समलैंगिक कामुकता की रवायत और ग़ालिब
सच्चिदानंद सिंह
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इस्लामी समाज में विवादास्पद (यहां तक कि ईशनिंदात्मक भी) विषयों की अभिव्यक्ति के लिए पद्य की प्रतीकात्मक भाषा, गद्य की अपेक्षा, अधिक उपयुक्त मानी गयी है. यह प्रवृत्ति उर्दू में भी आयी और समलिंगी प्रेम का विषय उर्दू गद्य में बीसवीं सदी तक नहीं देखा गया; किन्तु जिसे गद्य में नहीं लिखा जा सका था वह सदियों से पद्य में अनुमत रहा (1).
ग़ालिब के कई ऐसे अशआर मिलेंगे (और मीर के तो शायद सैकड़ो) जिनमे शायर, स्वयं एक पुरुष, किसी लड़के के प्रति अपनी कामना व्यक्त कर रहा दीखता है. कुछ अशआर बस इस लिए ऐसे लग सकते हैं क्योंकि उर्दू में भी, फ़ारसी के तर्ज पर, क्रिया के रूप को लिंग के आधार पर नहीं बदलने की रीति रही है; पर बहुत जगहों पर शायर के प्रेम का लक्ष्य स्पष्ट रूप से कोई पुरुष या किशोर होता है: जिसका आभास मिलता है उसके परिधान (जैसे साफा), शस्त्र (तलवार) या उसके गालों पर उगते हुए रोवों से.
बीसवीं सदी के सामाजिक मूल्यों की कसौटी पर देखने से समलैंगिक प्रेम की ऐसी अभिव्यक्ति हमें अप्रीतिकर, उद्वेगकर भी, लग सकती है. उन्नीसवीं सदी में भी इसे इतना साफ़ साफ़ ज़ाहिर करना कम हो चला था. किन्तु उर्दू शायरी का सांस्कृतिक स्रोत पश्चिम एशिया रहा है जहाँ ऐसे प्रेम की अभिव्यक्ति को सदियों से सामाजिक मान्यता मिली रही है. हिन्दुस्तान में उर्दू शायरी की गुनगुनाहट सबसे पहले दक्कन में गूंजी थी. वहां इस पर अरब और फ़ारस के प्रभाव कम रहे थे. दक्कन की शायरी में फ़ारस की ग़ज़ल-ए-मुज़क्कर (जिनमें मर्द आशिकमर्द माशूक को सम्बोधित करता सुनाई पड़ता है) के स्वर नहीं थे. बहमानी सुलतान दिल्ली से फ़ारसी, अरबी, तुर्की लफ़्ज़ों से मिली हिंदी ले गए थे और उनके दरबारों की शायरी उसी हिंदी में फली फूली. उसमें बस हिन्दुस्तानी प्रतीक या बिम्ब दीखते हैं. यदि दक्कनी शायरी को हम उर्दू शायरी मानें, और ऐसा नहीं मानने की कोई वजह नहीं है, तो यह कहना ग़लत होगा कि उर्दू शायरी में शुरू से समलिंगी प्रेमभावना – मर्द की मर्द के लिए ख्वाहिश रही है. “यह अच्छाई या बुराई, यह खूबी या खराबी बाद को आयी” (2).मगर दक्कनी शायरी में भी दुविधा भरे कुछ शेर दीख जाते हैं. वली दक्कनी का यह शेर देखिए:
वली उस गौहरे-काने-हया का वाह क्या कहनामेरे घर इस तरह आवे है ज्यों सीने में राज़ आये
कहना मुश्किल है कि वली दक्कनी अपने माशूक के बारे में कह रहे थे या अपनी माशूका के बारे में.एक ज़माने में हिंदी/उर्दू में क्रिया का एक रूप ऐसा भी रहा जो पुंलिंग और स्त्रीलिंग दोनों में एक समान रहता था– आवे है, जाए है, कहे है, सुने है, बनाये है, बिगाड़े है… जिसके चलते इस शेर को पढ़कर कभी नहीं कहा जा सकता कि यह मर्द के नाम है या औरत के नाम, गो हम जानते हैं दक्कन में समलिंगी अभिव्यक्ति नहीं उभरी थी. (यह ग़ौर तलब है कि वली दक्कनी बहमानी सुल्तानों के दरबार का नहीं बल्कि औरंगाबाद और गुजरात का था और दक्कन की शायरी के आखिरी दौर का था)
उत्तर भारत की उर्दू शायरी की शुरुआत फ़ारसी शायरी के तर्ज पर हुई थी. शुरूआती उर्दू शायर मुसलमान थे– तुर्क, अफ़ग़ान या मुग़ल– कुछ ईरानी भी. पूरे मध्य-एशिया पर ईरान का सांस्कृतिक प्रभाव था और फ़ारसी भाषा का वहाँ वही स्थान था जो यूरोप में लैटिन का था. हिन्दुस्तान में उर्दू शायरों ने ईरान से न सिर्फ छंद शास्त्र लिया (जो ईरानियों ने मूलतः अरबों से लिया था) बल्कि उर्दू शायरों ने अपने पद्य का रूप-रंग,उसकी विषय-वस्तु, शब्दावली, उसके बिम्बविधान, अलंकार .. सब कुछ फ़ारसी से उठा लिए (3). उर्दू शायरी में समलैंगिक प्रेम की अभिव्यक्ति, जो बीसवीं सदी की शुरुआत तक दीख सकती है, के मूल भी मध्य युगीन फ़ारसी शायरी में ही हैं.
