जिसमें एक-एक कारक की बेचैनी और तद्भव का दुख निहित है
(केदारनाथ सिंह की कविताएं)
ओम निश्चल
1.
अपनी देशज भंगिमा के बावजूद कविता में संवेदना की आधुनिकी जितनी गतिशील और सत्वर केदारनाथ सिंह के यहां दिखाई देती है उतनी शायद किसी और हिंदी कवि में नहीं. उनकी कविता का केंद्रीय कथ्य कुछ भी हो, उसका सबसे अचूक, अवेध्य और संवेदनशील बिन्दु वह एक खास मोड़ होता है जिस पर आकर उनकी कविता एक अलक्षित भावबोध से भर उठती है. उस मोड़ पर पहुंच कर पाठक, श्रोता और भावक का कवि-मन भी उस अलक्षित अर्थगौरव के सम्मुख जैसे ठिठक उठता है. उस अनकहे, अननुभूत की खोज ही केदारजी की कविता की वह केंद्रीय धुरी है जो उन्हें केवल हिंदी कविता ही नहीं, भारतीय और विश्व-कवियों के बीच उल्लेखनीय बनाती है. उनकी कविता में शोर-शराबा या शब्दों का ट्रैफिक और \’टेरिफिक जाम\’ नहीं दिखता, बल्कि सुबह-सुबह हवाखोरी के लिए निकले पैरों की हल्की-सी आहट सुन पड़ती है. कुछ ऐसे सद्य:स्नात बिम्ब उनकी कविता के हर कोने-अँतरे में सजे-धजे हुए मिलेंगे कि हम उनकी कौंध से बरबस मुग्ध हो उठते हैं. उनकी कविता के इन्हीं गुणों को लक्ष्य करते हुए किसी ने उन्हें विस्मयों का कवि कहा है और यह सच है कि उनकी कविता अचरज से इस दुनिया को निहारती है, इसकी हर चहल-पहल को अपने अंत:करण में सहेजती चलती है ताकि आगे चलकर कविता में उसके विनियोग का सुअवसर मिले.
2.
केदारनाथ सिंह की समूची कविता का कार्यव्यापार अवलोकन और अनुभूति पर टिका है. जिस विस्मयता के बखान की चर्चा उनके संदर्भ में की जाती है वह अकारण नहीं है. पग-पग पर उसके उदाहरण मौजूद हैं. उनके लिए सबसे बड़ी खबर राजपथ पर गुजरता कोई राजनेता नहीं, बल्कि राजधानी की व्यस्ततम सड़क पर एक बच्चे की उँगली पकड़ कर चली जा रही वह बुढ़िया होती है जिसे कवि सदी की सबसे बड़ी खबर मानता है. वह उसे सृष्टि के उदात्त रूपक के रूप में देखता है और इस देखने में जो अचरज है, जो विस्मयता है, जो पुलक है, वही कवि की सबसे बड़ी पूँजी है—आज की सबसे बड़ी खबर —और देखो तो किसी अखबार में इस खबर की कोई कीमत भले न हो, जाती हुई बुढ़िया की छाप कवि के हृदय पर अमिट है. एक कवि का लोकतंत्र इससे बड़ा भला क्या हो सकता है जिसके केंद्र में एक बुढ़िया हो—इस दुनिया की एक वरिष्ठ नागरिक (जो कभी \’अकाल में सारस\’ के दिनों में खंभे से पीठ टिकाये हुए एक कालजयी कृति-सी लगती रही है); जिसकी कविता के केंद्र में नूर मियां हों, सादे कागज पर दस्तख़त करने से इन्कार करने वाला एक ठेठ किसान हो, अपने पूरे खित्ते में आदमी और पशु के बीच अंतिम लचकहवा पुल बने चरक संहिता के मानो अद्भुत ज्ञानी हीरा भाई हों, बबूल के नीचे जैसे अंतरिक्षयान पर सो रहा बच्चा हो, जिसकी कविता के व्याकरण में एक-एक कारक की बेचैनी और तद्भव का दुख निहित हो, खलिहान से उठते हुए दानों का मंडियों में जाने से इन्कार समाहित हो, जहां सड़क से सिर झुकाए गुजरते हुए तमाम लोगों की गुमसुम पदचापें दर्ज हों.
