कृष्णा सोबती
विरुद्धों के सामंजस्य से टकराती हुई एक कथाकार
ओम निश्चल
\’हर लेखक की अपनी शैली होती है,भाषा को उस ख़ास अंदाज में बरतती हुई,जो बाद में उसकी खास पहचान बन जाती है. कृष्णा सोबती का भी जिन्दगी को देखने बूझने और बयां करने का एक फक्कड़ तरीक़ा है,जो अक्सर हमें सरशार के फ़साना ए आज़ाद की याद दिलाता है. उनकी उर्दू में लखनवी नफ़ासत है , तो पंजाब का ठेठ अक्खड़पन भी.\’
इसी सिलसिले में वे ऐ लड़की को उनकी कलम का सबसे कोमल छोर मानते हैं तो जिन्दगीनामा को दूसरा छोर,जो कि लगभग ठेठ पंजाब है.
उनके संस्मरण इस बात के गवाह हैं. हम हशमत के तीनों खंडों में उन्होंने अपने मित्र लेखकों के बारे में खुल कर लिखा है. बिल्कुल रसीले गद्य की मानिंद जैसे वह कोई शहद का छत्ता हो. पर वहीं ऐसे भी संस्मरण हैं जो उनके धुर अक्खड़ मिजाज की भी गवाही देते हैं. जैसे हम हशमत में रवीन्द्र कालिया पर लिखा संस्मरण जो उनके उस संस्मरण के प्रत्युत्तर में कथादेश में लिखा गया था जो उन्होंने किसी मामूली घटना को केंद्र में रख कर तद्भव के लिए लिखा था.
सोबती की कहानियां
(Krishna Sobti with the late Argentine poet Roberto Juarroz during a poetry festival in Bhopal in 1989. (Source: Vijay Rohatgi) |
\’\’एक निर्जीव युवक,पथरायी आंखें,सूखे बाल और नीले अधर,ड्राइवर ने हमदर्दी के गीले स्वर में उस बेजान शरीर को झकझोर कर कहा, \’उठो भाई,अपना वतन आ गया…\’.वतन! ओठ फड़फड़ाए—-दो सोयी सोयी भरी हुई बाहें उठीं,ओठ फड़फड़ाए, \’\’डरो मत,मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा…\’\’
आवाज मौत की खामोशी में खो गयी. पथरायी हुई आंखों की पलकें जड़ हो गयीं—वतन की यात्रा खत्म हो गयी.\’\’
इस कहानी के बीच बीच में उभरती आवाज \’डरो मत मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा\’जिस तरह का दबाव मस्तिष्क पर डालता है वह विभाजन के दौरान मची मार काट के दृश्य को उपस्थित कर देता है.
एक अन्य कहानी मेरी मॉं कहॉं…. भी विभाजन को शिद्दत से महसूस करने वाली कहानी है. युनुस गाड़ी चला रहा है. सड़कों पर मारकाट मची है. मुसलमानों को काफिर कहा जा रहा है. उसे भी. अचानक उसे सड़क पर एक घायल बच्ची दिखती है. अभी जान है. उसे अपनी बहन नूरन याद आती है जिसे छोड कर बेवा मॉं चल बसी थी. वह उसे उठा लेता है और अस्पताल ले जाता है. तमाम कश्मकश से गुजरते हुए वह उसका इलाज कराता है . बच्ची ठीक हो रही है पर उसका चेहरा देखते हुए उसे भय लगता है कहीं वह मार न डाले. काफिर जो है. होश आते ही वह कहती है मुझे कैंप में छोड दो. वह कहता है मेरे घर चलो. वह पूछती है मेरी मां कहॉं है,मेरे भाई कहां,मेरी बहन कहॉं? मार्मिक कहानी है यह. यों तो उनकी और भी कहानियां बहुत अच्छी हैं. मनोविश्लेषण में लाजवाब. कुछ पारिवारिक मिजाज की कहानियां भी हैं जैसे बहनें और दादी अम्मा कहानी अपने में पारिवारिकता की एक अजीब सी सुगंध से रची बसी हैं.
