(फोटो द्वारा – Constantine Manos)
साहित्य से सत्ता (धर्म, राज्य, समाज, परिवार) के तनावपूर्ण सम्बन्धों को देखा-समझा जाता रहा है, उसकी भूमिका और उसके महत्व पर भी लिखा गया है. २१ वीं सदी के भारत में प्रतिरोध की उसकी अपनी ज़िम्मेदारी में क्या कोई बदलाव आया है ? वह दिलचस्प और जटित हो क्या यही पर्याप्त है ? उसकी जनपक्षधर धार को संस्कृति को उद्योग में बदल देनी वाली ताकतों ने क्या कुतर दिया है ?
लेखिका कात्यायनी का आलेख – साहित्य का प्रतिरोध और प्रतिरोध का साहित्य आपके लिए.
साहित्य का प्रतिरोध और प्रतिरोध का साहित्य
कात्यायनी
सबसे पहले तो मैं इस बहु प्रचारित युक्ति पर ही सवाल उठाना चाहूँगी कि साहित्य अपनी प्रकृति में सत्ता का प्रतिपक्ष होता है. जीवन के हर क्षेत्र की तरह साहित्य भी वर्ग संघर्ष की एक समर-भूमि है और वहाँ विचारधारात्मक वर्ग-संघर्ष निरन्तर, विविध और सघन रूपों में जारी रहता है. पूँजीवादी समाज में यह संघर्ष अपने उच्चतम धरातल पर पहुँच जाता है, क्योंकि सर्वाधिक चेतनशील शासक वर्ग के रूप में पूँजीपति वर्ग अपने प्रभुत्व को क़ायम रखने के लिए राज्यसत्ता के दमनतन्त्र के अतिरिक्त वर्चस्व (हेजेमनी) के विचारधारात्मक उपकरणों का कुशलतम सचेतन इस्तेमाल करता है और यह काम वह मुख्यत: साहित्य-कला, सांस्कृतिक प्रचार-तन्त्र और मीडिया के दायरे में करता है.
बेशक साहित्य की बुनियादी प्रकृति और स्वाभाविकता के साथ यदि कोई छेड़छाड़ न की जाये तो कहा जा सकता है कि वह प्रकृति से राज्यसत्ता विरोधी होता है.
कारण यह है कि साहित्य जिस जीवन का परावर्तन और कलात्मक पुनर्सृजन करता है, वह सतत गतिमान होता है. इसलिए साहित्य को जीवन से सतत अन्तर्क्रिया में संलग्न रहना पड़ता है. दूसरी ओर राज्यसत्ता को बलात उन स्थापित उत्पादन सम्बन्धों और सामाजिक सम्बन्धों को बनाये रखना होता है, जो शोषक-शासक वर्गों का हित पोषण करते हैं. राज्य अपनी प्रकृति से ही सापेक्षत: स्थैतिक या गतिहीन संस्था है जबकि साहित्य-कला अपने आप में जीवन की अविराम गति के उत्सव हैं.
कला और वाचिक रूप में साहित्य की आयु राज्यसत्ता की आयु से बहुत अधिक है. जब निजी स्वामित्व और राज्यसत्ता का जन्म नहीं हुआ था, तभी गीत-संगीत-नृत्य और चित्रकला का विकास हो चुका था और वाचिक गीतात्मक आख्यान रचे जाने लगे थे. किसी हद तक सामाजिक श्रम-विभाजन की प्रक्रिया ने मनुष्य की आत्मिक सम्पदा या मानवीय सारतत्व के अविरल विकास की इस प्रक्रिया को बाधित किया और फिर राज्यसत्ता ने बलात इसका गला घोंटना शुरू किया. पूँजीवाद पूर्व ऐतिहासिक युगों में शासक वर्गों के मनोरंजन के लिए दरबारी कला- साहित्य का जन्म हुआ. यह दरबारी कला-साहित्य शासकों के सौन्दर्य-बोध और जीवन-दृष्टि के अनुसार जीवन की विकृति-विरूपित छवियाँ प्रस्तुत करता था, और इसका लक्ष्य आम जन समुदाय नहीं होता था. आम जन-समुदाय की पृथक लोक कला और लोक साहित्य की पृथक समानान्तर उपस्थिति होती थी. दरबारी कला-साहित्य से अलग सत्ता-संरक्षित, संस्थाबद्ध धर्मों से जुड़े कला-साहित्य की मौजूदगी थी, पर उसकी भी जन समुदाय तक सीमित ही पहुँच होती थी. जन समुदायों के बीच अपनी अलग-अलग धार्मिक लोक परम्पराओं और धार्मिक साहित्य की मौजूदगी थी तथा शास्त्र और लोक का टकराव यहाँ वैचारिक वर्ग-संघर्ष के एक रूप में मौजूद था. समकालीन सन्दर्भों तक जल्दी पहुँचने के लिए, एक हद तक सरलीकरण का जोखिम मोल लेते हुए, हमने यह चर्चा अतिसंक्षेप में की है.