कम से कम आठवीं सदी से अरबी और फ़ारसी कवियों में एक वयस्क पुरुष के किसी अल्प-वयस्क किशोर के प्रति समलैंगिक प्रेम पर कविता लिखने की परम्परा देखी जा सकती है. उस परम्परा की चर्चा करने के पहले यह जानना उपयोगी होगा कि इस के प्रति इस्लाम और इस्लामी धर्मवेत्ताओं के क्या विचार रहे हैं. इस्लाम ऐसे प्रेम को एक घृणित अपराध गिनता है. क़ुरान में पैगम्बर लूट (बाइबिल का लॉट) की कहानी के सन्दर्भ में पुरुषों के बीच दैहिक सम्बन्ध की स्पष्ट निंदा की गयी है. ध्यातव्य है कि बुखारी और मुस्लिम के द्वारा संकलित अहादिस में समलैंगिकता के कोई सन्दर्भ नहीं मिलते हैं. किन्तु,कुरआन में ऐसे कई संकेत (4)हैं कि स्वर्ग में खूबसूरत कमसिन लड़के मदिरा के प्याले प्रस्तुत करेंगे – और इस तरह शराब और समलैंगिक प्रेम, दोनों जो इस दुनिया में इस्लाम में हराम हैं, कम से कम चुनिंदा मर्दों को मरणोपरांत बतौर ईनाम मिलेंगे. इस से यह आभास होता है कि तत्कालीन अरब समाज में ये दोनों प्रवृत्तियाँ (मद्यपान और अल्पवयस्क पुरुष के साथ प्रेम) प्रचलित रही होंगी पर अवांछनीय समझी जाती होंगी.
ये तो इस्लामी धर्म-विधान के प्रावधान हुए. किसी देश-काल में समलैंगिकता के विरुद्ध ये वैधानिक प्रावधान कितनी कड़ाई से लागू किये गए थे यह आँकना बहुत कठिन है. उपलब्ध उपाख्यानात्मक पाठ यही बताते हैं कि बलात्कार या सामाजिक शील पर वैसे ही अन्य प्रबल अतिक्रमणों को छोड़ इन प्रावधानों के उपयोग शायद कभी नहीं हुए; और वहां भी गवाही के सख़्त क़ानूनों के चलते शायद ही कोई अभियुक्त दण्डित हुआ. पर क़ानून क्या कहता है, बस उसे देखते रहने से हम शायद इस्लामी समाज का एक असंतुलित चित्र खींच बैठेंगे. सच्चाई यह है कि आठवीं सदी (ई.) से पुरुष समलैंगिक कामुकता की खुले आम भावाभिव्यक्ति को अरब और ईरानी समाज स्वीकार करने लगा था.
पैगम्बर के काल में या उनके देहांत के सौ वर्षों के अंदर, अरबी साहित्य में समलैंगिक कामुकता की अभिव्यक्ति के उदाहरण कम मिलते हैं– नहीं के बराबर (6). आठवीं सदी (ई.)आते आते लगभग अचानक बग़दाद में समलैंगिक शायरी का तूफ़ान फूट पड़ा.
इसकी शुरुआत अबू नुवास (मृत्यु 813) से मानी जाती है. अबू नुवास शराब और कमसिन लड़के, दोनों का प्रेमी हुआ करता था, विख्यात शायर तो वह था ही. (उसकी रचनाएं बीसवीं सदी की शुरुआत तक आम तौर पर उपलब्ध थीं. 1932 में कैरो में उसकी कविताओं का एक परिष्कृत संकलन छपा; 2001 में मिश्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने उस की ऐसी किताबों की सभी प्रतियाँ जलवा दीं थीं जिनमें समलैंगिक कामुकता के संकेत थे और उन्ही दिनों साउदी अरब ने ग्लोबल अरबिक इनसाइक्लोपीडिया में उस की प्रविष्टि से किशोरों के प्रति प्रेम के सभी उल्लेख हटवा दिए (7)) ईरानी कवि ओमर खैयाम और हाफ़िज़ पर भी अबू नुवास के प्रभाव बताये जाते हैं (8).
अबू नुवास अकेला नहीं रहा, उसके देखा देखी बहुत शायर आये और उसके समय से लड़कों को ले कर अरबी या फ़ारसी में शेर, ग़ज़ल कहने की परिपाटी चल पड़ी. उसके बस सौ वर्षों के अंदर अरब में समलिंगी कामुकता को घोषित करती शायरी उतनी ही लोकप्रिय हो गयी जितनी इतर लिंगी कामुकता को. समलिंगी भावनाओं का विस्तार उतना ही फ़ैल गया जितना इतर लिंगी भावनाओं का था- भौतिक से अलौकिक तक, मांसल से अतीन्द्रिय तक ! और समलिंगी प्रेम को कम से कम संभ्रांत, कुलीन वर्ग में मान्यता मिल गयी. इसके बाद जल्द ही, पूरे दार-उल-इस्लाम में, देश या नस्ल की सीमाओं को लांघते हुए, समलिंगी प्रेम स्वीकार कर लिया गया.
हारूँ अल रशीद का बेटा अल अमीन (मृत्यु सन 813) छठा अब्बासी खलीफा हुआ था. उसे लड़कों के प्रति इतना जबरदस्त झुकाव था कि वह औरतों के पीछे जाता ही नहीं था. उसकी हालत देख ज़ुबेदा, उसकी माँ, ग़ुलाम औरतों को मर्दों के कपडे पहना कर उसके पास भेजती थी जिस से खलीफा अल अमीन में पारम्परिक रुचियाँ जगें और अब्बासी खिलाफत को उत्तराधिकारी मिल सकें (9).
ध्यातव्य है कि तत्कालीन इस्लामी पद्य साहित्य में समलैंगिकता को जिस रूप में देखा जाता था वह आज के पाश्चात्य देशों में देखे जा रहे उसके रूप से सर्वथा भिन्न था, और आज जिस दृष्टि से इसे इस्लामी देशों में देखा जाता है, उस से भी. समलैंगिकता पर आज पाश्चात्य विचार है कि यह एक मानवीय संवेग, मानवीय संवेदना है जो कुछ लोगों में बहुत प्रबल रहती है और बस इसी के रहने के चलते किसी को समाज में अस्वीकृत नहीं किया जा सकता. वहीँ सात मुस्लिम राष्ट्रों में आज इस के लिए प्राण-दंड के प्रावधान (10) हैं.
आज से सौ वर्ष पहले स्थिति उलटी थी. मुस्लिम राष्ट्रों में समलैंगिकता को धर्म विरुद्ध तो अवश्य माना जाता था पर इस के चलते किसी के दण्डित होने की बात सुनने में नहीं आती थी. वहीँ इंग्लैंड में बस समलैंगिक सम्बन्ध रखने के चलते ऑस्कर वाइल्ड को सश्रम कारावास भुगतना पड़ा था. आज पश्चिम में पेडेरास्टी (अम्रदपरस्ती) को अपराध माना जाता है किन्तु वयस्क, ऐच्छिक समलैंगिकता को नहीं, तत्कालीन इस्लामी समाज में वयस्क समलैंगिकता को विकार मानते थे किन्तु अम्रद परस्ती को नहीं.