संवेदना की आधुनिकी के बीच यह कवि भूल नहीं जाता कि वह भारत का कवि है, घाघरा और सरयू के बीच की भयानक बाढ़ का साक्षी कवि है. चकिया, कुशीनगर और पड़रौना के किसानों के सुख-दुख के बीच पला-पुसा कवि है, जिसकी कविता में छोटे कस्बों, गांवों, नदियों, लोगों, संगी-साथियों के जीवन की लय समाहित है, जीवन भर हल की मूठ पकड़ कर खेतों में पसीना बहाते बचपन के सखा जगन्नाथ उर्फ जगरनाथ जैसे एक मामूली आदमी के मरने का संताप दर्ज है और जब वह कहता है \’एक तद्भव का दुख तत्सम के पड़ोस में\’ तो उसके इसी बालसखा जगन्नाथ की याद ताजा हो उठती है जो गांव की बोली में \’जगरनाथ\’ हो उठा था—यानी कवि के शब्दों में,\’तत्सम से गिरा हुआ एक धूल-सना तद्भव.\’ यह तद्भवता केदार के कवि-मन का एक निर्णायक प्रत्यय है. वे निबंध लिख रहे हों या अखबार के लिए कोई स्तंभ, गांव-कसबे के मैले कुचैले लेकिन अपनी निष्ठा में अडिग और नैतिक पवित्रता के धनी लोग उनकी कविता में यों ही धमक आते हैं जैसे वे उनके जन्म-जन्मों के संगी-साथी हों. केदार जी की कविता में अतीत की जड़ें गहरे विद्यमान हैं. यही वजह है कि \’सन् 47 को याद करते हुए\’ कविता में नूर मियॉं यों ही नहीं आते, इस बहाने आजादी के बाद के स्खलित हुए मान-मूल्यों का पतनशील चेहरा सामने आ जाता है. इसके पीछे उनके अवचेतन का गहरा जुड़ाव है, विभाजन के बाद की मानवीय क्रूरता है. कभी गांव के ही नूर मियां को कैसे सन 47 के बॅंटवारे में काम धंधे से बाहर निकलने पर पाकिस्तान गया हुआ मान लिया जाता है और उनका घर-द्वार आपस में पड़ोसियों द्वारा बांट लिया जाता है, इसकी एक करुण कथा उनके निबंध \’नूर मियां की तलाश में\’ नामक निबंध में मिलती है. कविता के नूर मियां की कहानी का अंत विस्मय के जिस बिंदु पर होता है उसकी अपेक्षा \’कब्रिस्तान में पंचायत\’ में दर्ज़ उनके असली जीवन की कहानी दिल हिला देने वाली है, जो उनके अंधे होकर हावड़ा में बस जाने तक की नियति तक को खँगालती है.
3.
केदार की कविता में शहराती भावबोध के साथ गांव में रचे-पगे उनके कवि-मन का एक गहरा किन्तु झीना-सा संघर्ष चलता है और हर बार उनकी कविता इस संघर्ष में अपनी \’गरबीली गरीबी\’ की कामना के साथ स्वाभिमान से सिर उठा कर चलती हुई मालूम होती है. पर लोकतंत्र की बेरोकटोक हवा, पानी और धूप के बावजूद जो सांस्कृतिक क्षरण गांवों का हो रहा है, जो स्मृति-लोप हो रहा है, उनकी समूची कविता इस प्रवृत्ति के सम्मुख चुनौती और ढाल बन कर सामने आती है. वे हिंदी कविता में \’तीसरा सप्तक\’ के कवि के रूप में पाठकों के सम्मुख आए थे. रोमैंटिक मिजाज के प्रगीतात्मक कवि होते हुए केदार जी को कविता में जो शोहरत मिली वह कम कवियों को सुलभ है. \’अभी बिल्कुल अभी\’ इस मिजाज़ से भीगा हुआ संग्रह है. किन्तु उनकी कविता के क्राफ्ट में अचानक एक बड़ा मोड़ तब आया जब एक लंबे अरसे बाद उनका संग्रह \’ज़मीन पक रही है\’ प्रकाशित हुआ. बिम्ब किस तरह कविता में इस्पात के स्फुलिंगों की तरह ढलते हैं, इसे इस संग्रह की कविताओं में बखूबी देखा जा सकता था. रोटी के बारे में कविता करना हिमाकत है, यह बात केवल केदार जी लिख सकते थे. पर सिंकती हुई रोटी के बहाने वे उन दीवारों की ओर इशारा कर रहे थे जो स्वाद में बदल रही थीं और वे ईमानदारी से कह रहे थे, \’मैं कविता नही कर रहा, सिर्फ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ. \’फर्क नहीं पड़ता\’ केवल उनकी कविता का ही नहीं, जैसे उस वक्त का एक चरित्र ही बन गया हो. यह भी उनकी कविता का गँवई चरित्र ही है कि टमाटर बेचने वाली बुढ़िया के चेहरे में टोकरी-के-से खुरदुरेपन किन्तु टमाटरों की रोशनी में मां का लहकता हुआ चेहरा नजर आता है. क्या \’पोस्टकार्ड\’ पर कविता लिखना कविता में देसी सरोकारों को जिंदा रखने की कवायद है, इस पर सोचते हुए मुझे लीलाधर जगूड़ी की \’अंतर्देशीय पत्र\’ पर लिखी कविता की याद अनायास हो आती है और जहां तक मेरा ख्याल है कहीं न कहीं केदार जी के भीतर अंतर्देशीय की अपेक्षा इस खुले और खतरनाक संदेशपत्र पर ज्यादा भरोसा है. हालांकि उच्च संचार तकनीक के इस युग में आज धीरे-धीरे तार की तरह ही अप्रासंगिक होते गए दोनों पत्र माध्यमों की जगह आज केवल कविता में ही बची है, समाज में नहीं.
4.