इतिहास के प्राक् पूँजीवादी दौरों में साहित्य-कला के क्षेत्र में शासक और शासित के बीच का, राज्यसत्ता और जनसमुदाय के बीच का टकराव वैसा क़तई नहीं था, जैसा कि वह पूँजीवाद के युग में विकसित हुआ है. प्राक् पूँजीवादी युगों में शासक वर्ग का कला-साहित्य मुख्यत: शासक वर्ग के लिए होता था, उसके टारगेट उपभोक्ता आम लोग लगभग नहीं हुआ करते थे. इसके विपरीत आज का जो बुर्जुआ कला-साहित्य है, बेशक उसका अत्यन्त छोटा-सा हिस्सा बुर्जुआ अभिजन समाज के लिए होता है, लेकिन उसका बड़ा हिस्सा आम जनसमुदाय में खपत के लिए होता है और एक छोटा-सा हिस्सा ऐसा भी होता है जिसका उद्देश्य जनता के पक्ष में खड़े बौद्धिक समुदाय को दिग्भ्रमित करना तथा ढुलमुल और यथास्थितिवादी बनाना होता है. बुर्जुआ वर्ग पहला ऐसा शासक वर्ग है जो कला-साहित्य का सचेत तौर पर विचारधारात्मक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है और अपने शासन को स्वीकार करने के लिए इसके माध्यम से जनसमुदाय का मानसिक अनुकूलन (कण्डीशनिंग) करता है. इस तरह वह अपने शासन के लिए जनता की प्रत्यक्ष-प्ररोक्ष \’\’सहमति\’\’ हासिल करता है. यही बुर्जुआ जनवाद की विशिष्टता है. ग्राम्शी की \’वर्चस्व\’ की अवधारणा का वही सारतत्व है. बुर्जुआ वर्ग के इस वर्चस्व की स्थापना में विचारधारात्मक-सांस्कृतिक राजकीय तन्त्र से भी कहीं अधिक भूमिका वह वैज्ञानिक समुदाय निभाता है, जिसे \’नागरिक समाज\’ कहकर प्राय: महिमामण्डित किया जाता है.
बुर्जुआ साहित्य अपने विविध रूपों में सामाजिक जीवन के भौतिक-आत्मिक यथार्थ को, या तो खण्डित-विरूपित रूप में परावर्तित करता है, या फिर पाठक को आभासी यथार्थ की सतह को भेदकर सारभूत यथार्थ तक पहुँचने नहीं देता. उन्नीसवीं शताब्दी में जब पूँजीवाद ने प्रबोधनकालीन आदर्शों और बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के घोषित लक्ष्यों को तिलांजलि देकर, यूरोप में पूँजी के शासन को नग्नतम रूप में स्थापित किया था तो स्वच्छंदतावादी कवियों और आलोचनात्मक यथार्थवादी उपन्यासों-कथाकारों ने अपनी बुर्जुआ जीवन-दृष्टि के बावजूद पूँजी और श्रम के अन्तरविरोधों के इर्द-गिर्द संगठित सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करते हुए प्रतिरोध का साहित्य रचा था. लेकिन बीसवीं शताब्दी में, साम्राज्यवाद की अवस्था में, पूँजीवाद की प्रकृति इतनी संश्लिष्ट होती चली गयी कि अनुभवसंगत दृष्टि से उसकी अन्तर्वस्तु का उद्घाटन कठिन होता चला गया और आलोचनात्मक यथार्थवाद की सीमाएँ ज्यादा से ज्यादा उजागर होती चली गयीं. उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों में, जहाँ पूँजीवाद का विकास विलम्बित और बाधित रहा, आलोचनात्मक यथार्थवादी और स्वच्छन्दतावादी दृष्टि से लिखे जाने वाले राष्ट्रीय जनवादी साहित्य की प्रासंगिकता बीसवीं सदी में भी लम्बे समय तक बनी रही, लेकिन उसके साथ-साथ वहाँ भी सर्वहारा यथार्थवाद की वह धारा प्रवाहित होने लगी थी जो यूरोप और रूस में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में ही अस्तित्व में आ चुकी थी.