मध्य युगीन इस्लामी देशों में समलैंगिकता को जिस दृष्टि से देखा जाता था वह प्राचीन ग्रीस के विचार/व्यवहार के समीप था, जहाँ अल्पवयस्क किशोर और पुरुष के बीच दैहिक प्रेम के सबसे पुराने उल्लेख मिलते हैं. हेरोडोटस ने तो लिखा है, अल्पवयस्क पुरुषों के प्रति प्रेम का उद्भव मिश्र में हुआ था, पर अब पुरातत्वविद कहते हैं इसका उद्भव और इसकी सामाजिक मान्यता सबसे पहले क्रीट में हुई थी जहाँ अपोलो, हरक्युलिस आदि देव, अर्द्ध देव के चहेते किशोरों के उल्लेख मिलते हैं. कहते हैं प्राचीन यूनानियों से यह प्रेम ईरान आया. और ईरानियों से यह पूरे मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में फैला. यह माना जाता था कि प्रायः सभी वयस्क, परिपक्व पुरुष कमसिन लड़कों के प्रति स्वाभाविक रूप से आकर्षित होते हैं, ठीक वैसे ही जैसे युवतियों के प्रति. तरुण लड़कों की त्वचा भी रोम रहित और स्निग्ध होती है स्त्रियों के समान, और नारीवादी याद करेंगे कि तरुण लड़के भी स्त्रियों के समान परिपक्व पुरुषों से दबे, उनके अधीन रहते थे.
रुचियों में विभिन्नता अवश्यम्भावी है. कुछ पुरुष बस स्त्रियों में आसक्त होते होंगे, कुछ बस बालकों में वहीँ कुछ दोनों में. पर अभिरुचि या रसज्ञान की ये विभिन्नताएं उस काल के प्रणय-गीतों में नहीं झलकतीं. क्रिया-रूपों की लिंग निरपेक्षता के चलते फ़ारसी गीतों में तो बिलकुल नहीं. प्रेम का लक्ष्य कौन है, बालक या युवती, इसका आभास मिलता है वक्ष के उभार या गालों पर उगते रोवों के वर्णन से. गालों पर के रोवें कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण थे. वे दर्शाते थे कि कुछ वर्षों में यह तरुण नहीं रहेगा और किसी पुरुष के लिए इसका यौनाकर्षण समाप्त हो जाएगा, यह बालक तब स्वयं एक युवक हो जाएगा और अपने लिए युवतियाँ (या किशोर बालक) खोजने लगेगा.
ग्यारहवीं सदी तक, पूर्व में तूरान (ट्रांसओक्सानिआ) से पश्चिम में सीरिया तक, शायरी में समलिंगी लक्षण और रूपक समान रूप से छा गए थे. इसी दौर में ईरान के सामंत वर्ग में तुर्क दासों के सौंदर्य की उपासना करने की सनक चढ़ गयी. तुर्की सैनिक, जो किसी तरह तरुण नहीं कहे जा सकते थे, अभिजात ईरान में समलिंगी प्रेम के आदर्श माशूक बन गए. ईरानियों के साहित्य, लोकगाथाओं में इस प्रेम की अभिव्यक्ति बहुधा ईरानी शासक वर्ग के द्वारा आकर्षक तुर्क दासों के प्रति हुई है. ईरानी सामंत इन दासों को अपना साक़ी बनाने लगे थे और धीरे धीरे ईरानी अभिजात वर्ग अपने साकियों के प्रति अपने स्नेह को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने लगा. यहीं से ईरानी समाज में, और उनकी फ़ारसी भाषा और संस्कृति के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले अन्य समाजों में इसे मान्यता मिलने लगी.
इसी बीच महमूद गज़नी और उसके दास मालिक अयाज़ की प्रेम कथा सामने आयी. अयाज़ को अधिकांश लेखकों ने जॉर्जियन बताया (11) है, पर ईरानी स्रोत (12) उसे तुर्क कहते हैं. जो भी हो, ईरानी या इस्लामी साहित्य में महमूद और अयाज़ की अनुश्रुति उतनी ही प्रसिद्ध हो गयी जितनी खुसरो और शीरीं की या मजनूँ और लैला की. शायरों ने इसमें भी अतीन्द्रिय प्रेम की झांकी देखी. सूफ़ी शायरों ने महमूद को प्रेम में अपने दास का दास बनते देखा. अयाज़ आदर्श माशूक का साक्षात रूप बन कर सूफी साहित्य में आया. सा‘दी ने अपने पद्य संग्रह बुस्तां में लिखा है, अयाज़ बहुत सुदर्शन नहीं था और महमूद उसके रूप नहीं बल्कि उसके गुण का प्रेमी था.
सूफ़ी साहित्य में अयाज़ को शुचिता और निष्कपटता का आदर्श माना गया, कतिपय शायरों और सूफियों ने महमूद और अयाज़ के सम्बन्ध में प्रेम के अतीन्द्रिय, रहस्यवादी पक्ष देखे. इसका एक अच्छा उदाहरण ईरानी कवि ज़ुलाली (मृत्यु 1615) के मसनवी में मिलता है. पर अन्य शायरों ने उनके प्रेम की मांसलता को स्वीकारा है.