केदारनाथ सिंह हिंदी कविता की वह विरल आवाज़ हैं जो न केवल भारतीय उप महाद्वीप में, बल्कि विश्व भर के कुछ समादृत कवियों के बीच कविता की एक विश्वसनीय आवाज़ बन कर उभरे हैं. 1952-53 के आसपास लेखन की शुरुआत करने वाले केदारनाथ सिंह की कवि-प्रतिभा को बनारस के उर्वर साहित्यिक माहौल ने सींचा और पल्लवित किया . यह इस युवा कवि की कविताओं की ही सुगंध थी जो उनकी खोज में हिंदी के शिखर कवि एवं तारसप्तक के संपादक अज्ञेय को उनके छात्रावास तक खींच लाई थी और बाद में तीसरा सप्तक में उन्हें शामिल कर उन्हें कविता के अग्रणी हस्ताक्षर के रूप में अग्रसर करने का जो कार्य अज्ञेय ने किया, केदार जी ने अपनी अब तक की कविता यात्रा में अज्ञेय के उस विश्वास की रक्षा की है.
चकिया, पड़रौना व कुशीनगर की ग्राम्य गंध और प्राय: हर साल बाढ़ में अपना सब कुछ गँवा देने वाली जनता की पीड़ा ने केदारनाथ सिंह के कवि को भीतर तक मथा और उद्वेलित किया है जिसके साक्ष्य \’पानी में घिरे लोग\’ और \’माझी का पुल\’ जैसी उनकी तमाम कविताओं में मिलते हैं. \’अभी बिल्कुल अभी\’ जैसी पहली काव्यकृति से ही कविता में नई लकीर खींचने वाले केदार के गीत शुरू से ही लोकप्रिय रहे हैं. \’तीसरा सप्तक\’ में अज्ञेय ने उन्हें मान देकर छापा. उनके रोमैंटिक कवि-जीवन का पहला बड़ा मोड़ \’ज़मीन पक रही है\’ संग्रह की अनूठी संरचना थी,जिसमें उनका अंदाजेबयां ही नहीं बोलता बल्कि वह उनकी रुमानी छवि को तोड़ता भी है. बिम्ब किस तरह पूरी की पूरी कविता की प्रतीति को एक अनकहे स्थापत्य, कसावट और अनुगूँज में बदल देते हैं, यह उनके संग्रहों \’यहां से देखो\’, \’अकाल में सारस\’, \’उत्तर कबीर और अन्य रचनाएं\’, \’बाघ\’, \’टालस्टाय और साइकिल\’ व हाल में प्रकाशित \’सृष्टि पर पहरा\’ तक में खूबसूरती से ध्वनित हुआ है. बिंब विधान को लेकर हिंदी में उनका काम –\’द पोयटिक इमेज\’ से आगे का है. \’कब्रिस्तान में पंचायत\’ के उनके निबंधों में उनकी अनेक कविताओं के अंतस्सूत्र उदघाटित होते हैं.
5.
केदारनाथ सिंह की कविता सचमुच शब्दों का श्रृंगार है. उसके अर्थ नए हैं, उसकी प्रतीतियां नई हैं. उनकी कविता हमेशा पुनर्नवा और तरोताज़ा दिखती है. पानी और प्रकृति को लेकर उनकी कविताओं में समूचे विश्व की वेदना सुन पड़ती है. किसी मामूली से कथ्य व किस्सागोई के शिल्प में होती हुई उनकी कविताएं उस जगह पहुंच कर विराम लेती हैं जहां पहुंच कर मनुष्य की अंतश्चेतना के बारीक से बारीक तार झंकृत हो उठते हैं. उनकी कविता की बुनावट इतनी नई है जितनी हमारी आधुनिकता—- और उतनी पुरानी है जितनी हमारी स्मृति-परंपरा. शब्दों के बीच साहस की तलाश करने वाले केदारनाथ सिंह की कविता पीड़ा, बदहाली और विश्वसनीयता के संकट से जूझते हुए दौर में भी आखिरकार यही ऐलान करती है कि \’मौसम चाहे जितना खराब हो/ उम्मीद नहीं छोड़ती कविताएँ.\’ उनकी आवाज़ हिंदी–खड़ी बोली होकर भी एक पुरबिहा और भोजपुरी कवि की बेधक आवाज़ है जिसकी दशकों पहले कही गई बात आज भी हमारे कानों में गूँजती है:
उसका हाथ अपने हाथो में लेते हुए
मैने सोचा
दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
यों तो कितने ही कवि हमारे बीच हैं, कितनी कविताएं रोज लिखी जाती हैं, हम उन्हें याद भी नहीं रख पाते. पर उम्र की ढलान पर भी कुछ कवि ऐसे होते हैं जो अपनी कविताओं में चिरयुवा लगते हैं. केदारनाथ सिंह ऐसे ही कवियों में हैं जिनकी एक कविता को ध्यान में रखते हुए कहें तो विकट सुखाड़ में भी जैसे सूखते हुए पेड़ की फुनगी पर हिलते हुए तीन चार पत्ते सृष्टि पर पहरा दे रहे होते हैं, वैसे ही केदारनाथ सिंह अपनी आगामी पीढ़ियों के लिए कविता की विरासत सहेजने वाले पहरुआ हैं. सृष्टि पर पहरा उनका नया कविता संग्रह है, बिल्कुल धारोष्ण बिम्बों और कथ्य की ताज़गी से भरा पूरा, जिसे पढते हुए लगता है, कवि कह रहा हो, फुनगी पर हिल रहा एक पत्ता भी सृष्टि का पहरुआ है.
