श्रीधरम
हिंदी आलोचना की शुरुआत भारतेंदु युग से हुई और वह छायावाद तक आते-आते प्रौढ़ हो गई. आधुनिक काल में \’छायावाद\’ को सबसे अधिक \’आलोचना\’ जगत का विरोध झेलना पड़ा. इसीलिए इस वाद पर सर्वाधिक चर्चा हुई फिर भी छायावाद के चार स्तंभों में प्रसाद, पंत, निराला के मुकाबले महादेवी पर बहुत कम लिखा गया. कुछ आलोचकों ने तो महादेवी की कविता का जमकर मजाक उड़ाया. सबसे महत्तवपूर्ण यह है कि हिंदी की मर्दवादी आलोचना, महादेवी की स्त्री-संवेदना को समझने में विफल रही? और इसीलिए वह उनकी कविताओं पर बिफरती रही. इस संदर्भ में भी महादेवी के साहित्य पर विचार किया जाना आवश्यक है. जब एक स्त्री अपने लिए साहित्य में पुरुषों से ‘विस्तृत नभ का एक कोना’ मांगती है तो उसे पुरुषवादी हिन्दी आलोचना से किस तरह की गलीज़ प्रतिक्रिया मिलती है वह यहाँ देखा जा सकता है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद का जिन कारणों से विरोध किया वह \’रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तुविन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना\’ है. आचार्य शुक्ल छायावाद पर यूरोपीय और रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रमाद घोषित करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि :
\’\’\’छायावाद\’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए. एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहां उसका संबंध काव्यवस्तु से होता है अर्थात् जहां कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है. रहस्यवाद के अंतर्भूत रचनाएं पहुंचे हुए पुराने संतों या साधकों की उसी वाणी के अनुकरण पर होती हैं जो तुरीयावस्था या समाधिदशा में नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देती हुई मानी जाती थी. इस रूपात्मक आभास को यूरोप में \’छाया\’ (फैंटसमाटा) कहते थे. इसी से बंगाल में ब्रह्मसमाज के बीच उक्त वाणी के अनुकरण पर जो आध्यात्मिक गीत या भजन बनते थे वे \’छायावाद\’ कहलाने लगे. धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहां के साहित्यक्षेत्र में आया और फिर रवींद्र बाबू की धूम मचने पर हिंदी के साहित्य क्षेत्र से भी प्रकट हुआ.
\’छायावाद\’ शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धतिविशेष के व्यापक अर्थ में है. सन् 1885 में फ्रांस में रहस्यवादी कवियों का एक दल खड़ा हुआ जो प्रतीकवाद (सिंबालिस्ट्स) कहलाया. वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुतों के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीकों को लेकर चलते थे. इसी से उनकी शैली की ओर लक्ष्य करके \’प्रतीकवाद\’ शब्द का व्यवहार होने लगा. आध्यात्मिक या ईश्वरप्रेम संबंधी कविताओं के अतिरिक्त और सब प्रकार की कविताओं के लिए भी प्रतीक शैली की ओर वहां प्रवृत्ति रही. हिंदी में \’छायावाद\’ शब्द का जो व्यापक अर्थ में – रहस्यावादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में भी – ग्रहण हुआ वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में. छायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन. इस शैली के भीतर किसी वस्तु या विषय का वर्णन किया जा सकता है.\’\’ (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 456)
वे आगे लिखते हैं, \’छायावाद\’ का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिंदी काव्यक्षेत्र में चलने वाली श्री महादेवी वर्मा ही हैं. पंत, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए.’
स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल ने महादेवी की कविता को अन्य छायावादी कवियों प्रसाद, पंत, निराला, से अलग \’नाना रूपकों के रूप में उपलब्ध आध्यात्मिक ज्ञान का आभास देने वाली\’ रहस्यवाद के अंतर्गत रखा जिसे यूरोप में \’छाया\’ (फैंटसमाटा) कहा जाता है.