ग़ज़नी और अयाज़ की चर्चा इकबाल की शायरी में बहुत बार आई है. शायद सबसे सुविख्यात प्रसंग इकबाल की ग़ज़ल ‘कभी ऐ हकीकत-ए–मुन्तज़र…‘में आया है:
न वो इश्क में रहीं गर्मियां, न वो हुस्न में रहीं शोखियाँ
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही, न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए अयाज़ में
चौदहवीं सदी से, कहा जाता है कि ऐसी शायरी हिंदुस्तान में उर्दू साहित्य में दिखाई देने लगी. अमीर खुसरो (1253-1325) भारत का शायद पहला ग़ज़लगो था. उस ने फ़ारसी में अनेक गज़लें और शे’र लिखे हैं जिनमें पुरुषों के बीच प्रेम दिखाया गया है. यहाँ ग़ालिब के एक शिष्य (और मित्र) हाली के (कदाचित असमर्थनीय)विचार प्रासंगिक हैं. हाली ने 1885 के आस पास फ़ारसी कवि सा‘दी की जीवनी लिखी थी. उसमें समलैंगिक कामुकता पर उसके विचार इस प्रकार आये हैं:
“ईरान के सभी शायरों ने रोमांटिक ग़ज़लों की नींव में तरुण, रोम-रहित लड़कों को माशूक रखा है. यद्यपि यह घृणित और निंदनीय लगता है, सा‘दी या अन्य फ़ारसी कवियों पर इसके चलते अम्रद परस्ती (लौंडेबाजी ) का इलज़ाम लगाना सही नहीं होगा. फ़ारसी शायरी में, और उसके प्रभाव से उर्दू शायरी में भी शायरी की ऐसी (तरुण को प्रणय गीत सम्बोधित करने की) शैली शुरू से रही है, चाहे शायर पुरुष हो या स्त्री, चाहे वह रिन्द हो या सूफी, चाहे उसका इश्क़ हक़ीक़ी हो या मजाज़ी, चाहे वह मर्द से इश्क करता हो या औरत से, और तो और, चाहे शायर आशिक़ हो भी या नहीं”!
“उसी तरह हिंदी (ब्रज भाषा) कवि स्त्री के स्वर में पुरुष को सम्बोधित करता है, वहीँ अरबी कवि पुरुष के स्वर में स्त्री को”.
अपनी बात के समर्थन में हाली ने अमीर खुसरो का उदहारण दिया जिसने अरबी, फ़ारसी और हिंदी तीनों में कविताएं रचीं और, हाली के अनुसार, तीनो भाषाओं में इन परिपाटियों के पालन किये (13).
हाली को, जैसा स्पष्ट है, तरुणों को सम्बोधित शायरी अच्छी नहीं लगी थी और वह इसकी सफाई दे रहा था. पर उसकी सफाई में कोई दम नहीं दीखता.
तेरहवीं सदी में भारत में इस्लामी शासन मामलुक वंश से शुरू हुआ और यह कहा जाता है कि इस्लामी शासकों ने अपने धर्म के साथ अपनी समलैंगिक रीतियां भी इस देश में लायीं (14). इस कथन की सच्चाई विवादास्पद है. कुछ लेखकों ने ऋग्वेद में स्त्री समलैंगिकता के उदाहरण पाए जाने की बात कही है पर विस्तृत सन्दर्भ नहीं मिलते हैं. प्राचीन भारत के कदाचित सर्वाधिक लोकप्रिय सेक्स गाइड वात्स्यायन के काम सूत्र में पुरुष समलैंगिकता का उल्लेख नहीं मिलता है–हिंजड़ों के और उनके साथ मुख-मैथुन के उल्लेख अवश्य मिलते हैं (15).
वाल्मीकि के रामायण में रावण के अंतःपुर में उसकी उपपत्नियों के बीच एक दूसरे को सुख देने केलिए जैसा व्यवहार वर्णित है, वह स्त्री समलैंगिक व्यवहार ही कहा जाएगा(16). मनुस्मृति में भीअप्राकृतिक अपकार के दंड वर्णित हैं. यथा यदि कोई द्विज पुरुष किसी पुरुष के साथ अप्राकृतिक अपकार करे तो उसे अपने वस्त्र पहने पहने स्नान करना पडेगा (17). इस से दो संकेत मिलते हैं:
यह सब देख कर यह कहना कि भारत में समलैंगिकता मुसलमानों के साथ आयी सही नहीं है. सेक्स निश्चित ही सर्वनिष्ठ है. इतरलिंगी सेक्स से ही कोई नस्ल जीवित रह सकती है, इसीलिए विधाता ने सेक्स को एक आदिम प्रवृत्ति बनाया है. उपलब्धता के अभाव से यह किसी समुदाय में समलिंगी रूप ले सकता है. पर इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि इस्लामी समाज में, धर्म विरुद्ध माने जाने के बाद भी इसे जितने उत्साह से स्वीकारा गया है वह हिन्दू समाज में नहीं दीखता है. उन्नीसवीं सदी में हुए अफ़ग़ानिस्तान के शाह शुजा का पुत्र प्रिंस फ़तेह जंग अपने सैनिकों का उनके बैरक में बलात्कार किया करता था (18).
बर्टन ने करांची में, जो उन दिनों (1840 की दशक के मध्य) बस तीन हजार की मुस्लिम आबादी की बस्ती हुआ करता था, तीन ऐसे वेश्यालयों के पाए जाने की चर्चा की है जिनमें बस लड़के या हिंजड़े मिलते थे, और लड़कों की दर दूनी थी (19)
बाबर ने भी अपनी आत्मकथा बाबरनामा में एक किशोर के प्रति प्रबल प्रेम की अनुभूति के जगने की चर्चा की है,इतनी प्रबल कि बाबर ने कुछ हफ़्तों के लिए अपने सुध बुध खो दिए थे (20).
ग़ालिब के समय से सौ साल पहले, दिल्ली के समाज में समलैंगिक कामुकता की खुले आम अभिव्यक्ति का एक सशक्त दस्तावेज हमें दरग़ाह क़ुली ख़ाँ के वृत्तांत में मिलता है. क़ुली ख़ाँ नवाब निज़ामुल-मुल्क आसफ जाह I का वृत्तांत लेखक था. जून 1738 से जुलाई 1741 तक वह आसफ जाह के साथ दिल्ली में रहा था और उसने दिल्ली के उमरा, अवाम, गाने वाले, कोठे वालियां, शायर, चित्रकार, और दिल्ली की सामाजिक गतिविधियों के जीवंत विवरण लिख छोड़े हैं. एक दंगल के दृश्य का वर्णन करते हुए उसने लिखा है, बिना किसी की कोई परवाह किये हर कोने में आलिंगनबद्ध प्रेमी दीख रहे थे, ऐसे तरुण घूम रहे थे जो किसी तपस्वी के संकल्प तोड़ दें (21).
