• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सबद भेद : कुमार अम्बुज : मानवीय सरोकारों की प्रतिबद्धता : मीना बुद्धिराजा

सबद भेद : कुमार अम्बुज : मानवीय सरोकारों की प्रतिबद्धता : मीना बुद्धिराजा

यह समझना चाहिए कि कविता कौतुक नहीं है. जहाँ बहुत कला होती है वहाँ अर्थ महीन होकर लगभग अदृश्य हो जाता है, अंतत: कवि-कर्म एक मानवीय गतिविधि है जिसमें मनुष्यता निवास करती है. उदात्तता का उसका एकपक्ष हमेशा से रहा है. बेहतर और विकल्प ये दोनों उसके काम्य हैं. वह कला भी है तो इसीलिए […]

by arun dev
December 10, 2018
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें



यह समझना चाहिए कि कविता कौतुक नहीं है. जहाँ बहुत कला होती है वहाँ अर्थ महीन होकर लगभग अदृश्य हो जाता है, अंतत: कवि-कर्म एक मानवीय गतिविधि है जिसमें मनुष्यता निवास करती है. उदात्तता का उसका एकपक्ष हमेशा से रहा है. बेहतर और विकल्प ये दोनों उसके काम्य हैं. वह कला भी है तो इसीलिए है कि सुगमता से सहज हो सके.
बड़े अर्थों में वह मनुष्यता की राजनीति है.   
विष्णु खरे ने ठीक ही लिखा है कि कुमार अम्बुज की कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय व्यक्ति के साँसत-भरे वजूद की अभियक्ति है.
कुमार अम्बुज (१३ अप्रैल, १९५७, गुना, मध्य-प्रदेश) समकालीन महत्वपूर्ण कवि हैं. उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हैं – किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण और अमीरी–रेखा. उनके कवि कर्म पर यह आलेख मीना बुद्धिराजा का है. आपके लिए.
कुमार अम्बुज
मानवीय सरोकारों की प्रतिबद्धता         
मीना बुद्धिराजा





कविता के लिए निरंतर कठिन होते समय और मानवीय संवेदना के अनुर्वर होते परिदृश्य में भी आज अगर कविता लिखी जा रही है तो यह हमारे लिए बहुत बड़ी आश्वस्ति है. कविता अंतत: स्मृतियों, उम्मीदों और संवेदनाओं की मृत्यु से मुठभेड़ करती है. अपने समय के सच की सबसे विश्वसनीय अभिव्यक्ति कविता में ही संभव है जो तमाम विषमताओं, अन्याय और क्रूरता के बीच संघर्ष और प्रतिरोध की पक्षधर होकर भी मानवता के स्वप्न को बचा लेती है. समकालीन कविता का सृजन आज तीन-चार पीढ़ियां एक साथ मिलकर कर रही हैं जिसमें सब का सह-अस्तित्व है. इसका कारण है आज के परिवेश और जीवन का जटिल और बहुआयामी यथार्थ जो जो हमारे आस-पास जीवित और स्पंदित है. हमारे दौर का सबसे बड़ा संकट यह है कि अभूतपूर्व पैमाने पर निर्ममता और नृंशसताएँ हमारे चारों और हैं लेकिन हम उन्हें एक सामान्य सच मानकर संवेदनशून्यता में जी रहे हैं. बाहरी व्यवस्था कैसे हमारी अंतश्चेतना पर अपना शिकंजा कसती जाती है इसमें मनुष्य के अस्तित्व की बुनियादी अंसगतियों,  विरोधाभासों, आत्मवंचना और अनसुनी आवाज़ों को सुनना और रचना हमारे समय की कविता का केंन्द्रीय मुद्दा है. 


कविता का सारा मोर्चा मानवता के पक्ष में विस्मृति, शोषण और अन्याय के खिलाफ है और वह वर्तमान के आधारभूत सच को उजागर करने का नैतिक साहस करती है. जीवन की निकटता ही कवि और पाठक को एक दूसरे के पास लाती है. यहाँ कवि भाषा में दुनिया के बारे में नहीं बल्किदुनिया में अपने होने को रखता है. एक कविता को अपने समय में किसी गवाही के रूप में पढ़ना एक बुनियादी तथा जरूरी सामाजिक जवाबदेही की ओर भी जाना है –
 