उत्तर औपनिवेशिक समाजों में पूँजीवाद जैसे-जैसे विकसित हुआ, वैसे-वैसे यहाँ भी आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि की सीमाएँ स्पष्ट होती चली गयीं. भूमण्डलीकरण या नवउदारवाद के इस दौर में, वित्तीय पूँजी के विश्वव्यापी वर्चस्व के इस दौर में सत्ता के पक्ष में खड़े साहित्य के बड़े हिस्से ने उत्तर आधुनिकतावाद, अस्मितावादी राजनीति, उत्तर मार्क्सवाद आदि को वरण करके अपनी यथार्थवादी प्रतिबद्धताओं को घोषित तौर पर छोड़ दिया है. वह या तो यथार्थ के खण्डित, विरूपित और आभासी चित्र प्रस्तुत कर रहा है या यथार्थ के वस्तुगत अस्तित्व को ही ख़ारिज़ करते हुए भाषाशास्त्रीय रूपवाद (लिंग्विस्टिक फॉर्मलिज़्म) के नये-नये संस्करण प्रस्तुत कर रहा है. विविध सामाजिक अस्मिताओं के खण्ड-खण्ड संघर्ष पर बल देते हुए एक नकली और आकर्षक रैडिकल तेवर अपनाकर, अस्मिता राजनीति की वैचारिकी पर आधारित छद्म यथार्थवाद की कई नयी धाराएँ वर्ग और वर्ग संघर्ष की केन्द्रीय स्थिति को ख़ारिज़ कर रही हैं और भारी विभ्रम फैला रही हैं. तात्पर्य यह कि आज की दुनिया में साहित्य-कला के क्षेत्र में विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष पहले हमेशा से अधिक सघन, उग्र और जटिल हो गया है. दूसरे सामाजिक यथार्थ का चरित्र बेहद जटिल और संश्लिष्ट हो गया है. साहित्य के क्षेत्र में जारी विचारधारात्मक वर्ग-संघर्ष में सत्ता पक्ष का प्रभावी प्रतिरोध करने के लिए और रचनात्मक लेखन में जीवन के सारभूत यथार्थ को उद्घाटित करने के लिए – इन दोनों कामों के लिए आज रचनाकार का वैचारिक रूप से, वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि और इतिहास-बोध से लैस होना ज़रूरी है.
प्रतिरोध का सच्चा साहित्य वही है, जो डेनिश लेखक हान्स क्रिश्चियन एण्डरसन की कहानी के बच्चे की तरह राजा को नंगा देख लेता है और साफ़ शब्दों मे कहता है कि \’राजा नंगा है.\’ जो यथार्थ को अधूरे और खण्डित रूप में देखकर सत्ता और पूँजीवाद-साम्राज्यवाद की आलोचना प्रस्तुत करते हैं, वे कहते हैं कि राजा के कपड़े फटे हैं, पुराने हैं या उसके आर-पार बहुत कुछ दीख रहा है, पर वे राजा को न तो अलफ़ नंगा देख पाते हैं, न बोल ही पाते हैं. वैचारिक अन्धता की शिकार इस विकृत विकलांग यथार्थवादी दृष्टि से आज का सच्चा प्रतिरोध का साहित्य नहीं लिखा जा सकता. कई बार साहित्य-कला की दुनिया में प्रतिरोध के साहित्य का एक मिथ्याभास रचा जाता है, जहाँ प्रतिरोध व्यवस्था द्वारा तय की गयी चौहद्दी में क़ैद होता है या फिर दिशाहीन अथवा ग़लत दिशा वाला होता है. प्रतिरोध के साहित्य का काम राजा को इज़्ज़त ढापने वाला कपड़े पहनने की राय देना और इस व्यवस्था को पैबन्दसाजी से ठीक करने का सुझाव देना क़तई नहीं हो सकता. उसे राजा को नंगा दिखलाना होता है, लोगों में से उसका आतंक मिटाना होता है और सड़क पर उसे घेर लेने के लिए उकसाना होता है.