अठारहवीं सदी की दिल्ली में मर्दों को औरतों से मिलने के, या उन्हें बस देख पाने के अवसर नहीं मिलते थे. पर मर्दों को आपस में मिलने के मौके भरे पड़े थे. उर्दू शायरी में जिन मौकों की चर्चा आती रहीं हैं वे हैं- पढ़ाने के क्रम में, कुश्ती-दंगल आदि के समय, सूफी उर्स समारोहों में, बाज़ारों में आदि. अनेक लोग अवसर मिलने पर सम्बन्ध बनाने के प्रयास करते थे. एक ऐसा वाकया औरंगाबाद के सिराज का है. सिराज ने दिल्ली के एक चौदह साल के हिन्दू लड़के को बाजार में कभी देखा और उस पर लट्टू हो गया. सिराज ने लड़के को पढ़ाने के बहाने बुलाया, लड़का आने लगा और अंततः उनके बीच एक अंतरंग भावुक सम्बन्ध स्थापित हो गया. जब यह खबर शहर में फैली तो लोगों ने इस पर आपत्ति की; इस पर नहीं कि एक वयस्क ने एक लड़के के साथ सम्बन्ध स्थापित किया, इस पर कि सम्बन्ध एक मुसलमान और एक हिन्दू के बीच स्थापित हुआ था (22).
मिर्ज़ा मज़हर, अठारहवीं सदी दिल्ली के एक नामी शायर और उस से भी अधिक नामी एक सूफी हुए हैं. उनके विषय में उन्नीसवीं सदी में हुए उर्दू शायरी के पहले समालोचक ग़ुलाम हुसैन आज़ाद ने अपनी किताब आब-ए-हयात में लिखा है, मज़हर का एक मुरीद दिल्ली के एक रईस खानदान का शायर ताबाँ हुआ करता था, जिसकी खूबसूरती ऐसी थी कि सब उसे दूसरा यूसुफ़ कहते थे. मज़हर ताबाँ को देख कर अंदर से प्रफुल्लित हो जाते थे, उस से बातें करना पसंद करते थे और उसके साथ तेज़, नमकीन कहानियां सुनते सुनाते देखे जाते थे (23). मज़हर ने स्वयं भी लिखा है, कम उम्र में उन्हें समलैंगिक प्रेम हुए थे पर आध्यात्म की शक्ति से वे अपने इश्क मजाज़ी को उदात्तीकृत कर इश्क हक़ीक़ी में बदल सके थे (24).
सब सब कुछ तौलने पर यह निष्कर्ष निकलता दीखता है कि ईरान और मध्य एशिया की संस्कृति में समलैंगिक कामुकता को स्वीकार कर लिया गया था और उसकी अभिव्यक्ति पर सामाजिक शिष्टाचार के कोई प्रतिबन्ध नहीं थे. उसके चलते हिन्दुस्तान में भी मुस्लिम समाज में इसका निर्बंध प्रचलन था. हिन्दुस्तान की अपनी प्राचीन संस्कृति में समलैंगिक कामुकता के बहुत कम उदाहरण मिलते हैं. स्पष्टतः इसे ईरान और मध्य एशिया वाली मान्यता यहां नहीं मिली थी. स्थानीय प्रभाव के चलते, अनेक मुसलमान (यथा अल्ताफ हुसैन हाली) इसे अब स्वीकार नहीं कर पा रहे थे यद्यपि आम आबादी (दोनों- हिन्दू और मुसलमान) का एक भाग बहुत उत्साह के साथ इसका समर्थन करता था.
इस बीच उन्नीसवीं सदी के चौथे चतुर्थांश में, सर सईद अहमद ख़ाँ के नेतृत्व में अलीगढ मूवमेंट के नाम से उर्दू साहित्य में एक गहरे बदलाव लाये जाने की शुरुआत हुई. वैसे तो इसका लक्ष्य उर्दू गद्य था पर सर सईद उर्दू शायरी से भी काफी निराश था, जो उसकी नज़र में इश्क और मुहब्बत के जाल से बाहर नहीं निकल पायी और उसके विचार से यह प्रेम का विषय उर्दू शायरों को उन निंद्य भावनाओं से जोड़े रखता था जो प्रकृति और संस्कृति, दोनों, के विरुद्ध थे. सईद अहमद ख़ाँ उर्दू शायरी को कृत्रिमता से अलग कर अंग्रेजी कविता के समान उसे प्रकृति के निकट देखना चाहता था (25).
सईद की पहल के बाद उर्दू शायरी का पहला आधुनिक समालोचनात्मक अध्ययन ग़ुलाम हुसैन आज़ाद ने किया, फिर हाली ने भी, जो सर सईद के प्रति पूर्ण रूप से अर्पित था. आज़ाद और हाली में हम उर्दू शायरी की समलैंगिक अभिव्यक्ति पर पहले प्रहार देखते हैं.
अल्ताफ हुसैन हाली के समय तक इंग्लैंड की तत्कालीन विक्टोरियन छद्म-लज्जा दिल्ली की फ़ारसी-ओ-मुग़लई संस्कृति पर हावी हो चुकी थी. ग़ज़ल और विक्टोरियन विचार कभी मेल नहीं खा सकते थे. हाली ने, जो पंजाब सरकार के शिक्षा विभाग में काम कर रहा था, विक्टोरियन मूल्यों को पूर्णतः आत्मसात कर लिया था. वह ग़ज़ल के मूल स्रोत पर जाना चाहता था– अरब. उसका मानना था कि समलिंगी प्रेम इस्लाम के मूलस्थान अरब से नहीं (बग़दाद के अबू नुवास की शायरी को नज़र में रखते हुए हाली का ऐसा सोचना सही नहीं लगता है) बल्कि ईरान और मध्य-एशियाई तुर्कों से आया है. पुरुष का पुरुष के प्रति प्रेम और उस से मिलन की इच्छा, हाली ने लिखा, मानव प्रकृति के विपरीत है (26).ग़ज़ल और विक्टोरियन मूल्यों के बीच इस लड़ाई में विक्टोरियन जीत गए लगते थे.