जीवन और चिंतन
वे संयुक्त परिवार में पली बढ़ीं. विभाजन का दर्द देखा. मारकाट देखी. पाकिस्तानी मुसलमानों और हिंदुस्तानी मुसलमानों के मिजाज के बारीक से बारीक अंतर को महसूसा. अपनी कहानियों में मुस्लिम पात्र को रचते हुए कहीं से भी यह बताने की चेष्टा नहीं की कि मुसलमान अनिवार्य तौर पर बुरे होते हैं. दंगे के बीच हो रही मार काट से बचाने वाले पात्र उनके यहां मुसलमान भी हैं. शाहनी को अपने बीच न बचा पाने की टीस दाउद के मन में है. एक बच्ची को सड़क पर घायल व कराहता हुआ देख कर जिस शख्स का दिल पिघल जाता है वह और कोई नहीं ड्राइवर यूनुस है. एक मुस्लिम पात्र. कितने अपनापे से वह उस बच्ची का उपचार कराता है और अपने घर ले जाता है. वह भले उसे देख कर डर जाती है क्योंकि उसे वैसे ही दृश्य और निर्मम चेहरे ही देखे हैं पर यूनुस ऐसा नहीं है. यह भरोसा भी सोबती ही दिलाती हैं.
\’\’मित्रो सिर्फ एक किताब नहीं रही,समय के साथ साथ वह एक व्यक्तित्व में बदल गयी है.\’\’
वे कहती हैं, \’\’मित्रो मरजानी की मित्रो जब अपनी छातियां खोल कर अपने आपको देखती है तो उसकी निगाह में स्त्री और पुरुष दोनो की निगाह शामिल होती है.\’\’उनके शब्दों में,
\’\’मित्रो व्यक्ति की जिस छटपटाहट का प्रतीक है वह यौन उफान ही नहीं,व्यक्ति की अस्मिता का भी अक्स है जिसे नारी की पारिवारिक महिमा में भुला दिया जाता है.\’\’
सौभाग्य है कि अशोक वाजपेयी व निर्मल वर्मा यहां दो बार आए हैं. दोनों बार कृष्णा जी ने उन पर डूब कर लिखा है. वे शब्द चयन को लेकर भी काफी सतर्कता बरतने वाली लेखिका रही हैं. न होतीं तो जि़न्दगीनामा के शीर्षक के प्रति उनमें इतना मोह न होता कि वे इसके लिए अमृता प्रीतम से एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़तीं.
अपना रचनात्मक एकांत
कृष्णा सोबती का भी यही हाल रहा. लगभग डेढ़ दर्जन कृतियां. दो-एक इधर उधर. इसी में पूरा जीवन समेट दिया उन्होंने. वे कहती हैं, \’\’मात्र लिखने के लिए लिखना–यह मेरे निकट कभी घटित नहीं हुआ. लिखित में दोहराने से बहुत कतराती हूँ.\’\’लेखक अपने ठीहे पर बैठता नहीं समाधिस्थ-सा होता है. अपनी रचना प्रक्रिया समझाते हुए वे कहती हैं,\’\’
अक्सर रात को ही काम करती हूँ. यह सोचकर सुख होता है कि इस पर्यावरण को मैंने हर पल अपने में महसूस किया है. पन्नों पर पाठ में घुलने दिया है. रात अपनी मेज के आसपास बहती निपट खामोशियां कुछ ऐसी जैसे टीन की छत पर हल्की हल्की बूँदाबांदी हो रही हो.\’\’ लेखन को वे अपने आपसे संवाद मानती हैं.