आचार्य शुक्ल यूरोप-बंगाल, वेद-उपनिषद हर जगह भ्रमण कर आए, लेकिन भारतीय समाज के हाशिए पर बैठी स्त्री-जीवन की विद्रूपता की ओर वह नहीं झांक सके. \’नीर भरी दुख की बदली\’ में भारतीय स्त्री के आंसू कितने घनीभूत हैं, यह उनकी पारखी नजर से ओझल रह गया. यही कारण है कि महादेवी वर्मा की कविता को \’रहस्यवाद\’ के घेरे में बांधकर उन्होंने आगे के आलोचकों के लिए भी एक प्रकार से दरवाजा बंद कर दिया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद को \’कलावाद\’ की कलाकारी साबित करते हुए लिखा है –
\’\’छायावाद की कविता की पहली दौड़ तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले और कोमल मार्ग पर हुई. पर उन कविताओं की बहुत कुछ गतिविधि अंग्रेजी वाक्यखंडों के अनुवाद द्वारा संघटित देख, अंग्रेजी काव्यों से परिचित हिंदी कवि सीधे अंग्रेजी से तरह-तरह के लाक्षणिक प्रयोग लेकर उनके ज्यों के त्यों अनुवाद जगह-जगह अपनी रचनाओं में जड़ने लगे. \’कनक प्रभात\’, \’विचारों में बच्चों की सांस\’, \’स्वर्ण समय\’, \’प्रथम मधुबाल\’, \’तारिकाओं की तान\’, \’स्वप्निल कांति\’ ऐसे प्रयोग अजायबघर के जानवरों की तरह उनकी रचनाओं के भीतर इधर-उधर मिलने लगे. निरालाजी की शैली कुछ अलग रही. उसमें लाक्षणिक वैचित्र्य का उतना आग्रह नहीं पाया जाता जितना पदावली की तड़क-भड़क और पूरे वाक्य के वैलक्षण्य का. केवल भाषा के प्रयोग वैचित्र्य तक ही बात न रही. ऊपर जिन अनेक यूरोपीय वादों और प्रवादों का उल्लेख हुआ है उन सबका प्रभाव भी छायावाद कही जाने वाली कविताओं के स्वरूप पर कुछ न कुछ पड़ता रहा.\’\’
\’\’कलावाद और अभिव्यंजनावाद का पहला प्रभाव यह दिखाई पड़ा कि काव्य में भावानुभूति के स्थान पर कल्पना का विधान ही प्रधान समझा जाने लगा और कल्पना अधिकतर अप्रस्तुतों की योजना करने तथा लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और विचित्रता लाने में ही वृत्त हुई. प्रकृति के नाना रूपों और व्यापार इसी प्रस्तुत योजना के काम में लाए गए. सीधे उनके मर्म की ओर हृदय प्रवृत्त न दिखाई पड़ा. पंत जी अलबत प्रकृति के कमनीय रूपों की ओर कुछ रूककर हृदय रमाते पाए गए.\’\’ (वही, पृ. 446)
आचार्य शुक्ल ने छायावाद को खारिज करने के लिए विस्तार से उस पर विचार किया है. इस क्रम में सबसे ज्यादा उन्होंने \’पंत\’ की तारीफ की है. निराला और प्रसाद की भी यथा स्थान चर्चा की है लेकिन छायावाद के संदर्भ में महादेवी को चर्चा के लायक उन्होंने समझा ही नहीं! जैसे \’रहस्यवाद\’ का विशेषण प्राप्त करते ही महादेवी की कविता सिर्फ \’भजनानंदियों\’ के लिए रह गई हो.
अपने \’हिंदी साहित्य का इतिहास\’ में आचार्य शुक्ल ने सुमित्रानंदन \’पंत\’ पर विचार करते हुए लगभग चौदह पृष्ठ खर्च किए थे. \’प्रसाद\’ पर ग्यारह, \’निराला\’ पर साढ़े तीन और महादेवी पर सिर्फ आधा पृष्ठ. क्या सच में महादेवी सिर्फ आधे पन्ने में सिमटने लायक कवयित्री हैं या आचार्य शुक्ल के समय थीं? वैसे निराला के साथ भी शुक्ल जी ने न्याय नहीं किया है. एक महान आलोचक भी अपने पूर्वग्रह (वैयक्तिक, सामाजिक, सांस्कृतिक) के कारण अपने विचारों में किस प्रकार प्रतिगामी हो सकता है, उपरोक्त आंकड़े इसके प्रमाण हैं. ध्यातव्य है कि इस समय तक महादेवी के संग्रह – नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्यगीत प्रकाशित हो चुके थे.
महादेवी वर्मा की कविताओं पर विचार करते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा है,
\’\’छायावादी कहे जाने वाले कवियों में महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं. उस अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही इनके हृदय का भावकेंद्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएं छूट-छूट कर झलक मारती हैं.\’\’ (वही, पृ. 489) यह \’कहे जाने वाले कवियों\’ और \’छूट-छूट कर झलक मारती हैं.\’ में निहित व्यंग्य को समझा जा सकता है. महादेवी के काव्य में निहित वेदना पर आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि \’\’वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है, उसी के साथ वे रहना चाहती हैं. उसके आगे मिलनसुख को भी वे कुछ नहीं गिनतीं. वे कहती हैं कि \’मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूं.\’ इस वेदना को लेकर इन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियां सामने रखी हैं जो लोकोत्तर हैं. कहां तक वे वास्तविक अनुभूतियां हैं और कहां तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना है, यह नहीं कहा जा सकता.\’\’ (वही, पृ. 490)
आचार्य शुक्ल जी की उपरोक्त पंक्तियों में अभिव्यक्त व्यंग्य – \’\’उसी के साथ रहना चाहती हैं. मिलन सुख को भी वे कुछ नहीं गिनतीं.’महादेवी की काव्य संवेदना की प्रशंसा है या निंदा यह सहज ही समझा जा सकता है. आगे वे महादेवी की कविता में अभिव्यक्त \’पीड़ा\’ के साथ \’चसका\’ शब्द का प्रयोग करते हैं जो उनकी पुरुषवादी आलोचकीय मानसिकता की \’सीमा\’ को दर्शाता है –
\’\’पीड़ा का चसका इतना है कि –
तुमको पीड़ा में ढूंढ़ा.