बदलती आचार संहिता ने किशोरों के प्रति किसी वयस्क पुरुष के प्रेम को एक विकृति के रूप में देखा. और इस समस्या के मूल में पथभ्रष्ट, विकृत फ़ारसी शायरी की परम्परा को पाया, जहां तरुण को प्रेमिका के रूप में देखा जाता था,
“उसकी ज़ुल्फ़ों, उसके केश के छल्लों, उसके गालों के रोवों, उसकी उगती मूंछों, उसके रुखसार पर के तिल … आदि की घृणित उत्साह के साथ प्रशंसा की जाती थी”.
उर्दू के पारम्परिक शायरों की ग़ज़लों में भी पुरुष का एक किशोर के प्रति वही अप्राकृतिक प्रेम दीखता था (27).
लेकिन शायद हाली की भी हिम्मत नहीं हुई कि मध्य-युग के प्रख्यात सूफियों की शायरी को वह अश्लील घोषित कर सके. शेख सादी की शायरी पर उस ने लिखा है,
“यद्यपि शेख और उनके समान कुछ अन्य संत अपनी शायरी में स्निग्ध रोमहीन किशोरों के प्रति आकर्षित दीखते हैं, मैं इस में कोई दूषित अर्थ नहीं देखता. सूफियों का यह विश्वास रहा है कि मानवी प्रेम यदि शुद्ध और निर्दोष हो तो साधक के आतंरिक विकास में सहायक होता है और अनेक सूफी संतों में यह प्रेम पूर्ण शुचिता के साथ देखा जाता है. उनकी शायरी में कहीं कृत्रिमता नहीं है”.
हाली के इस कथन में स्पष्ट दिखाई देता है कि हाली स्वयं शायरी में उन अप्राकृतिक बिम्बों में, सूफियों के मामले में, कोई अप्राकृतिकता नहीं देखता था.
हाली की इस आलोचना को फ़िराक़ ने नहीं स्वीकारा है और इस सिलसिले में उसके दो शेरों को उद्धृत करते हुए उस ने कुछ सवाल किये हैं. शेर हैं:
जी ढूंढता है बज़्मे तरब में उन्हें मगर
वे अंजुमन में आये तो फिर अंजुमन कहाँ
कहता है खैर हम भी सही दुश्मन आप के
शिकवे को ले गया है वो बेदादे फ़न कहाँ
आगे फ़िराक़ ने कहा,
“अगर ग़ज़लों के शेरों में उसी खुश-सलीकगी (सुरुचि) से इस्लाह (संशोधन) फ़रमाई गयी तो हमारे इश्क़िया कल्चर की लताफत (महीनी) ख़ाक में मिल जायेगी” (28).
यहाँ यह बात भी स्पष्ट कर देनी चाइये कि फ़िराक़ अम्रद परस्ती को अपने आप में बुरा नहीं कहता. बकौल फ़िराक़, “जो लोग अम्रद परस्ती के मुरतकिब (अपराधी) हैं, वह न तो जरायमपेशा होते हैं, न रज़ील, न जलील न कमीने …. कई अम्रद परस्त तो अख़लाक़ (अच्छा आचरण) और तमद्दुन (नागरिक सभ्यता, संस्कृति) और रूहानियत की तारीख के मशाहीर (विख्यात) रहे हैं, जैसे सुकरात, सीज़र, माइकल एंजेलो, शेक्सपियर …”(29)
विक्टोरियन मूल्यों के अभिपतन के बाद उर्दू शायरी में समलिंगी प्रेम के समर्थन में भी कुछ आवाज़ें उठीं. समर्थक कोई नयी बात नहीं लाये. फ़िराक़ ने भी पुरानी बात दुहरायी कि फ़ारसी में क्रिया का रूप कर्ता के लिंग पर निर्भर नहीं करता और उसकी देखा देखी उर्दू में भी क्रिया का बस पुंलिंग रूप रह गया है. अन्यत्र दूसरा कारण यह बताया गया है कि कौव्वाली में, जो सूफियों की विधा रही है, माशूक सदा ईश्वर रहता है जिसे प्रथानुसार पुंलिंग माना गया है. अन्य समर्थकों ने दिव्य प्रेम के सन्दर्भ में लिखा; प्रेम की अनुभूति किसी लक्ष्य के प्रति ही अभिव्यक्त हो सकती है जो लक्ष्य सांसारिक हो सकता है या आत्मिक. मर्दाने बिम्ब, उनके अनुसार आवश्यक हो जाते हैं जिस से ग़ज़ल के द्विअर्थी निर्वचन के लिए सन्दर्भ स्थापित रहे. सच्ची ग़ज़ल, इस दृष्टि, से वही है जिसका निर्वचन एक साथ आत्मिक प्रेम और सांसारिक प्रेम, दोनों के सन्दर्भ में किया जा सके (30)
ग़ालिब ने भी इस विषय पर अपने शागिर्द ‘क़द्र’ बिलग्रामी के एक शेर का संशोधन करते हुए प्रकाश डाले हैं. उसने लिखा है,
क़द्र के एक शेर का उदाहरण देते हुए, उसने आगे लिखा,
“किस से कहते हो? सिवाय क़ज़ा या क़द्र (ईश्वर के निर्णय, प्रारब्ध) के कोई रंडी, कोई लौंडा इसका मुखातिब नहीं हो सकता”.
“अब खिताब माशूकाने मजाज़ी और क़ज़ा व क़द्र में मुश्तरिक रहा” (31).
स्पष्ट है, ग़ालिब भी यह मानता था कि किसी ग़ज़ल के साथ साथ दोनों निर्वचन – आत्मिक और सांसारिक बस संभव नहीं, आवश्यक होते हैं, और सांसारिक निर्वचन में आशिक औरत या अमरद किसी के प्रति समर्पित हो सकता है.