आज की बुर्जुआ व्यवस्था की सबसे बड़ी शक्ति प्रतिरोध को ख़रीदकर उसके दाँत और सींग प्यार से तोड़ देने की ताक़त है. जनता के पक्ष में खड़े साहित्यकार भी मध्यवर्ग से ही आते हैं. हम अपने देश को ही लें, जहाँ पिछले 70 वर्षों के भीतर ग़रीबी बदहाली बढ़ने के साथ ही मध्यवर्गीय बौद्धिक जमातों के लिए सापेक्षिक रूप में सुविधाओं का भारी विस्तार हुआ है. मेहनतकशों की तुलना में उन प्राध्यापकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों, सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों का जीवन-स्तर आप देख सकते हैं. जिनके बीच से बड़ी संख्या में लेखक-बुद्धिजीवी आते हैं. पिछले 40-50 वर्षों के भीतर यह सामाजिक तबक़ा उत्पादन में लगे शोषित वर्गों के जीवन और संघर्षों से दूर होता चला गया है. नतीजतन अपनी सदिच्छाओं के बावजूद और यथास्थिति से असन्तोष के बावजूद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का यह तबक़ा अपना जुझारूपन खोता चला गया है और बदलते सामाजिक यथार्थ पर इसकी पकड़ भी कमजोर होती चली गया है. बीसवीं शताब्दी के सर्वहारा क्रान्तियों के प्रथम संस्करणों की वक़्ती विफलता ने भी इस तबक़े के बड़े हिस्से को स्वप्नहीन बनाकर अन्दर से कमजोर किया है क्योंकि इसके पास समाजवाद की समस्याओं और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों को, तथा अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों के निर्माण की ज़मीन को समझने वाली वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव था. इसकी वजह हमारे देश के वाम राजनीतिक आन्दोलन की अपनी वैचारिक कमजोरियाँ थीं, जो अलग से चर्चा का विषय है.
इसके अतिरिक्त एक और कारण है जो विचारणीय है. देश जब राष्ट्रीय मुक्ति और जनवाद के लिए लड़ रहा था तो मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का बहुत बड़ा हिस्सा रैडिकल था और आम जनता के साथ उसका जीवन नज़दीकी से जुड़ा हुआ था. राष्ट्रीय मुक्ति के बाद विकृत-विकलांग रूप में ही सही, जो बुर्जुआ जनवाद क़ायम हुआ उसने समाज के मध्यवर्गीय संस्तरों में लगातार अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया. मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे अपने सहज वर्ग-बोध से पूँजीवाद के भीतर ही जीने और अपना भविष्य खोजने का आदी हो गया. अब सत्ता के प्रतिपक्ष में और आम मेहनतकश जनसमुदाय के पक्ष में सिर्फ़ वही मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी खड़ा हो सकता है जो पूँजी और श्रम के अन्तरविरोध में स्पष्ट: श्रम के पक्ष में खड़ा हो. इसके लिए रैडिकल और साहसी होने के साथ ही गहराई से वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्न होना भी ज़रूरी है.