6.
केदारनाथ सिंह को पढ़ते हुए अक्सर ऐसे कवियों पर ध्यान जाता है जो जटिल बिंबों और भारी-भरकम शब्दों, पदों से कविता को ऐसा उलझाते हैं कि उसे पढ़ कर एक आलोचक भी चकरा जाए. केदारनाथ सिंह कविता में सीधी राह चलने वाले कवि हैं. यहां किस्सागोई मिलेगी, बतकही का अंदाज़ मिलेगा, अचानक चित्त में कौंध गई कोई अनुगूँज मिलेगी, कोई ऐसा लुप्तप्राय प्रसंग मिलेगा, जिसे पढ़ते हुए उसकी साधारण अनन्यता का बोध होगा. केदारनाथ सिंह की कविता में उनके जन्मस्थान बलिया का लोकेल तो मिलता ही है, लोक चित्त की स्मृतियों में बचे रह गए प्रसंग मिलेंगे और हिंदी के एक देशज कवि की सनातन आस्था भी मिलेगी जो भूमंडलीकरण और संस्कृतियों के फ्यूजन के दौर में भी खंडित नहीं हुई है. वे अपने गॉंव-देस से अभी भी इतना जुड़े हैं कि उन्हें अपना पुरबिहापन भाता है. अब इसे कोई उनका पिछड़ापन कहे तो कहे. उन्हें गोरखपुर के कवि देवेंद्र कुमार की कविता की बेबाकी छूती है, मंगल माझी से सुने लोकगीत की अनुगूँज पीछा करती है. गॉंव के पशुओं की हारी-बीमारी में अचूक उपचार के लिए पहचाने जाने वाले हीरा भाई का जर्जर थैला उन्हें चरक संहिता जैसा लगता है. बचपन के मित्रों को याद करते हुए कवि को बेलवा जंगल का झरही किनारा भूलता नहीं, न वह कृतज्ञ कीचड़ जो तल में जरा-से जल के बावजूद किसी जानवर की प्यास बुझाता है, न ट्रैक्टर की घरघराहट को सुनकर ठिठक गए बैलों का उल्लेख करना और यह कहना भी कि हिंदी मेरा देश है, भोजपुरी मेरा घर. उन्हें शहरी हिंदी से भोजपुरी बोली की क्रियाएं, संज्ञाएं, ध्वनियॉं,खुरपी-कुदाल और चिरई-चुरुंग से पैदा संगीत ज्यादा सम्मोहक लगते हैं. किताबों में संजोए ज्ञान-गौरव के विपरीत उन्हें यह ज़बान स्वयं ही सबसे बड़ी लाइब्रेरी लगती है और झरोखे पर रखे शंख से, वे कहते हैं, धीमे-धीमे बजते सातों समुद्रों की आवाज़ सुनाई देती है.
अपने समय का बड़ा कवि दरअसल वही है, जिसके यहॉं संस्कृति और सभ्यता के द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व रचनात्मक व्यग्रताओं के साथ आपस में टकराते हैं. केदार जी के यहॉं यह द्वंद्व जगह-ब-जगह प्रकट है. जैसे नदियॉं अपने रास्ते और पाट बदलती चलती हैं, उनकी कविता का पाट और कथ्य भी उत्तरोतर चौड़ा और प्रशस्त होता हुआ दिखता है. ऐसे में कभी इस्तेमाल में लाई जाने वाली नाव एक स्मारक में बदल जाती है. इसे तखत या स्टूल बना डालने की सलाह देते ही कवि को आखिरकार कुछ आंखें यह कहती हुई दिखती हैं कि ‘काठ का यह जर्जर ढॉंचा ही सही, रहने दो नाव को. अगर वह वहॉं है तो एक-न-एक दिन लौट आएगी नदी.‘ लोक के इस अटूट विश्वास को सहेजता हुआ कवि अन्यत्र ईश्वर को अपने कुछ सुझाव देता हुआ जिस बात पर सबसे ज्यादा बल देता है, वह यह कि ‘भारत का सृजन अगर फिर से करना/ तो जाति नामक रद्दी को/ फेंक देना अपनी टेबल के नीचे की टोकरी में/….. पर इस उलट-फेर में बस इतना ध्यान रहे, मेरा छोटा-सा गॉंव कहीं उजड़ न जाए और दलपतपुर चट्टी की बुढि़या की बकरी लौट आए घर.‘ यह अंधाधुंध शहरीकरण के महाअभियान के इस दौर में भी गॉंव को बचा लेने की एक नागरिक चाहत है.
इधर दुनिया जितनी तेज़ी से बदल रही है, उतनी तेज़ी से ही बहुतेरी भाषाओं, संस्कृतियों और सभ्यताओं का लोप हो रहा है. लिपियॉं ख़तरे में हैं, प्राणि-प्रजातियॉं भी. यहॉं तक कि बरसों-बरस कोठार में संजोकर रखे गए बीज अब शायद ही किसी किसान के घर मिल सकें. ऐसी स्थिति में यह कवि अपनी भाषा और संस्कृति के लिए कितना चिंतित है, इसका साक्ष्य ‘हिंदी\’, ‘हलंत का क्या करें’,देवनागरी, मंच और मचान, नदी का स्मारक, अगर इस बस्ती से गुज़रो, कविता, अन्न-संकट, भोजपुरी, जैसे दिया सिराया जाता है, देश और घर, \’बैलों का संगीत प्रेम\’ व \’एक ठेठ किसान के सुख\’— जैसी कविताएं हैं.