अपने लिखने के समय के बारे में अन्यत्र वे बताती हैं कि \’मैं रात में लिखती हूँ—रात का अंधकार जब मेरे अकेले टेबल लैंप के रहस्य में आ सिमटता है तो शब्द मुझे नए राग,नई लय और नई धुन में आ मिलते हैं.\’(लेखक का जनतंत्र,आशुतोष भारद्वाज से बातचीत,पृ199) वे स्वीकार करती हैं कि लेखक सिर्फ निज की लड़ाई नहीं लड़ता. न अपने दुख दर्द और हर्ष विषाद का ही लेखा जोखा पेश करता है. अपने अंदर बाहर को रचनात्मक सेतु से जोड़ता है. उसे लगातार उगना होता है–हर मौसम,हर दौर में.\’\'(सोबती वैद संवाद,पृ30)
\’\’लेखन में सूखे के अंतराल तो आते ही रहते हैं. सभी रचनाएं एक जैसी ऊर्जा में से नहीं फूटतीं. कई बार ऐसा भी होता है कि बड़े बड़े लेखक अचानक चुक जाते हैं,दो तीन अच्छी रचनाएं देने के बाद. यह अंदेशा हर लेखक के सर या कलम पर मँडराता रहता है.\’\’(वही,पृ164)
सोबती लिखने के लिए सनलिट् ब्रांड का कागज और सिग्नेचर पेन पसंद किया करती थीं. चन्ना और डार से बिछुड़ी सनलिट ब्रांड कागज पर ही लिखे गये.
भाषा का अनुभव बनते जीवनानुभव
निर्मल वर्मा अपने गद्य की स्निग्धता के लिए ही याद किए जाते हैं. वैसे ही कृष्णा सोबती न केवल अपनी कहानियों,उपन्यासों की अनूठी किस्सागोई के लिए याद की जाती हैं,अपने साहसिक तथा त्यक्तलज्जासुखी भवेत् वालेभाव से जीने सोचने वाले पात्रों के लिए याद की जाती हैं बल्कि अपनी खास तरह की भाषिक अदायगी के लिए भी. हालांकि वे तत्कालीन पाकिस्तान के गुजरात में जन्मी,विभाजन के हालात का साक्षात्कार किया,फिर भी जितना उनका पंजाबी व पंजाबियत पर दबदबा रहा है उतना ही हिंदी पर भी. एक साफ सुथरेपन की कलफ उनकी भाषा पर हमेशा दीखती रही. जैसे अज्ञेय पंजाबी होते हुए भी कुशीनगर में जनमे पिता के साथ देश के अनेक स्थलों पर आते जाते रहे,सेना में भी रहे पर उनकी भाषा देखिए तो वहां तत्सम का भी दबदबा है तद्भव का भी. देशज व बोलियों के साथ भी उनका गहरा अपनापा रहा है . न होता तो उनकी भाषा भी आकाशवाणी के समाचारों सी रुखी और निर्विकार होती. कृष्णा सोबती के साथ भी ऐसा ही है.
जिन्दगीनामा में छायी पंजाबी व पंजाबियत के लिए उन्हें एकाधिक आलोचनाएं भी सुननी पड़ीं जैसा कि रेणु को मैला आंचल की खास इलाकाई भाषा के लिए. किन्तु यही इन उपन्यासों की विशेषता भी रही है कि वे आसानी से अन्य उपन्यासों के ढेर में से अलगाई जा सकती हैं. हमारे समय के अन्य कद्दावर कथाकार नागर,यशपाल, राही मासूम रज़ा, सुरेन्द्र वर्मा,कृष्ण बलदेव वैद,विनोद कुमार शुक्ल,स्वदेश दीपक अपनी भाषाई अदायगी के लिए ही जाने जाते हैं.
आखिरकार मुझे चांद चाहिए –अनेक प्रेम कथाओं के होते हुए भी जब सामने आया तो अचानक भाषा किस्सागोई की नाक की कील की तरह दमकने लगी. वह भाषा हाथोहाथ ली गयी. नौकर की कमीज या दीवार में एक खिड़की रहती थी—आया तो वह विनोदकुमार शुक्ल की अपनी भाषाई लीक पर चल कर आया . वे भाषा की नई तहजीब के रचनाकार हैं,भाषा का यही अनूठापन उनके काव्य में भी पहचाना जाता है. सोबती इसी तरह अपनी बनाई भाषा की सरणि पर चलती दीखती हैं जो उन्होंने अपने पैदाइश की जगह,अपने प्रवासों,अपनी आवाहाजियों व अपनी अलग तरह की सोहबतों से हासिल किया है.