इन्हीं सब कारणों का कुल योग वह प्रभाव है जिसके चलते आज बुर्जुआ व्यवस्था की, प्रतिरोध को ख़़रीद लेने की ताक़त का विस्तार हुआ है और प्रतिरोध के साहित्य की स्थिति, अन्दर से भी सापेक्षत: कमजोर हुई है. आज व्यवस्था के पद-पीठ-पुरस्कारों के व्यापक प्रलोभक मकड़जाल और वाम प्रगतिशील धारा के साहित्यकारों तक के बीच पैठी हुई अवसरवाद, वैचारिक विभ्रम और अराजकता की प्रवृत्तियों के बुनियादी कारणों को इस पृष्ठभूमि और परिप्रेक्ष्य में ही सही-सन्तुलित ढंग से समझा जा सकता है.
राज्यसत्ता प्रतिरोध के साहित्य की धार को, यदि लेखकों-कलाकारों को प्रलोभन देकर और ख़रीदकर कुंठित नहीं कर पाती है तो फिर वह अपने पुराने आज़मूदा हथकण्डों का सहारा लेती है, यानी निर्वासन देना या उसके लिए बाध्य करना, जेल और हत्या. मैं समझती हूँ इसके बारे में ज़्यादा चर्चा की आवश्यकता नहीं है. हिटलर, मुसोलिनी, फ़्रांको के शासनकाल के दौरान, अमेरिका में मैकार्थीवाद के दौरान, लातिन अमेरिका, अफ़्रीका तथा इण्डोनेशिया और फ़िलीपीन्स में, तानाशाहों के शासनकाल में तथा ईरान और अरब देशों में आजतक, सत्ता के विरोध में मुखर साहित्यकारों के निर्वासन, जेल और हत्या की घटनाओं से आप सभी परिचित होंगे.
भारत में भी 1967 से लेकर आपातकाल के अन्त तक ऐसा बहुत कुछ देखा गया और आज के भारत में पानसारे-डाभोलकर-कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या और गत कुछ वर्षों के दौरान पचासों लेखकों-कलाकारों को धमकाये जाने से लेकर उन पर हमले किये जाने तक की घटनाओं से भला कौन परिचित नहीं है.
यहीं पर ज़रूरी है कि हम नवउदारवाद के दौर में फासीवाद के नये सिरे से विश्वव्यापी उभार और भारत में फासीवादी उभार की परिघटना पर भी थोड़ी चर्चा कर लें क्योंकि आज प्रतिरोध का साहित्य इसी परिवेश में रचा जाना है और हर तरह का जोखिम उठाकर कहना है कि \’राजा नंगा है.\’ सबसे पहले तो इस बात को समझने की ज़रूरत है कि नवउदारवाद का वर्तमान विश्वव्यापी प्रभुत्व पूँजीवाद की सफलता से अधिक इसके असाध्य व्यवस्थागत संकट की अभिव्यक्ति है. 1920 के दशक और आज के दौर में, पूँजीवादी संकट और फासीवादी उभार – दोनों में ही कुछ बुनियादी परिवर्तन आये हैं. 1920 के दशक के समान अब संकट और तेज़ी के दौरों के बारी-बारी से आने की प्रक्रिया नहीं चल रही है, बल्कि आज का आर्थिक संकट विश्व पूँजीवाद की स्थाई परिघटना है. यह 1970 के दशक से मन्द मन्दी और सघन मन्दी के दौरों के रूप में लगातार जारी है, जिसे असाध्य संरचनागत या व्यवस्थागत संकट का नाम दिया जा रहा है. फासीवाद इस उत्तरकालीन पूँजीवाद के दौर की स्थायी परिघटना बन चुका है. आज यह भारत और लातिन अमेरिकी देशों से लेकर यूनान तक में एक राजनीतिक धारा के रूप में मौजूद है. सत्ता में रहने और न रहने – दोनों ही स्थितियों में यह पूँजीवादी समाजों में एक उत्पाती ताक़त के रूप में मौजूद रहेगा और दोनों ही सूरतों में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रतिकार के रूप में, बुर्जुआ वर्ग के हितों की सेवा के लिए मध्यवर्गीय रूमानी उभार पैदा करता रहेगा.