तुमको ढूंढ़ेगी पीड़ा\’\’ (वही, पृ. 490)
हजारों साल से शोषित-उत्पीडि़त भारतीय स्त्रियों की \’पीड़ा\’ जब अभिव्यक्ति का रूप ग्रहण करती है तो उसे आचार्य शुक्ल \’चसका\’ की संज्ञा देते हैं. स्पष्ट है कि महादेवी की स्त्री-संवेदना को समझने में आचार्य शुक्ल से भारी चूक हो गई. वैसे महादेवी के गीत की उन्होंने प्रशंसा की है, \’\’गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवी जी को हुई वैसी और किसी को नहीं. न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्रांजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगी. जगह-जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है.\’\’ इस प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने महादेवी की कविता को \’अध्यात्मिक रहस्यवाद\’ के घेरे में बांध दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि आगे के आलोचकों ने भी उनकी कविता से मुंह फेर लिया.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वैसे तो द्विवेदी जी आचार्य शुक्ल के विपरीत छायावाद की प्रशंसा करते हैं, लेकिन महादेवी की कविता के संदर्भ में उन्होंने भी शुक्ल जी से अलग हटकर विचार करने की कोशिश नहीं की. द्विवेदी जी छायावादी कविता का प्राणतत्तव मानवतावादी दृष्टिकोण को मानते हैं. उन्हीं के शब्दों में
\’\’मानवीय दृष्टि के कवि की कल्पना, अनुभूति और चिंतन के भीतर से निकली हुई, वैयक्तिक अनुभूतियों के आवेग की स्वत: समुचित अभिव्यक्ति – बिना किसी आयाम के और बिना किसी प्रयत्न के, स्वयं निकल पड़ा हुआ भावस्रोत – ही छायावादी कविता का प्राण है. सन् 1920 ई. में जो देशव्यापी चेतना की लहर देश के इस किनारे से उस किनारे तक फैल गई थी, उसने कवि और सहृदय दोनों को अधिक आत्मविश्वासी और अधिक भावग्राही बनाया. संयोग से इसी काल में अनेक प्राणवंत कवियों का आविर्भाव हुआ.\’\’ (हिंदी साहित्य : उदभव और विकास, पृ. 243)
द्विवेदी जी महादेवी की कविता को वैयक्तिक और रहस्यवादी की संज्ञा देते हैं लेकिन आचार्य शुक्ल से थोड़ा अलग हटकर वैयक्तिकता की व्याख्या करते हैं –
\’\’महादेवी की यह रहस्यवादी भावना संपूर्ण रूप से वैयक्तिक है. यह फिर भी स्पष्ट कर देना उचित है कि काव्य में \’वैयक्तिक\’ से तात्पर्य यह नहीं है कि कवि के व्यक्तिगत दुख-सुख का समाचार हमें मिलता है, बल्कि वैयक्तिकता का तात्पर्य यह है कि कवि ने जिन भावों को सर्वसाधारण भाव बना दिया है, वे शुरू-शुरू में उसके अपने राग-विरागों और मनन-निदिध्यासन द्वारा अनुरंजित चित्त में उत्थित हुए थे. काव्य में प्रकट होने के बाद के कवि के नहीं, सहृदय मात्र के अपने भाव बन जाते हैं. व्यक्तिगत अनुभूतियों की तीव्रता और मर्मस्पर्शिता में महादेवी की रचनाएं अपूर्व हैं. वे पाठक के चित्त में वेदना की अनुभूति भरती हैं और खोई हुई वस्तु के मिल जाने की आशा से उत्पन्न होने वाले उल्लास का वातावरण उत्पन्न करती हैं.” (वही, पृ. 242)
देखा जाए तो हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि से भी महादेवी की वैयक्तिकता में भारतीय स्त्री जीवन की निजता और त्रासद यथार्थ अलक्ष्य रह गया. यही कारण है कि प्रसाद के रूपक-बंध से महादेवी के रूपक की तुलना करते समय भी उन्होंने स्त्री-जीवन को ध्यान में नहीं रखा.
\’\’लाक्षणिक वक्रता और मनोवृत्तियों की मूर्त योजना में ये प्रसाद के समान ही हैं, फिर भी प्रसाद की वक्रता में जितनी स्पष्टता है उतनी भी इनकी आरंभिक रचनाओं में नहीं है. दोनों के मानसिक गठन और वक्तव्य के प्रति पहुंच में भेद है. प्रसाद जी आरंभ से ही कुछ बुद्धि-वृत्तिक हैं, वे रूपक को दूर तक घसीट और संभालकर ले जाने की क्षमता रखते हैं. महादेवी शुरू से ही अत्यंत संवेदनशील हैं, उनमें अनुभूति की तीव्रता \’प्रसाद\’ से अधिक है. इसीलिए वे \’प्रसाद\’ के समान लंबे रूपकों का निर्वाह नहीं कर पातीं. वे पूर्ण रूप से गीति काव्यात्मक प्रकृति की हैं.\’\’ (वही, पृ. 249)
स्पष्ट है कि महादेवी की संवेदनशीलता और अनुभूति की तीव्रता की प्रशंसा करते हुए भी द्विवेदी जी महादेवी की काव्यप्रतिभा को प्रसाद के मुकाबले कमतर आंकते हैं.