उनकी किस्सागोई के बारे में श्लीलता अश्लीलता की बहसें होती रही हैं किन्तु भाषा के शील का उन्होंने हमेशा ध्यान रखा. भाषा को उन्होंने किसी नैतिक किस्म के व्याकरण से संचालित नही होने दिया. वे भाषा की बहुवस्तुस्पर्शिता की रचनाकार हैं. जहां जैसी भाषा की दरकार है वैसा प्रयोग किया है उन्होंने. जिन्दगीनामाकी जो भाषा है वह दिलोदानिश की नही है. वहां एक परिष्कृत भाषाई प्रभामंडल मिलेगा. संस्मरणों में क्योंकि अधिकांशत: नैरेटर वे खुद होती हैं तो उनका भाषाई संस्कार जिसमें उर्दू हिंदी संस्कृत की घुलत मिलत है,उसका प्रभाव बोलता है. \’मित्रो मरजानी\’ की भाषा अलग है. वह मित्रों के अंदरूनी संस्कारों के पिघलने के साथ पिघलती और बहती है. वे सरलता व सादगी को भाषा का एक गुण तो मानती हैं पर एकमात्र गुण नहीं. जिन्दगीनामा में जो भाषाई वितान है,फैलाव है व पंजाबी परिवेश और उसके सामाजिक लोकाचार की उपज है. यह किसी एक गांव की कहानी नही है,जैसे रागदरबारी का देहात कोई एक निश्चित जगह की भौगोलिक इकाई नही है,वह भारतीय देहात और कस्बाई यथार्थ का एक नमूना है जो भाषाई विभिन्नताओं के बावजूद एक सा है.
वे कहीं कहती भी हैं कि जिन्दगीनामा जैसा पाठ दूसरे हाथ के माल से नहीं बुना जा सकता था. जैसे हम कहें कि रागदरबारी केवल श्रीलाल शुक्ल जी लिख सकते थे या आधा गॉंवकेवल राही मासूम रजा और मुझे चॉंद चाहिए केवल सुरेन्द्र वर्मा. केवल यह अद्वितीयता ही लेखक का उसका अपना शैलीकार बनाती है. वह आसानी से किसी की लेखन शैली में तिरोहित और समामेलित नहीं हो सकता. यह भाषाई अद्वितीयता तो सोबती के यहां है ही.
लेखक के सरोकार
लेखक की मेज न्याय की वह तुला है जिस पर हर कोई अपने वजन के अनुसार तुलता है. वह हर किसी का पैरोकार है . वह सच का पहरुआ है. विभाजन के दोनो ओर से उखड़े परिवारों की तबाह दुनिया के मंजर से गुजरी सोबती कमाल अहमद से बातचीत में यह स्वीकार करती हैं कि मैं उन खौफनाक वक्तों की पौध हूँ, विभाजन को झेले हुए हूँ फिर भी बॉंटना चाहती हूँ आपसे कि मेरी धर्मनिरपेक्षता को पिछले पचास वर्षों में शक-सुबह से किसी सांप्रदायिकता ने जख्मी नहीं किया. (लेखक का जनतंत्र,पृ 138)
अज्ञेय से बहुत से आला दर्जे के लेखकों ने बातचीत की है. कुँवर नारायण से भी. पर सोबती से पता नहीं क्यों बातचीत करने वालों में युवा लोग ज्यादा रहे हैं. जानी पहचानी शख्सियतों में कृष्ण बलदेव वैद, अनामिका,आलोक भल्ला, गिरधर राठी और पुराने लोगों में बस रणवीर रांग्रा. बाकी सब युवा हैं— निरंजनदेव शर्मा,कृपाशंकर चौबे,कमाल अहमद , आशुतोष भारद्वाज आदि. हां कृष्ण बलदेव वैद ने लंबी और ठहरावदार बातचीत की है—एक अलग पुस्तक में . उनसे बातचीत में भी वे लेखक के मान स्वाभिमान को नीचे नहीं गिरने देतीं. आखिरकार मित्रो की कामभावना की आकांक्षा की इज़हार केवल उनके दिमागी खेल की उपज नहीं थी. यह मानव स्वभाव है. हर किसी में सेक्सुअलिटी के गुणसूत्र और परिमाण अलग अलग होते हैं और वे तो मानती ही हैं कि \’