7.
केदारनाथ सिंह की कविताएं अतीत और वर्तमान की स्मृतियों में आवाजाही करने वाली कविताएं हैं. कवि के शब्दों को ही उधार लेकर कहें तो जैसे आदमी और पशु के बीच के अंतिम लचकहवा पुल थे हीरा भाई , जैसे एक वृक्ष को बचाने के लिए चीना बाबा प्रतिरोध की एक इबारत थे, ये कविताएं देशज और नागर सभ्यता के बीच एक पुल बनाती हैं और एक साधारण भिक्खु का प्रतिरोध भी बनकर उभरती हैं. केदार जी को लौटते हुए बगुलों को देख शाम को गठरी संभाले लौटते मनरेगा के मजूर याद आते हैं और वे पक्षी भी जो पता नहीं किस कारण अपने ठिकानों को लौट चले हैं–कवि के ज़ेहन में यह सवाल छोड़ जाते हुए :
जाती हुई चिडि़यों का पता पूछ लीजिए
जो थी तो क्या थी उनकी ख़ता पूछ लीजिए.
कहना न होगा कि तमाम विपरीतताओं के बीच मनुष्यता अभी भी कहीं-न-कहीं जि़ंदा है, अक्षरों में हलंत जीवित है, नदी के लौटने की आशा में नावें प्रतीक्षारत हैं, ‘स’ के संगीत से एक हल्की-सी सिसकी और ‘म’ से किसी पशु के रँभाने की आवाज़ आती है. नगण्य–सी होते हुए भी एक छोटी-सी घास की पत्ती बैनर उठाए मैदान में खड़ी दिखती है. हर मुश्किल में काम आने वाली हिंदी में अभी भी एक कारक की बेचैनी और एक तदभव का दुख जीवित है. कविता और सीकरी के बीच सदियों से चली आने वाली अन-बन मौजूद है, और सरहदों के बावजूद कवि की यह जिंदादिल नसीहत भी कि
पक्षियों को अपने फैसले खुद लेने दो
उड़ने दो उन्हें हिंद से पाक
और पाक से हिंद के पेड़ों की ओर
अगर सरहद ज़रूरी है पड़ी रहने दो उसे
जहॉं पड़ी है वह
केदारनाथ सिंह की कविता इसी विश्वास, प्रतिरोध, बेचैनी और तद्भवता की कविता है, जिससे गुज़रते हुए आज भी माझी के पुल से गुज़रने का-सा अहसास होता है.
केदारजी की समूची कविता स्थूलता के विरुद्ध खड़ी है. इसलिए उनका कवि-मन लोक या भीड़ में भी मानवीय मर्म को छूने वाले उन स्थलों की तलाश करता है जहां अभी संवेदना की नमी बाकी है. \’कब्रिस्तान में पंचायत\’ में उनका एक निबंध है: \’सड़क पर घायल चिड़िया और भागती हुई भीड़\’ जिसमें कोलकाता के एक कविता उत्सव के लिए उमड़ी भीड़ के मनोविज्ञान का जायज़ा लेते हुए वे सड़क पर अचानक घायल होकर गिर पड़ी चिड़िया और उसके लिए तनिक देर के लिए अवरुद्ध हो गए यातायात का हवाला देते हैं. एक घायल चिड़िया के लिए ट्रैफिक का अचानक रुक जाना और भीड़ का ठिठक कर रह जाना उनके लिए केवल एक मामूली घटना नहीं है, बल्कि यह वह कवि-दृष्टि है जो संवेदनशून्य होते इस समय में भी इस बात से आश्वस्त करती है कि मनुष्य के भीतर संवेदना का प्राणतत्व अभी जिंदा है. कविता का लोकतंत्र यही है जहां प्राणि प्रजातियों की चिंता भी कवि के भीतर कोलाहल मचाए रखती है. वह टैंकों की बमबारी के बीच भी एक शिशु-चीख सुन कर विकल हो उठता है और सख्त पत्थरों और रेत के जलते हुए महासागर के बीच उग आई दूब से पुलक कर आश्वस्त हो उठता है कि जीवन बचा है अभी; कहीं से भी उग आने की जिद बची हुई है. कवि का लोकतंत्र इस मायने में राजनीतिक लोकतंत्र की प्रतिश्रुति से भिन्न नही है जहां जाति, धर्म, संप्रदाय, पद, प्रतिष्ठा