फासीवाद मध्यवर्ग का एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है, जो तृणमूल स्तर से एक कैडर आधारित संगठन के नेतृत्व में संगठित है. इसे व्यापक मेहनतकश जनता का तृणमूल स्तर से एक क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके और उस आन्दोलन से मध्यवर्ग के प्रगतिशील हिस्सों को जोड़कर ही पीछे धकेला जा सकता है. यह संघर्ष दीर्घकालिक है और साहित्य-संस्कृति के मोर्चे पर भी हमें इसी हिसाब से रणनीति बनानी होगी. फासीवाद ने इस लड़ाई में, समाज के भीतर अपनी खन्दकें खोद रखी हैं. प्रगतिशील शक्तियों को भी ऐसा ही करना होगा. इस काम में क्रान्तिकारी सांस्कृतिक कामों की एक महत्वपूर्ण भूमिका होगी. लेखकों-कलाकारों को प्रतीकात्मक विरोधों से आगे जाना होगा. साहित्य के प्रतिरोध को प्रतिरोध का साहित्य लिखने मात्र से आगे ले जाना और सड़कों पर उतरना आज समय की माँग है. हमें अन्धराष्ट्रवाद, धर्मान्धता, पितृसत्तात्मकता और जाति-व्यवस्था के उन मूल्यों के विरुद्ध व्यापक जनता में तृणमूल स्तर पर काम करना होगा, तभी \’\’राजनीति के संस्कृतिकरण\’\’ की फासीवादी रणनीति का जवाब \’\’संस्कृति के राजनीतिकरण\’\’ की क्रान्तिकारी रणनीति से दिया जा सकेगा.
मेहनतकशों के मात्र आर्थिक संघर्षों से काम नहीं चलेगा. उनके सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन तृणमूल स्तर से संगठित करने होंगे. तभी फासीवादियों के लोकरंजकतावादी प्रचार के घटाटोप का मुकाबला किया जा सकेगा. इसके लिए हमें वामपन्थी बौद्धिक एक्टिविज़्म के टापुओं की संकुचित चौहद्दी से बाहर निकलना होगा और वैकल्पिक मीडिया और सांस्कृतिक प्रचार तन्त्र का ताना-बाना बुनने के साथ ही गाँवों-शहरों के मेहनतकशों के बीच सघन सांस्कृतिक काम करना होगा और नयी-नयी सांस्कृतिक संस्थाएँ खड़ी करनी होंगी. फासीवाद के विरुद्ध जितना भयंकर युद्ध राजनीतिक धरातल पर लड़ा जाना है, उतना ही भयंकर युद्ध कला-साहित्य-संस्कृति की रणभूमि में भी लड़ा जाना है.
सवाल यह है कि इस देश के जनपक्षधर साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी क्या इस चुनौती को स्वीकारने के लिए तैयार हैं. यदि हम इस चुनौती को स्वीकार करते हैं तो हार भी सकते हैं लेकिन जीत भी सकते हैं. और इससे यदि मुँह चुराते हैं, तब तो पहले ही हार चुके हैं.
कात्यायनी : 7 मई, 1959, गोरखपुर (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम. फिल.
निम्नमध्यवर्गीय परिवार में जन्म. परम्परा तोड़कर प्रेम और विवाह एक सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता से. 1980 से सांस्कृतिक-राजनीतिक सक्रियता. 1986 से कविताएँ लिखना और वैचारिक लेखन प्रारम्भ.
नवभारत टाइम्स, स्वतंत्र भारत और दिनमान टाइम्स आदि के साथ कुछ वर्षों तक पत्रकारिता भी. अंग्रेज़ी, जर्मन, स्पेनिश और नेपाली में कविताएँ अनूदित. बंगला, मराठी, पंजाबी, गुजराती, मैथिल में भी अनेक रचनाएँ अनूदित-प्रकाशित.कई विश्वविद्यालयों में कात्यायनी की कविताओं पर करीब दो दर्जन शोध प्रबंध.
किताबें :
चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, राख-अँधेरे की बारिश में, फुटपाथ पर कुर्सी (कविता संकलन)
दुर्ग द्वार पर दस्तक, षड्यन्त्ररत मृतात्माओं के बीच, कुछ जीवन्त कुछ ज्वलन्त, प्रेम, परम्परा और विद्रोह (स्त्री-प्रश्न, समाज, संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित निबन्धों के संकलन). आदि