समाज में – मध्य एशिया या ईरान में नहीं, दिल्ली में भी, जैसा हमने देखा, समलैंगिक प्रेम स्वीकार्य था. क्या शायर भी इसके शौक़ीन होते थे? क्या उनकी अपनी प्रवृत्तियों ने राम बाबू सक्सेना के शब्दों में उस विकृत शायरी का जन्म दिया था? इस प्रश्न पर प्रिचेट का कहना है,
“यह सत्य है कि पारम्परिक क्लासिकी शायरी ने समलैंगिकता को अवैध या प्रतिषिद्ध घोषित नहीं किया था, जैसे पारम्परिक शायरी ने परस्त्रीगमन को, वेश्यागमन को, मत्तता को, द्यूत को और ऐसे ही अन्य कई निंदनीय आचार को वारित नहीं किया था. किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि क्लासिकी शायरी ने समलैंगिकता की शारीरिक अभिव्यक्ति को (जैसे संभ्रांत महिलाओं के साथ व्यभिचार या इस्लाम को त्यागने की शारीरिक, भौतिक अभिव्यक्तियों को) कभी वैध नहीं ठहराया. उस बीती संस्कृति के कर्णधार सुदर्शन तरुणों के प्रति आकर्षण का एक सशक्त बहु-निर्वचनीय काव्यगत बिम्ब के रूप में आह्वान कर लेते थे – ठीक वैसे ही जैसे वे इतरलिंगी प्रेम का, मद्यपान के अतिरेक का, धर्मच्युत हो जाने का या अन्य निषिद्ध आचारों का आह्वान करते थे” (32).
शायरी में समलैंगिकता की चर्चा के बाद हम ग़ालिब के देश-काल में देखते हैं. उस के समय में लखनऊ का पतनशील दौर चल रहा था. स्त्रियों के बीच प्रेम की चर्चा लखनऊ के इस दौर के शायरों ने बहुत की है. उन दिनों लखनऊ दरबार में स्त्रियों का प्रभाव, उनकी अहमियत इतनी अधिक हो गयी थी कि कुछ उसे “औरतपरस्ती” का ज़माना बताते हैं और स्त्री-स्त्री प्रेम पर अनेक ग़ज़ल और गद्य रचनाएं लिखीं गयीं, जिनमें स्त्रियों की उत्कट इच्छाओं के वर्णन स्त्रियों की आवाज में हैं यानी मक़्ते में शायर का नाम आने के पहले यही लगता है कि कोई औरत शे’र कह रही है. यह साहित्य ‘रेख्ती’ शायरी कहलाता है. रेख्ती शायरों में मोहसिन, जुर’अत, रंगीं, इंशा आदि मशहूर हैं.
स्त्री-स्त्री प्रेम पर जुर’अत (1745-1810) ने एक कथा कविता लिखी है – चप्टीनामा – जिस में दो स्त्रियों, सुक्को और मुक्खो के परस्पर प्रेम की कहानी है, जिनके सम्बन्ध को उन के पति जान जाते हैं. जब बात खुल ही गयी तो पर्दा कैसा और कहानी का अंत उनके बढ़े उत्साह से होता है: “जब नाचने निकले तो घूंघट कैसा?”
जुर’अत के समकालीन इंशा की एक रेख्ती ग़ज़ल से, एक स्त्री दूसरे से शिकवे कर रही है:
लहर में चोटी के तेरे डर के मारे काँप काँप
चौंक चौंक उठती हूँ रातों को कह कर सांप सांप
है बड़ा जिगरा तिरा, ‘इंशा’ अरे तू कहर है
कब तलक मैं तेरी करतूतों को रखूं ढांप ढांप
किया उस आतिशबाज़ के लौंडे का इतना शौक़ ‘मीर’
बह चली है देख कर उसको तुम्हारी राल कुछलड़के बिरहमनों के संदल भरी ज़बीनें
हिन्दोस्ताँ में देखे तो उनसे दिल लगाए
और बहुत हैं. इन दोनों शे’रों में माशूक के पुरुष होने का भान लड़का, लौंडा शब्दों से होता है. कुछ और शब्द जिनसे यह अन्यत्र स्पष्ट होता है – ख़त (नयी दाढ़ी के रोंयें), मस (नयी मूंछों के रोयें), सवार, तलवार, पगड़ी आदि. मीर के ही एक और शेर में ख़त का प्रयोग:
दूर कर ख़त को किया चेहरा किताबी उस ने साफ़
अब क़यामत है कि सारे हर्फ़ कुरआन से गए
ग़ालिब, जैसा स्वाभाविक है, अम्रद परस्ती से वाकिफ़ थे. अपनी शायरी में उन्होंने कहीं इसे हेय दृष्टि से नहीं देखा. अप्रैल 1861 में अपने एक चचेरे साले के पुत्र, मिर्ज़ा अलाउद्दीन अहमद खाँ ‘अलाई’ के नाम एक खत में ग़ालिब ने लिखा (33) है,
“सुनो साहब, हुस्न परस्तों का एक क़ायदा है. वो अम्रद को दो-चार बरस घटा कर देखते हैं. जानते हैं के जवान है लेकिन बच्चा समझते हैं.”
ग़ालिब के बारह शेरों में माशूक अल्पवयस्क पुरुष दिखते हैं, ऐसे जिनकी दाढ़ी-मूंछ अभी अभी निकली है या निकलने वाली ही है – मतलब चेहरे पर अभी रोयें भर हैं, या वे भी नहीं.
1816 में कही एक ग़ज़ल का एक शे’र:
न लेवे गर ख़स-ए जौहर तरावतसब्ज़ा-ए ख़त से
लगावे ख़ाना-ए आईना में रू-ए निगार आतिश
1816 में ही कही एक दूसरी गज़ल का मत्ला:
आमद-ए ख़त से हुआ है सर्दजो बाज़ार-ए दोस्त
दूद-ए शम-ए कुश्ता था शायद ख़त-ए रुख़सार-ए दोस्त
1816 की इसी ग़ज़ल का एक अप्रकाशित शे’र:
है सिवा नेज़े पे उस के क़ामत-ए नौ-ख़ेज़ से
आफ़ताब-ए रोज़-ए महशर है गुल-ए दस्तार-ए दोस्त
सिवा का एक अर्थ थोड़ा आगे भी होता है. सिवा नेज़े पर यानी एक भाले की ऊंचाई से कुछ अधिक. इस्लामी लोक परम्परा है कि क़यामत के दिन आफ़ताब ‘सिवा नेज़े पर’ उगेगा. माशूक एक नौजवान है जिसने अपनी पूरी लम्बाई, एक नेज़े से कुछ अधिक, अभी अभी पायी है. उसके दस्तार (पगड़ी) में सजा गुलाब क़यामत के दिन का सूर्य लग रहा है, लोग उस गुलाब को देख कर वैसे ही बेचैन हो तड़पते हैं जैसे क़यामत के दिन सूर्य को देख कर तड़पेंगे.