\’सेक्स हमारे जीवन का,साहित्य का महाभाव है. जो उपन्यास(समय सरगम) इस समय मेरी मेज़ पर है,उसकी खामोशियों में बूढे-सयाने लोगों का यह मौसम भी सेक्स और अनुराग भाव से रिक्त नहीं है. उसका रंग जरूर यौवन से अलग है.\’\’(सोबती-वैद संवाद,पृ153)
शायद उनका ध्यान साहित्य में तेजी से स्थान हासिल कर रहे स्त्री व दलित विमर्शों की ओर था. उनके लेखन व स्वभाव में परिष्कृति की हद तक सुगढ़ता उनके सौंदर्यबोध का परिचायक है. मानवीय जीवन की पेचीदगियों तथा उनके सरोकारों को खोलने में उनके उपन्यास,कहानियां व विचार एक बड़ी भूमिका निभाते हैं.
\’\’कवि लौकिक नहीं,अलौकिक शक्ति से ऊर्जा पाता है. उदात्त प्रकृति से सिमटा हुआ नहीं,वह दूर तक जीता है. इसलिए कविता का स्थान गद्य से ऊपर है. गद्य वालों को मान लेना चाहिए कि वे नंबर दो पर हैं. नंबर एक पर कवि है.\’\’
(लेखक का जनतंत्र,155)
मुक्तिबोध पर लिखते हुए वे जैसे हिंदी के आधुनिक पुरोधा कवि का ऋण चुका रही हों. यह आलोचना की रूढ शब्दावली से अलग कृतज्ञता, सहचिंतन और सहृदयता का एक समावेशी पाठ है जो मुक्तिबोध के रचे-सिरजे शब्दों के आलोक में सोबती के कवि-मन का उदबोधन है. जैसी अनूठी कृष्णा जी की कथा-भाषा है, वैसा ही अनौपचारिक पाठ मुक्तिबोध पर लिखी इस किताब का है. जिस शिष्ट सँवरन-भरे गद्य के लिए वे जानी जाती हैं, उसकी भी एक कौंध यहॉं अंधेरे में मोमबत्ती की तरह जलती दिखाई देती है. एक बड़े लेखक का आत्मसंघर्ष एक बड़ा लेखक ही समझ सकता है. मुक्तिबोध पर कृष्णा सोबती की किताब मुक्तिबोध के इसी आत्मसंघर्ष और उनके कवि-व्यक्तित्व की खूबियों को समझने की एक कोशिश है.
आलोचना प्राय: पाठ के जिस वस्तुनिष्ठ संसार का पारायण और परीक्षण करती है, एक सर्जक लेखक जीवन सत्य के उजालों को अपनी रूह में भरता है जो पाठ के धुंधलके को चीरती हुई आती है. कृष्णा सोबती ने मुक्तिबोध के काव्य की गहन वीथियों से गुजरती हुई कुछ कविताओं के आलोक में उस कवि-मन को पढने की चेष्टा करती हैं जिसकी कविताएं सीमातीत यथार्थ को भेदती हुई किसी भी प्रकार की कंडीशनिंग के विरुद्ध एक प्रतियथार्थ रचती हैं.
उपन्यासों में व्यक्त जीवन-यथार्थ
जिन्दगीनामाएक बड़े फलक का उपन्यास है. यह एक बड़े कालखंड का आख्यान है. पंजाबी संस्कृति की भाषाई कौंध इसमें है तो विभाजन और विस्थापन की पीड़ा भी . सिक्का बदल गया कहानी में जिस तरह का यथार्थ चित्रित है उसका महाविस्तार जिन्दगीनामा के कथ्य में है. बीसवीं सदी की ग्रामीण सभ्यता व संस्कृति की एक विराट झॉंकी यहां मिलती है तो शाह जी व उनके परिवार के रुप में यहां भी सिक्का बदल गया जैसी कहानी की भावभूमि नजर आती है.
