्रत्याख्यान है. यह वाकई ऐसा ही दौर है जब खाकर वे सो रहे हैं और जाग कर हम रो रहे हैं. जागने की सामूहिकता खत्म हो चुकी है. कहने में संकोच नहीं कि आज ऐसा ही समय है जब हम सभी अपने अपने उत्तरदायित्वों से विरत हैं. अपने सपनों में, दुस्वप्नों से मुठभेड़ करते हुए एक चीत्कार के साथ सुबह का आवाहन करते हुए.
कंजूसी से कविता छपाने वाले कुँवर नारायण की दो नई कविताऍं हाल में सबद पर पढने को मिलीं: \’पवित्रता\’ व \’जंगली गुलाब\’. \’जंगली गुलाब\’ पर लिखते हुए यह कहना कि \’मुझे अपनी तरह खिलने और मुरझाने दो/मुझे मेरे जंगल और वीराने दो\’ जैसे आदिवासियों की पीड़ा को कहने का नया सलीका हो. सबद पर ही आई गीत चतुर्वेदी की कविता पथरीला पारितोषिक पत्थरहृदया को भी प्रेम की ऊष्मा से पिघलाते हुए उसकी कठोरता को रुई में बदल देने के लिए प्रतिश्रुत दिखती है. गीत चतुर्वेदी में इतने वर्तुल हैं, इतनी गहराइयॉं हैं, संवेदना की हरी चादर–सी प्राकृतिक चमक है जिसके चलते उनकी कविता मनुष्यता पर प्यार लुटाती हुई चलती है. सबद पर ही प्रस्तुत गीत की सात कविताओं में आखिरी कविता \’पंचतत्व\’ जैसे कवि की वसीयत हो: आप भी गौर फरमाऍं:
मेरी देह से मिट्टी निकाल लो और बंजरों में छिड़क दो
समालोचन ने साल के आखिरी सांसें लेने से पहले अपने फलक पर प्रेमचंद गांधी की कुछ कविताऍं, कविता में कुविचार, कवि की रसोई, नरमेध के नायक, तानाशाह और तितली, निरपराध लोग —प्रस्तुत कीं. हिटलर की जीवनी भी एक कवि के भूगर्भ में हलचल मचा सकती है और उसकी काव्यात्मक कोशिकाऍं जागृत कर सकती है, यह गांधी की कविताओं से पता चला. मुझे इससे पहले गांधी की कविताओं में उतरने का अवसर तो मिला पर वह सुख नहीं मिला जो युवा कवियों में खोजा करता हूँ. इन कविताओं में गांधी की काल्पनिक उड़ान दीखती है, उनका संवेदना-संयम परिलक्षित होता है. \’कविता में कुविचार\’ जैसी कविता जो हिटलर की जीवनी पढ़ते हुए विकार की तरह दिमाग में उतरती है वह तमाम तार्किकी को ध्वस्त करते हुए इस अवधारणा को पुष्ट करती है कि घृणा का नायक भी हमारे लिए किस कदर प्रेरणास्रोत हो सकता है. अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए गांधी ने भाषा की बारादरी में होने की जिस अनुभूति को जिया है उसकी शिनाख्त ये कविताऍं देती हैं. \’अभावग्रस्त लोगों की उम्मीदों के अक्षत हैं मेरे कोठार में/ जल है मेरे पास दूध जैसा /प्रेम की शर्करा कभी न खत्म होने वाली\’ जैसी बहती हुई भाषा कविता के अक्षत यौवन का प्रतीक है जो कि इन दिनों के उर्वर गद्य विधान वाली कविताओं में प्राय: नही दीखती. इसीलिए तमाम असह्य मुद्दों पर अपने आवेग को संयमित न कर सकने वाले कवियों की कविताओं में आग कम, झाग ज्यादा होता है. गांधी में यह आग अब एक मद्धिम सुनहली आंच की तरह दिखती है—पकी हुई फसलों की मुस्कान सरीखी.
इसी ई पत्रिका पर आई मृत्युंजय की कीमोथेरेपी के दुस्साध्य उपचार पर लिखी कविता से पता चलता है कि कविता हमारी कोशिकाओं को कितना करीब से जानती है. इस ब्लाग पर दर्ज कविताओं में युवा कविता के अनेक ज्वलंत हस्ताक्षर हैं जिन्होंने कविता में अपना स्थान और अपना अंदाजेबयां निर्मित किया है. यहां मौजूद अनुज लुगुन, समीर वरण नंदी,प्रांजल धर, अमित उपमन्यु जैसे नए कवि तेजी से परिदृश्य में पहचान बना रहे हैं. बुद्धू बक्शा पर मौजूद मंगलेश डबराल की कई नई कविताऍं नये युग में शत्रु, आदिवासी, बची हुई जगहें, यथार्थ इन दिनों , नया बैंक, हमारे शासक औरगुलामी आदि समय के बारीक कुचक्र को करीने से व्यक्त करती हैं.
इन माध्यमों के साथ ही मुद्रित माध्यम की पत्र पत्रिकाओं में कविताऍं निरंतर छप रही हैं. वसुधा, तद्भव, कथन, दस्तावेज़, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, आलोचना, दोआबा, परिकथा, हंस और कथादेश आदि के साथ साथ शुक्रवार की साहित्य वार्षिकी 2012ने अपने पन्नों पर बेहतरीन कविताऍं दी हैं पर आखिरकार जो छप रहा है वही संग्रहों में संकलित भी हो रहा है और कुछ बड़े कवियों को छोड दें तो हर संग्रह में, औसतन बीस प्रतिशत कविताऍं ही ऐसी होती हैं जिनमें कुछ सत्व-तत्व होता है. सच कहें तो दस कविताएं भी संग्रह को ऊँचे आसन पर बिठा देती हैं पर उन्हीं दस कविताओं का भी अभाव कभी कभी ऐसे संग्रहों में दिखता है. कविता के सतत प्रवाह में यह स्वाभाविक है कि औसत का प्रवाह भी अबाध गति से चलता रहे. कविता के क्षेत्र में औसत का प्रवाह और उसकी खपत भी बहुत है. जैसे बुनियादी औषधियों के अभाव में उसके विकल्पों से काम चलाया जाए. अच्छी से अच्छी लघु पत्रिकाएँ भी औसत कविताओं से काम चला रही हैं. यही वजह है कि जो प्रभाव एक वक्त नागार्जुन,त्रिलोचन, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह का रहा है या आज भी नरेश सक्सेना, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति, लीलाधर मंडलोई, अरुण कमल, देवीप्रसाद मिश्र और गीत चतुर्वेदी जैसे कवियों को पढते हुए होता है, वैसा प्रभाव कम ही कवि पैदा कर पा रहे हैं. प्रतिरोध की वैसी इबारतें भी विरल होती जा रही हैं जो समाज के पेंचोखम को बारीकी से पढ़ सकें और कविता को एक मजबूत विपक्ष के रूप में स्थापित कर सकें..