नंददुलारे वाजपेयी छायावाद के पक्ष में दृढतापूर्वक खड़े होने वाले आलोचक आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने प्रसाद, निराला और पंत को वृहत्त्रयी में रखते हुए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है. जो उचित भी है, लेकिन महादेवी वर्मा को उन्होंने इन वृहत्तायी से इतर रखकर काव्य-प्रतिभा में कमतर माना है. वाजपेयी जी का मानना है कि–
\’\’हिंदी में महादेवी जी का प्रवेश छायावाद के पूर्ण ऐश्वर्य काल में हुआ था, किंतु आरंभ से ही उनकी रचनाएं छायावाद की मुख्य विशेषताओं से प्राय: एकदम रिक्त थीं.\’ इस क्रम में वाजपेयी जी छायावाद की एक परिभाषा तय करते हैं, \’\’मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है.\’\’
दरअसल महादेवी की कविता किसी पूर्व निर्धारित प्रतिमानों के खांचे में फिट नहीं बैठती. यही कारण है कि उनकी कविता को आलोचकों ने वैयक्तिता, रहस्यवाद, कलाविहीन आदि कमजोरियों को गिनाकर अपनी दृष्टि की कमजोरी को छुपाने का प्रयास किया या फिर दूसरे छायावादी कवियों को सामने खड़ा कर अच्छा-बुरा की शैली में महादेवी की कविता का विवेचन करने का प्रयास किया गया. वाजपेयी जी लिखते हैं,
\’\’प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति \’पल्लव\’ वाले पंत जी का-सा विमोहक आकर्षण उनमें नहीं, इसके बदले वे प्रकृति के एक-एक रूप या उसकी एक-एक वृत्ति को साकार व्यक्तित्व देकर उनके व्यापारों की कल्पना करती हैं, जिनकी समृद्धि कल्पनाशीलता प्रकट हुई है. …किंतु वे कल्पनाएं सब जगह सीधी और चोट करने वाली नहीं, उनका प्रत्यक्ष रूप सहज आंखों के सामने नहीं आता.\’\’ वाजपेयी जी \’कल्पना-बाहुल्य\’ को छायावाद की विशेषता बताते हुए \’पंत\’ के समक्ष महादेवी के प्रतीकों को \’कल्पित-व्यापार\’ कहते हैं, जिसे वे \’सौंदर्य-संस्कारों के प्रतिकूल\’ मानते हैं. वाजपेयी जी महादेवी पर काल्पनिकता का आरोप लगाने वाले आलोचकों को उत्तर देते हुए लिखते हैं कि \’\’महादेवी के काव्य का आधार उसी अर्थ में काल्पनिक कहा जा सकता है, जिस अर्थ में कबीर और मीरा का काव्याधार काल्पनिक है; जिस अर्थ में \’गीतांजलि\’ और \’आंसू\’ काल्पनिक हैं.\’\’
महादेवी वर्मा की कविता का मूल्यांकन करते हुए अंतत: नंददुलारे वाजपेयी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि \’\’स्त्रियोचित सात्विकता ही महादेवी के काव्य की सार्वत्रिक विशेषता है. इससे उनके काव्य को एक सुंदर कांति मिली है, यद्यपि कहीं-कहीं अति सरलता, सौंदर्य-स्पर्श से वंचित भी रह गई है. …महादेवी जी की वेदना पहले व्यक्तिगत भावुकता अथवा दृढ़ भक्तिभावना के रूप में रही है जो क्रमश: निखरती गई है.\’\’ (नंददुलारे रचनावली-2, पृ. 428) फिर भी वाजपेयी मीरा और महादेवी की कविता में कोई स्त्रियोचित पीड़ा का साम्य नहीं ढूंढ पाते.
वे सिर्फ कलावादी दृष्टि से दोनों की कविता की तुलना करते हैं, \’\’विशुद्ध काव्यदृष्टि से महादेवी मीरा की ऊंचाई पर कम ही पहुंचती हैं. काव्यकला से सज्जित होने पर भी उनकी कविता में तीव्र नैसर्गिक उन्मेष नहीं, साथ ही, उनमें एकांगिकता भी है. उक्त भावना-शिशु के लिए मुक्त आकाश में पक्षी की भांति उड़कर चराचर जगत की जो सौंदर्य-सामग्री, जो सहज आस्वाद फल, कविगण प्रस्तुत किया करते हैं, महादेवी जी में उसकी कमी है. भावना-शिशु का प्यार उन्हें अपना नीड़ छोड़ने नहीं देता.\’\’
\’स्त्रियोचित सात्विकता\’ और \’नैसर्गिकता\’ की दृष्टि से महादेवी वर्मा की कविता को परखने के प्रयास के कारण यहां वाजपेयी जी अपने ही तर्कजाल में उलझते नजर आते हैं. असल में महादेवी वर्मा की अंतर्मुखता में व्याप्त भारतीय स्त्री जीवन के त्रासद सामाजिक-यथार्थ को समझने में तत्कालीन सभी आलोचक की तरह नन्ददुलारे वाजपेयी भी असफल रहे.