यह उपन्यास यह जानने की कोशिश भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत पाकिस्तान के सीमांत क्षेत्र में गंवई खेतिहर सभ्यता के बीच ऐसा क्या घटित हो रहा था कि उसे एक देश के दो टुकड़े करने के निर्णय को अमली जामा पहनाने में मदद की. क्या यहां हिंदू मुसलमान जिस तरह की अमन की जिन्दगी बसर कर रहे थे , चौपालों में दोनों समुदायों के लोग बैठकी किया करते थे,वहॉं यह खौफ कैसे तारी हुआ कि एक समुदाय दूसरे के हितों का दुश्मन है. इस डर को किस तरह सोबती ने यहां डिकोड किया है यह एक दूसरा पहलू है जिन्दगीनामा के कथ्य को जॉंचने परखने का. भाषा के मामले तो इसे भी रेणु के मैला आंचल की तरह आंचलिक उपन्यास का दर्जा दिया जा सकता है. पंजाबी संस्कृति, लोक संस्कृति,सामुदायिकता की भावना के साथ उर्दू फारसी मिश्रित भाषा भी यहां पनाह लेती है.
लोक भाषा के प्रतितो उनका लगाव जबर्दस्त रहा ही है क्योंकि पहला उपन्यास चन्ना को इसी कारण छपने के बाद वापस ले लिया कि उसमें भाषा को आसान बनाने के लिए पंजाबी शब्दों का रुपांतर दे दिया गया था जिससे उसका सौंदर्य आहत हो रहा था. हिंदू मुस्लिम समुदायोंमें आपसी रिश्तों में प्रगाढता के रसायन भी इसमें मिलते हैं जो सदियों के रहन सहन से ही चले आ रहे हैं. पंजाब जिस तरह अपनी कुदरत के लिए जाना जाता है उसी तरह अपने पीर फकीरों से दुआओं के लिए भी. कुल मिलाकर जिन्दगीनामा केवल विभाजन का ही नहीं
केवल वृद्ध जीवन के निहितार्थ ही नहीं, यहां इस बहाने मानव जीवन के आसन्न संकटों पर भी आरण्या और ईशान चर्चा करते हैं तथा कोई अदृष्ट शक्ति है जो उन्हें विपरीतध्रुवीय होनेके बावजूद एकमेक करती है. मित्रो मरजानी में मित्रो तमाम कष्ट उठाती है, पर अंतत: परिवार में वापस लौटती है . वह यौन इच्छा को सहज मानवीय इच्छा और अधिकार के रूप में लेती है, इसीलिए अपनी इच्छाएं छुपा नहीं पाती. वह अपने अधिकारों के लिए सजग दिखती है तथा उस मोर्चे पर वह किसी से दबती नहीं. यह नारी सशक्तीकरण का तमाम दशक पहले किया गया पूर्वानुमान है जो आज कितना सच हो चुका है. आज के माहौल में देखें तो मित्रो जैसे आज की स्त्री का प्रतीक लगती है.
दिलो दानिश में महकबानो पुरुषवर्चस्व को चुनौती देने वाली पात्र है जो एक संघर्षशील महिला की दास्तान है. इस उपन्यास को पढते हुए लगता है स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है.
ऐ लड़की में भी पारिवारिक सत्ता के बीच स्त्री पुरुष अधिकारों में लेवलप्लेइंग के लिए जददोजहद चलती है. इस लंबी कहानी के केंद्र में एक वृद्धा है जो जीवन से संघर्ष में हार नहीं मानती. वह मृत्यु से अंत तक मुठभेड़ करती है.