और दलगत ध्रुवीकरण के बावजूद एक मामूली से आदमी को भी जीने, रहने और अभिव्यक्ति का अप्रतिहत अधिकार हो. इसीलिए उनकी कवि-कामना में यह बात कहीं ज्यादा प्रबल होकर सामने आती है जिसे वे ईश्वर को एक भारतीय नागरिक के कुछ सुझाव देते हुए कहते हैं. वे कहते हैं हे ईश्वर इस पृथ्वी से अणुबम उठा कर स्वर्ग में रख लेना. दुनिया को पूँजी मुक्त कर हवा को उसका विकल्प बना देना. ब्रह्मांड के इस जर्जर पहिए को बदल कर पृथ्वी की धूपघड़ी से अपनी पुरातन घड़ी मिला लेना—- और सबसे बड़ी बात जिसे पहले दुहरा चुका हूँ, कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि अगर दुनिया फिर से बनानी हो और उसमें भारत भी दुबारा बनाना हो तो जाति नामक रद्दी को फेंक देना अपनी टेबुल के नीचे की टोकरी में. आज राजनीति का जातिवाद से नाभिनाल संबंध है—वह चाह कर भी इस ऐषणा को अपने हृदय में जगह नही दे सकती कि मनुष्य को उसकी जाति से नहीं, मनुष्यता से पहचाना जाय. लेकिन कविता के लोकतंत्र में भला जाति का क्या काम. वह तो अक्षरों में गिरे हुए आदमी को पढ़ने की एक कवि की नसीहत है. उसका नायक तो यही मामूली आदमी है जो जाति, धर्म और संप्रदाय की संकरी राजनीति के दुष्चक्र में पिस रहा है. ऐसे में इस आम आदमी के पक्ष में कवि का यह कहना मामूली नहीं है : नदियों में चम्बल हूँ/ सर्दियों में एक बुढ़िया का कंबल/ इस समय यहां हूँ/ पर ठीक इसी समय बग़दाद में जिस दिल को चीर गयी गोली/ वहां भी हूँ/ हर गिरा खून अपने अॅगौछे से पोंछता/ मैं वही पुरबिहा हूँ/ जहॉं भी हूँ.(सृष्टि पर पहरा)
अक्सर कवियों को व्यवस्था का विपक्ष माना जाता है. जो लोग केदारनाथ सिंह की कविता की मुलायमियत और उसमें व्याप्त रोमैंटिसिज्म की चर्चा करते हैं वे शायद यह भी जानते होंगे कि इस मुलायमियत और रोमान के पीछे ही उनकी कविता की समूची ताकत छिपी है. वह इस वजह से नहीं चीखती कि कविता के स्वप्न में खलल न पड़ जाय. बल्कि वह आहिस्ता आहिस्ता उन खामियों और ताकतों से अपनी असहमति जताती है जो लोकतंत्र पर एक दाग़ की तरह विद्यमान हैं. वे \’तालस्ताय और साइकिल\’ की एक सुपरिचित कविता \’पानी की प्रार्थना\’ के बहाने कह ही चुके हैं कि \’समय ही कुछ ऐसा है कि पानी नदी में या किसी चेहरे पर/ झॉंक कर देखो तो तल में कचरा कहीं दिख ही जाता है.\’ क्या यह वैसा ही विचलित कर देने वाला बोध नही है जिसे मुक्तिबोध ने कभी \’ब्रह्मराक्षस\’ कविता में बेहद अफ़सोस के साथ कहा था:
\’ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!\’
फिर भी मैल फिर भी मैल! \’ पर यह कोई कबीर, कोई मुक्तिबोध और कोई केदार जैसा कवि ही होता है जो सभ्यता पर पड़े दाग़ को अपनी चिंताओं से धोता है ; ऐसे लोकतंत्र की राह अगोरता है जहॉं आदमी मतदान पेटिका की एक अदद इकाई नहीं, सृष्टि का एक पहरुआ हो—विकट सुखाड़ में भी वृक्ष की फुनगी पर बचे रह गए पत्तों की तरह सृष्टि पर पहरा देता हुआ. क्या विडम्बना है कि जो राष्ट्र के प्रहरी बने हुए हैं वे ही सृष्टि को दोनो हाथो से अपने हितों के लिए उलीच रहे हैं !