डॉ. नगेंद्र को छायावाद का सहृदय आलोचक कहा गया है. लेकिन उन्होंने फ्रायडवादी काम सिद्धांत को महादेवी की कविता का प्ररेणास्रोत मानकर दूर की कौड़ी खोजने की कोशिश की. डॉ. नगेंद्र के शब्दों में, \’\’छायावाद की अंतर्मुखी अनुभूति, अशरीरी प्रेम, जो बाह्य तृप्ति न पाकर अमांसल की सृष्टि करता है, मानव और प्रकृति के चेतन संस्पर्श रहस्य चिंतन (अनुभूति नहीं) तितली के पंखों और फूलों को पंखुरियों से चुराई हुई कला, और इन सबके ऊपर स्वप्न-सा पुरा हुआ एक वायवीय वातावरण सभी तत्व जिनमें घुले-मिले रहते हैं.\’\’ (विचार और अनुभूति, पृ. 130) यहाँ डॉ. नगेंद्र ने महादेवी की रहस्यभावना को अतृप्त काम-भावना से जोड़कर महादेवी की कविता को संदर्भ से काटकर देखने का प्रयास किया है.
‘छायावाद का पतन’ लिखकर चर्चा अर्जित करने वाले आलोचक डॉ. देवराज का पुरुषवादी पूर्वाग्रह उनकी टिप्पणी से झलकता है, \’\’महादेवी ने अपनी कविता में कहीं भी युग-जीवन अथवा स्वयं जीवन के संबंध में विचार करने की चेष्टा नहीं की है, उनके आलोचक के लिए यह बड़े संतोष की बात है.\’\’ (साहित्य चिंता, पृ. 202) दरअसल महादेवी की कविता में अभिव्यक्त विरह-वेदना तक पहुंचने के लिए जिस स्त्री-संवेदना की जरूरत थी, वह पुरुषवादी आलोचना के वश की नहीं थी. अज्ञेय ने ठीक ही लिखा है कि \’\’उन्हें तो वैयक्तिक अनुभूतियों को अभिव्यक्ति भी देनी थी. और सामाजिक शिष्टाचार तथा रूढ़ बंधनों की मर्यादा भी निभानी थी. यही भाव उन्हें प्रतीकों का आश्रय लेने को बाध्य करता है.\’\’
अमृत राय ने महादेवी की काव्य-संवेदना को \’मैं नीर भरी दुख की बदली.\’ के संदर्भ में परखने की सलाह देते हुए लिखा है कि \’\’महादेवी ने स्वयं अपनी कविता का सबसे अच्छा परिचय दिया है, \’मैं नीर भरी दुख की बदली, उनकी इसी पंक्ति को मन में रखे हुए आप उनके संपूर्ण काव्य का अवलोकन कर डालिए.\’\’(नया साहित्य, भाग-4) स्पष्ट है कि अमृतराय ने भी महादेवी की कविता को वैयक्तिक रूप में लिया है न कि सामाजिक यथार्थ के रूप में.
डॉ. रामविलास शर्मा ने महादेवी की कविता पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है. वे दूसरे आलोचकों की तरह \’रहस्यवाद\’ के शिकार नहीं हुए. उनकी दृष्टि में \’\’महादेवी वर्मा अपने गीतों में देवी के रूप में नहीं, एक मानवी के रूप में दर्शन देती हैं. वे अपने भावव्यंजनों में इस धरती पर काम करने वाली मनुष्य नामक प्राणी ही नहीं है वरन् उसका एक भेद नारी भी हैं. उनका नारीत्व सामाजिक सीमाओं के अंदर विकास के लिए पंख फड़फड़ाता है. उनकी यह व्याकुलता अनेक सांकेतिक रूपों में उनकी कविता में प्रकट होती है\’\’, नि:संदेह रामविलास शर्मा ने पहली बार महादेवी की कविता को स्त्री के सामाजिक यथार्थ से जोड़ने का प्रयास किया. वह स्पष्ट रूप से रेखांकित करते हैं कि निराला के अलावा और किसी कवि में इतनी जिजीविषा नहीं है.