मुझे अपने सवाल किताबों में नहीं मिले
मुझे अपने हल किताबों में नहीं चाहिए
मुझे जीवित लोग मिले थे
मुझे जीवित लोगों से मिलना है
मुझे सिर्फ नक्शे में नहीं
पृथ्वी के एक सचमुच हिस्से में रहना है.
यही मेरा युद्ध है
यही मेरा द्वंद्व
यहीं
इसी बिंदु पर होना है निर्णय
मेरे जीवन का.
(कुमार अम्बुज)
इस जनतांत्रिक स्वर के साथ हिंदी कविता में बीसंवी सदी के के नवें दशक से लेकर समकालीन परिदृश्य में कुमार अम्बुज पर्याप्त चर्चित, सर्वस्वीकृत और हमारे समय के सार्थक हस्तक्षेप और कवि हैं. अपने पांचों महत्वपूर्ण कविता-संग्रह किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण और अमीरी -रेखा के साथ ही ‘इच्छाएं’ शीर्षक प्रसिद्ध कहानी संग्रह के साथ ही  ‘थलचर’ जैसे वैचारिक गद्य के इलाके में भी उनकी उपस्थिति निर्विवाद एक सशक्त रचनाकार के रूप में बहुत आशवस्त करती है. कविता के लिए बहुत से सम्मानों के साथ उनकी प्रसिद्ध कविताओं के भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं जो उनकी प्रखर वैचारिक दृष्टि के साथ ही सृजनशीलता में संवेदनात्मक रूप से भी व्यापकता का प्रमाण हैं. मानवीय सरोकारों से जुड़ा प्रत्येक विषय उनकी कविताओं में जीवंत हो उठता है. वास्तव में उनकी कविता अंतर्वस्तु और यथार्थ के आपसी संबंधों को एक आत्मीय भाषा में स्वरूप देती है. उनकी सजग संवेदना साधारण वस्तुओं और विषयों में भी समय की विराटता को दर्ज़ करती है जो उनकी विशिष्टता है-
ये सिर्फ किवाड़ नहीं हैं
जब ये हिलते हैं
माँ हिल जाती है
और चौकस आँखों से
देखती है- क्या हुआ ?
मोटी साँकल की
चार कड़ियों में
एक पूरी उमर और स्मृतियाँ
बंधी हुई हैं
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया
हमारी तरफ खुलती है.
जब ये नहीं होंगे घर
घर नही रहेगा.


कुमार अम्बुज की कविताओं में एक ऐसी ताज़गी, सहजता और कृत्रिम वैचारिकता की अनुपस्थिति है जो उन्हें समकालीन कवियों में अलग पहचान देती है. उनमें साधारण वस्तुएँ और स्थितियाँ इतने गहरे लगाव और अभिव्यक्ति के संयम के साथ प्रस्तुत होती हैं कि उनमें मानवीय सबंधों और सच्चाईयों की सूक्ष्म अनुगूंज सुनाई देती है. अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में उन्होनें कहा है- “एक सवाल की तरह और फिर एक विवाद की तरह, कुछ चीज़ें हमेशा संवाद में बनी रहती हैं. रचनाशीलता में मौलिकता एक तरह का मिथ है. मौलिकता एक अवस्थिति भर है जिसमें आपको एक दी हुई दुनिया का अतिक्रमण करना है. मै और मेरी रचना उतनी ही मौलिक है जितना इस संसार में मेरा अस्तित्व मौलिक है. मेरी मौलिकता पूरे जड़-चेतन से सापेक्ष है निरपेक्ष नहीं. … जैसे मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है. ‘’
कुमार अम्बुज की कविता में हमारे समय का छिपा हुआ हिस्सा और अंधकार ही सतह पर आता है. ताकत के प्रति एक आसक्ति भाव और अन्याय को विस्मृत करने कीस्थिति जिसमें स्मृतिहीनता के  सामने हथियार डालना ही अब व्यक्ति की और सामूहिक अभिशप्त नियति है. ये कविताएँ जिन जटिल मानवीय संदर्भों में इन प्रश्नों को उठाती हैं वो पाठक की चेतना को झकझोरते हैं. इन कविताओं को पढ़ते वक्त कई बार हम स्तब्ध हो सकते हैं जो व्यवस्था के हिंसक परिवेश और अन्याय के प्रति आक्रोश तथा क्षुब्ध करती हैं लेकिन ज्यों ही क्रूरता के किनारे पहुंचकर मनुष्य पशु में परिवर्तित होने लगता है तो ये कविताएँ जैसे चीख चीख कर याद दिलाने लगती है कि हिंसा प्रतिहिंसा का उत्तर नहीं है. इसलिये उनके कवि-व्यक्तित्व में एक जागरूक सयंम भी है-

धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग
पराजित न होने के लिए नहीं
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे
तब आएगी क्रूरता
पहले ह्र्दय में आएगी और चेहरे पर न दिखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का  आदर्श हो जाएगी
निरर्थक हो जाएगा विलाप
तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को
वह संस्कृति की तरह आएगी
उसका कोई विरोधी न होगा
वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी
और सोख लेगी हमारी सारी करुणा
हमारा सारा श्रृंगार.
यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना.



एक गहरी मानवीय उष्मा से भरी उनकी कविता में सहज करुणा एक दीर्घ आलाप की तरह उनके सरोकारों को विस्तृत कैनवास देती है. यह उन्हें कविता में साधारण जन के साथ अदृश्य रूप से जोड़ती है. प्रतिरोध के नए औजार गढ़्ते हुए उन्हें एक विलक्षण लेकिन प्रतिबद्ध कवि की पहचान देती है. उनकी कविता सक्रिय और सकर्मक प्रतिरोध की रचनात्मक कार्यवाही है. इनमे मनुष्यता,  राजनीति, व्यवस्था , समाज,  वैश्विकता,  बाज़ार,  प्रेम,  अपमान और जीवन का अंधेरा पक्ष भी है जो  भाषा और शिल्प की सादगी में होकर भी कठिन है और विस्मित करने वाला है. इन कविताओं में हमारे समय की पुनर्परिभाषाएँ है,  साहसिक आत्मालोचन भी और प्रवंचनाओं के प्रति प्रखर विरोध भी है. अमीरी रेखा संग्रह की कविताएँ इस जटिल यथार्थ और समय की गवाही को कलात्मकता में रूपातंरित कर कविता के बुनियादी सच को सामने ला देती हैं. इस निर्मम परिवेश में अपने दुख, क्रोध,  निराशा, पश्चाताप, अपराधबोध तथा आत्मसंलाप में कवि उस अंतरंग सच को ही पाना चाहता है जो आज की साधारण और सामूहिक त्रासद नियति है –

मनुष्य होने की परपंरा है कि वह किसी कंधे पर सिर रख देता है
और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ
ऐसा होता आया है बावज़ूद इसके
कि कई चीज़ें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं
या जब सब रफ्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरूआत है
बशर्ते तुम्हारा मनुष्यता में विश्वास बाकी रह गया हो
एक दिन तुम्हारी मुश्किल यह हो सकती है
कि तुम नश्वर नहीं रहे.

जब  बाज़ारवाद की आंधी में शब्दों के मायने खत्म किये जा रहे हों तब बुनियादी मानवता और अपनी भाषा को बचाने के लिए कवि की चिंता वाज़िब है. अपने एक वक्तव्य में कुमार अम्बुज ने कहा भी है- 

“मैं आधा अधूरा जैसा भी हूँ एक कवि हूँ और बीत रही एक सदी का गवाह हूँ. मेरे सामने हत्याएँ की गई हैं. मेरे सामने ही एक आदमी भूख से मरा है. एक स्त्री मेरी आँखों के सामने बेइज़्ज़त की गई. फुटपाथ पर कितने लोगों ने शीत भरे जीवन की रातें बिताई हैं. मै चश्मदीद गवाह हूँ. मुझे गवाही देनी होगी. इससे बचा नहीं जा सकता. कविता में लिखे शब्द एक साक्षी कवि के बयान हैं. समाज के पाप और अपराध, एक कवि के लिए पश्चाताप, क्रोध, संताप और वेदना के कारण हैं. वह एक यूटोपिया का निर्माण भी है , जिसकी संभावना को असंभव नहीं कहा जा सकता.”