1816 की एक और ग़ज़ल का यह शे’र:
ख़त्त-ए आरिज़ से लिखा है ज़ुल्फ़को उलफ़त ने
अहदयक-क़लम मंज़ूर है जो कुछ परेशानी करे
गाल के रोओं से(मेरे) प्रेम ने लटों को लिखा है, तुम मुझे चाहे कितने बेचैन करो, मुझे पूरी तरह मंज़ूर है. शे’रकी खूबसूरती इसके शब्दजाल में है– खत्त अर्थात रोएं या किसी लेखकी एक पंक्ति.
1816 की एक अन्य गज़ल से. (इस ग़ज़ल के बाक़ी सभी शे’रों को ग़ालिब ने अप्रकाशित रखा था.)
सितम-कश मसलहत से हूँ किख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
तकल्लुफ़ बर-तरफ़ मिल जाएगा तुझ-सा रक़ीब आख़िर
1821 का कहा यह शे’र:
सब्ज़ा-ए ख़त से तिरा काकुल-ए सर-कश नदबा
ये ज़ुमुर्रुद भी हरीफ़-ए दम-एअफ़ी ना हुआ
न हुई हम से रक़म हैरत-ए ख़त्त-एरुख़-ए यार
सफ़्हा-ए आइना जौलाँ-गा-ए तूती न हुआ
यार के गाल पर रोएं देख हम ऐसे अचरज से भर गए जिसे कागज़ पर नहीं लिख सकते. हमारा कागज़ कुछ वैसा दर्पण है जिस में कोई शुक न हिलता है न बोलता है.
शुक और दर्पण: तोते को बोलना सिखाने के लिए उसे एक दर्पण के सामने खड़ा कर दर्पण के पीछे से कोई आदमी बोलता है, दर्पण में अपना विम्ब देख कर और उसके पीछे से आते शब्दों को अपने शब्द समझ कर तोता धीरे धीरे बोलने लगता है.
1821 की एक दूसरी गज़ल से यह अप्रकाशित शे’र:
जौहर-ईजाद-ए ख़त-ए सब्ज़ है ख़ुद-बीनी-एहुस्न
जो न देखा था सो आईने में पिंहाँ निकला
दर्पण उन दिनों शीशे का नहीं बल्कि चमकते फौलाद का होता था; चमकाने के लिए उसे काफी रगड़ा जाता था और ऐसा करने में उस पर जो रेखाएं खिंच जाती थीं उन्हें ‘जौहर’ कहा जाता था. बरसात में उन पर हरापन आजाता था. अपना हुस्न देखने में मशगूल माशूक ने उस हरेपन में अपने गालों पर सब्ज़ा (रोयें) ईजाद कर ली; दर्पण में माशूक को अपने रोयें दिखे, जो अभी तक नहीं आये थे.
1821 की एक और ग़ज़ल का यह शे’र:
देख कर तुझ को चमन बसकि नुमूकरता है
ख़ुद ब ख़ुद पहुंचे है गुल गोशा-ए दस्तार के पास
तुम्हे देख चमन कुछ इतना खिल जाता है कि गुलाब (की लताएं) बढ़ कर तुम्हारे साफे के कपड़े के पास पहुँच जाती हैं. यहाँ साफा से माशूक के पुरुष होने का भास मिलता है.
1821 की ही एक और ग़ज़ल का एक शे’र:
दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा
शोर-ए सौदा-ए ख़त्त‐ओ‐ख़ाल कहाँ
यह शे’र भी 1821 में कही गयी एक ग़ज़ल से:
मुझे उस से क्या तवक़्क़ो ब ज़माना-एजवानी
कभी कूदकी में जिस ने न सुनी मिरी कहानी
1833 में कही एक ग़ज़ल का यह शे’र:
मर जाऊँ न क्यूँ रश्क से जब वो तन-ए नाज़ुक
आग़ोश-ए ख़म-ए हल्क़ा-ए ज़ुन्नार में आवे
इर्ष्या से मर जाता हूँ कि वह नाज़ुक बदन अपने जनेऊ के धागे के आगोश में रहता है. स्पष्ट है, माशूक एक हिंदू लड़का है. (मीर ने भी बिरहमन के लड़कों पर लिखा है.)
इन बारह शे’रों में पाँच 1816 में, छः 1821 में और एक 1833 में कहे गए. स्पष्ट है चौबीस की उम्र के बाद ग़ालिब ने, उर्दू में, अम्रद पर शे’र कहने लगभग बंद कर दिए थे. ऊपर उल्लिखित सैयद गुलाम हुसैन क़द्र बिलग्रामी को लिखे ग़ालिब के खत की तारीख नहीं मिलती किंतु यह निश्चित ही 1857 के बाद का लिखा है. और इस तरह यही लगता है कि साठ की उम्र में भी ग़ालिब का विश्वास था कि शायरी कि लिए अम्रद एक स्वीकार्य विषय है. और यद्यपि लौंडे के लिए बीवी को छोड़ना उन्हें मुनासिब बात नहीं लगी थी. अपने चचेरे भांजे ‘अलाई’ को लिखे (ऊपर उल्लिखित) खत को देखने से यही लगता है कि अम्रद परस्ती को उन्होंने निर्विकार भाव से एक प्रथा के रूप में स्वीकार किया था, इस पर कोई फैसला कभी नहीं सुनाया कि यह सही है या गलत.
सन्दर्भ
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सच्चिदानंद सिंह
जन्म: १९५२, ग्राम- तेलाड़ी, ज़िला- पलामू, झारखंड
स्कूली शिक्षा: नेतरहाट विद्यालय, झारखंड
उच्च शिक्षा: सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली
ग़ालिब साहित्य में गहन रुचि के साथ बैंकर व मर्चेंट बैंकर रहे. वर्तमान में कृषिकर्म-रत.
दो वर्षों से कहानियाँ लिख रहे हैं. जनवरी 2018 में पहले कथा संग्रह “ब्रह्मभोज” का प्रकाशन. (प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली)
sacha_singh@yahoo.com
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