\’\’महादेवी जी और उनकी कविता का परिचय केवल \’नीर भरी दुख की बदली\’ या \’एकाकिनी बरसात\’ कहकर नहीं दिया जा सकता. उन्हीं के शब्दों में उनका परिचय देना हो तो मैं यह पंक्ति उद्धृत करूंगा, \’रात के उर में दिवस की चाह का शर हूं.\’ निराला को छोड़कर किसी भी छायावादी कवि में जीवन की इतनी चाह नहीं है, जितनी महादेवी में. निराशावाद की अंधेरी रात में जीवन प्रभात की यह चाह महादेवी की रचनाओं में बार-बार दीप्त हो उठती है. और जितना ही यह अंधेरा घना होता है – उतनी ही यह चाह और भी तीव्र हो जाती है. महादेवी ने अलंकृत शब्दावली और मनोहर रूपकों में जीवन और सौंदर्य की इस आकांक्षा को बार-बार व्यक्त किया है, \’कंटकों को सेज जिसकी आंसुओं का ताज. सुभग! हंस उठ, उस प्रफुल्ल गुलाब ही सा आज. बीती रजनी प्यारे जाग.\’ क्या जीवन से विमुख कोई भी व्यक्ति ऐसी सुंदर पंक्तियां लिख सकता है? क्या स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहने से उस ठोस जीवन आकांक्षा, मानवीय प्रेम, मानवीय सौंदर्य की आकांक्षा की व्याख्या हो जाती है – जो इन पंक्तियों में व्यक्त हुई है?\’\’ (परंपरा का मूल्यांकन, पृ. 182)
विजयदेव नारायण साही ने महादेवी की कविता को दूसरे दशक की छायावादी मनोभूमि से भिन्न मानते हुए लिखा है कि
\’\’रहस्यवादी शब्दावली उसमें जितनी भी हो. न केवल कविता के प्रधान फार्म में, बल्कि अनुभूति की बनावट में भी महादेवी की कविता क्रमश: बच्चन आदि में परिवर्तित होते हुए उदाहृत करती है. इसीलिए जब निराला की डाल खिलना चाहती है तो उसमें एक संकल्प का स्वर है और महादेवी के जितने फूल हैं – वे एक तरल और मधुर मार्दव के साथ सहज ही खिलते हैं, झरते हैं.\’\’ (छठवां दशक, पृ. 303)
डॉ. नामवर सिंह ने महादेवी की कविता में अभिव्यक्त सामाजिक असंतोष को रेखांकित करते हुए लिखा है,
\’\’निजी आंसुओं के \’नीहार\’ में बंदिनी रहने वाली महादेवी ने \’रश्मि\’ के आलोक में जीवन की व्याप्ति का दर्शन किया और प्रखर ताप को झेलते हुए सांध्य क्षणों तक जाते-जाते समान व्यापी दुख की अनुभूति करने लगी. उनकी \’नीर भरी दुख की बदली\’ का दुख केवल प्रणय व्यथा ही नहीं है, उसमें अनेक प्रकार के सामाजिक असंतोष घुले-मिले हैं.\’\’
प्रकृति के आलंबन के संदर्भ में प्रसाद से तुलना करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है कि \’\’कुछ कवियों ने \’विश्व सुंदरी प्रकृति पर चेतना का आरोप\’ करके उसे विश्वप्रिया शक्ति का रूप दे दिया और कुछ ने \’प्रकृति की अनेकरूपता में, परिवर्तनशील विभिन्नता में तारतम्य खोजने\’ के फलस्वरूप उसके \’कारण पर मधुरतम व्यक्तित्व का आरोपण\’ करके अपना प्रिया बना लिया. पहली प्रवृत्ति प्रसाद की है और दूसरी महादेवी की. (छायावाद, पृ. 41) नामवर सिंह अगर ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ के आलोक में महादेवी की कविता पर विचार करते तो पाठक को व्यापक परिप्रेक्ष्य मिल पता.
रामस्वरूप चतुर्वेदी की दृष्टि में महादेवी वर्मा की कविता एकांगी है, जिसकी कमी उनका गद्य पूरा करता है, \’\’गीतों में भावात्मक सघनता और शिल्पगत कसाव एक-दूसरे को तीव्र बनाते हैं, जबकि उनमें रेखाचित्र और संस्करण उनके सामाजिक कार्यक्रमों तथा व्यावहारिक जीवन की विषमताओं में से विकसित होकर एक गहरी करुणा की सृष्टि करते हैं. पर महादेवी के साहित्य में कहीं निष्क्रिय दया नहीं, वरन रचनात्मक करुणा का ही भाव वर्तमान है.\’\’ (हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 133)
डॉ. मैनेजर पांडेय महादेवी के गद्य और पद्य को एक साथ रखकर उनकी मूल संवेदना को रेखांकित करते हैं. उनका मानना है कि,
\’\’महादेवी वर्मा भारतीय स्त्री के जीवन के अनुभवों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने वाली कलाकार हैं, उसके जागरण का अभियान चलाने वाली कार्यकर्ता और उसकी पराधीनता के जटिल रूपों का विश्लेषण तथा स्वाधीनता की संभावनाओं की तलाश करने वाली दार्शनिक भी हैं. उनके गीतों, चित्रों और रेखाचित्रों में उनका कलाकार रूप मिलता है तो उनकी शिक्षा, संस्कृति और साहित्यिक पत्रकारिता संबंधी गतिविधियों में उनका कार्यकर्ता रूप. \’श्रंखला की कडि़यां\’ के माध्यम से वे एक स्त्रीवादी दार्शनिक के रूप में हमारे समाने आती हैं.\’\’(मैनेजर पांडेय : संकलित निबंध, पृ. 228)