यही वजह है कि केदारनाथ सिंह की कविता किसी शासन या सत्ता पर सीधे नहीं, वह उसके अंत:करण पर चोट करती है. वह सत्ता और लोकतंत्र के विचलनों से व्यथित तो होती है पर उम्मीद नहीं छोड़ती . उनकी कविता में एक अजब-सी पीड़ा और एक हल्की-सी उम्मीद दिखायी देती है. वह अपने शब्दों की फॉंक में लापता हो गए कवि को उसकी याद दिलाती है, पानी को आग से उसके भूले हुए रिश्ते की याद दिलाती है. वह अतीत को पुनराविष्कृत करते हुए भी पूँजी और आज के बाजारवादी समय के गठजोड़ को बखूबी पहचानती है और जानती है कि पानी के सारे प्राकृतिक स्रोत भले ही सूख जाऍं, बाजार में वह किसी न किसी रहस्मय स्रोत से हमेशा मौजूद है. कवि केवल शब्दों का बुनकर ही नहीं, सभ्यता का रफूगर भी होता है. वह अपनी रचना से सभ्यता और संस्कृति के कटे-फटे अंशों को रफू करता है. वह झुलसती हुई चेतना में स्पंदन की फुहारें बोता है. उसके आवाहन में सृजन और निर्माण की पुकार शामिल है. वही है जो सबको यह कहते हुए हॉंक सकता है कि: उठो मेरे सोये हुए धागों/उठो / उठो कि दर्जी की मशीन चलने लगी है. उठो मेरे टूटे हुए धागों, उठो/ और मेरे उलझे हुए धागों, उठो/ उठो कि बुनने का समय हो रहा है.(यहां से देखो)
अपने एक निबंध में केदार जी ने लिखा है: \’\’आदमी की मुक्ति चाहे जहॉं भी होती हो, पर कविता की मुक्ति आदमी तक पहुंचने में है.\’\’ अत्यंत नफासत और सम्भ्रांत-सी लगने वाली केदार जी की कविता के बारे में अक्सर दबे स्वरों में यही समझा जाता है कि यह कुलीनतावादी कविता है, बारीक बीनाई वाली. यह कविता एक कुलीन पाठकवर्ग के लिए है. पर ज़रा ध्यान से देखें तो उनकी समूची काव्य संरचना चाहे जितनी कलात्मक और नए तौर तरीकों वाली हो, उसके भीतर आम आदमी की संवेदना से जुड़ने की एक अनायास कोशिश दिखती है. बार बार छूटा हुआ गांव-कस्बा उन्हें याद आता है. वहां के लोग याद आते हैं. नीम के पेड़ के नीचे वाक्यपदीयम् का भाष्य लिखते पंडित रघुनाथ शास्त्री याद आते हैं, दिमाग में टँकी कुशीनगर की छवियां याद आती हैं, नूर मियॉं, टमाटर बेचने वाली बुढ़िया, चीना बाबा, पड़रौना के किसानों का धीरज याद आता है. कैलाशपति निषाद याद आते हैं, भिखारी ठाकुर याद आते हैं—-लोगों के सुख दुख में ये कविताएं शरीक दिखती हैं. आखिरकार, कवि की कविता ही तो उसका आत्मकथ्य और मेनीफेस्टो है. \’मोड़ पर विदाई\’ में भूखे दूखे नागरिकों से अपनी कविता का संबंध जोड़ते हुए वे कहते हैं:
भरने दो अपने शब्दों में सारे शहरों की खाक-धूल
इस यात्रा में वापसी नहीं बस चलते जाना है अकूल
घुस जाओ बीच सलाखों के उन गुम चेहरों से मिल आओ
मछुआरों से मैत्री कर लो चूल्हों से आग चुरा लाओ
मँडराने दो ब्रह्मांडों को अपनी खुदबुद के आसपास
भूखे का तसला बन जाओ प्यासे का बन जाओ गिलास
(तालस्ताय और साइकिल)
\’एक जरूरी चिट्ठी का मसौदा\’ लिखते हुए उनकी कविता का अंत:करण कितना बड़ा हो उठता है, जब वे यह कहते हैं कि \’हो सके तो हर धड़कन के साथ एक अदृश्य तार जोड़ दिया जाए कि एक को प्यास लगे तो हर कंठ को बेचैनी हो. अगर एक पर चोट पड़े तो हर आंख हो जाए थोडी थोड़ी नम और किसी अन्याय के विरुद्ध अगर एक को क्रोध आए तो सारे शरीर झनझनाते रहें कुछ देर तक.\’(तालस्ताय और साइकिल)
केदार जी त्रिलोचन के संगी-साथियों में रहे हैं. कई कविताओं में त्रिलोचन को उन्होंने याद किया है. त्रिलोचन कहा करते थे, उनकी कविता उन लोगों की कविता है जिनकी सांसों को आराम नहीं है. केदार जी की कविता भी ऐसे लोगों के प्रति सहृदयता का भाव रखती आई है. उनकी भाषा, उनकी कविता संरचना त्रिलोचन के कसे हुए छंदों और यथार्थ को कहने की ठेठ शैली से बेशक अलग है पर है वह लोकोन्मुख. अपने लोकतंत्र में हाशिये के लोगों को जगह देती हुई वह कविता कला के ऊँचे पायदान पर प्रतिष्ठित दिखती है. वह अपने समय के विचलनों से वाकिफ है. पतन की ढलान पर लुढकती हुई मनुष्यता को देख उसका अंत:करण पसीज उठता है. वह अंतत: उसी निर्णय पर पहुंचता है जिस निर्णय पर कभी मुक्तिबोध पहुंचे थे यह कहते हुए कि यह दुनिया जैसी भी है, इससे बेहतर चाहिए. इसे साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए. केदारजी की \’स्वच्छता-अभियान\’ कविता आखिर यही तो कहती है:
इतनी गर्द भर गई है दुनिया में
कि हमें खरीद लाना चाहिए एक झाड़ू
आत्मा के गलियारों के लिए
और चलाना चाहिए दीर्घ एक स्वच्छता अभियान
अपने सामने की नाली से
उत्तरी ध्रुवांत तक. (तालस्ताय और साइकिल)
यानी केदार जी की कविता जहां अपनी अनूठी संरचना, अनूठे बिम्ब, कसे हुए छंद और अपने गठीले विन्यास के लिए जानी जाती है वहीं वह बिना किसी निर्धारित एजेंडे के लोकचित्त में भी उतनी ही आत्मीयता से प्रवेश करती है. वह अपने समय को भी अपनी कविता के ढॉंचे में पकड़ती है. आजादी की स्वर्ण जयंती कवि को भी मुँह चिढाती हुई दिखती है जब वह पाता है कि पचास बरस की आजादी के अवसर पर पाकेट में बचे इन पचास छुट्टे बरसों के बाद भी वह एक कप चाय नहीं पी सकता, दवा तो दूर एक फूल तक नहीं खरीद सकता इनसे किसी बीमार के लिए. बेशक कवि के बालों के संग संग यह आजादी भी पोढ़ी हुई है, थोडी पक गई है, कुछ और दांत हिलने लगे हैं इसके और चेहरे पर कुछ और झुर्रियां बढ़ गई हैं. आजादी के चेहरे पर झुर्रियॉं. एक मामूली आदमी के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों जैसी. कवि आजादी को इसी रूप में देखता है—सार्वजनिक उत्सवता के बावजूद जैसे वह उसका मखौल उड़ा रहा हो. यह भी कोई कवि ही कर सकता है.
8.
कवि अपने समय की बारीक से बारीक आवाज को सुनता है, पीड़ा, अवसाद और निराशा की हल्की से हल्की खरोंच तथा उम्मीद की पुलक को अपनी कविता में दर्ज करता है. केदार जी की कविता भी यही करती है. शहर की ओर जाते बैल धरती पर बढ रही ट्रैक्टर की घरघराहट को सुनकर ठिठक उठते हैं और कवि इस बात से कि कहॉं गया वह बैलों का संगीत जो खेते जोतते हुए उसकी बजती घंटियों से आती थी. वह भाषा के आभिजात्य में गुम हो रही अपनी भोजपुरी और हिंदी को पुकारता है जैसे इनके बीच ही कवि-मन को ढाढस बँधाने वाला भरोसा मिलता हो. केदार जी की कविता की अपनी \’क्राफ्ट वैल्यू\’ है तो उसकी \’कंटेंट वैल्यू\’ भी उतनी ही संजीदा है. वे बातें बनाने वाले कवि नहीं हैं, बातों को कविता के कंटेंट में ढालने वाले कवि हैं. वे बूँद और आंसूँ की ग्रैविटी को पहचानने वाले कवि हैं. इसीलिए एक-एक शब्द को करीने से कविता में पिरोने की सिफत में भी वे प्रवीण हैं. उनकी ही एक कविता पॉंव की कुछ पंक्तियों को पढ़ कर उत्तरोत्तर यह अहसास दृढ़तर होता है कि जैसे एक शिशु पाँव के पहले स्पर्श से पूरा भूमंडल देर तक गूँजता है वैसे ही उनकी समूची कविता चित्त में हल्के हल्के बजते संगीत की तरह गूँजती है. वे कहते हैं, \’\’कभी पढना ध्यान से/रास्ते वे पंक्तियॉं हैं/ जिन्हें लिख कर भूल गए हैं पॉंव\’\’. यह विस्मृति के विरुद्ध एक रचनात्मक हस्तक्षेप है.
केदार जी को पढ़ते हुए यह विस्मृत कर पाना असंभव है कि हम एक भारतीय कविता की वीथियों से गुजर रहे हैं. इसकी गढ़न या सॉंचे में जो अनूठापन और नवता है, वह भारतीय कविता के स्थानिक चरित्र की ही देन है. भारतीय मनुष्य के स्वभाव में किस्सागोई, गपशप और बातचीत का जो अंदाजेबयॉं है, वह भारतीय जनजीवन से ही आया है. इस तरह केदार जी की कविताओं में प्रवेश करते समय वह स्पष्ट पता लगने लगता है कि हम अचानक कविता की एक भिन्न जलवायु में आ गए हैं जिसका लोकेल देशज है और जिसके चरित्र जाने-पहचाने हैं, हम उनसे वाबस्ता हैं और वे तो कहते ही हैं, कोई भी रचनाकार अपनी प्रादेशिक भाषा को लॉंघ कर भारतीय नहीं हो सकता जैसे कोई भी नागरिक अपने स्थान विशेष से गहरे स्तर पर संपृक्त हुए बिना विश्व नागरिक नहीं हो सकता. कविता में राजनीतिक बोध के प्रश्न पर भी वे यही मानते हैं कि शुद्ध कविता का भी एक राजनीतिक आयाम हो सकता है जैसे राजनीतिक कविता में भी सांस्कृतिक अंतर्ध्वनियॉं सुनी जा सकती हैं. किसी भी तरह की धार्मिक सामाजिक संकीर्णता से मुक्त रहते हएु वे एक सोशल डेमोक्रेट की भूमिका की सुकून महसूस करते हैं. वे ऐसे कवि है जिन्होंने राष्ट्र की पराधीनता के दिन देखे तथा आजादी के बाद का \’दुखी भारत\’ भी. बाजारमुक्त भारत और बाजार-आच्छादित दौर भी जिसका बहुप्रचारित उदारतावादी चेहरा जैसे सामान्यजन को मुँह चिढ़ाता हुआ-सा दिखता है. केदार जी की कविता गॉंव, अतीत, वर्तमान, बाजार और वैश्विकता को अपनी इसी ठेठ देशज और भारतीय मति से देखती और एक कवि की प्रतिश्रुति और भाषायी कौशल के साथ उसे कविता में उपार्जित और व्यवहृत करती आई है.
डॉ.ओम निश्चल
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