एक ऐसे समय में जब सच, स्मृति और संवेदनाओं को जबरन नष्ट किया जा रहा है. एक यूटोपिया विहीन समय में जब अतिशय सूचनाएँ, उपभोग, सनसनी और विस्मृति की दुनिया में ये तमाम सवाल नए संदर्भों और असुविधाजनक तरीके के कवि के सामने आते हैं तो भयावह टूटन, यंत्रणा और  अकेलेपन में जो कविताएँ लिखीं वे बेहद सजीव होकर पूरे वेग के साथ पाठक के पास भी लौटती हैं और कवि की निजी पीड़ा का अतिक्रमण कर जाती हैं. जीवन का वह पक्ष जिसे जानने का अधिकार नहीं है उसमें अवसादऔर आत्मनिरीक्षण के मिले- जुले स्वर कुमार अम्बुज की विशिष्टता है-
इधर का जीवन कुछ ऐसा हो गया है जैसे जीवन नहीं
यदि कोई धोखा न दे
कर ले थोड़ा सा भी विश्वास
तो चकित रहता हूँ बहुत दिनों तक
इधर का जीवन हो गया है कुछ ऐसा
कि हर पंद्रह मिनट बाद
टटोलकर ढूंढ़नी होती है जीवन की धड़कन .
कुमार अम्बुज की कविता की जड़ें उनके समय- संदर्भों से गहरे जुड़ी हुईं हैं जो उनकी अलग पहचान है. एक ऐसे वक्त में जब  वर्चस्व, मुनाफे और बाज़ार की संस्कृति ने  पूरी दुनिया में सत्ताओं का चरित्र एक जैसा ही बना दिया है. तब शोषित- पीडित की संवेदना और स्वप्न प्रतिरोध की शक्ति बनकर उनकी कविता के रूप में शब्दों की सत्ता में दिखाई देते हैं जो इस नई अमानवीय सभ्यता के सामने एक प्रतिसंसार की रचना करते हैं-
नयी सभ्यता ज्यादा गोपनीयता नहीं बरत रही है
वह आसानी से दिखा देती है अपनी जंघाएँ और जबड़े
वह रोंदकर आई है कई सभ्यताओं को
लेकिन उसका मुकाबला बहुत पुरानी चीज़ों से है
उसकी थकान उसकी आक्रामकता समझी जा सकती है.
हम चाहते हैं कि तुम हमारे साथ कुछ बेहतर सलूक करो
लेकिन जानते हैं तुम्हारी भी मुसीबत
कि इस सदी तक आते-आते तुमने
मनुष्यों की बजाय
वस्तुओं में अधिक निवेश कर दिया है.

आज के निर्मम और क्रूर समय में जब प्रेम की संवेदना ही संकट ग्रस्त है तब कुमार अम्बुज लिखते हैं-

इन दिनों प्रेम करना
शताब्दी का सबसे कठिन काम है.


लेकिन प्रकृति नें जिस कोमल संवेदनाओं से स्त्री का निर्माण किया है वह पुरुष के भीतर खंडित और टूटे- फूटे मनुष्य की मरम्मत कर उनके खुरदरेपन को अपने प्रेम से संवार सकती हैं. स्त्री की आत्मगरिमा और उसके अदम्य धैर्य के प्रति भी कवि की दृष्टि स्पंदनशील है. ‘खाना बनाती स्त्रियां’ और ‘एक स्त्री पर कीजिए विश्वास’ ऐसी ही विशिष्ट कविताएँ हैं जिनके केंद्र में स्त्री की व्यथाएँ कई तरीके से दिखाई देती हैं. समस्याओं के फेर में पड‌ना स्त्री की सामूहिक नियति है लेकिन संताप की दारुण स्थितियों में एक स्त्री का स्वर समूची स्त्री जाति का स्वर बन जाता है और कविता आगे बढ़ती हुई स्त्री की पीड़ा को रचते हुए भी उसका अतिक्रमण कर जाती है-

जब ढह रही हों आस्थाएँ
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील.