महादेवी वर्मा के साहित्य पर हिंदी के अधिकांश आलोचकों ने जिस प्रकार पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर विचार किया है उसे समझने के लिए मैनेजर पांडेय के इस कथन का सहारा लिया जा सकता है जो असल में महादेवी के आलोचकों के यथार्थ को सामने लाता है :
\’\’महादेवी वर्मा की कविता के साथ आरंभ से ही एक प्रकार के आलोचनात्मक पूर्वग्रह की स्थिति दिखाई देती है. यह ठीक है कि उनकी कविता में दुख है, वेदना है, निराशा है, आंसू हैं, अंतर्मुखता है और अभिव्यक्ति शैली के परोक्ष की प्रधानता भी है, पर साथ ही वहां असंतोष है, आक्रोश है और संघर्ष की चेतना भी. आलोचकों ने उनके आंसुओं पर ध्यान दिया है, लेकिन उनके आक्रोश पर नहीं. प्राय: आलोचकों ने यह भी देखने-समझने की कोशिश नहीं की है कि महादेवी वर्मा की कविता में जो दुख, वेदना, निराशा और अंतर्मुखता है, वह सब उनके समय की और आज की भी भारतीय स्त्री के जीवन की वास्तविकताएं हैं और संभावनाएं भी. कुछ आलोचकों ने अपनी प्रतिभा का कमाल दिखाते हुए महादेवी वर्मा की कविता में दुख के अनुभव की अभिव्यक्ति को दुखवाद बना दिया है तो कुछ दूसरों ने उन्हें \’एकाकिनी बरसात\’ या \’नीर भरी दुख की बदली\’ घोषित कर दिया है. ऐसी घोषणाएं कविता को अखबार की तरह पढ़ने का परिणाम हैं. जो आलोचक कविता को इतिहास के संदर्भ और सामाजिक जीवन के अनुभवों से स्वतंत्र मानते हैं, वे महादेवी की कविता में तरह-तरह के रहस्यवाद खोजते हैं. इस प्रक्रिया में कविता और कवि दोनों का मिथकीकरण हुआ है, कविता अध्यात्म-साधन की अभिव्यक्ति बन गई है और महादेवी वर्मा मीरा बना दी गई हैं; वह भी अपनी स्वाधीनता के लिए राणाशाही के आतंक, सामंती समाज की रूढि़यों और कुलकानि के बंधनों के विरुद्ध विद्रोह करने वाली मीरा नहीं, निरीह भाव से भगवान का भजन करने वाली मीरा.\’\’ (वही, पृ. 225)
इस प्रकार देखा जा सकता है कि महादेवी वर्मा के साहित्य पर विचार करने वाले आलोचकों में कुछ अपवाद को छोड़कर अधिकांशत: उनकी कविता को पुरुषवादी नजरिए से देखने का प्रयास किया है. इन आलोचकों ने उनकी कविता को उनके गद्य से विलगाकर परखने का प्रयास किया जिसके कारण या तो वे अपने अंतर्विरोधों का शिकार हुए या फिर फतवेवाजी पर उतर आए. डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल ने ठीक ही लिखा है कि \’\’हिंदी-आलोचना का कैसा दुर्भाग्य रहा है कि ज्यादातर मर्दवादी आलोचक महादेवी के काव्य-कर्म को पलायनवादी, वेदनावादी कहकर \’मति अति रंक\’ का परिचय बनते रहे. प्रश्न उठता है कि क्या यह सृजन लोक-विरोधी समाज-विरोधी है? इसमें \’शिवेतरक्षतये\’ की मंगल-ध्वनि नहीं है? गद्य में महादेवी की करुणा का विस्तार और पद्य में महादेवी का सुख-दुख भाव – क्या एक-दूसरे का विरोधी है? यदि विरोधी न होकर पूरक है तो महादेवी को अखंडता में देखिए. अखंडता में देखने पर आप महादेवी के रचना-कर्म की अंतर्वस्तु को पलायनवादी नहीं पाएंगे.\’\’ (नवजागरण और महादेवी वर्मा का रचनाकर्म : स्त्री विमर्श के स्वर, पृ. 337)
स्पष्ट है कि आलोचकों का एक वर्ग सामने आ गया है जो आधुनिक दृष्टि से संपृक्त है और स्त्री-स्वाधीनता के प्रश्नों को केंद्र में रखकर महादेवी की कविता से नए अर्थ-छवियों को निकाल रहा है. इसे स्त्रीवादी लेखन के दवाब में भी देखा जा सकता है. सही अर्थों में महादेवी की रचनाओं के मूल्यांकन की ये शुरुआत भर है.
विभिन्न लेखिकाओं ने महादेवी वर्मा के साहित्य पर विचार किया है. चंद्रा सदायत के संपादन में उपरोक्त शीर्षक से नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया से एक किताब प्रकाशित हुई है जिसमें 18 महिला रचनाकारों के लेख, संस्मरण और आलोचना को संकलित किया गया है जिसे नजरअंदाज करके महादेवी वर्मा का मूल्यांकन करना असंभव है. निस्संदेह इन लेखिकाओं ने स्त्री होने के नाते महादेवी वर्मा के साहित्य की मूल संवेदना, संघर्ष, विद्रोह और यथार्थ को समग्रता में रेखांकित करने का प्रयास किया है.
शचीरानी गुर्टू के अनुसार
\’\’महादेवी के काव्य में एक स्वप्निल मानसिक वातावरण और व्यथा का सम्मोहन है. प्रणयोन्माद और अंत:सौंदर्य की अभिव्यक्ति में उनके भाव जितने ही अंतरगूढ़ होते हैं, उनकी भावाभिव्यंजना की कला भी उतनी ही सघन और दार्शनिक रहस्यात्मकता से आच्छन्न होती है. कौतुहल के बाद जिज्ञासा आई, फिर रंजित कल्पना और अंतत: कोमलतम सूक्ष्म सौंदर्य-भावना. उनके अंतरतम में सहेजे उदात्त सपने धुंधली-सी, मीठी-मीठी, मादक उदासी में भरकर कविता में उभरे. माधुर्य की गूढ़ अनुभूति में सौंदर्य का उनका आकर्षण उत्तरोत्तर अंतर्मुखी होता गया और वास्तविक अनुभूतियों के गूढ़तम स्तरों में छिपी आंतरिक उथल-पुथल को उन्होंने विविध रंगों, ध्वनियों और असाधारण लयमयता में झंकृत किया.\’\’ (पृ. 40)
निर्मला जैन ने महादेवी वर्मा रचनावली का संपादन किया है. वह महादेवी के संदर्भ में लिखती हैं कि
\’\’उनके आरंभिक गीतों में भावना का जो सहज उच्छवास, हार्दिकता और मार्मिकता मिलती है, वह समय के साथ क्षीण होती गई. \’नीहार\’ से \’दीपशिखा\’ तक पहुंचते आवेग की ऊष्मा का क्रमश: क्षरण होने के कारण उनकी गीत-सृष्टि विषयी-निरपेक्ष, चिंतन प्रधान और आध्यात्मिक संस्पर्शों से युक्त हो जाती है.\’\’ (पृ. 50)
अनामिका के शब्दों में महादेवी ने पुरुष की छायावाली रूढ़ जीवन को तोड़ने का प्रयास किया. सुधा सिंहका मानना है कि
\’\’महादेवी की कविता में से स्त्री को निकालकर किसी भी किस्म का विमर्श तैयार नहीं किया जा सकता. स्त्री को विश्व के समस्त कार्य-व्यापार में आधार बनाने का प्रधान कारण यह है कि स्त्री समस्त संस्कृति की सर्जक है. वह सिर्फ एक लिंग मात्र ही नहीं है. वह संसार को चलाने वाली गाड़ी के दो पहियों में से एक पहिया नहीं है. मानव सभ्यता के विकास की सभी संस्कृतियों में स्त्री सक्रिय रही है.\’\’
चंद्रकला त्रिपाठी महादेवी वर्मा को साहसिक सचेतन दृष्टि संपन्न लेखिका मानती हैं. और रोहिणी अग्रवाल महादेवी वर्मा की रचना \’श्रंखला की कडि़यां\’ को पुरुषवादी तंत्र के भीतर धंस कर स्त्री-स्वतंत्रता की फरियाद करने वाली रचना बताती हैं.
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि 20वीं शताब्दी में बहुत कम आलोचकों ने ही महादेवी वर्मा के साहित्य को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास किया. वर्तमान शताब्दी में उनके साहित्य को परखने की शुरुआत हो चुकी है. निस्संदेह वह भारतीय स्त्री की मुक्ति की आकांक्षा का प्रमुख स्वर बनकर हिंदी साहित्य में एक अलग आंदोलन की शुरुआत करती हैं.
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विशेष सन्दर्भ
1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी.
2. नामवर सिंह, छायावाद, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली.
3. विजयबहादुर सिंह (संपादक) नंददुलारे वाजपेयी रचनावली, खंड-2, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.लि.), दिल्ली.
4. मैनेजर पांडेय, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली.
5. कृष्णदत्त पालीवाल, \’नवजागरण और महादेवी वर्मा की रचनाकर्म स्त्री-विमर्श के स्वर.\’ किताबघर प्रकाशन, दिल्ली.
6. रामविलास शर्मा, परंपरा का मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन.
7. गंगा प्रसाद पांडेय, महीयसी महादेवी
8. जगदीश गुप्त, महादेवी, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली.
9. आजकल, मार्च 2007
10. गगनांचल (महादेवी स्मृति अंक)
11. प्रतिभा इंडिया, महादेवी \’स्मृति अंक\’ (अंग्रेजी)
12. चंद्रा सदयत (सं.), लेखिकाओं की दृष्टि में महादेवी वर्मा, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली.
विषय से संबंधित नेट पर सामग्री
1. www.wikipedia.org
2. www.kavatakash.org
3. www.pravasidunia.com
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श्रीधरम
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