जीवन की एक त्रासदी उसका आजीवन पीछा करती है. जिन लोगों को काशी का अस्सी की गालियां खटकती हैं उन्हें यारों के यार की गालियां भी खटकेंगी किन्तु आफसियल जिन्दगी और बाबूगिरी के गोरखधंधों की तह तक जाने के लिए भाषाई शील कभी कभी तोड़ना भी पड़ता है तभी सत्य का साक्षात्कार होता है. यारों के यार इसका उदाहरण है. तिन पहाड़की जया में भी प्रेम की बेलें फूटती हैं जिसके प्रति वह आसक्ति का भाव रखती है.
गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदोसतान तक –जैसे देखी गयी विभाजन की त्रासदी की कहानी हैं जिसमें खुद के बचपन को भी गहरे विजुअलाइज किया गया है. तत्कालीन रियासतों के वृत्तांत और गांधी युग की पेचीदगियों को भी बखूबी इसमें याद किया गया है. सोबती के स्त्री पात्र जिस तरह अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हैं वे नियति के विरुद्ध जिस तरह अप्रतिहत चेतना बन कर उभरते हैं यह सोबती का कथावैशिष्ट्य है कि स्त्रियों का किसी एक तरह का प्रोटोटाइप यहां पर नहीं रचा है. उनके पात्रों में वैविध्य है. हालात को देखने का नजरिया भिन्न है. जिस तरह की जिद कृष्णा सोबती में एक लेखक के नाते रही है, उसकी कहीं न कहीं एक छाया उनके स्त्री पात्रों में भी देखने को मिलती है.
स्निग्ध गद्य : शब्दचित्रों से आती हुई रोशनी
दो शख्सियतें ऐसी हैं कि उन पर उनका गुस्सा भी रचनात्मक होकर बरसा है–विभूति नारायण राय व रवीन्द्र कालिया. छिनाल प्रकरण में राय की खबर ली है उन्होंने तो एक बहुत ही सतही किस्म के तद्भव में छपे संस्मरण पर रवीन्द्र कालिया की बखिया उधेड़ी है उन्होंने. कहते हैं उनकी तारीफ का कोई चरम बिन्दु नहीं होता न उनके धिक्कार का. उनके गुस्से पर सहज ही ठंडा पानी नही डाला जा सकता.
निर्मल को वे उनके गद्य के टुकड़ों से याद करती हैं तो भीष्म साहनी को उनकी एकनिष्ठता के लिए जिनकी गृहस्थी में दूर दूर तक किसी असली या काल्पनिक महबूबा का नाम हवा में नहीं लहराता. वे लिखती हैं,
\’\’दरअसल भीष्म की बीवी ही इस सांझे आसन पर विराजमान हैं. दोस्तों का कहना है भीष्म को \’एक में तीन\’ जैसी बेनयाज बीवी मिली हुई है. बीवी,प्रेमिका और पाठिका.\’\’
अशोक वाजपेयी और निर्मल वर्मा ही ऐसे दो लेखक हैं जो इस सीरीज में दुहराए गए हैं. एक लेखक पर दो दो शब्दचित्र. अज्ञेय पर भी अलग से लेख भी है जो ओम थानवी संपादित अपने अपने अज्ञेय में शामिल है. वे इन शब्दचित्रों में कही व्यक्तित्वकी गुत्थियां खोलती हैं तो कहीं लेखन के गुणसूत्र बांचती हैं. किसी लेखक का कोई टुकड़ा या कविता पसंद आ गयी तो उसके हवाले भी यहां दिए हैं. गो कि एक लेखक को समझने के जो भी अनौपचारिक टूल्स हो सकते हैं उनके विनियोग से उन्हें उकेरने समझने की चेष्टा की गयी है. इन्हें पढते हुए तब की दिल्ली और बाहर की महफिलों सोहबतों का अंदाजा लगाया जा सकता है और कृष्णा जी की नफासतपसंद लेखनी का मिजाज भी पढा जा सकता है. हाल ही आया दिल्ली की सोहबतों का संस्मरणनामा \’मार्फत दिल्ली\’उस दिल्ली के अफसाने बयाँ करता है जिस दौर में वे यहां आईं और दिल्ली की होकर रह गयीं.
—————-