एक बड़े कवि और रचनाकार के भीतर के रहस्य कभी समाप्त नहीं होते और वह हर बार अपनी रचना-प्रक्रिया में नये रूप में बार-बार लौटता है और अलग तथा आगे की यात्रा करता है. विस्मृति के विरूद्ध कविता उसकी रचनाओंमें हमेशा स्पंदित रहती है. यहीं से गुजरते हुए उसे पता लगता है कि मनुष्य की यातना का अंत कहीं नहीं है लेकिन उस अन्याय को जानना और प्रतिरोध के लिए तैयार करने का काम भी कविता ही करती है. इस दृष्टि से कुमार अम्बुज की बहुत सी कविताएँ जैसे एक राजनीतिक प्रलाप, नागरिक पराभव, चँदेरी,  कोई है माँजता हुआ मुझे, बहुरूपिया,  पिता का चेहरा,  बाज़ार, अवसाद में एक दिन मैं, माईग्रेन , संभावना, आदर्शविहीन समय में , चुप्पी में आवाज़,  ज़ंजीरें,  डर,  चोट, बहस की ढ़लान पर , अनंतिम और आत्मकथ्य की सुरंग में से’जैसी रचनाएँ गहन अनुभुति और संवेदनात्मक यथार्थ के स्तर पर नये अर्थों में कविता का पाठ तैयार करती हैं.जब निरर्थक शोर इतना है कि जैसे समय घूर रहा हो तब अपने समय के संत्रास और ना-उम्मीदी से संघर्ष करते हुए भी सृजन के स्वप्न में कवि की आस्था बहुत गहरी है-

यह थकान ,यह हताशा, यह मलबा, यह पराजय
कुछ भी अंतिम नहीं है
देखते- देखते अभी उठूंगा पस्ती को रौंदता हुआ
आएगा मेरे भीतर से मेरा अपराजित मनुष्य
फिर से शुरु होगा जीवन
इतने खतरे हैं इतना है उन्माद
कि कुछ भी अंतिम नहीं अपनी स्थिति में
कोई नहीं कह सकता
कि फिर से नहीं उठ पड़ूँगा मैं.
हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि विष्णु खरे जी ने  कुमार अम्बुज के राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित  नवीनतम प्रतिनिधि कविता-संकलन की भूमिका मे जो वक्तव्य लिखा है वह उनकी काव्य-यात्रा का गहन गंभीर परिचय और जरुरी विश्लेषण भी है—

“1990 के बाद कुमार अम्बुज की कविता भाषा,  शैली और विषय- वस्तु के स्तर पर इतना लंबा डग भरती है कि उसे क्वाटंम जम्प ही कहा जा सकता है. उनकी कविताओं में इस देश की राजनीति, समाज और उसके करोड़ों मजलूम नागरिकों के संकट्ग्रस्त अस्तित्व की अभिव्यक्ति है. वे सच्चे अर्थों में जनपक्ष, जनवाद और जन-प्रतिबद्धता की रचनाएँ हैं. जनधर्मिता की वेदी पर वे ब्रह्मांड और मानव अस्तित्व के कई अप्रमेय आयामों और शंकाओं की संकीर्ण बलि भी नहीं देती. यह वह कविता है जिसका दृष्टि संपन्न कला-शिल्प हर स्थावर-जंगम को कविता में बदल देने का सामर्थय रखता है. कुमार अम्बुज हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जो स्वंय पर एक वस्तुनिष्ठ संयम और अपनी निर्मिति और अंतिम परिणाम पर एक जिम्मेदार गुणवत्ता दृष्टि रखते हैं. उनकी रचनाओं में एक नैनो-सघनताएक ठोसपन है. अभिव्यक्ति और भाषा को लेकर ऐसा आत्मानुशासन जो दरअसल एक बहुआयामी नैतिकता और प्रतिबद्धता से उपजता है और आज सर्वव्याप्त हर तरह की नैतिक, बौद्धिक तथा सृजनपरक काहिली,  कुपात्रता और दारिद्रय के विरुद्ध है. हिंदी कविता में ही नहीं अन्य सारी विधाओं में दुष्प्राप्य होता जा रहा है. अम्बुज की उपस्थिति मात्र एक उत्कृष्ट सृजनशीलता की ही नहीं सख्त पारसाई की भी है.”

______


मीना बुद्धिराजा
सह-प्रोफेसर, अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

सम्पर्क- 9873806557
ShareTweetSend
Previous Post

पटना की हिंदी पत्रकारिता : राजू रंजन प्रसाद

Next Post

मिटना : क्रमिक विकास की कविता : आशीष बिहानी

Related Posts

पंकज प्रखर की कविताएँ
कविता

पंकज प्रखर की कविताएँ

योनि-सत्ता संवाद : संजय कुंदन
समीक्षा

योनि-सत्ता संवाद : संजय कुंदन

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और जवाहरलाल नेहरू :	 शुभनीत कौशिक
विज्ञान

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और जवाहरलाल नेहरू : शुभनीत कौशिक

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक