अज्ञेय जनशताब्दी वर्ष में अज्ञेय को फिर से देखने – समझने के गम्भीर प्रयास हो रहे हैं. उनके स्वभावगत स्वाधीन विवेक और उनकी कला का एक विस्तृत वितान हमारे सामने प्रत्यक्ष है. इस आलेख में अज्ञेय की कविताओं और सामाजिक सरोकारों के बीच के अन्त: सूत्रों को देखने और व्याख्यित करने की कोशिश की गई है. नंद भारद्वाज के यहाँ एक कवि की सहज संवेदनशीलता है और एक आलोचक की सजग दृष्टि भी. एक जरूरी ज़िरह.
जन-सरोकारों की सान पर अज्ञेय की कविता
नंद भारद्वाज
अपनी भाषा के किसी बड़े सर्जक की सर्जना को आखिर हम कैसे ग्रहण करें – क्या ठीक वैसे ही जैसे जीवन-जगत के बारे में अपनी नयी जानकारियां और विवेचन प्रस्तुत करने वाले किसी दार्शनिक, इतिहासकार, वैज्ञानिक, समाजशास्त्री या मनोवैज्ञानिक की बातों को विनय और आदर से ग्रहण करते हैं? यह तय कर पाना तब और कठिन हो जाता है जब हम साहित्य-कर्म को जीवन के किसी सहज कर्म की तरह ही ले रहे होते हैं – जैसे किसान खेती करता है, कारीगर कोई उपकरण बनाता है या एक शिक्षक शिक्षण का काम करता है. …यह बात भी हमने अपने अनुभव से ही जानी है कि रचनाकर्म किसी जन्मजात प्रतिभा का मोहताज नहीं होता, उसे अपने भीतर आत्मिक संवेदना, सुरुचि और सतत अभ्यास से ही संभव करना होता है. लेखन एक दायित्वपूर्ण कर्म अवश्य है, लेकिन किसी और का दिया हुआ अनचाहा या आरोपित कर्म नहीं, बल्कि एक संवेदनशील और सजग मानवीय इकाई के रूप में लेखक का अपना वरण है. कोई अगर इसे विशिष्ट मानकर करता है और स्वयं भी विशिष्ट होने के भरम में जीता है, तो न उससे वह कर्म सधता है और न वैशिष्ट्य ही बना रह पाता.
रचनाशीलता की इस वैज्ञानिक और व्यावहारिक सोच के बरअक्स अन्य सामाजिक अनुशासनों से सर्जक के काम को अलग प्रकृति और विशिष्ट मानते हुए हमारे समय के महत्वपूर्ण सर्जक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की राय इससे कुछ अलग है. वे कहते हैं, ‘‘यह नहीं कि दार्शनिक या अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री या नृतत्वज्ञ या इतिहासवेत्ता के पाए हुए या पेश किए हुए जवाब मेरे काम के नहीं हैं. जरूर काम के हैं, लेकिन बात यह है कि उनके पाए या सुझाए हुए जवाबों में से मेरा जो कुछ लाभ हो सकता है, उसका उपयोग जब मैं कर चुकता हूं तब जो समस्या बचती है, वही मेरी समस्या है : मुझ लेखक की असल समस्या!’’ अर्थात् मनुष्य के मनोविज्ञान, उसकी अस्मिता और मानवीय संवेदन से जुड़े ऐसे बहुत से मसले हो सकते हैं, जिन पर एक रचनाकार की सोच अलग हो सकती है. जबकि एक चिकित्सक, या मनोवैज्ञानिक के लिए का अपने मरीज की मनोदशा और माहौल को जान लेना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है एक लेखक या समाजशास्त्री के लिए उस मानवीय इकाई और उसके समूचे परिवेश को जान लेना. यह बात विचारणीय है कि जहां ज्ञान-विज्ञान के अन्य अनुशासन एक-दूसरे साथ अपने अन्तर्संबंधों को सहज और आवश्यक मानते हैं, वहीं साहित्य की यह कलावादी सोच अपनी चरम स्वायत्तता पर बल देते हुए सापेक्ष स्वायत्तता की वैज्ञानिक अवधारणा को अपने लिए अपर्याप्त पाती है. संभवत: इसी अर्थ में अज्ञेय लेखक की समस्या को अतिरिक्त महत्व देने का आग्रह रखते हैं.
इस शताब्दी वर्ष में हम अपने जिन कालजयी रचनाकारों के अवदान का आकलन कर रहे हैं, एक लेखक-कवि के रूप में उन्हें इसी आत्मिक और सम्यक दृष्टिकोण से देखने-समझने की जरूरत है और यह बात शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय जैसे संजीदा सर्जकों के प्रसंग में तो और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जिनका समकालीन हिन्दी लेखन पर व्यापक असर रहा है. यह आग्रह इसलिए जरूरी लगता है कि उनको पसंद करने वालों और उनके प्रति आलोचनात्मक रुख रखने वालों के विवेचन में उनके संश्लिष्ट रचनाकर्म को लेकर अलग-अलग राय रही है. इसकी एक बड़ी वजह शायद यह रही कि नियमित प्रकाशन के अभाव में इन रचनाकारों के विषद और वैविध्यमय लेखन तक पहुंच पाना भी आसान न रहा हो, उसे आंकने-परखने की कैसी संभावनाएं रही होंगी, इसे सहज ही समझा जा सकता है. अज्ञेय इस मामले में थोड़े अपवाद अवश्य रहे हैं, लेकिन उनके लेखन की बहुलता, व्यापकता और उनके कृति-व्यक्तित्व का वर्चस्व अध्येताओं के सामने अक्सर एक चुनौती की तरह रहा है. उनके सम्यक मूल्यांकन के लिए सबसे पहले तत्कालीन परिवेश, उनके अनुभव-संसार, रचनालोक और उनकी केन्द्रीय चिन्ताओं के विविध आयामों को मानवीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि-बिन्दुओं से समझना आवश्यक है, हालांकि उस रचनाकर्म के समानान्तर उनके पक्ष या विपक्ष में सक्रिय परोक्ष कारण भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहे. इस लिहाज से अज्ञेय के रचनाकर्म और उनके समय को समझना वाकई दिलचस्प है. यह जानने के लिये ‘भग्नदूत’ (1933) से लेकर मरूथल’ (1995) तक फैले उनके विस्तीर्ण काव्य-संसार, तीन उपन्यासों और सात कहानी संग्रहों में स्पंदित उनकी कथा-संवेदना और आलोचना, निबंध, नाटक, यात्रा-वृतान्त, संस्मरण आदि साहित्य रूपों में विन्यस्त उनके बहुआयामी लेखन के भीतर उतरना होगा.
इतना ही नहीं अपने जीवनकाल में उन्होंने संपादन, अनुवाद और साहित्यिक आयोजनों के माध्यम से जो विपुल साहित्य सिरजा और संजोया है, उसके सम्यक मूल्यांकन में कोताही बेशक न हो, लेकिन हड़बड़ी और जल्दबाजी से भी बचा जाना चाहिये. वे हिन्दी के पहले भाग्यशाली रचनाकार हैं, जिन्हें अपने जीवनकाल में आरंभ से ही जहां एक संजीदा और महत्वपूर्ण लेखक का भरपूर स्वीकार मिलता रहा है, वहीं अपने विचारधारात्मक और कला-तकनीक संबंधी अतिरिक्त आग्रहों के कारण वे बराबर विवादास्पद भी बने रहे. यही नहीं, आधुनिक हिन्दी कविता के परिदृश्य में वे अपनी सप्तक योजना के माध्यम से हिन्दी काव्य की एक विशेष धारा के अगुवा भी बने रहे. अपनी छह दशकों की सुदीर्घ काव्य-यात्रा में स्वयं अज्ञेय की कविता के कई आयाम उभरकर सामने आए हैं और उन पर इन बीते आठ दशकों में पर्याप्त विचार-विमर्श भी हुआ है.
अज्ञेय की कविताओं का जो पक्ष मुझे अधिक महत्वपूर्ण लगता रहा है, वह है उनकी चिन्तनपरक संदर्भबहुल रागात्मकता और उनकी प्रयोगशील काव्य-भाषा, जो ठीक तरह से ‘हरी घास पर क्षण भर’और ‘बावरा अहेरी’की कविताओं से एक निश्चित आकार ग्रहण करने लगी थीं. स्वाधीनता, समानताऔर जनतंत्र उनके रचनाकर्म में महत्वपूर्ण जीवन-मूल्य के रूप में उभरकर सामने आते हैं, मानवीय गरिमा, स्त्री की स्थिति और मनुष्य की आजादी को वे पर्याप्त मान देते रहे हैं. यह भी कहा जाता है कि प्रेम को उन्होंने केवल स्त्री-पुरुष के आपसी रिश्तों तक सीमित करके नहीं देखा. उनकी दृष्टि में वह एक सनातन मानवीय रिश्ता है – सृष्टि का आधार. अपनी काव्य-यात्रा के आरंभिक दिनों में ‘नख-शिख’ और ‘आह मेरा श्वास है उत्तप्त’ जैसी ऐन्द्रिक और उद्दाम आवेग वाली कविताओं में नारी को एक अलग नजरिये से स्मरण करने वाले कवि अज्ञेय ने अपनी परवर्ती कविताओं में सृष्टि के इस महत्वपूर्ण घटक को जो नया रूप देने का प्रयत्न किया, वह पारंपरिक रूप से बहुत भिन्न तो नहीं, पर रचनाकार की अपनी इमेज में कुछ इस तरह अलग उभरती दिखाई देती है –
चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओ,
चाहे चुप रह जाओ – / हो प्रकृतस्थ:
तनो मत कटी-छंटी उस बाड़ सरीखी
नमो,खुलखिलो, / सहज मिलो
अंतःस्मित, अंतःसंयत हरी घास-सी.
चाहे चुप रह जाओ – / हो प्रकृतस्थ:
तनो मत कटी-छंटी उस बाड़ सरीखी
नमो,खुलखिलो, / सहज मिलो
अंतःस्मित, अंतःसंयत हरी घास-सी.
इस ‘खुल खिलने’ और ‘सहज मिलने’ की अपेक्षा के बावजूद उसका नम्र और हरी घास-सा अंत:संयत बने रहना कवि की उस आकांक्षित स्त्री को उस पारंपरिक छवि से कितना अलग कर पाता है, यह विचारणीय है. उनके अपने समय में इस स्त्री को हालात से उबरकर आने में कितना श्रम और समय और लगना था, इसका उनके कवि-कर्म से अनुमान कर पाना आसान नहीं है. आश्वस्ति केवल इसी बात की है कि कवि जीवन की इस निर्मम वास्तविकता को दूर से ही सही, उसे सहानुभूति और बदलाव की उम्मीद से देख रहा है :
यह जो कीचड़ उलीचती है / यह जो मनियार सजाती है,
यह जो कंधे पर चूड़ियों की पोटली लिये गली-गली झांकती है
यह जो दूसरों का उतारन फींचती है
(अज्ञेय रचना सागर, पृ.87)
इस सराहना और सौहार्द्र के बावजूद इस स्त्री के जीवन-संघर्ष में कवि को बदलाव की और कोई सूरत या संभावना नहीं नजर आती. यह अकारण नहीं है कि अज्ञेय अपनी मूल प्रकृति में एकान्तप्रिय और सौन्दर्य की अपनी दुनिया में मगन रहने वाले कवि के रूप में विख्यात रहे हैं. उनकी प्रेम कविताओं को लेकर आम तौर पर कहा जाता है कि उनके प्रेम में आत्म का वैभव है, देने का दर्प है और अहम् का ज्ञापन भी. उनकी कविताओं के ये अंश दृष्टव्य हैं –
प्यार लो मेरा / उसी में चांदनी है
उसमें तुम / उसी में बीते हुए सब प्यार भी हैं.
(सदानीरा, भाग 1, पृ 237)
(सदानीरा, भाग 1, पृ 237)
जब भी उभरा यह बोध / कि तुम प्रिय हो
स़द्यः साक्षात हुआ / सहसा देने के अहंकार
पाने की ईहा से / होने के अपनेपन (एकाकीपन)
से उबर गया /जब-जब
यों भूला धुलकर मंजकर/ एकाकी से एक हुआ/ जिया.
(सदानीरा, भाग 2, पृ. 131)
(सदानीरा, भाग 2, पृ. 131)
‘‘जियो उस प्यार में/ जो मैंने तुम्हें दिया है
उस दुख में नहीं जिसे/ बेझिझक मैंने पिया है
वह छादन तुम्हारा घर हो/ जिसे मैं आसीसों
से बुनता हूं, बुनूंगा
कांटे गोखरू तो मेरे हैं/ जिन्हें राह से चुनता हूं, चुनूंगा.’’
(सन्नाटे का छन्द, पृष्ठ 81-82)
यहां स्त्री के प्रति जहां प्यार का स्वीकार है, वहीं अपने लिए कंटीली दुर्गम राह के वरण का आत्म-यश भी. हमारा अपना अनुभव तो यही कहता है कि पारिवारिक जीवन और प्यार में सुख-दुःख तो वैसे भी साझेदारी में बंट जाते हैं, फिर अलग से देने-लेने या बुनने-चुनने का सवाल ही कहां बच रहता है? अज्ञेय की कविताओं में चाहे अनचाहे उभर आए इसी दाता-दर्प को लक्षित करते हुए कृष्णा सोबतीको यह कहना पड़ा था कि ‘‘उनकी मुद्रा दाता की मुद्रा है- ऋषि मुद्रा. कुछ ऐसी कि लो तुम्हें दिया जा रहा है. …यह परंपरागत भारतीय पुरुष-मुद्रा साहित्य के आधे पाठकों को आतंकित नहीं तो परेषान जरूर किये रहेगी.’’ (हम हशमत-2, पृ. 119) हालांकि प्रेम और औदार्य को लेकर कवि का अपना सोच थोड़ा भिन्न भी रहा है – वे कहते हैं, ‘‘प्रेम का कोई भी स्तर मूल्यवान है, यह उन्मेष है, पर एक स्तर पर वह आता है, जहां दिख जाता है कि वह इस और उस दो मानव इकाइयों के बीच नहीं, यह तो ईश्वर के एक अंश और ईश्वर के दूसरे अंष के बीच का आकर्षण है, जिसकी ये दो मानव इकाइयां साक्षी भर हैं.’’(कवि मन, पृ. 89) संयोग से इसी प्रसंग से जुड़ती कवि की एक और कविता है ‘फूल की स्मरण-प्रतिमा’, जिसका संदर्भ कुछ यों बनता दिखाई देता है कि प्रिया ने अपने प्रिय को जब एक फूल भेंट किया, तो कवि को इसमें उसके देने के अहंकार का बोध हुआ और सहज प्रतिक्रिया के रूप में जो कविता बनी, वह इस प्रकार है:
यह देने का अहंकार / छोड़ो / कहीं है प्यार की पहचान
तो उसे यों कहो: / ‘मधुर यह देखो / फूल, इसे तोड़ो
घुमा-फिराकर देखो / फिर हाथ से गिर जाने दो
हवा पर तिर जाने दो!’
(सन्नाटे का छंद, पृष्ठ 158)
(सन्नाटे का छंद, पृष्ठ 158)
तात्पर्य यह कि शायद उनके काव्य-व्यक्तित्व का यह ऐसा अबूझ पहलू है, जो अंत तक उनके समक्ष चुनौती की तरह तना दीखता है और अपनी सारी विनम्रता और स्त्री के प्रति सदाशयता के बावजूद उससे उबर पाना उनके लिए कम ही संभव रहा. लोग अक्सर उनकी प्रेम कविताओं में निहित मानवीय करुणा का हवाला देते हैं. सौन्दर्य-चित्रण और राग-तत्व के साथ उनकी कविताओं में आये करुणा भाव को याद करते हुए कृष्णा जी कहती हैं, ‘‘किसी अलौकिक की लौकिक परिकल्पना में अज्ञेय करुणा की स्वर-लिपि-सी प्रस्तुत करते हैं, कुछ ऐसी कि जिसे पाठक अपने संवेदन में उतार तो न सके, पर उसकी प्रभावकारी चौखट से अपने को उबार भी न सके\”. (हम हशमत-2, पृ. 119)
अज्ञेय के ‘सदानीरा’संकलन में प्रेम और रागात्मक भाव की ही एक और लंबी कविता है ‘ओ निःसंग ममेतर’जिसमें कवि का अपनी प्रिया के प्रति ममेतर भाव तो व्यक्त है ही, वह बेलौस निस्संगता भी ज्ञापित है, जो कवि-स्वभाव का अंग रही है. आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय इस ममेतर को किसी इतर या शेष सृष्टि के अर्थ में नहीं, बल्कि कवि के अपने ही वृहत्तर एकात्म का अंग मानते हैं. प्रेम के प्रति यह रहस्यवादी दृष्टिकोण कवि अज्ञेय को कई बार छायावादी कवियों के करीब ला खड़ा करता है, हालांकि अपनी भाषिक संवेदना और शिल्प में वे तब भी अलग ही नजर आते हैं.
प्रेम कविताओं के प्रसंग को लेकर अक्सर अज्ञेय की तुलना शमशेर की जाती है. मलयज ने अपने काव्य-विवेचन और डायरी में कई बार इस तथ्य को रेखांकित किया है. वे लिखते हैं – ‘‘नई हिन्दी कविता में अज्ञेय और शमशेर ही ने वास्तविक अर्थों में प्रेम की कविताएं लिखी हैं. मूलतः दोनों ही प्रेम के कवि हैं. पर दोनों के प्रेम के अनुभव में काफी अंतर है. मेरे खयाल से अज्ञेय का प्रेम-अनुभव उनकी अहंवादिता (इगोइज्म) के बावजूद ज्यादा पुष्ट और संपूर्ण है. शमशेर का प्रेम-अनुभव ज्यादा इन्टेन्स और गहरा तथा वेगपूर्ण है, वह है एकांगी ही, असंपूर्ण और काफी कुछ एब्स्ट्रैक्ट शिला की तरह. अज्ञेय में सैल्फ नेगेशन के स्थान पर आत्मसंयम और अहं-गरिमा है.’’ इसका समाहार करते हुए मलयज एक महत्वपूर्ण निकष प्रस्तुत करते हैं कि ‘अज्ञेय के प्रेम में अहं का विसर्जन नहीं है, जबकि शमशेर अहं का विसर्जन कर देते हैं.’ शमशेर स्वयं अज्ञेय की सुरुचि, भाषा-संवेदना और उनकी काव्य-कला के कायल तो रहे हैं, लेकिन अपनी सोच और काव्य-प्रकृति में वे अपने को नागार्जुन और त्रिलोचन के ज्यादा करीब पाते हैं. अज्ञेय की कविता में भावों की गंभीरता और बयान की सादगी को पसंद करने के बावजूद वे उनकी अत्यधिक भाव-सचेतनता के प्रति थोड़े संशयी भी रहे हैं. वे कहते हैं- ‘‘कभी वह अपने को भूल नहीं सकते, खो नहीं सकते. और अज्ञेय में यही बात उनके विरुद्ध जाती है, उनका अति चेतन होना. हर समय एक सयानी संवेदना और चौकस समझ के साथ रचना को गढ़ना.’’(एक बिल्कुल पर्सनल ऐसे कुछ और गद्य रचनाएं, पृ. 29)
अज्ञेय की काव्य-यात्रा के विकासक्रम और उनके अध्यात्म बोध को लक्षित करते हुए उनके प्रिय अध्येता डा.नंदकिशोर आचार्य कहते हैं – ‘‘अज्ञेय में क्रमश: विकसित होती जाती आध्यात्मिक संवेदना भारतीय परम्परा से सहज उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं है. वह तीव्र व्यथा में से गुजरकर अपनी साधना से अर्जित संवेदना है. …कविताओं में अज्ञेय की संवेदना एक गहरा आध्यात्मिक संस्कार ग्रहण करती और उस ‘मौन’ में सभी अर्थों को खोजती और पाती है, जो औपनिषदिक चिन्तन, बौद्ध दर्शन, जैन दृष्टि और ईसाई रहस्यवाद और अन्य परम्पराओं की साझी थाती है.’’ आचार्य इसी दृष्टिकोण के चलते ‘असाध्य वीणा’ कविता को उनके काव्य-संसार की उल्लेखनीय उपलब्धि मानते हैं. ‘असाध्य वीणा’ का प्रथम-दृष्टया लोकेल, उसका नाद-सौन्दर्य और नाटकीय संरचना बेशक आभिजात्य लगती हो, यहां कवि की आध्यात्मिक चेतना और लोक-संवेदना की आन्तरिक बुनावट इसे एक कालजयी रचना बना देती है.
इस बात से तो साहित्य की स्वायत्तता और कला की तरफदारी करने वाले भी शायद ही आग्रह रख पाएं कि बिना वस्तु और रूप के कोई रचना संभव है. जबकि वस्तु को मनुष्य और उससे जुड़े समाज या परिवेश से काटकर देख पाना असंभव है. अज्ञेय के काव्य-संसार में इस मानवीय संबंध और सामाजिक अनुभव से जुड़ी ऐसी कितनी ही कविताएं हैं, जहां वे अपने समय के केन्द्रीय सवालों और वृहत्तर मानवीय चिन्ताओं के साथ खडे दिखाई देते हैं. उनके प्रसंग में लोग बेशक वृहत्तर जन-सरोकारों की चर्चा करते संकोच करते हों, उनकी कविताएं इस बात की साक्षी हैं कि वे अपने सामयिक परिदृश्य में कविता के माध्यम से हस्तक्षेप करने वाले एक जागरूक कवि रहे हैं.
उनके रचना-संसार में प्रकृति, पहाड़, समुद्र, आकाश, नदियां, बर्फ, जल, पेड़, मौसम और यहां तक कि मरूस्थलीय परिदृश्य की असंख्य छवियां न केवल हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं, बल्कि उनमें उन हलकों का लोक-जीवन भी अपनी ऊष्मा के साथ स्पंदित दीखता है. यही कारण है कि उनके प्रियजनों को अज्ञेय के रचनाकर्म के बारे में हिन्दी आलोचना में बने इस विभ्रम को तोड़ना आवश्यक लगता रहा है कि उनका रचनाकर्म हमारे समय की केन्द्रीय चिन्ताओं और जीवन के बुनियादी सरोकारों से हिन्दी पाठक को रूबरू कराने से कहीं बचता है. स्वयं अज्ञेय ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में अपनी कविताओं के एक चयन की भूमिका में इस प्रवृत्ति की ओर अफसोस प्रकट करते हुए लिखा है- ‘‘सामाजिक सरोकारों को लेकर (मेरे) पूर्वग्रही आलोचकों ने कितनी भ्रान्तियां फैलाई हैं, क्योंकि जो दुष्प्रचार हुआ है उसके मूल में सच्चाई की खोज नहीं रही, बल्कि राजनीतिक दल का तात्कालिक लाभ ही रहा है और ऐसी स्थिति में तथ्यों की ओर मेरे ध्यान दिलाने से कुछ सिद्ध नहीं होगा. मतवादी पूर्वग्रह लिये हुए जो पाठक मेरी कविता तक आयेगा वह यहां भी उन्हीं कविताओं को पढे़गा जो उनके पूर्वग्रह को पुष्ट कर सके; अन्य कविताएं अनदेखी रह जाएंगी. और जो मताग्रही ही नहीं होगा, वह स्वयं देख लेगा कि कवि के सामाजिक सरोकार क्या रहे हैं और उसकी सहानुभूति का अभिनिवेश किसमें होता रहा है.’’
उनके रचना-संसार में प्रकृति, पहाड़, समुद्र, आकाश, नदियां, बर्फ, जल, पेड़, मौसम और यहां तक कि मरूस्थलीय परिदृश्य की असंख्य छवियां न केवल हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं, बल्कि उनमें उन हलकों का लोक-जीवन भी अपनी ऊष्मा के साथ स्पंदित दीखता है. यही कारण है कि उनके प्रियजनों को अज्ञेय के रचनाकर्म के बारे में हिन्दी आलोचना में बने इस विभ्रम को तोड़ना आवश्यक लगता रहा है कि उनका रचनाकर्म हमारे समय की केन्द्रीय चिन्ताओं और जीवन के बुनियादी सरोकारों से हिन्दी पाठक को रूबरू कराने से कहीं बचता है. स्वयं अज्ञेय ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में अपनी कविताओं के एक चयन की भूमिका में इस प्रवृत्ति की ओर अफसोस प्रकट करते हुए लिखा है- ‘‘सामाजिक सरोकारों को लेकर (मेरे) पूर्वग्रही आलोचकों ने कितनी भ्रान्तियां फैलाई हैं, क्योंकि जो दुष्प्रचार हुआ है उसके मूल में सच्चाई की खोज नहीं रही, बल्कि राजनीतिक दल का तात्कालिक लाभ ही रहा है और ऐसी स्थिति में तथ्यों की ओर मेरे ध्यान दिलाने से कुछ सिद्ध नहीं होगा. मतवादी पूर्वग्रह लिये हुए जो पाठक मेरी कविता तक आयेगा वह यहां भी उन्हीं कविताओं को पढे़गा जो उनके पूर्वग्रह को पुष्ट कर सके; अन्य कविताएं अनदेखी रह जाएंगी. और जो मताग्रही ही नहीं होगा, वह स्वयं देख लेगा कि कवि के सामाजिक सरोकार क्या रहे हैं और उसकी सहानुभूति का अभिनिवेश किसमें होता रहा है.’’
जहां तक अज्ञेय के काव्य में सामाजिक सरोकारों और परिवर्तन की उस प्रक्रिया के दृष्टान्त और हवाले प्रस्तुत करने का सवाल है, वह सब किसी एक आलेख में समेट पाना संभव नहीं है और न इस पर कोई अतिरिक्त बल देने की आवश्यकता ही कि हमारे राष्ट्रीय परिदृश्य में उन जैसे वरिष्ठ कवि का हस्तक्षेप क्या मायने रखता है. आजादी के बाद के साहित्यिक परिदृश्य में एक प्रयोगवाद के पुरोधा के रूप में उनकी सक्रियता और स्वाधीनता, समानता तथा लोकतंत्रिक मूल्यों में उनकी साझेदारी निश्चय ही महत्वपूर्ण रही है.
एक हद तक यह बात विचारणीय है कि अज्ञेय की कविताओं में ऐसे विषयों और दृश्यों की बहुतायत बेशक न सही, लेकिन कमी भी नहीं रही, जिनमें इस महादेश का लोक-जीवन और उसकी केन्द्रीय चिन्ताएं न व्यक्त हुई हों. वह चाहे आरंभिक दिनों में ‘कलगी बाजरे की’ हो, ‘कांगड़े की छोरियां’ हो या सन् छठे दशक की उनकी अनेक कविताएं, जैसे ‘हरा भरा देश’, ‘मैं वहां हूं’, ‘बांगर और खादर’, ‘नदी के द्वीप’, ‘औद्योगिक बस्ती’ और बाद के सालों में तो मरुस्थलीय जीवन और ‘ऐसा कोई घर आपने देखा है’ संग्रह की कितनी ही कविताएं हैं, जो उनके वृहत्तर मानवीय सरोकारों और हमारे समय की चिन्ताओं को बखूबी अपने कलेवर में समेटती हैं. उनकी ‘घर’ काव्य-श्रृंखला तो अद्भुत है. यहां वे बेहद सादगी और साफगोई से भारतीय जनमानस के मौलिक अधिकारों के पक्ष में घर के हवाले से अपनी बात कहते हैं –
घर / मेरा कोई है नहीं
घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो
इसकी भी मुझे चिन्ता नहीं
प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो –
इसी की मुझे तलाश है.
ऐसा कोई घर आपने देखा है?
देखा हो / तो मुझे भी उसका पता दें
न देखा हो / तो मैं आपको भी
सहानुभूति तो दे ही सकता हूं.
यही वे वृहत्तर जन-सरोकार हैं, जिनकी सान पर अज्ञेय के काव्य की पुनर्परीक्षा अपेक्षित है, जहां स्वयं उनके नजरिये से सामाजिक सरोकारों के निहितार्थ समझे जा सकें. गोकि यह उनका मूल स्वर नहीं है और न बदलाव की उस समाजवादी प्रक्रिया के प्रति उनके मन में कोई आश्वस्ति ही. अपने समकालीन लेखन में उन्हें यह बात बराबर खलती रही कि \”आज साहित्य रचना और सामाजिक परिवर्तन में जैसा सीधा समीकरण बनाया जा रहा है, उसे मैं बिल्कुल स्वीकार नहीं करता. मैं समझता हूं कि पिछले लगभग पचास वर्षों से इस तरह का सीधा संबंध बनाने और सिद्ध करने का जो प्रयत्न होता रहा है, उसने साहित्य का बहुत अहित किया है.\” और ऐसा कहते हुए वे साहित्य को जैसी अमूर्त पवित्रता की दृष्टि से देखने का आग्रह करते रहे हैं, उससे साहित्य और जन के बीच कैसा रिश्ता बना, इसकी शायद ही कभी चिन्ता उन्हें हुई हो. इसके बावजूद सामाजिक विकास की प्रक्रिया में लेखक की भूमिका को वे महत्वपूर्ण मानते हुए कुछ बातें फिर भी दोहराते रहे. साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया को वत्सल निधि के एक शिविर का केन्द्रीय विषय बनाते हुए स्वयं अपने बीज वक्तव्य में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि \”यदि मैं यह मानता होता कि साहित्य का – और यहां साहित्य से मेरा आशय रचना अथवा कृति साहित्य का ही है – सामाजिक परिवर्तन में कोई योग नहीं होता, अथवा साहित्यकार का समाज के प्रति कोई ऐसा उत्तरदायित्व नहीं है, जिसमें यह भी निहित हो कि समाज को बदलने का कुछ यत्न भी उससे अपेक्षित है, तो शिविर में विचार के लिए इस विषय का प्रस्ताव मैंने न किया होता.\” (अज्ञेय संचयिता, पृ 410)